राहबाज - 11 Pritpal Kaur द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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राहबाज - 11

रोजी की राह्गिरी

(11)

आसमान में छलांग

यूँही अनुराग से मिलते उसके प्रेम में भीगते डूबते-उतरते ऐसे ही जीवंत दिन बीत रहे थे कि मुझे अपनी देह में कुछ बदलाव महसूस हुए थे. एक सुबह मुझे कुछ भारी-भारी सा लगा बदन में.

उस दिन अनुराग से शाम को उसके होटल के कमरे में मिलना तय था. उसने काम की वजह से ले रखा था. जब उसे पार्टी में या काम में देर हो जाती या शराब ज़्यादा हो जाती तो वह वेस्ट दिल्ली के अपने घर तक ड्राइव कर के जाने की असुविधा से बचने के लिए इस कमरे में रुक जाता था.

वही कमरा इन दिनों हमारे काम बखूबी आ रहा था. बाथरूम से वापिस आयी तो दिल कुछ ज्यादा ही भारी सा लग रहा था. अचानक मुझे ख्याल आया कि पीरियड होने के दिन तो निकल चुके हैं. निकले क्या एक हफ्ते से भी ऊपर हो चुका है. मुझे अनुराग और मेरे इतने सारे प्रेमों के बीच कुछ सोचने तक की फुर्सत नहीं मिली थी.

मेरा मन एकाएक जैसे बारिश में भीग गया. क्या मैं सचमुच प्रेग्नेंट हो गयी थी? मैं फ़ौरन उठी और बाथरूम में जा कर कैबिनेट में रखी प्रेगनेंसी टेस्ट किट निकाली, खोली और कमोड पर बैठ गयी.

मैंने स्ट्रिप पर तीन बूँदें अपने पेशाब की डाली थीं और सांस रोके नतीजे के इंतजार में वहीं बाथरूम में कमोड का ढक्कन बंद कर के उस पर बैठ गयी थी. पांच मिनट का वक़्त ज्यादा नहीं होता लेकिन उस वक़्त लग रहा था जैसे दस मिनट बीत चुके हैं और कुछ नहीं हो रहा.

लेकिन कुछ नहीं था स्ट्रिप पर तो इस बात की भी तसल्ली थी कि अभी टेस्ट पूरा नहीं हुआ है. इसकी प्रक्रिया चल ही रही है. और तभी मैंने देखा हल्की सी, बेहद हल्की सी दो नामालूम सी लगती रेखाएं स्ट्रिप पर उभर आयी थीं. मेरी साँसें तेज़ तेज़ चलने लगी थीं. देखते ही देखते ये दोनों नामालूम से लगती हुईं रेखाएं कुछ दिखने लगीं, फिर भूरी सी हुयीं और फिर एकदम दो गुलाबी बेहद सशक्त रेखाएं स्ट्रिप पर उभर आयीं. ऐसे जैसे मुझ से कह रही हों,"मुबारक रोजी, मुबारक."

मुझे समझ ही नहीं आया कि मैं अब क्या सोचूँ और क्या करूँ. मैं उठी और लगभग भागती हुयी बेडरूम में गयी. कार्ल अभी सो ही रहा था. मैंने सोचा कि उसे उठ जाने दूं. उसकी नींद खुद ही खुले तो ये खबर उसे सुनाऊँ. ये सोच कर मैं कुर्सी पर बैठ गयी. लेकिन फिर कुछ पलों के बाद लगा कहीं ये रेखाएं मिट न जाएँ, कहीं धुंधली ही ना पड़ जाएँ. इस डर के मारे मेरी निगाह लगातार उन्हीं पर लगी थी. एक नज़र सोये हुए कार्ल पर डालती एक स्ट्रिप पर. जैसे मेरी नज़र इस पर रहने से ये धुंधली नहीं पड़ेगी. अभी तक वे बेहद मुखर थीं, प्यार में डूबी किसी नाजनीन के मादक गुलाबी होठों की तरह.

आखिरकार मुझसे रहा नहीं गया. मैंने कार्ल के पास जा कर उसके माथे पर एक हल्का सा चुम्बन जड़ दिया. वह शायद कच्ची नींद में ही था. उसने आहिस्ता से आँखें खोलीं. मैंने उसकी उनींदी अधखुली आँखों में झांका. उसकी आँखे मेरी आँखों में डूबीं. और हमने आँखों में ही कुछ बात की. वो चौंक कर उठ बैठा.

"सच?" उसकी आँखों में चमक चौंधियाई हुयी थी. उसके होठों पर मुस्कान गहरी थी. मैंने स्ट्रिप उसकी आँखों के सामने रख दी. उसने एक नज़र स्ट्रिप को देखा, बिना अपने हाथ में लिए और अपनी दोनों बाहों में मुझे समेट कर अपनी आंख्ने बंद कर लीं.

मैंने भी उसी तरह बाहों में रहते हुए उसकी बगल में लेट कर अपनी आँखें बंद कर लीं. हम दोनों एक दूसरे की गिरफ्त में थे. स्ट्रिप को मैंने इस बीच आहिस्ता से बेडसाइड टेबल पर रख दिया था, एहतियात से.

जाने कितनी देर हम इसी तरह एक दूसरे में समाये पड़े रहे. आखिरकार कार्ल ने आंख्ने खोलीं और मेरी मुंदी आँखों पर अपने होंठ रखे और बोला, “स्वीटहार्ट, नाउ यू मस्ट बी वैरी हैप्पी. राईट?”

“एस, आय एम. वैरी वैरी वैरी वैरी हैप्पी.”

उस वक़्त एक पल के लिए एक डूबता सा खयाल मेरे मन में आया था कि ये बच्चा कार्ल का तो नहीं था. लेकिन मैंने उसी लहर के साथ इस ख्याल को मेरे मन के समंदर में गहरे, बहुत गहरे दफ़न कर दिया था. मैंने जो किया था बहुत सोच समझ कर किया था. मुझे कोई अफ़सोस नहीं था. कार्ल मेरी ज़िंदगी है. ये बच्चा उसे बेहतर बनाने के लिए मेरे गर्भ में आकार लेना शुरू हो गया है. इससे ज्यादा मुझे कुछ भी नहीं सोचना था.

कुछ मिनट पहले जब स्ट्रिप पर गुलाबी रेखाएं बन गयी थीं उसी पल से अनुराग और मेरा रिश्ता ख़त्म हो गया था. मेरे मन में उसके लिए आदर था, अनुराग था और एक प्यारी सी भावना. बस! न उससे आगे कुछ और न ही पीछे जा कर लगभग एक महीने चले उस रिश्ते में मुझे कुछ तलाशना था.

आज से मेरी एक नयी ज़िंदगी शुरू हो गयी थी.

कार्ल ने उस सुबह मेरे लिए फ्रेंच टोस्ट बनाए थे. मैंने अनुराग के साथ शाम की मीटिंग मेसेज कर के रद्द कर दी थी. बिना कोई वजह बताये. सिर्फ इतना कहा कि समय मिलते ही फ़ोन करूंगी. लेकिन मैं जैसे उसे भूल ही गयी.

तीन दिन मैं इस नयी खबर के झूले में झूलती रही थी. कार्ल और मैं बराबर खुश थे. मैं तो खुश होने से खुश थी कार्ल मेरे खुश होने से खुश था. तीन दिन किस तरह उड़ गए मुझे पता नहीं लगा.

आखिर तीन दिन बाद जब मेरा उत्साह कुछ कम हुआ तो मुझे अनुराग का ख्याल आया. मैंने सोचा कि शाम को उससे बात करूंगी. क्या बात करूंगी और कैसे करूंगी ये बहुत बड़ी उलझन थी मेरे लिए. लेकिन सोचा कि जब आमने सामने होंगें तो शायद समझ आ जाए कि क्या कहना है और कैसे कहना है और शायद हिम्मत भी आ जाये.

लेकिन दिन में जब मैं किसी काम से कार्ल के केबिन की तरफ गयी तो देखा अनुराग उसके सामने बैठा था. ज़ाहिर है वह मेरी तलाश में वहां आया था. दरवाजे की तरफ उसकी पीठ थी सो उसने मुझे न आते देखा न झिझक कर वहां से जाते. अलबत्ता कार्ल ने हैरानी से देखा लेकिन मैंने उसे इशारे से ही कह दिया की बाद में बात करेंगे.

मैं फ़ौरन अपने केबिन में गयी और उसे फ़ोन लगा कर शाम को उसी होटल के उसी कमरे में मिलने की बात की जो मेरे इस अभियान की प्रयोग शाला था.

मैं जब होटल पहुँची और दरवाज़ा खोला तो सामने ही सोफे पर अनुराग बैठा था. मुझे देख कर उठ खडा हुया. हम हमेशा की तरह गले मिले और हमारे होंठ भी पिछ्ले कई दिनों की विरह के उलाहने में एक दूसरे से लिपट गए. कितना वक़्त एक दूसरे को टोहने में गुज़रा मैं नहीं जान पायी. मेरा मन अनुराग के प्रेम में डूबा चाहता था लेकिन दिमाग मुझे मेरी स्थिति के बारे में बार-बार आगाह कर रहा था. आखिर मैंने अपना आलिंगन हल्का किया तो अनुराग ने भी अपनी बाहों की गिरफ्त मुझ पर से कम की.

वह सोफे पर बैठा और मुझे अपने साथ ही बैठा लिया. मैं बैठ तो गयी लेकिन मेरा मन मुझे कह रहा था कि इस तरह इतनी पास बैठ कर उसकी रूह और जिस्म की गर्माहट को महसूस करते हुए मैं वे ठन्डे शब्द उससे नहीं बोल पाऊँगी.

मैंने उसका हाथ जो मेरे दोनों हाथों को समेटे हुए था. हलके से अपने गालों से लगाया. फिर अहिस्ता से अपने दोनों हाथ छुडाये और उठ कर खड़ी हो गयी. वह कुछ परेशान हो चला था.

"क्या हुआ रोजी? कम सिट विथ मी."

मैं कुछ नहीं कह पायी. मेरा गला रुंध रहा था. अचानक मुझे एक झटके में ख्याल आया कि आज के बाद शायद हम दोनों कभी नहीं मिलेंगे. और अगर मिले भी तो इस तरह प्रेमिओं की तरह तो हरगिज़ नहीं. और ये भी हो सकता है कि आज के बाद अनुराग मेरा चेहरा देखना भी पसंद न करे.

लेकिन ये काम तो करना ही था. मैं कुछ भी न कहते हुए उसके सामने वाले सोफे पर आ कर बैठ गयी. "
"अनुराग, मुझे तुमसे एक ज़रूरी बात कहनी है. " मैं फिर ठिठक गयी थी. कैसे कहूं?

"हाँ बोलो ना. मुझे लग रहा है कोई बात है जो तुम मुझसे कहां चाहती हो और छिपा भी रही हो." अनुराग भी कुछ-कुछ परेशान सा लगा मुझे.

"सुनो. अनुराग. " मैं फिर चुप हो गयी थी. मुझसे नहीं हो पायेगा. एक बार लगा कि उठ कर भाग जाऊं. कभी कुछ न बताऊँ अनुराग को. चुपचाप उसकी ज़िंदगी से निकल लूं.

लेकिन फिर लगा कि ये नहीं कर पाऊँगी. फिर ख्याल आया कि ये बात जान लेने के बाद शायद अनुराग मुझ से नफरत करने लगे. और मैं उसकी नफरत को उठा कर ज़िंदगी भर कैसे जिऊंगी? फिर ख्याल आया कि यह अच्छा ही होगा. वो मुझे भूल जायेगा नफरत के साथ.

लेकिन ये ख्याल अगले ही पल दिल से निकाल कर फ़ेंक दिया. अनुराग की नफरत? नहीं. जिस इंसान के साथ इतने अन्तरंग पल जिए, जिसके बीज को अपनी कोख में धारण किया. जिसका बच्चा सिर्फ अपना मान कर अपने कलेजे से लगा कर पालूंगी, उस पुरुष की नफरत? नहीं. मर जाऊंगी अगर ऐसा हुआ तो.

कुछ भी हो, उसे सच बताना ही होगा. यही सही होगा. वैसे भी मेरे और अनुरागा के प्रेम की उम्र इतनी ही तो थी. जब तक मैं गर्भ धारण न कर लूं तभी तक ही तो मिलना था मुझे उससे. अब जो हो सो देखा जाएगा.

"अनुराग............" मैं फिर चुप हो गयी तो वह उठने को हुआ. मुझे डर लगा कि अगर एक बार फिर उसने मुझे छुआ तो मैं पिघल जाऊंगी. मेरे इरादे डगमगा जायेंगे. मैंने उसे हाथ के इशारे से रोका. और बेसाख्ता बोल पडी.

"अनुराग. आय एम प्रेग्नेंट. "

अनुराग जहाँ बैठा था वहीं बैठा रह गया. जाने कितनी देर हम इसी तरह बैठे रहे. मैं इस इंतजार में कि वो कुछ बोले तो मैं अपनी आगे की बात उसे कह सकूं. और वो शायद मुझसे ही आगे की बात सुनना चाहता था.

आखिरकार वही बोला, "रोजी आय ऍम विथ यू. जो भी जैसे भी करना है. मैं तुम्हें डॉक्टर के पास ले जाऊँगा. मैं सब करूंगा. आय ऍम सॉरी यू हैव टू गो थ्रू थिस." ग्लानी की इबारत मैं उसके चेहरे पर साफ़ पढ़ सकती थी.

मुझे एकाएक अनुराग पर बहुत सारा प्यारा उमड़ आया. जी किया कि उसके पास जा कर बैठूं. लेकिन उठ नहीं पायी. पैर जैम गए थे.

अब मुझे बोलना तो था. मैं बोली लेकिन एक-एक लफ्ज़ जैसे मेरी आवाज़ में नहीं किसी और की ही आवाज़ में निकल रहा था.

“अनुराग. ये बच्चा मैं रखूँगी. लेकिन ये मेरा है. सिर्फ मेरा. मेरा और मेरा. किसी और का नहीं. तुम्हारा तो बिलकुल नहीं. न तो तुम्हारी कोई ज़िम्मेदारी है इसे ले कर और न ही कोई हक. सच कहूं तो मैं तुमसे इसी वजह से ही मिलती रही. तुम्हें पसंद किया. तुम्हें जाना और तुम अच्छे लगे और ये लगा कि तुम ऐसे पुरुष हो जिसका बच्चा मैं चाहूंगी. लेकिन ये मत समझना कि मैंने तुम्हें कोई धोखा दिया है. तुम जब चाहोगे मैं तुम्हें बच्चे से मिलवा दूंगी. लेकिन बच्चा सिर्फ मेरा होगा. मैं इसमें कोई और बात नहीं होने दूंगी.”

इतना बोल कर एक ही सांस में एक ही बार हिम्मत कर के मैं हांफ गयी थी. अनुराग उठ खडा हुआ था. इससे पहले कि वो उठ कर मेरे पास आता, हम भावना में बहते, मैं भी उठ खडी हुयी. वो एक कदम आगे आया और मैं दो कदम पीछे हट गयी.

“अनुराग. मेरे लिए ये गर्भ बहुत कीमती है. कार्ल मुझे ये नहीं दे सकता था. मेरी उम्र निकलती जा रही थी. मैंने तुम्हें दिल से चाहा और तभी तुम्हारा बच्चा भी चाहा. ये मेरा बच्चा है. और मुझे हर हाल में इस गर्भ का संभालना है. अब हम कभी नहीं मिलेंगे. बच्चे के जन्म के बाद मैं तुम्हें उससे एक बार मिलवा दूंगी.”

यह कह कर मैंने उसके चेहरे की तरफ नज़रें उठाये बगैर झटके से सोफे पर रखा अपना बैग उठाया था और बाहिर निकल आयी थी.

मैंने नहीं देखा था कि उसकी आँखों में एक खालीपन उतर आया था और फिर कुछ पनीली हुयी थीं. फिर एक ही झटके में वह रीता हो गया था.

मैं नहीं जान सकी थी कि की शायद उसके दिल में भी कुछ चटखा था उस शाम. मुझे उस वक़्त सिर्फ अपने उस अजन्मे बच्चे की फ़िक्र थी जो मेरे अन्दर लगातार बढ़ रहा था. हालाँकि अभी उसका दिल धडकना शुरू नहीं हुआ था.

वहां से मैं सीधे बिना सोचे समझे बिना जाने कि मैं क्या कर रही हूँ सीधे फैक्ट्री चली आयी थी.

बाहर गाडी खड़ी कर के तेज़ तेज़ चलते मैं कार्ल के केबिन में दाखिल हुयी थी और उसे लगभग घसीटते हुए बाहर ले आयी थी.

“चलो न कार्ल. आज एक लम्बी ड्राइव पर चलो. आय वांट टू स्पेंड थिस होल इवनिंग विथ यू.”

कार्ल हैरत में था. लेकिन खुश भी था. मेरे इसी तरह के अचानक हो जाने वाले हमलों से आकर्षित हो कर ही तो मेरे इश्क में पड़ा था और अब अब मेरे ठहरे हुए रवैये से वह भी ठंडा हो गया था.

अब मुझे में पिछले तीन दिनों में आये इन नए बदलावों से ज़ाहिर है वो खुश था. इसके बावजूद कि अब दिल्ली की सड़कों पर ड्राइव करने में उसे कोई आकर्षण नज़र नहीं आता था. उसने फ़ौरन लपक कर अपने ड्राईवर से गाडी की चाभी मांगी थी और ड्राइविंग सीट पर बैठ गया था.

मैं भी दूसरी तरफ से अन्दर बैठी और अपनी गाड़ी की चाभी ड्राईवर को दे कर कहा," हरी सिंह आप मेरी गाड़ी घर पे छोड़ देना. और नाजिया को कह देना हम देर से आयेंगे. वो खाना खा कर सो जाए.”

उस शाम के बाद से मैं सिर्फ और सिर्फ एक गर्भवती औरत बन गयी थी. मेरे जीवन की पहली प्राथमिकता अब सिर्फ मेरा बच्चा थी जो मेरे गर्भ में आकार लेना शुरू हो गया था. मैं सुबह उठती तो उसके ख्याल के साथ, शाम को घर आती तो उसके ख्याल के साथ, दिन में काम करती तो उसके ख्याल के साथ. यहाँ तक कि रात में भी वह मेरे ख्यालों में रहता.

कार्ल को मेरी इस मानसिक और भावुक व्यस्ततता से कुछ उलझन होने लगी थी. मगर मैंने उसे आश्वस्त कर दिया था कि ये मेरा उतावला पन भी है और पकी उम्र में हुए गर्भधारण की वजह से अतिरिक्त सावधानी भी है. वैसे कार्ल मेरी खुशी में खुश था.

कई बार मुझे अनुराग का ख्याल आता. दिल दुखता. इसलिए भी कि न चाहते हुए भी मैं कहीं दिल के एक कोने में उसे चाहने लगी थी. दिल कहता था उससे मिलने को. अपने दिल का हाल उसे बताने को, उसके दिल का हाल पूछने को. दुनिया जहां की बातें करने को, जैसे हम करते थे उन दिनों में. लेकिन मैंने मन कडा कर लिया था. मैं उसे काफी तकलीफ दे चुकी थी अब और नहीं देना चाहती थी.

अनुराग ने भी मेरी बात का मान रखा था और फिर मुझे फ़ोन तक नहीं किया था. ज़ाहिर है अपनी तकलीफ से जूझने के लिए यही तरीका उसे भी ठीक लगा था. मैं तो कुछ सोच कर उसके करीब गयी थी अनुराग का मुझे अपनी ज़िंदगी में शामिल करना सिर्फ मुझे पसंद करने की वजह से ही तो था.

कई बार मुझे लगता कि इस एक चाह के चलते मैंने उसका दिल बुरी तरह दुखाया है. कार्ल को अँधेरे में रखा है. मैं इन दोनों की दोषी हूँ. फिर मैं अपने बढ़ते हुए पेट की तरफ देखती और जब कभी मुझे पेट में बन रहा मेरा शिशु टांग मारता तो मेरा सारा अपराध बोध और ग्लानी इस लहर में बह जाते और मैं नदी की तरह खुद को साफ़ सुथरा पाती.

मैं नदी की ही तरह साफ़ सुथरी हो कर माँ बनी और उस नन्हे फ़रिश्ते के प्रेम में ऐसी बंधी कि सब कुछ भूल गयी. मैं भूल गयी कि मैं एक औरत भी हूँ, एक पत्नी हूँ, एक ज़िम्मेदार व्यवसायी हूँ. मैं कुछ महीनों के लिए माँ ही हो कर रह गयी. कार्ल भी जैसे एक नयी ज़िन्दगी पा गया था. मुझे उम्मीद नहीं थी कि वो बच्चे के साथ इस कदर जुड़ जायेगा. छः महीने बीतते न बीतते हम दोनों ही घर में और बच्चे में इतना गुम हो गए कि फैक्ट्री का नफ़ा लगभग आधा ही रह गया.

एक शाम मैं घर पर ही थी. बेटू, हाँ यही नाम रखा था मैंने फ़रिश्ते का. नामों की जांच पड़ताल जारी ही थी. अभी किसी एक नाम पर हम मिया-बीवी का समझौता नहीं हो पाया था. बेटू के साथ बातें कर रही थी. उसे अभी दूध पिलाया था और अपनी बगल में लिटा कर उस पर झुकी मैं मीठी मीठी बातें कर रही थी जब कालबेल बजी और रेहाना ने आ कर बताया कि फैक्ट्री से तीन लोग मुझसे मिलने आये हैं.

***