राहबाज - 4 Pritpal Kaur द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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राहबाज - 4

रोज़ी की राह्गिरी

(4)

मेरा नशा

दिन के हर पहर की अपनी एक अलग तासीर होती है. रात की तासीर अँधेरे से उपजती है और नशे में ढलती है. मैं तो दिन रात एक नशे में रहती हूँ. मेरे होने का नशा. मेरी ज़िन्दगी को पल-पल

एक-एक घूँट रस ले कर पीने का मज़ा. मैं जानती हूँ ये ज़िन्दगी मुझे इस बार कई कोशिशों के बाद मिली है. मैं इसे गवाना नहीं चाहती.

मैं हर सुबह एक खुमारी के साथ उठती हूँ. दिन चढ़ता जाता है और मैं काम के नशे में चूर होती जाती हूँ. मेरा काम शुरू होता है रसोई में नाश्ता बनाने के साथ जो मैं अपने लिए और मेरे पति कार्ल के लिए बनाती हूँ. उसके बाद हम दोनों अपनी फैक्ट्री में जाते हैं जहाँ कार्ल एक्सपोर्ट किये जाने वाले महिलाओं के ब्लाउज और शर्ट्स का तकनीकी पक्ष देखता है. मैं पैसे का हिसाब-किताब और दूसरे मैनेजरियल काम. फैक्ट्री मेरे नाम से है. ज़ाहिर है मेरी ज़िम्मेदारी भी ज्यादा है.

कार्ल वैसे भी भी लापरवाह किस्म का आदमी है. लेकिन क्या करूँ? इश्क हो गया कार्ल से तो शादी कर ली और जब घर बसाया तो पैसे की ज़रुरत पडी तो ये कारोबार जमा लिया.

दिन भर काम के नशे की तासीर में डूबी ज़िदगी को नशे की तरह पीती हूँ. शाम होते न होते उसी हर दिन आने वाली ताज़ा शाम की पंजे फैला कर सोफे पर लेटने वाली तासीर मेरे अंग-अंग को तडपाने लगती है और मैं फैक्ट्री की कैद से भाग कर घर पहुँच जाती हूँ.

कार्ल मेरे बहुत बाद देर से घर आता है. जाने क्या करता रहता है फैक्ट्री में. मैंने परवाह करना बहुत पहले छोड़ दिया है. तब से, जब से मुझे एहसास हुआ कि दिन और शाम उस पर अलग तरह से अपनी तासीर दिखाते हैं.

कभी कभी मुझे लगता है कि वो हर शय की तासीर से बिलकुल जुदा अपने ही नशे में गुम रहता है. मैं जिसने कभी इश्क किया था कार्ल से, वही आज ये नहीं समझ पाती कि उसमें क्या है जो मुझे बाँध सके. कार्ल ने भी मुझे छिटका दिया है खुद से.

वो दोस्तों, शराब, बाहर के तेज़ मसालेदार खाने और आवारागर्दी के शौक के चलते दिन और रात की एक ही तरह की तासीर में जलता-भुनता घर से भागा रहता है. और मैं अलग अकेली पड़ी हुयी पैसा कमाने के नशे में डूबी दिन और रात के अलग अलग पहरों को झेलती कभी उनमें डूबती कभी नशे में तो कभी नशे से ऊबी एक ऐसी राह पर चलती जाती हूँ. जहां हर पल लगता है कि शायद अब कुछ हो जाये, शायद अब कुछ ऐसा हो जाये जो मुझे ज़िंदगी जीने का एहसास दिला दे.

मुझे इतना तो जोश दिलाये कि मैं पैसा कमा कर उसे भोगने के लिए भी उतनी ही इमानदारी से जुट सकूँ. कम से कम उतनी तो जितना कमाने के लिए होती हूँ. कमाने के बाद यही पैसा मुझे बाँध नहीं पाता. बैंक बैलेंस खाली सा लगने लगा है. हर नया जीरो जो मेरी बैलेंस शीट में वक़्त के साथ जल्दी-जल्दी जुड़ रहा है, मुझे रीता और रीता करता चला जाता है.

मैंने बहुत सोचा तो मुझे लगा कि मेरे अंदर की औरत अधूरी है. उसे जिस प्यार की दरकार थी वो नहीं मिला. तो मैंने उस प्यार को ढूँढा. पहले पति में ढूँढा में ढूँढा, जब तक कुछ हाथ में आता उससे पहले ही वह खुद एक हादसे का शिकार हो गया. दूसरे पति में भी ढूँढा. कहीं नहीं मिला. कुछ भी नहीं मिला. एक खालीपन और मेरे अन्दर भर गया. पहले से भी भारी. मुझे भीतर तक रौंदता हुआ.

तभी एक दिन मुझे सुबह के वक़्त एक नया सा एहसास हुआ जब मैंने फैक्ट्री जाते हुए अपने पड़ोसी को उसकी छोटी सी बेटी के साथ बातें करते लिफ्ट के इंतजार में खड़े देखा. हम दोनों ही लिफ्ट के इंतजार में थे. मैं अपने अकेलेपन में मदहोश और वो अपनी नन्ही सी घुंघराले बालों और गुलाबी गालों वाली फूलों वाली फ्रॉक पहने गोदी में चढ़ी हुयी बेटी के साथ बातों में.

जो अपने टूटे फूटे वाक्यों में बता रही थी की कल उसकी आंटी ने उसको झूले में थोड़ी देर ही बिठाया था. ज्यादा देर नहीं. बच्ची का कहना था की आंटी को समझाओ ना ...

और जिस तरह से वो बार बार ये बात कह रही थी और जिस तरह से उसका नौजवान पापा हर बार उसकी हाँ में हां मिलाता हुआ कह रहा था कि मैं समझाऊंगा, आने दो आंटी को....

और जिस तरह उसने फिर इसी जुमले को पकड़ लिया था कि 'आने दो आंटी को'. मैं तो फ़िदा ही हो गयी थी. उसके पापा और मैंने बच्ची से छिपा कर नज़रें मिलाई थीं और मुस्कुरा दिए थे. हम दोनों में से कोई भी नहीं चाहता था कि बच्ची को यह एहसास हो जाये कि हम उस पर हंस रहे हैं. हम सभी उसकी हर बात को बेहद गंभीरता से ले रहे थे. ये बात बच्ची पर ज़ाहिर भी हो गयी थी.

उसने अपने गाल अपने पापा से सटा कर एक बार फिर कहा था, "आंटी को समझाओ ना."

मेरा दिल किया था उसे अपनी गोद में लेकर प्यार से उसको सीने से लगा लूं. लेकिन हसरत से उसे देखती हुयी लिफ्ट में सवार हुयी थी और हम तीनों नीचे लॉबी में आ गए थे. जब मैं पोर्च की तरफ बढ़ रही थी उस वक़्त भी उसकी खूबसूरत प्यारी सी आवाज़ मेरे कानों में लोगों के शोर-गुल के बीच से छन-छन कर आ रही थी.

उसी दिन के हडबडाये से पहरों के गुजरने के बाद जिस शाम ने मेरी दहलीज़ पर कदम रखे थे उनमें एक नन्हे से बच्चे की किलकारी अनायास ही शामिल हो गयी थी.

और उस दिन के बाद से यही होने लगा है मेरे साथ. सुबह की खुमारी के बाद दिन के पहरों की तेज़ी भरी तासीर को लांघ कर मैं शाम की मदहोशी तक जब पहुँचती थी तब बाहर का धुंधलका मुझे अपने भीतर उतरता महसूस होने लगता था. मैं उसके नशे में उतर जाती अहिस्ता-अहिस्ता और ज़िन्दगी से उम्मीद करने लगती एक और नयी ज़िन्दगी मुझे देने की. शायद उसी के ज़रिये मैं जीने के फायदे गिनाने वाले दिनों को नए सिरे से पकड़ कर खुशी के आंसू रो सकूँ.

मैं शाम का बवंडर तो किसी तरह फैक्ट्री पर काम में जुटे रह कर काट लेती, लेकिन रात जैसे ही मेरे आँगन में उतरती, तो सीधे मेरे कदमों में पसर कर मुझमें एक ऐसी चाह भरने लगती जिसकी ज़द में आ कर मेरा पूरा जिस्म कार्ल की रहनुमायी के घेरे में आ जाता. यहाँ तक कि कार्ल मेरे जिस्म की बेसाख्ता फरमाईशों के चलते मुझ से ही घबराने लगा. लेकिन मेरा जूनून जारी रहा. मैंने साफ़ शब्दों में उसे कह दिया कि ये वक्ती बुखार है और उसे मेरा साथ देना होगा. तब तक जब तक कि वो मेरे जिस्म में अपना अंश बो न दे. ये ज़िम्मेदारी उसी की है. और उसे निभानी होगी.

मुझे पता नहीं क्यूँ लगा कि कार्ल ये सुन कर कुछ अनमना सा हो गया. मैंने सवालिया निगाह उस पर डाली तो वो बोला, " ये क्या फितूर तुम पर सवार हो गया है? अच्छी भली तो ज़िन्दगी चल रही है. "

"ये फितूर नहीं है डार्लिंग. मैं माँ बनना चाहती हूँ. शादी के कुछ साल बाद हर औरत ये स्वाद चखना चाहती है. हमारी ज़िन्दगी अब सही ढर्रे पर चल रही है. सब कुछ आराम से है. अब हमें ज़िन्दगी की अगली चुनौतिओं की तरफ देखना चाहिए. "

मैं जानती हूँ कार्ल बहुत ठन्डे मिजाज़ और आरामतलब ज़िन्दगी का पक्षधर है. उसे अपनी ज़िन्दगी में खलल बिलकुल पसंद नहीं है. लेकिन मेरे अन्दर एक सवाल अक्सर उठने लगा था कि क्या वह बाप नहीं बनना चाहता?

इस बात पर मैं अक्सर हैरान होती रही हूँ. मैंने देखा है बच्चों को देख कर जहाँ मैं पिघलने लगती हूँ, कार्ल के यहाँ कोई उत्सुकता या कोई भी कोमल भाव नहीं पैदा होता. जबकि मुझे कार्ल से मिलने से पहले अक्सर यही लगता रहा है कि मर्द बाप बनने को बहुत उत्सुक होते हैं. कई दफा तो अपनी पत्नियों से भी ज़्यादा और उन्हें मजबूर करते हैं बच्चा पैदा करने के लिए.

खैर! कार्ल और मैं कई महीने अपने इस प्रयोग में लगे रहे. शुरू की अचकचाहट के बाद कार्ल भी अब चाहने लगा था कि घर में बच्चा आये. मेरी प्यास से उसे भी तलब आखिरकार लग ही गई थी. हमने कई नए नए पोस्चर ट्राय किये, बात नहीं बनी. फिर मैंने एक किताब पढ़ी कि किस तरह गर्भवती होने की सम्भावना बढ़ाई जा सकती है.

उसमें इस बात पर जोर दिया गया था कि औरत का जिस्म कुछ ख़ास दिनों में गर्भ के लिए पूरी तरह से तैयार होता है और उन्हीं दिनों में पुरुष के साथ संसर्ग से उसके गर्भवती होने की संभावना प्रबल होती है. कार्ल को जब मैंने ये बात बतायी तो उसने जोर दिया कि मैं अँधेरे में तीर मारने की बजाय इन दिनों को अपने जिस्म में चिन्हित करूँ और फिर हम दोनों इन्ही दिनों में सेक्स करें.

सो मैंने उसी किताब को आगे पढ़ा, अपनी डॉक्टर के साथ एक विस्तृत मीटिंग की और हर सुबह सुबह थर्मोमीटर से अपने जिस्म का तापमान नाप कर एक चार्ट भरना शुरू कर दिया. दो महीनों में ही मुझे पता लग गया कि किन दिनों में मेरे गर्भवती होने की संभवना अधिक होती थी.

अब मैं और कार्ल कहीं भी होते मगर इन दिनों में कम से कम दो-तीन बार हर रोज़ हमबिस्तर होते लेकिन नतीजा फिर भी वही रहा. ढाक के तीन पात. मुझे गर्भवती नहीं होना था मैं न हुयी.

पांच महीने तक हर बार जब मुझे पीरियड होते, मैं फिर एक नए उत्साह से अगले साइकिल में गर्म दिनों को चिन्हित करने में जुट जाती. ज़िंदगी का एक ही लक्ष्य रह गया था. सेक्स करना और इस तरह करना कि गर्भ ठहर जाए. मैं सिर्फ एक बड़ी सी योनि बन कर रह गयी थी जिसके रास्ते से एक नयी ज़िंदगी ने मुझ में अपने पैंठ बनानी थी.

और ये सब मैं खुशी-खुशी कर रही थी. मेरे मन या जिस्म को मुझसे कोई शिकायत नहीं थी.वे दोनों मेरी इस इच्छा के आगे नतमस्तक हो कर प्रस्तुत थे. शिकायत तब होती थी जब पीरियड आते और मन जिस्म से कहता कि क्या करते हो? रोको खुद में इस बीज को.

लेकिन बीज था कि रुक ही नहीं रहा था. आखिर कार मैंने फिर डॉक्टर के साथ मीटिंग की. उसने मेरे कुछ टेस्ट किये तो मुझे बिलकुल स्वस्थ पाया. यानी मैं बच्चा पैदा करने के लिए बिलकुल तैयार और प्रस्तुत थी फिर भी बच्चा ठहर नहीं रहा था. और बच्चा पैदा करने का जूनून मुझ पर सर चढ़ कर बोल रहा था.

इतना आगे बढ़ कर मैं सिर्फ इस बात से तसल्ली नहीं कर पा रही थी कि मैं बच्चा पैदा करने लायक हूँ. अब तो मुझे बच्चा चाहिए ही था. मेरे सपनों में एक प्यारा सा गदबदा सा बच्चा आ-आ कर मुझे रात-रात भर जगाने लगा था. और मैं हर सुबह बिस्तर से उठने से पहले मन ही मन उसका अनदेखा मुखड़ा देख कर आँखें खोलने लगी थी. अब जा कर मैं ये बात समझ पाई थी कि औरत कितनी विवश होती हैं अपने मन और जिस्म की मांगों के सामने.

इसके अलावा पड़ोस की वो छोटी बच्ची मिनी भी मेरा ध्यान बहुत खींचने लगी थी. उस दिन की घटना से पहले भी वह आते-जाते लिफ्ट में या नीचे पोर्च में मुझे दिख जाती थी लेकिन मैंने कभी ज़्यादा ध्यान उस पर नहीं दिया था. लेकिन उस दिन के बाद से जब भी मुझे वह मिलती तो मैं लपक कर उससे हाथ मिलाती. कभी कभी उसका मन होता तो गोद में भी उठा लेती और इस तरह मेरे मन की प्यास और भड़क जाती.

डॉक्टर ने मुझे क्लीन चिट दे दी थी साथ ही ताकीद की थी कि मैं कार्ल को लेकर आऊँ, उसके टेस्ट होंगें. डॉक्टर का कहना था कि वे इस तरह के मामलों में पति के टेस्ट साथ ही करते हैं, मर्दों के टेस्ट करने आसान होते हैं. लेकिन चूँकि मैं डॉक्टर की दोस्त थी और ज्यादा उत्सुक थी सो पहले मेरे सारे टेस्ट कर लिए गए थे और सभी सही पाए गए थे. अब कार्ल को जांचना था.

और इस राह में कई अडचने थीं. पहली बात कार्ल को राजी करना और फिर कार्ल का इतिहास. कार्ल मुझसे मिलने से पहले कई साल गोवा में हिप्पियों के संपर्क में रहा था. नशे की लत में बुरी तरह डूबा हुआ. बाद में उसने खुद को संभाला था लेकिन तब तक उसकी पुश्तैनी जायदाद नशे की भेंट चढ़ चुकी थी. वह जिस्म, धन और मन से थका हारा हुआ था जब हमारी मुलाकात हुयी थी.

मैंने एक साल पहले अपने पति रिक्टर को एयर क्रेश में खोया था. रिक्टर एयर फ्रांस में पायलट था. मुझे मुआवजा तो अच्छा-खासा मिला था लेकिन एक ही साल की शादी के बाद विधवा हुयी मैं बुरी तरह टूटी हुयी थी. हम दोनों ही टूटे हुए दो इंसान एक दूसरे से मिल कर वक़्त को कुछ बेहतर ढंग से काटने की कोशिश करने लगे थे.

उस वक्त मैं मुंबई में अपनी बिखरी ज़िंदगी को समेटने की जद्दो-जहद में थी. कार्ल गोवा से घबरा कर मुंबई के शोरोगुल में अपनी ज़िंदगी के ताने-बाने को समेटने में लगा था. एक घर बचा था गोवा में उसका. वह उसे बेचना चाहता था ताकि कुछ काम धंधा शुरू कर सके. बाकी प्रॉपर्टी उसकी नशे के लिए बिक चुकी थी.

कुछ ही महीने की दोस्ती के बाद हम दोनों को ही लगा था कि हम एक दूसरे का साथ लम्बे समय तक निभा ले जायेंगे सो हमने कोर्ट में शादी कर ली. मुम्बई मुझे रिक्टर को भूलने नहीं देती थी. जगह जगह हमारी यादें थीं. कार्ल के लिए गोवा के अलावा सभी जगह एक जैसी थीं सो हमने सब कुछ समेटा और दिल्ली आ गये.

पिछले दस साल से एक दूसरे का साथ बहुत अच्छी तरह से निभा भी रहे हैं. हमारी गारमेंट फैक्ट्री बहुत बढ़िया चल रही है. हम एक अच्छी आराम देह ज़िंदगी एक दुसरे के साथ बिता रहे हैं. मगर अब ये नया कीड़ा मुझे काट गया है. और मैं इसके ज़हर में बुझी न दिन में चैन पाती हूँ न रात में.

कार्ल के टेस्ट करवाने में मुझे कुछ अंदेशा था और इसकी वजह है उसका ड्रग एडिक्ट रहना. हो सकता है कि इस वजह से उसके वीर्य में कुछ कमी हो गयी हो. मैंने अपनी शंका डॉक्टर को ज़ाहिर की तो उसने भी मुझे कोई तसल्ली नहीं दी. उसने मेरी शंका को निर्मूल नहीं बताया लेकिन इतना ज़रूर कहा कि टेस्ट करवाने के बाद ही कुछ सही तरीके से कहा जा सकता है. सो कार्ल का टेस्ट हुआ. मैंने किसी तरह उसे मनाया. और पता लगा कि कमी यहीं थी. उसके वीर्य में स्पर्म खतरनाक ढंग से कम थे और सुस्त भी. ज़ाहिर है कार्ल को इलाज की ज़रुरत थी.

और अब मेरे लिए कार्ल ने एक बड़ी समस्या खडी कर दी. जिस दिन मुझे कार्ल की रिपोर्ट मिली और मेरी डॉक्टर ने बुला कर ये सब समझाया उसी दिन शाम को कार्ल से जल्दी घर आने को कहा.

वह अक्सर देर से आता है और खाना भी बाहर से ही खा कर आता है. पिछले दो-तीन साल से कार्ल सिर्फ सुबह का नाश्ता ही घर पर खाता है और नहा धो कर फैक्ट्री के लिए निकल जाता है. दिन भर वहीं रहता है. मैं शाम को छः या सात बजे वहां से निकल आती हूँ, अक्सर घर की तरफ. उस वक़्त तक वह वही होता है लेकिन मैं जानती हूँ कि मेरे आने के बाद वह अक्सर दोस्तों की महफ़िल में चला जाता है. और रात को सिर्फ सोने के लिए घर आता है.

अक्सर अहिस्ता से आ कर मेरी बगल में लेट कर सो जाता है. कभी-कभार मुझे जगा पा कर मेरी तरफ रुख करता है और हम में थोड़ी बहुत बातचीत होती है. अक्सर नहीं के बराबर. हम दोनों ही अपनी इस ठहरी हुयी ज़िन्दगी से खुश हैं. बस मुझे अब इसमें बदलाव चाहिए. याने कि एक बच्चा.

जब कार्ल घर आया तो मैं उसका इंतज़ार कर रही थी. उसे शाम को इस वक़्त घर में देख कर बहुत अच्छा सा भाव मेरे दिल में जगा. मैंने लपक कर उसे आलिंगन में लिया और अपने साथ लिए लिए सोफे पर हम दोनों आ बैठे. कार्ल कुछ असहज लगा मुझे.

"क्या पियोगे?" मैंने ही चुप्पी तोडी थी.

"कुछ भी. जो तुम पियो." वह अनमना था. उसके दोस्तों से उसे एक भी दिन अलग रहना अखर रहा था, ये मैं समझ गयी थी.

"मैं तो आजकल पीना छोड़ चुकी हूँ. पार्टी में भी बस दिखावा करती हूँ गिलास हाथ में ले कर. इधर उधर डाल देती हूँ. पीती नहीं. तुम बोलो." मैंने अपनी असलियत बयान कर दी थी.

"तो मुझे एक लार्ज स्कॉच दे दो. ऑन डी रॉक्स." उसका स्वर शांत था.

मैंने उठ कर उसे जाम बना दिया था.

"कुछ खाओगे?"

"नहीं. खाना ही खाऊंगा सीधे. बनवाया है?"

"हाँ. सब तुम्हारी पसंद का. कितने दिनों के बाद हम आज डिनर साथ करेंगे." मेरे स्वर में उत्साह अभी कायम था.

कुछ देर शांति छाई रही थी. मैं सोच रही थी की कैसे बात शुरू करूँ. छोटी-छोटी बातें करते हुए बातों से बात उठाने की कोशिश बेकार हो चुकी थी. सीधे इलाज की बात करना नहीं चाहती थी. लेकिन कुछ देर बाद जब मैंने देखा की कार्ल बोरियत में डूबा जल्दी-जल्दी अपना जाम ख़त्म कर रहा था तो मुझे लगा कि वक़्त नहीं गवाना चाहिए.

"खाना कितनी देर में खाओगे?" मैं जाहिलों की तरह यही पूछ बैठी.

कार्ल ने एक फीकी सी हंसी के साथ कहा, "डार्लिंग. तूने मुझे डिनर की दावत पर नहीं बुलाया है. बोल न. क्या कहना है? मैं सुनने के लिए ही आया आज. मैं और तुम अब बात ही नहीं करते खाली बिज़नस की बात करते बस."

मेरा गला रुंध आया था. कार्ल के अन्दर मेरा प्रेमी आज भी जिंदा था. मुझे अचानक एहसास हुआ कि हम दोनों एक धागे से ऐसे जुड़े हुए हैं कि कितना भी अबोला या दूरी आ जाये हमारे बीच, हम जुड़े ही रहेंगे. मेरी दुविधा उसे द्रवित कर रही थी. मेरा अकेलापन उसको महसूस हो रहा था. हालाँकि कार्ल ने अपनी ज़िंदगी में एक ठहराव हासिल कर लिया था. उस ठहराव में वो खुद था और मैं पत्नी थी जिसके साथ वह एक छत के नीचे रहता था.

फिर एक हमारी कर्म स्थली थी हमारे फैक्ट्री जो हमारे जीने का आधार थी और फिर थे उसके दोस्त जिनके साथ वह हँसता बोलता था. हर शाम बिताता था. सिर्फ उन शामों को छोड़ कर जब हम कोई पार्टी देते या किसी पार्टी में बुलाये जाते. वहां भी लोगों का मजमा होता. हम दोनों के बीच संवाद कम तो हुआ था लेकिन हम जुड़े हुए थे एक मज़बूत स्पंदन युक्त सुनहरे तार से. ये आज मैंने बड़ी शिद्दत से महसूस किया था. और इसी ने मुझे ताकत दी कि मैं खुल कर अपनी बात कार्ल से कह सकूं.

"कार्ल, यू नो. डॉक्टर ने कहा है तुम्हे इलाज करवाना होगा. विल यू कोआपरेट?"

कार्ल कुछ देर चुप बैठा रहा. सारा घर ही दम साधे कार्ल की चुप्पी के टूटने के इंतजार में धीमे धीमे धड़क रहा था. उसकी और मेरी धड़कन मिल कर मेरे कानों में गूंजने लगी थी. कलेजा मुंह को आने लगा था. मैंने घबरा कर अपना हाथ कार्ल की जांघ पर रख दिया. उसने तुरंत मेरा हाथ अपने हाथ में लिया. ग्लास मेज़ पर रखा और दोनों हाथों में मेरे हाथ को थाम कर सहलाने लगा. मुझे कुछ तसल्ली हुयी. लगा वह इस बीच मीलों की यात्रा कर आया है. आखिर उसने चुप्पी तोडी.

"रोज़ी, यू नो माय पास्ट. शायद कुछ बातें मैं तुम्हें बताना भूल गया हूँ. शायद मेरे को लगा इसकी ज़रुरत नहीं. नाउ लेट मी टेल यू सम मोर अबाउट मी."

मैं हैरान थी. जाने आज क्या सुनने को मिलेगा कार्ल से उसके अतीत के बारे में. दम साधे बैठ गयी. उसने मेरा हाथ सहलाना बंद कर दिया था. लेकिन मेरा हाथ अब भी उसकी गोद में उसके दोनों हाथों के बीच कोमलता से रखा चैन से मुस्कुरा रहा था. बहुत देर फिर चुप्पी छाई रही. मैं नशे में डूब उतरा रही थी. मुझे कार्ल का नशा हो रहा था.

" तू जानती है रोजी मेरे ड्रग एडिक्ट होने के बारे में सब कुछ. एक बात और है जो शायद तब मेरे को बेकार लगी अब तेरे को बता रहा हूँ. गोवा में मेरा एक एक्सीडेंट भी हुया था. ज़्यादा कुछ चोट नहीं लगी थी लेकिन मेरे प्राइवेट पार्ट्स और ग्रोइन एरिया में ज्यादा चोट लगा था. तभी मेरे को डॉक्टर ने बोला था मेरी सेक्स लाइफ तो ठीक रहेगा मगर फर्टिलिटी हो सकता है ख़तम हो जाये. पर ऐसा होना ज़रूरी भी नहीं. ये डॉक्टर ने बोला था. और मेरा ड्रग्स लेना तो एक बहुत बड़ा रीज़न है ही. इसलिए मैं अब भी तेरे को बोल रहा हूँ मैं इलाज करवाउंगा. सब करूंगा जो तू और डॉक्टर चाहते हो लेकिन मैं तेरे को कोई उम्मीद रखने से मना कर रहा हूँ. मैं जानता हूँ शायद मैं बच्चा नहीं दे सकता तेरे को. "

अब चुप्पी की बारी मेरी थी. मैं खामोश बैठी रही थी देर तक. यहाँ तक की कार्ल भी थक गया था. उसने अहिस्ता से एक हाथ मेरे हाथ के ऊपर से उठा कर अपना जाम उठाया था और फिर से पीने लगा था. आखिर कार मैंने एक लम्बी सांस ली थी और उसके गाल पर एक चुम्बन दे कर उठ खड़ी हुयी थी.

हमारी मीटिंग ख़त्म हो चुकी थी. यानी गंभीर मसले पर बात हो गयी. और एक किनारे कर दी गयी. बिलकुल वैसे ही जैसे हम बिज़नस पार्टनर के तौर पर फैक्ट्री में किया करते थे. अब हम वापिस दोस्त बन गए थे. पति-पत्नी और बिज़नस पार्टनर से अलग, अपने अपने दायरे में अपनी-अपनी ज़िन्दगी को जीते हुए, एक दूसरे के साथ को पीते हुए.

उस दिन के बाद इस बारे में मेरी कार्ल से फिर कभी कोई बात नहीं हुयी. कार्ल ने दवाएं लीं. डॉक्टर का कहा माना. मेरा कहा माना. हम दोनों ने प्रकृति का कहा माना. लेकिन नतीजा वही रहा. बीज नहीं रुका मेरी कोख में. हर महीना मैं उम्मीद के साथ कदम बढ़ाती और हर महीने निराश हो कर दो ढीठ आंसू मेरी आँखों में उतर आते. लेकिन मैंने सोच लिया था कि ज़िन्दगी के इस पड़ाव पर भी मुझे निराश नहीं होना है. जिस तरह ज़िंदगी ने मुझे अब तक कई चुनौतियां दी थीं और मैंने सभी को पार किया था ये भी कर लूंगी.

अब मैंने एक नए विचार पर काम करना शुरू किया था. क्या हुआ जो कार्ल का बीज मेरे अन्दर नहीं पनप सकता. मैं बीज कहीं और से ही ले लूं तो क्या हर्ज़ है? सामाजिक तौर पर तो बच्चा कार्ल का ही होगा. कार्ल को मैं ये नहीं बताना चाहती थी लेकिन साथ ही ये भी लगा कि कार्ल को नहीं बताना तो धोखा होगा.

सो एक दिन फिर इसी तरह मैंने खुद ही एक मीटिंग का विचार किया. इन दिनों कार्ल अक्सर शाम मेरे साथ बिताने लगा था. हम हफ्ते में तीन दिन घर पर ही साथ रात का खाना खाते. एक दूसरे के साथ वक़्त बिताते.

मैं इस सारा वक़्त अपने भीतर हो रहे इंतजार को आँखें बंद कर के देखती. इन बंद आँखों से मैं अपने सामने बैठे कार्ल को देखती जो अब शराब भी कम पीने लगा था. उसका कहना था कि चूँकि मैं नहीं पीती तो उसका भी दिल नहीं करता मेरे सामने बैठ कर पीने को. अक्सर ऐसा होता कि वो अपना जाम भरता और अगली सुबह मुझे वह उसी तरह भरा हुआ टेबल पर रखा मिलता. ऐसा लगता जैसे वह बासी हुआ जाम पिछली शाम की मदमस्त खुमारी और हमारे प्यार के किस्से अहिस्ता-अहिस्ता गुनगुना रहा हो.

वैसे ऐसी शामों की रात अब वैसा जादू नहीं जगा पाती थी जैसा कुछ साल पहले होता था. शायद हम बड़े हो गए थे. शायद हमारे प्यार में वो कशिश नहीं रही थी. या फिर शायद मेरी बच्चे की चाह ने मेरे अन्दर से एक दूसरी ही औरत को नींद से जगा दिया था और ये औरत सिर्फ एक ही ख्याल मन में रखे हुए मेरे पति के साथ हमबिस्तर होती थी कि इस बार बीज उसकी कोख में स्थापित हो जाए. वो जो प्रेमिका थी मेरे पति की, वो एक कोने में दुबक कर इस नयी नकोर औरत के खेल और खिलवाड़ देखती सहमी हुयी चुपचाप हाशिये पर जीने लगी थी.

उस शाम जब हम बैठे तो मैंने सोचा तो ये था कि मैं बीज को कहीं और से लेने की बात कार्ल से करूंगी. लेकिन बात कैसे शुरू करूँ ये नहीं सोच पा रही थी.

कार्ल उन्हीं ख़ास शामों की तरह आज भी फैक्ट्री से सीधे घर आ गया था. मैं शाम को छह बजे ही आ चुकी थी और रात के खाने की तैयारी हो चुकी थी. मेड को मैंने आज जल्दी जाने को कह दिया था अपने कमरे में. वो मेरे ही फ्लैट में बाहर की तरफ बने कमरे में रहती है. इन शामों को इन दिनों यही होता था. मैं सारा वक़्त कार्ल के साथ एकांत में बिताना चाहती थी. कही पढ़ा भी था कि प्रेम और मोहब्बत से कंसीव हुए बच्चे खुशमिजाज़ और अच्छे चरित्र के होते हैं. सो मैं भी ऐसा ही बच्चा अपनी कोख से पैदा करना चाहती थी. बेहतरीन बच्चा. हर लिहाज से उम्दा बच्चा.

मैंने बार के काउंटर पर रखी ब्लू लेबल की बोतल हाथ में ली और कार्ल की तरफ सवालिया निगाह उठायी. उसने इनकार करते हुए अपना सिर दायें-बाएं घुमाया और मुझे अपनी तरफ आने का इशारा किया. अपनी बगली की सीट को थपथपाया. मैं मुस्कुराती हुयी उसकी बगल में बैठी तो कार्ल ने अपनी बाहों के घेरे में मुझे ले लिया.

कुछ देर हम इसी तरह चुपचाप एक दूसरे को पीते बैठे रहे. आखिर मैंने हिम्मत बटोरी और उसके कंधे से सर उठा कर उसकी तरफ देखते हुए मैंने जैसे ही बोलना शुरू किया कि कार्ल की आवाज़ कमरे में गूँज गयी.

"रोज़ी, मैं मेडिसिन ले रहा हूँ. हम सभी कुछ करते हैं. फिर भी तुम अभी तक प्रेग्नेंट नहीं हुआ न. मेरे को लगता है कि हम ज्यादा कोशसं है. ऐसा करने से बच्चा नहीं होता. तुमको रिलैक्स करना होगा. मेरे को भी. ये भाग-भाग के घर को आना और सिर्फ बच्चा के लिए सेक्स करना. मुझे इसमें कुछ अच्छा नहीं लगता. तुम सोचो ऐसा नहीं होता. बच्चा प्यार से होता. ये सब हमको नहीं करना चाहिए. "

मैं कार्ल की बात सुन कर सन्न रह गयी थी. मेरी उतावली कार्ल को किस कदर तकलीफ दे रही थी मैं देख ही नहीं पायी थी. आज उसने कहा तो अचानक मैं नींद से जाग गयी थी. मुझे खुद पर शर्म आने लगी. समझ नहीं आया अपना मुंह कहाँ छिपाऊँ? मैंने फिर से कार्ल के कंधे पर सर रखा और आँखें बंद कर लीं. कार्ल से बेहतर कन्धा मेरे लिए क्या हो सकता था. मेरी सारी शर्मिन्दगियों और मुसीबतों में यही तो मेरा सहारा रहा है. हर वक़्त मेरे कदम से कदम मिला कर मेरे साथ चलता हुआ. लेकिन मेरे अन्दर ये जो औरत जाग गयी है जिसे बच्चा चाहिए उसको भी तो नहीं मार सकती.

अब इस बात के बाद मेरी हिम्मत ही नहीं हुयी मैं बीज को कहीं और से लेने की बात कह कर कार्ल का दिल दुखाऊँ. ऐसे खूबसूरत इंसान को जो मुझे इतने सम्मान के साथ प्यार करता है मैं ऐसा दंश नहीं दे सकती थी. वहीं उसी तरह कार्ल के कंधे से लगे लगे मैंने अपना चेहरा छिपाए उसकी स्निग्ध गर्माहट में लिपटे हुए फैसला कर लिया कि मुझे ये काम चुपचाप कार्ल को बिना बताये करना है. कार्ल के लिए बच्चा उसका ही होगा. मेरे लिए भी बच्चा कार्ल का ही होगा. बीज चाहे जहाँ से भी आये.

उस रात हम साथ सोये थे एक दूसरे से लिपट कर बहुत दिनों के बाद. क्यूंकि उस रात से हम दोनों को एक दूसरे से कोई उम्मीद नहीं रखनी थी. मैं और कार्ल साथ थे क्यूंकि हम साथ होना चाहते थे. ज़िंदगी को साथ जीना चाहते थे. इस साथ से कुछ और पैदा करने की मेरी ख्वाहिश उस दिन मैंने ख़त्म कर दी थी. कार्ल के अंदर तो ये ख्वाहिश थी ही नहीं.

वो तो मानो तय कर चुका था कि उसे दुनिया में अपना कोई नामलेवा छोड़ना ही नहीं है. ये ख्वाहिश कब से उसके अन्दर नहीं थी मैं नहीं जानती लेकिन मैं जब से कार्ल को जानती थी वह अपने सारे जोश और खिलंदड़ेपन के साथ ऐसा ही था. सिर्फ आज के लिए जीने वाला. उसे बच्चा होने या न होने के बीच कोई ज्यादा फर्क महसूस नहीं होता था. ये बात अब तक मैं अच्छी तरह समझ गयी थी.

अगले दिन से मैंने स्पर्म बैंकों के पते मालूम किये और एक-एक कर लगभग सभी को टटोल लिया. और जल्दी ही मुझे समझ में आ गया कि ये राह मेरे लिए नहीं है. अनजान इंसान का बीज लेकर मैं अनजानी राह पर नहीं चलना चाहती थी. जाने किस मिजाज़ का हो, जाने कैसी प्रवृति का हो, जाने कैसा दीखता हो. हालाँकि बैंक वाले हर तरह की गारंटी देते हैं लेकिन मेरा मन नहीं माना तो नहीं माना.

और कई दिनों की इस कवायद के बाद मैंने दिल को मज़बूत कर के एक फैसला कर लिया. मुझे माँ बनाना है और ज़रूर बनना है. और इसके लिए मैं खुद एक पुरुष की तलाश करूंगी. एक ऐसा पुरुष जो मुझे हर तरफ से परफेक्ट लगे और जिसके बच्चे की माँ बनना मैं दिल से चाहूं. जैसे कि मैं कार्ल के बच्चे की माँ बनना चाहती हूँ.

यह बात ख्याल में आते ही मेरे मन में अगला जो विचार आया था वह बचपन में स्कूल में पढ़ी महाभारत की उस कथा का जिसमें कुंती सूर्य का आव्हान करती है और उसे कर्ण पैदा होता है. बाद में कमज़ोर पांडू के साथ शादी के बाद भी कुंती इसी तरह अलग अलग पुरुषों से नियोग कर के पांडव पैदा करती है. नियोग का मतलब बड़े हो कर जाना था तब हैरान रह गयी थी. हिन्दू माइथोलॉजी में कैसे कैसे विरोधभास भरे पड़े हैं.

अब दिमाग और दिल में बस एक ही शब्द गूँज रहा था, नियोग.

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