दोहरी मार Dr Narendra Shukl द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

दोहरी मार

आलू है । गोभी है । प्याज़ है । ‘ रात के करीब आठ बजे कड़कती ठंड में सुनसान - सी पड़ी सड़क के एक कोने में किसी बच्चे की आवाज़ सनकर मैं चैंका ! शायद , कोई नया सब्ज़ी वाला है । सड़क पर आकर देखा , दूर - दूर तक घना कोहरा छाया हआ था । कुछ दिखाई नहीं दे रहा था । सोचा , होगा कोई । तुम्हें क्या । चल कर रज़ाई में दुबक जाना चाहिये । लेकिन , जैसे ही जाने को हुआ , ‘आलू है । गोभी है । प्याज़ है । ‘ इस बार , कुछ धीमी आवाज़ सनाई दी । ‘इस वक्त कौन हो सकता है ? ‘ जाकर देखा - चैराहे पर , एक आठ - दस वर्ष का , दुबला- पतला , काले रंग का लड़का , एक फटी सी चादर लपेटे सब्ज़ी बेच रहा है । करीब से देखने पर मैने उसे तुंरत पहचान लिया । वह मोहल्ले में सब्ज़ी बेचने वाले , रामफेर का छोटा भाई, सूरज था ।

‘ क्यों बे सूरज , इतनी सर्द रात में तू यहां क्या कर रहा है ?‘ और आज तेरी रेहड़ी कहां है । मैंने हैरानी - मिश्रित तनिक क्रोध से पूछा । ‘

बर्फीली हवा का झोंका बंद गले के गर्म कोट को चीर कर शरीर में तीर -सा चुभने लगा । मैंने दोनो हाथ कोट की जेब में खोंस लिये ।

‘ सब्जी बेचत हन साहब । रेहड़ी, इस्टेट आफिस वाले उठाय ले गये । वह कुछ रूककर उदास मन से बोला । ‘

‘साहब के बच्चे , यह कोई वक्त है सब्ज़ी बेचने का । मैंने उसे डांटते हये कहा । ‘

‘गरीबन का भी कोई टाइम होत है हुज़ूर ? उसने उपेक्षापूर्ण नज़रों से देखते हुये प्रशन किया । ‘

स्ूारज के प्रशन का उत्तर न सूझ पड़ने पर मैंने औपचारिक रूप से पूछा - ‘तेरा बड़ा भाई कहां है । परसों से दिखाई नहीं दिया ? ‘

वह रोने लगा । आंसू की दो बूंदें , ओस की तरह उस मासूम की दोनों आंखों से ढूलक पड़ीं ।

मैंने घटनों के बल बैठ कर , उसके कंधों को थपथपाया ।

‘क्या हुआ सूरज , रोता क्यों है ? ‘सांतवना पाकर , वह और जोर से फफक फफकर कर रोने लगा ।

कछ देर बाद , एकाएक चुप होकर बोला - ‘ साहब , भैया नहीं रहे । ‘

मैं स्तब्ध रह गया । कानों को विश्वास नहीं हुआ । ‘क्या बक रहा है । होश में तो है ? अभी परसों ही तो मिला था । ....... अपना नया स्वैटर दिखा रहा था । ‘

‘ठीक कहत हन साहब । इधर , काम धंधा मंदा होने की वज़ह से पिछले द्वई महीना से झोपड़ी का किरावा नाही दिया गवा । कल रात , झोपड़ी का मालिक आय रहिन। भैया का मार-कूट के नवा स्वैटर , कंबल छीन के लय गवा । झोपड़ी मा ताला लगाय दिहस । इहै चादर, ओढ़ी हई चादर दिखाता हआ , ओढ़ के हम द्वई भाई , वहीं नीम के नीचे , जमीन पर सोय रहे । पता नाहीं कब यमरजवा आवा अरु . . . . भैया का लै गवा । ‘ उसे रोने से रोक पाना अब मुश्किल हो था । प्रकति और समाज की दोहरी मार से उत्पन्न रुदन से मैं भीतर तक कांप गया । . . लेकिन यह सोचकर आगे चलता बना . . कि शायद भगवान को यही मंजूर था ।

डा. नरेंद्र शुक्ल