राहबाज - 12 Pritpal Kaur द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • द्वारावती - 73

    73नदी के प्रवाह में बहता हुआ उत्सव किसी अज्ञात स्थल पर पहुँच...

  • जंगल - भाग 10

    बात खत्म नहीं हुई थी। कौन कहता है, ज़िन्दगी कितने नुकिले सिरे...

  • My Devil Hubby Rebirth Love - 53

    अब आगे रूही ने रूद्र को शर्ट उतारते हुए देखा उसने अपनी नजर र...

  • बैरी पिया.... - 56

    अब तक : सीमा " पता नही मैम... । कई बार बेचारे को मारा पीटा भ...

  • साथिया - 127

    नेहा और आनंद के जाने  के बादसांझ तुरंत अपने कमरे में चली गई...

श्रेणी
शेयर करे

राहबाज - 12

रोजी की राह्गिरी

(12)

नयी ज़िंदगी

आजकल अक्सर मैं काम घर पर मंगवा लिया करती हूँ. लगा आज तीनों यानी असिस्टेंट मेनेजर, सीए. और नजफ़ आये होंगे. नजफ़ पैकिंग का काम देखता है. शुरू से ही हमारे साथ है. फैक्ट्री के पहले दिन से ही. बेहद इमानदार और वफादार इंसान. फ़ौज से रिटायर हो कर हमारे साथ ही जुट गया. अब तो दस साल से ऊपर हो चुके हैं.

बेटू को रेहाना की निगहबानी में छोड़ कर मैं बाहर लिविंग रूम में आयी तो वे तीनों खड़े हो गए. मैंने चाय के लिए पूछा तो एक स्वर में तीनों ने मना कर दिया. वे सीधे फैक्ट्री से ही आये थे, शाम के नाश्ते के बाद. मेरी जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही थी.

मैंने खुद बैठ कर उन्हें बैठने का इशारा किया. वे तीनों मेरे सामने के सोफे पर एक लाइन से बैठ गए. मैं समझ गयी थी कि ये लोग मुझसे कोई ख़ास बात करने आये हैं लेकिन झिझक के मारे कोई भी बोल नहीं पा रहा था. मैं समझ नहीं पा रही थी कि ऐसी कौनसी बात है जिसको कहने में ये तीन आदमी इस कदर घबरा रहे हैं.

मैं झुंझला उठी. ये जानते हैं मैं इस तरह का रवैया बिलकुल नापसंद करती हूँ. जो बात कहनी हो सीधे कहो और बात को ख़त्म करो. यूँ इस तरह बात को दबा कर उसका धुंआ बनाना मुझे बहुत नागवार गुजरता है.

मेरी यह बात कार्ल को भी बेहद पसंद है. खुद कार्ल के व्यक्तित्व में बेहद साफगोई है और शायद हमारे दाम्पत्य के आसानी से चलने में इस बात का बहुत बड़ा योगदान भी है. क्यूंकि कई बातें मेरी ऐसी हैं जो कार्ल को पसंद नहीं हैं और मुझे कार्ल की.

वैसे अब बेटू के आ जाने से हमारे बीच प्यार बहुत गरमा भी गया है और इसमें ठहराव भी आ गया है. कई बार एक तीखी सी कटी हुयी सी फांक की तरह मुझे ये बात याद आ जाती है कि बेटू कार्ल का नहीं है. लेकिन अगले ही पल मैं अपने अन्दर भरपूर ऊर्जा भर कर खुद को कहती हूँ,"बेटू सिर्फ मेरा बच्चा है और इसी नाते कार्ल का भी बेटा है."

और इस तरह अनुराग के महकते हुए आलिंगन को भूलने की कोशिश करती हूँ. लेकिन कभी-कभी जब मैं बेटू को स्तन पान करवा रही होती हूँ तो अक्सर अनुराग की मुस्कान मीठी सी टीस के साथ आँखों में कौंध जाती है. मैं फ़ौरन मुस्कुरा पड़ती हूँ और बेटू के नन्हे-नन्हे पैरों को अपने हाथों से सहलाने लगती हूँ.

कहते हैं स्तन पान करवाते वक़्त माँ को जो आनंद होता है वो सेक्स की तरह का होता है. मैं इस बात में ज्यादा दम नहीं पाती. सेक्स का आनंद तो इस आनंद के सामने कुछ भी नहीं. वो तो कुछ क्षणों के उन्माद के बाद कुछ ही पल में खत्म भी हो जाता है और कई बार अपने पीछे एक अजीब खालीपन भी छोड़ जाता है.

मगर स्तन पान के बाद जो मन भीगता है उसे बयान करना ज़रा मुश्किल काम है. ख़ास कर जब बच्चा दूध पीते-पीते गोद में सो चुका हो. ऐसे में उसे बिस्तर पर लेटाने में भी मुझे हिचक होती है. जी नहीं चाहता उसे खुद से अलग करने को.

मेरे मन में जो एकाध प्रतिशत कहीं छिपा हुआ संदेह था बेटू को पैदा करने को लेकर वो भी अब पूरी तरह खत्म हो चुका है. मैं बहुत खुश हूँ अपने इस फैसले से. हालाँकि अनुराग से किया हुआ वादा मैंने अभी तक पूरा नहीं किया है. उसे मैंने बेटू को अभी तक नहीं मिलाया है. एक बार फ़ोन किया था तो अनुराग का फ़ोन आउट ऑफ़ रीच था. मुझे लगा ये संकेत है कि अभी मुझे उससे संपर्क नहीं करना चाहिए. अभी शायद वो मुझसे मिले इस धोखे से बाहर नहीं निकल पाया है.

"मैडम?" तभी मैने नज़फ़ की आवाज़ सुनी. उसने अभी कुछ कहा था और मैं अपने में ही खोयी हुयी उस की बात सुन तो गयी थी लेकिन कुछ समझ नहीं पायी थी.

मैं चौंक गयी. "सॉरी, नज़फ़. आप फिर से कहिये. मैंने ठीक से सुना नहीं."

"मैडम. हम आपसे ये कहने आये हैं कि आप को फैक्ट्री पहले की तरह आना चाहिए. बेबी के लिए हमने एक कमरा ठीक कर दिया है. आप आ कर देखिये. आपके केबिन के साथ वाला कार्ल साहिब का केबिन. कार्ल साहिब मेरे ऑफिस में शिफ्ट हो गए हैं. मैं हरभजन के साथ शिफ्ट हो गया हूँ. सब इंतजाम हो गये हैं. आप कल सुबह से आइये. बेबी और आया के साथ. फैक्ट्री को आपकी बेहद ज़रुरत है."

मैं समझ तो रही थी कि मेरे फैक्ट्री कम जाने से कार्ल का भी फैक्ट्री से ध्यान उचट रहा था. मेरे रहने से वो भी दिन भर वहीं रहता था. और काम सलीके से हम दोनों के कण्ट्रोल में रहता था. अब बेटू के आने के बाद से हो रही ढिलाई के चलते कर्मचारी भी ढीले हो गए थे. इसी बात की चर्चा करने ये तीनों आज आये थे.

पिछले महीने ही एक पूरा का पूरा असाइनमेंट वापिस आ गया था. दस हज़ार कमीजों पर बटन गलत लग गए थे. छोटी सी गलती थी लेकिन क्लाइंट ने सारा कन्साइनमेंट वापिस भेज दिया था.

एक ही झटके में हम लाखों के नीचे आ गए थे. ज़ाहिर है ये स्थिति दोबारा होने का ख़तरा कोई भी उठाने को तैयार नहीं था.

मगर बेटू को लेकर किये गए इस इन्तजाम से मुझे कोई ख़ास उत्साह नहीं हुआ था. बच्चा घर में ही पलना चाहिए. लेकिन माँ की नज़र होना बहुत ज़रूरी है. आजकल तरह-तरह की बातें सुनने को मिलती हैं.

पिछले दिनों ही अखबार में एक खबर थी कि एक बेहद साफ़ सुथरे स्वस्थ सुन्दर बच्चे के साथ रेड लाइट पर भीख मांगती एक भिखारिन को देख कर किसी ने पुलिस को खबर दी तो पता लगा कि बच्चा किसी सभ्रांत घर का था और उसकी आया उसे किराये पर दे दिया करती थी भिखारियों को. मैं इस तरह का कोई भी खतरा मोल लेने को तैयार नहीं थी.

फिर भी मैंने इस बात पर फौरन अपनी सहमति नहीं दी. और कई बातें हुईं फैक्ट्री में काम को लेकर, कर्मचारियों की परेशानियों को लेकर. ताज़ा हुए घाटे से पैदा हुए मसलों को लेकर.

और मुझे पता लगा कि हमें एक ऍफ़.डी. तुडवा कर ही इस संकट से उबरना होगा. ज़ाहिर है इन हालात में मैं फैक्ट्री को लेकर किसी भी तरह की लापरवाही नहीं कर सकती थी. घर के खर्चे भी अब और बढ़ गए थे. आने वाले समय में ये और बढ़ने वाले थे.

हमें और ज्यादा कमाने की ज़रुरत थी. ठहरी हुयी ज़िन्दगी में भाग-दौड़ का दौर बेटू के आने से जुड़ गया था. जो घर में बैठे रह कर नहीं झेला जा सकता था.

मैं ये सब तो सोच ही रही थी लेकिन जाहिर तौर पर उन्हें भरोसा दिलाया कि मैं उनके प्रस्ताव पर शाम को विचार कर के कल सुबह बताऊंगी कि बेबी फैक्ट्री आयेगा या घर में ही पलेगा. लेकिन ये दिलासा ज़रूर दिया कि मैं अब फैक्ट्री की तरफ से कोई कोताही नहीं करूंगी. उन्हें तसल्ली दिला कर चाय पिला कर मैंने एक घंटे के बाद जब विदा किया तब तक बेटू सो चूका था.

मैं उसकी उसके कौट के पास आराम कुर्सी पर बैठी सोच रही थी कि इस बारे में कार्ल से भी बात करनी होगी. वैसे उसको मेरे सारे फैसले ठीक ही लगते हैं. फिर भी.. ज़ाहिर तौर पर उसने अपना केबिन नर्सरी बनाने के लिए दिया है तो उसकी सहमति तो पहले से है ही. फिर भी...

बेटू नींद में मुस्कुरा रहा था और उसके होंठ यूँ चल रहे थे जैसे वो मेरा दूध पी रहा हो. लाड से मेरा मन इस कदर भीग गया कि मेरे स्तनों से दूध गिरने लगा. मैं सोच में पड़ गयी कि आखिर हम बच्चे क्यों पैदा करते हैं? उस एक बच्ची की बातों ने मेरे अन्दर जो भूख जगा दी थी उसकी असली वजह क्या थी आखिर?

मैंने सोचा तो मुझे लगा कि जब हम ज़िंदगी में ठहर जाते हैं तो ज़िंदगी हमारे साथ खेल खेलती है. हमें उन सब सपनों की याद दिलाती है जो पूरे नहीं हुए हैं. उन सब बातों के सिरे खोल कर हमारी तरफ फेंकने लगती है जो हमने की थीं और जिन पर हम खरे नहीं उतर पाए.

यहीं से सारी दुविधा शुरू होती है. हम सोचने लगते हैं कि ज़िन्दगी को एक खाली स्लेट की तरह से फिर शुरू किया जाये. अब तक जो लिखा है उसे मिटा दिया जाए और नए सिरे से उस इबारत को लिखा जाए जो अब तक नहीं लिख पाए थे.

लेकिन ये कैसे हो? जो अतीत है उसे काट कर तो फ़ेंक नहीं सकते. जो जिस्म हैं, जो उम्र है वो तो यही रहने वाली है. बल्कि उम्र तो बढ़ती जानी है, जिस्म ढलते जाना है.तो क्या किया जाये?

तो हम कुदरत की तरफ देखते हैं. कुदरत ने जो हमें नायब तोहफा दिया है अपनी प्रतिलिपि पैदा करने का उसका उपभोग करने का बिलकुल सही वक़्त यही महसूस होता है. यानी एक बच्चा पैदा किया जाए और फिर उसे उस सांचे में ढाला जाए जिसमें हम होना चाहते थे लेकिन हो न पाए. कुछ और हो गए. या शायद हम और लोगों की भावनाओं में ढल गए.

अब हमें अपनी भावनाओं को ठोस रूप में ढालने के लिए अपना बच्चा पैदा करना उचित लगने लगता है. यही वजह है शायद कि मैंने बच्चे की चाहत में कुछ भी अनैतिक नहीं पाया था.

फिर सोचा कि नैतिक अनैतिक क्या होता है? अगर मैं किसी अनजान आदमी के वीर्य से गर्भ करती तो वो शायद ज़्यादा अनैतिक होता. खैर! अब ये सोचने का वक़्त जा चुका था. मुझे इस पर बिलकुल नहीं सोचना था. फिर भी मैंने इस बात पर सोचा तो मुझे लगा यही सच है.

तभी मैंने खुद को याद दिलाया कि मुझे खुद को बेटू पर थोपना नहीं है. बेटू तो वैसे भी जाने क्या करना चाहे अपनी ज़िंदगी से.... उसके डी. एन.ए. में मैं तो हूँ कार्ल नहीं है. खासा अनजाना सा होगा उसके भविष्य का रास्ता. हम दोनों के लिए. कार्ल को हो सकता है फ़िक्र में भी डाले ये.

लेकिन मैं ये भी जानती हूँ कि कार्ल ज्यादा फ़िक्र नहीं करता. उसकी यही बेफिक्री मुझे अच्छी भी लगती है लेकिन कभी-कभी मैं अपनी इस शादी को लेकर शक मैं पड़ जाती हूँ.

मुझे लगने लगता है कि शायद इस शादी में वो बात नहीं है जो मेरी और विक्टर की शादी में थी. वो गर्मजोशी, वो रोमांस और वो तड़प... कभी-कभी मुझे लगता है कि ये शादी का सारा झमेला ही बेकार का है. दो लोग बिना इस बंधन के साथ रहें तो शायद ज़्यादा प्रेम और रोमांस उनके बीच बेहतर ढंग से हो.

शादी के नाम से एक जो ठहराव की भावना भर जाती है, वो प्रेम और रोमांस पर हावी हो कर रोमांच का गला घोंट देती है. कई बार इस बंधन से भाग जाने को मन करने लगता है मेरा भी. जानते-बूझते हुए भी कि मुझे कार्ल से बेहतर पति मिल ही नहीं सकता.

लेकिन मुझे लगता है कि मुझे पति चाहिए ही नहीं. शायद कार्ल को भी पत्नी चाहिए ही नहीं. तभी तो अपनी ज़िंदगी दोस्तों के बीच किस इत्मीनान से जीता है. मुझसे भी जुड़ाव है उसका और उनसे भी .. मुझसे शायद कुछ ज्यादा गहरे से ही...

***