लौट आओ काका Dr Narendra Shukl द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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लौट आओ काका

लौट आओ काका

‘नारिंद चलबो .... अम्मा ने हाथ में सूटकेस लेते हुये कहा ।‘

‘अम्मा कहां ? अम्मा को जाते देखकर मैं अपने कमरे से बाहर आ गया । ‘

‘बकचुना गांव में ...... । काका बहुत बीमार हैं । .... लागत है अबकि न बचिहैं । उनके चेहरे पर बेचैनी साफ नजर आ रही थी ।‘

मैं अपने दादा जी को काका कहता था । घर पर सभी उन्हें इसी नाम से बुलाते थे । मैंने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि लोग उन्हें काका क्यों कहते हैं ।

‘अम्मा, कैसी बातें कर रही हो । काका को कुछ नहीं होगा । थोडा बीमार हैं ठीक हो जायेंगे । बुढापे में छोटी - मोटी बीमारियां लगी ही रहती है मैंने अम्मा का हाथ पकडते हुये उन्हें सांत्वना देने का प्रयास किया ।‘

‘बिटवा, काका अब वैसा नाहीं हैं, जैसे आज से बीस साल पहले बीरिंद की शादी मा देखे रहैव । अब वै बूढ - पुरनिया होय गा हैं । कमर झुक गई है । दिन भर खांसत रहत हैं । आंखन से दिखाई नाहीं देयत । आवाज से मनई पहचानित हैं । ..... तूका बहुत याद करत थीं । पार साल जब हम पुटुर की शादी मा गये रहे तो हमका अकेले में बुला के कहिन नारिंद की अम्मा नारिंद से कहैव भैया, काका का भुलाय दिहो । अम्मा रोने लगीं ।‘

‘अम्मा घबराओ नहीं सब ठीक हो जायेगा । तुम चलो, जैसा हाल हो बताना । मैं पेपरों के बाद आने की कोशिश करूंगा । अपना ख्याल रखना । मैंने भारी मन से अम्मा को टैक्सी में बिठाते हुये कहा ।‘

‘ठीक हैं बिटवा जैसन तुहार इच्छा । उन्होंने साडी का पल्लू मुह में खोंसते हुये कहा । उनकी आंखों में आंसू छलक आये थे । उन्होंने अपना चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया ।‘ पिताजी साथ जा रहे थे इसलिये हम दोनों भाइयों में से कोई स्टेशन नही गया । मां के आंसू देखकर मेरी आंखों में भी आंसू उमउ आये । मैं अपने कमरे में आकर चुपचाप बैड पर लेट गया ।

मेरी आंखें हल्के से अपने आप बंद हो गईं । मेरे आगे गांव की तस्वीर खुल गई । घर, बाबा की कुटिया, खेत - खलिहान व रहट का छलछलाता साफ पानी और मेरे प्यारे काका । काका के साथ बिताया एक - एक क्षण फिल्म की रील की तरह मेरी आंखों के सामने आने लगा ।

बचपन में स्कूल की छुटिटयों में जब हम सब पिताजी के साथ गांव जाते थे तो रूदौली स्टेशन पर काका, लोटा - डोरी व एक बडी सी लाठी लिये हमारा इंतजार करते दिखाई देते । हमारी गाडी दोपहर तीन बजे स्टेशन पहुंचती थी । वे एक दिन पहले रात को ही चबैना - गुड लिये स्टेशन पहुंच जाते थे । रेलगाडी के स्टेशन पहुचते ही मेरी और मेरे बडे भाई, वीरेंद्र की आंखें स्टेशन पर खडे लोगों में से काका का ढूंढने लगतीं । काका हमें देखकर बहुत खुश होते । हमें गोदी में लेकर चूमते हुये कहते - ‘भैया मुन्ना आय गयो .... अपने काका के पास ।‘ उनकी छोटी - छोटी आंखों से पवित्र मोती टपक पडते । उन्हें देखकर ऐसा लगता जैसे हम दोनों भाइयों को पाकर उन्हें दुनिया का सबसे बडा खजाना मिल गया हो । मैं वीरेंद्र से दो साल छोटा था । लिहाजा छोटा होने के कारण वे मुझसे अधिक प्यार करते थे । मैं भी उन्हें बहुत चाहता था । मैं तब पांच साल का था और भैया वीरेंद्र सात साल के । हमारे पिताजी बहुत स्ट्रिक्ट थे । बात- बात पर डांट दिया करते थे लेकिन काका के सामने उनकी एक नहीं चलती थी ।

एक बार खाना खाते हुये पिताजी ने भाई साहब को कुछ कह दिया । काका बैलों को भूसा डालने जा रहे थे । पलट गये और पिताजी को डांटते हुये कहा - ‘खबरदार, बडकउ, जो खाना खाते हुये बचवा का कुछ कहा । बच्चा है, बडा होय के सीख जाये चम्मचिया से खाना । बडा अंग्रेज बनत फिरत हो और, तू कौन सा जन्म से सीख के आय रहियो ।‘ काका के चार बेटों और दो बेटियों में से पिताजी जी सबसे बडे थे । उन्हें शर्म आ गई । वे चुपचाप अपने कमरे में चले गये । तब से अब तक पिता जी ने काका के सामने हमें कभी नहीं डंटा । हमारा गांव रूदौली स्टेशन से कोई लगभग पच्चीस किलोमीटर था । बस की सुविधा नहीं थी । केवल तांगे चलते थे । अम्मा बताती हैं कि बस की व्यवस्था आज भी नहीं है । जीप व टैक्सियां ही चलती हैं । स्टेशन से घर के लिये पिताजी तांगा कर लिया करते थे पर, काका पैदल ही चलते थे । वे तांगे में कभी नहीं बैठे । स्टशन से ही वे मुझे अपने कंधे पर बैठा लेते । मैं अपनी छोटी - छोटी टांगं काका के गले के दोनो साइड करके आराम से उन पर लद जाता और वे लाठी लिये कच्ची सडकों, घनी अमराइयों व बाग- बागिचों से होते हुये गांव की ओर चल देते । रास्ते में वे कई जगह आराम के लिये रूकते । पानी पीते और फिर चल पडते । रास्ते में चलते - चलते वे मुझसे आग्रह करते - ‘भैया, उ कौन कबिता सुनाय रहो पार साल उहै सुनाय दियो । मैं कहता - कौन सी काका ? वे कहते - उहै मछरी जल कै है रानी । ‘ और मैं दोनों हाथ घुमाकर पूरे एक्शन से शुरू हो जाता - ‘मछली जल की है रानी । उसका जीवन है पानी । हाथ लगाओ डर जायेगी । बाहर रखो मर जायेगी ।‘

कविता सुनकर वे आत्मविभोर हो आशीर्वाद देते - ‘हमार भैया बडा कै होय जाय । अउर अपने काका के लिये घोती - कुरता लावैं । लउबो न भैया वे मेरी ओर घूमकर पूछ लेते ।‘ और मैं स्वीकति में सिर हिला देता । बचपन में मुझे यहां - वहां थूकने की बहुत आदत थी । गांव वाले घर में, मैं जब भी इधर - उधर थूकता काका हंस कर खरहारे से साफ कर देते । उन्होंने मुझे कभी कुछ नहीं कहा । मेरी बुरी आदतों पर भी वे ढाल बन कर खडे रहते । मैं अक्सर जंगल - पानी वाले लोटे को साफ पानी से भरी बाल्टी में डाल देता था । पिताजी मेरी इस हरकत पर मुझे आंखें दिखाते लेकिन काका कभी मुझसे नाराज नहीं होते थे । बाल्टी मांजते हुये परिवार वालों की तरफ देखकर वे मुस्कराते हुये कहते - ससुरा, मुराही करत है ।

मुझे वह दिन भी याद आया जब भाई साहब के प्री - इंजिनियरिंग में फेल हो जाने पर, पिता जी की मार से डरकर हम दोनो भाई घर से भाग निकले थे । भाई साहब पढने में अच्छे थे लेकिन इंजिनियरिंग अंग्रेजी माघ्यम से होने के कारण वे फिजिक्स तथा कैमिस्ट्री के अध्यायों को अच्छी तरह समझ न पाये । घर पर उन्होंने कभी कुछ नहीं कहा । कारण, पिता जी पढाई न करने के लिये हमें बहुत मारते थे । बडा होने के कारण भाई साहब को मुझसे अधिक मार सहन करनी पडती थी ।

मैं अपने बडे भाई साहब से आज भी बहुत प्यार करता हूं बचपन में मैं प्यार का अर्थ नहीं जानता था । लेकिन भाई साहब के हर अच्छे - बुरे काम में आंखें बंद कर के शामिल हो जाता था । इस सिचूएशन में भी किसी की परवाह किये बिना मैं भाई साहब के साथ चल पडा । लगभग एक सप्ताह चंडीगढ से दिल्ली, दिल्ली से चंडीगढ धक्के खाने के बाद हमें घर की याद आने लगी । घर से चुराये हुयेे 350 रूपये भी खतम होने को थे । लेकिन, वापिस घर जाने की हिम्मत नहीं थी ।

मैंने भाई साहब से कहा - ‘चल, वीरेंद्र गांव चलते हैं । काका के आगे पिता जी कुछ नहीं बोल पायेंगे ।‘ वे कुछ नहीं बोले पर भीतर ही भीतर उन्हें मेरा प्रस्ताव ठीक लगा और हम गाडी पकड कर रूदौली स्टेशन आ गये । शायद, हमारी किस्मत खराब थी कि पिताजी हमें स्टेशन पर ही मिल गये । मुदई चाचा जी भी साथ थे । वे हमें घर से ढूंढ कर आ रहे थे । पिताजी को इस तरह से अचानक स्टेशन पर देखकर हम दोनो भाई बहुत डर गये । हमें लगा कि हमारी नसों में रक्त का प्रवाह बंद हो गया हैं । हम सिर नीचा किये उनके थप्पड का इंतजार करने लगे लेकिन, उन्होंने हमें एक शब्द भी नहीं कहा । चुपचाप हमारा हाथ पकड कर चंडीगढ के लिये वापिस गाडी में बैठा लिया । हमें बडी हैरानी हुई्र लेेकिन, बाद में अम्मा से पता चला कि घर पर काका ने पिताजी को साफ कह दिया था कि बडकउ अगर बीरिंद - नारिंद को मरबो तो हमार मरा मुह देखबो ।

मैं रोने लगा । पत्नी ने मेरे सिरहाने आ कर पूछा - ‘आठ बज गये हैं । आज खाना नहीं खाना क्या ? सुबह आपको पेपर देने मेरठ भी जाना है । ‘ मैं हडबडा कर उठा - ‘अ अ आठ कैसे बज सकते हैं । मुझे बाजार जाना है । कल के लिये कुछ सामान लेना है ।‘ मुझे यकीन नहीं हुआ । मैंने घडी देखी सचमुच आठ बज गये थे - ‘ओफ ओ दुकानें बंद हो गई होंगी। टुथ - पेस्ट और ब्रश भी लेना है ।‘ पत्नी के सवालो को अनसुना कर, मैं अपने आप से बातें करता हुआ सडक पर आ गया । बाजार पहुंचकर देखा अभी दुकाने खुली थीं । करियाना की एक दुकान से मैंने आवश्यक सामान खरीदा और घर आ गया । रात भर मुझे नींद नहीं आई । रह - रह कर काका का चेहरा सामने आ जाता था ।

सुबह सात बजे मैं चंडीगढ रेलवे स्टेशन से मेरठ के लिये रवाना हुआ और ठीक तीन बजे मेरठ पहुच गया । मेरा स्टूडेंट, राहुल जिसे मैंने पिछले साल एम बी ए की तैयारी करवायी थी, मुझे लेने के लिये स्टेशन आया हुआ था । उसने मुझे देखा और अपने घर ले आया । घर पर खाना बना हुआ था । उसने कहा - ‘सर हाथ मुह धोकर खाना खा लो । सुबह का खाया हुआ है । भूख लग रही होगी ।‘ मैंने कहा - ‘हां राहुल, भूख तो लगी हुई है ।‘ वह बोला - ‘आ जाओ सर, फिर देर किस बात की है।‘ मैं हाथ - मुह धोेकर खाने बैठ गया । इस बीच घर - परिवार, पढाई, फिल्म, राजनीति आदि लगभग सभी विषयों पर बातें हुई । खाना खाकर मैं सोने चला गया । शाम को राहुल और मै बाजार गये । रात तकरीबन आठ बजे हमने खाना खा लिया । नौ बजे मैं पढने बैठ गया । अगले दिन इवनिंग शिफट में ‘दो से पांच‘ मेरा पहला पेपर ‘ हिुंदु ला ‘ का था । पेपर की तैयारी तो मैंने पहले ही कर ली थी लेकिन रिविजन के बिना मैं शून्य था ।

मैंने किताबें खोलीं और पढने लगा । हिुंदु ला के नोटस लिये मैं कमरे में टहल रहा था कि अचानक मोबाइल बज उठा । मैंने देखा गांव से अम्मा का फोन था । मैंने मोबाइल का बटन आन करके ‘ हैलो ‘ कहा । पीछे से अम्मा के रोने की आवाज आ रही थी । मैं सन्नाटे में आ गया । मैंने पूछा - ‘अम्मा क्या हुआ ? ‘अम्मा ने रोते हुये कहा - ‘नारिंद का का काका चले गये उनके मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे ।‘ मैं रूआंसा हो गया । एकाएक मुझे विश्वास नहीं हुआ - ‘ क क् क् कैसे ? क्या हुआ अम्मा ?‘ अम्मा ने रोते - रोते कहा - ‘भैया, काका बहुत बीमार रहे । फैजाबाद अस्पताल मा पिछले चार दिन से भर्ती थे । डाक्टर ने दवाई दी थी । सब ठीक हाय गा रहा । कल हम सब उनका घर भी ले आये थे लेकिन आज शाम चार बजे काका ने अचानक तुहार पापा और हमका एक साथ अपने पास बुलाया । काका चारपाई पर लेटे थे । हम और तुहार पापा वहीं जमीन पर उनके पास बैठ गये ।‘

काका ने पापा से कहा - ‘भैया, अब सबका ख्याल रखना बुलावा आय गवा है । अब जात अहन ।‘ पापा ने उनका हाथ अपने हाथ में लेकर रोते हुये कहा - नहीं काका, आपको कुछ नहीं होगा । आपके बिना हम अनाथ हो जायेंगे । ‘ काका ने पापा के आंसू पोंछते हुये कहा - ‘ न रोओ बडकउ तू रोवै लगबो तौ नारिंद - बीरिंद की महतारी का कौन संभाले । इ घर कौन संभाले भैया । भैया, एक बात तूसे छुपावा उका पछतावा है ।‘

पापा ने सिसकते हुये कहा - ‘ क् क् क्या काका ?‘ ‘भैया, पार साल मुदइया धोखे से हमसे कागज पर अंगूठा लगवा के तरई के पुरवा वाली जमीन आपने नाम कै लिहिस काका रोने लगे ।‘ कुछ देर रूककर काका ने फिर कहा - ‘भैया, झगडा न करना । पांच हजार रूपया अमानीगंज पोस्ट आिफस मा जमा है आपन छोटे भाई गरूढ का दैय देना । उ बिचारा हमरी तरह अंगूठा छाप है । मुदइया उहके साथ भी बहुत छल किया है ।‘ पापा ने सिसकियां लेते उन्हें होंसला दिया - ‘घबराओ नहीं काका । आपको कुछ नहीं होगा सब ठीक हो जायेगा ।‘ वे उनके पैर दबाने लगे । हम कहिन - ‘काका, जी हल्कान न करो । हमैं कुछ न चाही । तुहार सारा परिवार एक ही रहेगा । हमउ उनका हाथ पकड कर दिलासा दिया लेकिन उनका हाथ ठंडा पडता जा रहा था । सांस फूल रही थी । काका कहिन - ‘खुश रहो बडी दुलहिन । कहा सुना माफ करिहो अब जात अहन उनकी आंखें बंद होने लगीं ।‘ शायद, बूढ - पुरनिया को अपनी मौत का अंदेशा पहले हाय जात है ।

हम कहिन - ‘काका नारिंद का बुलाय दी ? काका कमजोर पडती आवाज मा कहिन - ‘नारिंद की अम्मा, अब न देख पउबे आंखन पर परदा पडत है । अब न देख पउबे जाइत है ।‘ उनकी आंखों में आंसू थे और बस काका हम सबका छोड के चला गये अम्मा फफक - फफक कर रो पडीं ।‘

मेरी आंखों में भी आंसुओं का सैलाब उमड पडा । मैं जोर - जोर से रोते हुये अपने - आपको धिक्कारने लगा - ‘हाय मैं कितना स्वार्थी हूं । पिछले बीस बीस साल से लगातार वे मेरे गांव आने का इंतजार करते रहे और मैं उनसे मिलने न गया । मैं उनकी छोटी सी चाहत भी पूरी न कर पाया । कितनी बार कितनी बार उन्होंने चाचा व अम्मा के हाथ संदेशा भिजवाया - नारिंद से कहि दियो काका याद करत हैं यक बार चेहरा दिखाय जाव ।

मैं हर साल जाने - अनजाने में कोई न कोई बहाना बनाता रहा । मैंने एक ऐसे इंसान का दिल तोडा है जो प्यार व ममता का सागर था । मेरे लिये उनके मन में असीम प्यार को देखकर सभी आश्चर्य चकित रहते थे कि कोई किसी से इतना प्यार कैसे कर सकता है । मुझेे देखकर वे अपना वजूद भूल जाते थे । और मैं कितना मतलब परस्त हूं मैंने हमेशा केवल और केवल अपने बारे में सोचा । मेरे काका, जो मुझे प्यार से गले में लटकाये यहां - वहां घूमते नहीं थकते थे हाय अंतिम समय में मैं उन्हें अपना कंधा भी नहीं दे पाया । मैंने उनके निष्ःछल प्यार की कद्र नहीं की ।‘ मैंने शून्य में दोनों हाथ जोडकर काका से माफी मांगते हुये कहा - काका अपने नारिंद का माफ कर दो । एक बार बस एक बार लौट आओ काका इस बार मैं गांव जरूर आउंगा । अचानक देखता हूं कि काका लोटा - डोरी व लाठी लिये सामने खडे हैं और मेरे सिर पर हाथ फेरते हुये मुस्कराते हुये कह रहे हैं - भैया मुन्ना राजा जात अहन अब भेंट न होय पाइ ।‘

- डा नरेंद्र शुक्ल