राहबाज - 8 Pritpal Kaur द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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राहबाज - 8

निम्मी की राह्गिरी

(8)

मैं प्यार हूँ

मैं ठन्डे पानी से नहाती हूँ हर रोज़. पानी की धार तेज़ी के साथ मेरे सामने रखी बाल्टी को भर रही है. मैं मग भर-भर कर खुद पर डालती चली जाती हूँ. बदन भीग गया है. अब मैंने साबुन से खुद को मसलना रगड़ना शुरू कर दिया है. साबुन का झाग अपनी तमाम रवानगी और खुशबु के साथ मुझे भीतर तक भिगो रहा है. मैं लगातार साबुन लगाये जा रही हूँ. शावर से बहता पानी मुझे भिगोता हुया मेरे बदन से झाग को बहाता मुझे और ठंडा किये जा रहा है. मेरे नथुने पानी की ठंडी भाप और झाग की खुशबु से भर गए हैं.

मुझे याद आता है मुंह पर भी साबुन लगाना है. यहाँ तक आते आते मैं कुछ थक सी गयी हूँ. लेकिन मैं अपने मन और मुंह की मांग को बिना नकारे पानी का एक भरा हुआ मग अपने ऊपर डालती हूँ. चेहरे पर लगा हुआ साबुन का झाग एक बार फिर मुझे आनन्द और खुशबु से सराबोर कर जाता है.

अब बारी है मेरे बालों की. मैंने अपना सिर शावर के नीचे रख दिया है. लेकिन अब तक मैं थक कर चूर हो चुकी हूँ. मेरे हाथ मेरी बगल में लटक गए हैं. मैंने हिम्मत कर के शैम्पू की बोतल उठायी है. खोल कर अपनी बाईं हथेली पर काला चिपचिपा शैम्पू उढ़ेला है और बालों में लगाने की दमतोड़ कोशिश में धराशायी हो गयी हूँ.

मेरी ऑंखें थकान के मारे नींद से बोझिल हुयी जा रही हूँ. मैं किसी तरह खुद को हिम्मत दिलाती हूँ कि बस अब बाल धो लूं तो फिर जा कर इत्मीनान से सो जाऊंगी. नींद मुझ पर हावी हुयी जा रही हैं. हाथ ही नहीं उठ रहे किसी भी तरह से.

मैं एक ठंडा सपना बुन रही हूँ. सपना मुझे बुन रहा है. मैं खुद को बुने जा रही हूँ. जिस सपने को बुनते हुए मैं यहाँ तक आयी हूँ वो तो पडा सो रहा है. वो जाने कब से सो रहा है. वो बस सो ही गया लगता है. वो हर वक़्त सोता ही रहता है. उसके लिए घर एक बड़ा सा बेडरूम ही है. या यूँ कहूँ कि उसे इस घर में सिर्फ और सिर्फ बेडरूम ही नज़र आता है. मेरी तमाम कोशिश शैम्पू को बालों में लगाने की, उसके सोने और मेरे ख्वाब के बीच अटक कर घायल हो गयी है. मैं एक झटके से उठती हूँ. ठन्डे पसीने से नहाई हुयी.

मैं नींद और ख्वाब के मुहाने पर रुकी हुयी एक औरत हूँ.

एक वक़्त था जब मैं एक मुक्कमिल इंसान थी. अब मैं क्या हूँ मैं नहीं जानती. कभी खुद को पत्नी पाती हूँ. कभी सिर्फ माँ, कभी सिर्फ औरत, कभी सिर्फ एक खाली बर्तन. जिसकी अपनी कोई भावनाएं न हो. जो सिर्फ दूसरों के लिए खाना परोसने के काम आता है.

और वो अब सिर्फ मुझे ज़िन्दगी जीने के लिए ज़रूरी सामना मुहैया करवाने वाला बन कर रह गया है. उसका काम मुझे सेक्स और पैसा देना रह गया है. मैं अब भी इतने साल बीत जाने के बाद भी उससे प्यार करती हूँ. वो क्या करता है. मुझे नहीं पता. मैं समझ ही नहीं पाती.

मैं उसके साथ जीना और मरना चाहती हूँ. उसकी बगल में लेट कर घंटों बतियाना चाहती हूँ. स्वीट नथिंग्स. लेकिन उसे फुर्सत नहीं है. वो आता है. खाता है. लैपटॉप से इश्क फरमाता है. फ़ोन उसकी प्रेमिका है. मेरा प्रेमी तो खो गया है. इस आदमी में मैं उसे ढूंढ कर थक चुकी हूँ. मुझे उसका भूत भी नहीं मिला कभी.

बिस्तर पर कभी कभार जो उन्माद भरा प्रेम होता है उसके बाद तो मैं और भी संदेह में पड़ जाती हूँ. वो कहाँ गया? मैं उसे ढूंढती हुयी अपने ही भीतर दर- ब-दर भटकती हूँ. वो कहीं नहीं मिलता.

कभी-कभी किसी राह के मोड़ पर अँधेरे में लैम्पपोस्ट के किनारे खड़ा कोई शख्स उसके जैसा लगता है मुझे. मैं भाग कर जाती हूँ. उसके कंधे पर हाथ रख के उसे अपनी तरफ खींचने की नाकाम कोशिश करती हूँ. मगर जब वो मुझसे आँख मिलाता है तो मुझे एहसास होता है कि ये वो नहीं है. ये तो कोई और ही है.

मेरा साथी मुझसे खो गया है. मैं रोना चाहती हूँ. रो नहीं पाती. बच्चे देख लेंगे. वे भी बड़े हो रहे हैं तेज़ी से. जल्दी ही छूट जायेंगे अपनी ज़िंदगी की तलाश में वे भी. आगे निकल जायेंगे. मैं यहीं खडी रह जाउंगी.

जिसके साथ सफ़र शुरू किया था वो रास्ते में ही कहीं और निकल गया और मैं खडी रह गयी. मैं छिटक गयी हूँ ज़िन्दगी से. इस सफ़र में मुझे क्या मिला मैं समझ नहीं पाती. मर-मर कर जो हासिल किया था वह सब एक पानी का बुलबुला निकला. मैं तो तब भी जो थी आज भी वही हूँ. लेकिन मेरे आस-पास कुछ भी वैसा नहीं बचा जैसा सफ़र की शुरुआत में था.

कहाँ आ कर रास्ते मुझ से भटक गए मैं खोज नहीं पाती. वापिस मुड कर पीछे जा कर भी देखा है. कुछ हासिल नहीं हुया. छूट चुके रास्ते भी पहचान बदल चुके हैं. पाँव के निशान मिट गए हैं. मूसलाधार बारिश होती रहती है वहां. मेरे पीछे नदी में पानी बहता ही जा रहा है. कई तालाब मेरा रास्ता रोकने को ही बन उठते हैं. मुझे वो भी इस भटकन से खुश नज़र नहीं आता. तो फिर कहाँ चला गया सब कुछ?

मैंने तो कुछ भी खोने के लिए नहीं किया था. सब पाने को ही किया और पाया ये खाली बर्तन जैसा रीता रिश्ता. ये सारी गड़बड़ इस शादी ने ही फैला रखी है. शादी नहीं थी हमारे बीच तो हम कितने खुश और पूरे थे. वो अपनी जगह मैं अपनी जगह. शादी ने हमें तनहा कर दिया. घर को भर दिया सामानों से, रिश्तों से, बच्चों से, जिम्मेदारियों से, शोर से.

बस हम दो इंसानों को खामोश और रीता कर दिया.

मगर मैंने हार नहीं मानी है. नहीं मानूँगी भी. मेरे आस-पास तो सब कितने खुश हैं अपनी-अपनी शादी में. ये खालीपन मेरी ही शादी में क्यूँ है?

मैं पूछती हूँ अनुराग से. आज सुबह ही नाश्ते के वक़्त पूछा था.

"सुनो, अनुराग. कितने दिन हो गए हमें फिल्म देखे. आज चलो देखते हैं. अक्षय कुमार की फिल्म आयी है. टॉयलेट. बहुत फन है. चलो न. "

अनुराग ने मुझे एक नजर देखा था और मैं समझ गयी थी वो ज़रूर ले कर चलेगा.

उसने एक भी शब्द नहीं कहा था. और मैंने फिर कहा था, "तो मैं तैयार रहूँ न? हम चलेंगे न."

"ऑफ़ कोर्स हम चलेंगे."

मैं जानती हूँ अनुराग मेरी कोई बात नहीं टालता. बस कभी कभी अनमना सा हो जाता है. चलता है यार, मर्दों की दुनिया ऐसी ही होती है. ये लोग यूँ ही उखड जाते हैं ऐसे ही. बिना किसी बात के. ज्यादा परवाह नहीं करनी चाहये.

लेकिन क्यूँ न करूं परवाह? ये मेरा पति है. मुझे जान से भी ज्यादा प्यारा है. नहीं. जान से ज्यादा तो नहीं. जान से ज्यादा तो मुझे अपने बच्चे प्यारे हैं. लेकिन वो भी नहीं. अब बड़े हो गए हैं वे दोनों. अब उनके लिए प्यार दूसरी तरह का मन में उमड़ता है. वैसा नहीं जैसा पहले उमड़ता था. अनुराग के लिए भी तो वैसा प्यार नहीं उमड़ता जैसा तब उमड़ता था जब मिले ही मिले थे.

अचनाक अनुराग से हुयी पहली मुलाकात याद आ गयी है.

हम लोग पूरा परिवार अम्बाला से यहाँ दिल्ली नए-नए शिफ्ट हुए थे. पश्चिमी दिल्ली की एक पोश कॉलोनी के पिछवाड़े की तरफ की एक कोठी में पीछे की तरफ बने हुए एक कमरे, बाथरूम और किचेन वाले सेट में रह रहे थे.

ये मेरे मामाजी ने दिलवाया था. वे भी कुछ तीन साल पहले दिल्ली आये थे. एक प्राइवेट कंपनी में अकाउंटेंट की नौकरी कर रहे थे. पापा पिछले कई साल से अम्बाला में एक जूतों की दुकान चला रहे थे. जो कुछ ख़ास नहीं चलती थी.

अब मैं और तीनों भाई बड़े हो रहे थे तो खर्चे बढ़ गए थे और गुज़ारा होना दिन पर दिन मुश्किल होता जा रहा था. ऐसे में मामाजी के सुझाव पर हम लोग अपना टीन-टप्पड उठा कर दिल्ली चले आये थे. ज्यादा कुछ था नहीं पापा की जेब में. घर और दुकान सब किराये के थे. जमा पूँजी कुछ भी न होने के बराबर.

यहाँ आ कर मुझे और दो भाइयों को पास के सरकारी स्कूल में दाखिला दिलवा दिया था. हम तीनों सुबह ही स्कूल जाते पैदल. दिन में आ कर खाना खाते और फिर माँ के साथ जो भी वो काम कर रही होती उसमें हाथ बटाते.

कभी वो लिफ़ाफ़े बना रही होती, कभी कोई पैकिंग का काम कर रही होती, कभी अचार बना रही होती. जो भी काम बाज़ार से मिलता, पापा लाते और हम सब मिल कर करते.

शाम को जल्दी ही खाना खा कर स्कूल से मिला होम वर्क करते और उस एक कमरे में सिकुड़ कर सारा परिवार सो जाता. कई साल यही सब चला. कोशिश रहती कि घर का हर सदस्य कोई ऐसा काम करे जिससे कुछ पैसा घर में आये.

ऐसे में एक दिन मैं पड़ोस में होने वाली एक शादी में गयी थी. हमारी बोरिंग काम से भरी ज़िन्दगी में ऐसे मौके कम ही आते थे. पता लगा कि पड़ोस में एक शादी है और उसके लिए संगीत होना है. संगीत में आस-पड़ोस से और दूर से भी लड़कियों को खुला न्यौता दिया गया है. सो मेरी माँ ने सुझाव दिया कि मुझे भी जाना चाहिए. इस तरह आस पड़ोस के अच्छे- अमीर परिवारों से जान-पहचान बढ़ेगी.

अंधे को क्या चाहिए दो आँखें. एक शाम बोरिंग काम से छुटकारा मिलेगा. नाच-गाना होगा. लोगों से मिलना-जुलना होगा. जान-पहचान बढ़ेगी और अच्छा खाना-वाना मिलेगा. हो सकता है कुछ भेंट चूडिया वगरह भी मिल जाएँ. सो मैं पहुचं गयी अपना एक मात्र सुंदर सूट पहन कर. उन दिनों यही एक बढ़िया सूट था मेरे पास. गुलाबी और सफ़ेद प्रिंट की कमीज़, प्लेन सलवार और लेस लगा हुआ जोर्जेट का दुपट्टा.

और वहां जो हुआ वो मैं कंभी भूल नहीं सकती. ये दिल्ली के पंजाबियों की शादी का संगीत था. जम कर धमाल. खूब नाचना-गाना और तरह-तरह के पकवान. और सबसे बड़ी बात लड़के-लडकियां सब मिल कर नाच रहे थे.

ऐसा हमारे पंजाब में नहीं होता. वहां तो लड़के अलग और लड़कियां अलग रखे जाते हैं. यहाँ तो खूब मेल-मिलाप चल रहा था. ऐसा लगता था सब एक दूसरे को जानते हैं. लेकिन मुझे माला ने बताया ऐसा नहीं है. बहुत से लोग यहाँ पहली बार मिल रहे थे.

माला मेरी ही क्लास में थी मेरे ही स्कूल में. हम सुबह अक्सर साथ जाते थे. पास ही रहती थी. यहाँ उसके आने का मुझे पहले से पता नहीं था सो उसे पा कर मैं और भी खुश हो गयी थी.

दरअसल उसकी माँ इस शादी वाले घर में मालिश वगौरह का काम किया करती थी. माला यहीं इसी मोहल्ले की पैदाईश थी. उसके पिता एक फाइव स्टार होटल में वेटर थे. अच्छे कपडे पहनती थी, अच्छा खाती थी. अक्सर स्कूल में होटल से आये तरह-तरह के पकवान लाती थी. मुझे भी खिलाती थी. कॉलोनी के लगभग सभी लोगों को जानती थी. उसी ने मुझे कुछ लड़कों और लड़कियों से उस शाम मिलवाया था. ख़ास कर उन से जो उसे लगा कि मेरे मतलब के होंगें. उनमें अनुराग भी एक था. पता नहीं मुझे क्या हुआ मैं पहली ही नजर में उसे दिल दे बैठी.

ऊंचे कद का दुबला-पतला अनुराग शायद उस वक़्त बारहवीं में था. बेहद हंसमुख. हर किसी से हंस-हंस कर मिलता. सब से बातें करता. उसने मुझसे भी बड़ी गर्मजोशी से हाथ मिलाया था और अपना परिचय दिया था. हम सब खूब नाचे. नाच-नाच कर थक कर एक किनारे बैठते. कुछ खाते, पीते और फिर उठ कर नाचते. संगीत का समारोह बड़ा जोश भरा रहा. वो शाम मुझे कभी भूल नहीं सकती.

जब रात गहरा गयी तो घर की मालकिन ने, जिनके बेटे का ब्याह था हाथ जोड़ कर सबको धन्यवाद किया था. सब लड़कों लड़कियों को मिठाई का एक-एक डब्बा दिया था. लड़कियों को एक डब्बा एक्स्ट्रा दिया था. घर आ कर देखा तो उसमें कांच की चूड़ियाँ, रिबन, लिपस्टिक और नेल पोलिश थे. यानी हमें शादी में भी सज धज कर आने का न्यौता मिल गया था. मैं बहुत खुश थी. अनुराग की हंसी और बातें मेरे मन में बस गए थे.

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