प्रकृति मैम - राजपथ Prabodh Kumar Govil द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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प्रकृति मैम - राजपथ

12. राजपथ
कुछ दिन बाद डाक के लिफाफे में बंद मेरी उस परीक्षा का परिणाम आया जो मैंने पिछले दिनों दी थी। मुझे साक्षात्कार के लिए चुन लिया गया था।
ये पहला ऐसा साक्षात्कार था जिसमें वे सवाल नहीं पूछ रहे थे, बल्कि जिज्ञासा प्रकट कर रहे थे कि मैंने ये कैसे किया? वो कैसे किया?
और मैं किसी परीक्षा के तनाव में नहीं, बल्कि अपने संचित आत्म विश्वास में डूबा उन्हें ऐसे संबोधित कर रहा था मानो वो मेरी किसी उपलब्धि पर मेरी "बाइट" लेने आया हुआ मीडिया हो!
अन्तिम रूप से मेरा चयन बैंक राजभाषा अधिकारी के इस पद पर हो गया। ये तीन बैंकों की सम्मिलित परीक्षा थी। और अब बैंक अलॉट होना था, फ़िर नियुक्ति पत्र मिलना था।
मुंबई में अपनी पत्रकारिता के दौरान मेरा परिचय एक ऐसे उच्च अधिकारी से हुआ था जो बैंकों में होने वाली भर्ती परीक्षाओं के काम से ऊंची हैसियत से जुड़े थे।
उन्होंने मुझे कहा था कि वो अपना मनपसंद बैंक दिलवाने में मेरी मदद करेंगे, बस रिज़ल्ट आते ही मैं उनके पास आकर एक बार उन्हें याद दिला दूं।
बीच में दो दिन का अवकाश था, उसके बाद मैं उनके पास जाने का मानस बना कर बैठा था कि उसी शाम मुझे तार द्वारा ये सूचना मिली- "जर्नलिस्ट वेलफेयर फाउंडेशन द्वारा आयोजित नेहरू और भारत आलेख प्रतियोगिता में मुझे पुरस्कार के लिए चुना गया है और मुझे सोमवार को विज्ञान भवन दिल्ली, में आयोजित पुरस्कार वितरण समारोह में भाग लेना है।"
प्रतियोगिता का पहला पुरस्कार पुष्पेश पंत को मिला था जिसमें पुरस्कार स्वरूप रूस की निशुल्क यात्रा थी। तीसरे स्थान पर मेरा नाम था।
मैं तत्काल दिल्ली चला गया। प्रतियोगिता में प्राप्त होने वाले चुनिंदा आलेखों को एक भव्य स्मारिका में प्रकाशित किया गया था, जिसकी एक प्रति पुरस्कार के प्रशस्ति पत्र के साथ हम सभी विजेताओं को भी दी गई थी।
तत्कालीन केंद्रीय मंत्री कमल नाथ की ओर से एक बधाई पत्र भी उसी समय मुझे मिला, जिसमें ये भी लिखा था कि मैं अपनी सुविधानुसार समय होने पर उनसे उनके तुगलक़ रोड स्थित आवास पर मिलूं। मैंने उत्साहित होकर पत्र को सहेज लिया।
मैं मुंबई लौट आया और अगले ही दिन मुझे पता चला कि मुझे बैंक ऑफ महाराष्ट्र में नियुक्ति मिली है।
मुंबई में रहते हुए पुणे मेरा आना- जाना होता रहा था।
मुझे पहली बार ये भी पता चला कि बैंक का मुख्यालय पुणे के शिवाजी नगर क्षेत्र में है।
मैं मुख्यालय गया तो मुझे पता चला कि बैंक ने मेरी नियुक्ति दिल्ली स्थित उनके अंचल कार्यालय में की है।
मुंबई लौट कर मैं और मेरी पत्नी फ़िर इस बात पर विचार करने बैठे कि इस नई लहर पर सवार होने में क्या नफा है और क्या टोटा!
फ़ायदा तो ये दिख रहा था कि अब तक मेरा दिमाग़ सबको दिखने लगा था। सब मान बैठे थे कि मैं हिंदी के लिए कुछ काम करने में कंफर्टेबल फील करता हूं, और ये मौक़ा मुझे इसका मौक़ा दे रहा था। बैंक के सामान्य कारोबार में मेरा मन लगता भी नहीं था।
दूसरे, हम लोग मुंबई के तम्बू को अपनी ज़िंदगी की चादर बनाने में हिचकते रहे थे क्योंकि हम दोनों का ही परिवार राजस्थान में था, और कम से कम मैं तो राजस्थान जाना ही चाहता था जो दिल्ली से काफ़ी पास था।
तीसरे,अब मेरी मां का रिटायरमेंट बिल्कुल नज़दीक था,और छोटे भाई - बहन की शादी की भागदौड़ भी करनी थी जो मुंबई की तुलना में दिल्ली से ज़्यादा आसान थी।
चौथे, यदि मेरी पत्नी अपने संस्थान में ट्रांसफ़र का आवेदन देती तो दिल्ली में ट्रांसफर मिलना संभव था। राजस्थान में तो कोई संभावना फ़िलहाल नहीं थी।
और पांचवीं बात ये थी कि दिल्ली में मेरे और मेरी पत्नी के रिश्तेदारों की भरमार थी और हमारा सामाजिक - पारिवारिक जीवन वहां अच्छा गुजरने की संभावना थी।
अब इसके विपरीत कुछ बातें ऐसी भी थीं जो हमारे क़दमों में बेड़ियां डालने के लिए तैयार थीं।
पहली बात तो यही थी कि हमारी जतन से बसी बसाई बस्ती हम क्यों छोड़ दें?
दूसरे, जिस तरह राजस्थान से यहां आने पर वरिष्ठता खंडित होने का खामियाजा मैंने उठाया था,अब ये आशंका थी कि दिल्ली तबादला हो जाने से मेरी पत्नी को भी वही नुकसान उठाना पड़े। जिसका असर आगे की पदोन्नतियों पर पड़े।
तीसरे, मुझे तो तत्काल दिल्ली चले जाना था, किन्तु मेरी पत्नी का ट्रांसफ़र होने में समय लग सकता था। तब तक दो घर हो जाने, उसके यहां अकेले हो जाने, मेरे वहां अकेले हो जाने जैसे निजी व्यवधान सामने थे।
चौथे,यहां लेखन, पत्रकारिता का जो प्लेटफार्म मैंने इस बीच बनाया था उसके छूट जाने का अंदेशा तो था ही, वहां जाकर फ़िर जद्दोजहद में उलझने की चुनौती भी सामने थी।
पांचवां एक विचार ये भी था कि मुंबई की सादगी भरी जिंदगी हम दोनों को ही पसंद थी, जबकि दिल्ली की राजनीति पीड़ित दिखावटी, बनावटी, आपाधापी वाली ज़िन्दगी के बारे में हम अपने परिवार और रिश्तेदारों से सुनते ही रहे थे।
लेकिन कहते हैं कि ईश्वर बसेरे,निवाले और सांसें ख़ुद तय करके इंसान को देता है।
मेरा दिल्ली जाना कुछ समय के लिए टल गया।
बैंक से मिले पत्र में कहा गया था कि मेरा चयन तो राजभाषा अधिकारी के पद पर हो गया है पर मेरे पास हिंदी की कोई डिग्री नहीं है। मैं विश्वविद्यालय, अंग्रेज़ी विभाग के बाद मुंबई से अंग्रेज़ी मीडियम से जर्नलिज्म कर चुका हूं, अतः मुझे यूनिवर्सिटी से ऐसा प्रमाणपत्र लेकर देना होगा कि स्नातक और स्नातकोत्तर की पढ़ाई मैंने हिंदी माध्यम से की है। यूनिवर्सिटी की मार्कशीट्स में मीडियम का कोई उल्लेख नहीं था।
मैं तत्काल जयपुर गया। घर जाने की लालसा तो वैसे भी किसी न किसी बहाने बनी ही रहती थी।
लेकिन वहां आकर पता चला कि राजस्थान विश्वविद्यालय में अनिश्चित कालीन हड़ताल चल रही है,और कोई कार्य नहीं हो रहा है।
मैं पहले तो बाल - सुलभ खुशी से आश्वस्त हुआ कि चलो, इस बहाने कुछ दिन घर पर रहने को मिलेगा, लेकिन जल्दी ही मित्रों के बीच चर्चा से ये अहसास हुआ कि देर होने से दो नुकसान होंगे। एक तो जहां मुझे ज्वॉइन करना है वहां मेरी सीनियरिटी का नुक़सान होगा, दूसरे जहां से छोड़ना है, वहां ये सभी छुट्टियां अकारण वेतन के कटने की श्रेणी में आ जाएंगी, यानी विदाउट पे।
किसी ने मुझे ये सलाह भी दी कि मैं कोर्ट से एक एफिडेविट बनवा लूं, कोर्ट के शपथ - पत्र को बैंक स्वीकार कर लेगा।
उसने ये कहा कि इसके लिए कोर्ट जाने की ज़रूरत भी नहीं है बल्कि स्टाम्प पेपर पर ऐसे प्रमाणपत्र पर नोटरी भी मोहर लगा कर दे देगा। बैंक इसे मान भी लेगा।
मैं मन ही मन ये सोचता रहा कि मैंने अपनी पढ़ाई कैसे की, ये बात मेरे कहने से वो संस्थान नहीं मानेगा, जहां अब नौकरी करके मैं अपना सारा जीवन देने वाला हूं, पर सड़क के किनारे बैठे एक व्यक्ति के लिखने और उस पर रबर की एक मोहर लगा कर दे देने से वो बात सर्व स्वीकार्य हो जाएगी? क्या यही व्यवस्था है!
पर फ़िलहाल तो ये व्यवस्था एक बड़े तनाव से मुझे निजात दिला रही थी, इसलिए मैं इस आशय का शपथपत्र बनवा कर वापस मुंबई के लिए रवाना हो गया।
अगले ही दिन मेरा काग़ज़ स्वीकार कर लिया गया।
जल्दी ही मेरा अपॉइंटमेंट लैटर आ गया। इसमें लिखा था कि मुझे बैंक द्वारा नियुक्त एक डॉक्टर से अपना मेडिकल चैक अप करवा कर फिटनेस प्रमाणपत्र लेना है और फ़िर दिल्ली में कार्यग्रहण करना है। साथ ही पत्र में लिखा था कि दिल्ली से बैंक की एक गृह पत्रिका भी निकलती है जिसका संपादक भी मुझे बनाया गया है। ये दायित्व पत्रकारिता में मेरी योग्यता और अनुभव को देखते हुए दिया गया था।
एक बाधा अभी और आनी थी। जब स्वास्थ्य जांच के लिए मैं डॉक्टर के पास गया तो पता चला कि मेरा रक्तचाप बढ़ा हुआ है।डॉक्टर का कहना था कि ऐसे में वो मुझे ज्वाइन करने के लिए फिट नहीं लिख सकते।
मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की, कि पिछले दिनों भागदौड़ और तनाव के चलते ऐसा हो गया होगा, पर अब कुछ दिन आराम से रहने पर ये सामान्य हो जाएगा, मुझे तो कोई तकलीफ़ नहीं हो रही है। पर वो नहीं माने।
उन्होंने कहा कि वो मुझे एक सप्ताह की दवा देंगे और उसके बाद दोबारा चैक अप करके निर्णय लेंगे।
मुझे एक सप्ताह का समय और मिल गया। मेरे मित्र कहने लगे कि तुम पत्नी को छोड़ कर जा रहे हो, इसलिए उसके मन के भाव रह रह कर तुम्हारा रास्ता रोक रहे हैं। वैसे ही जैसे प्लेटफॉर्म पर रवाना होती हुई गाड़ी कई बार चैन पुलिंग से थम जाती है।
इस तरह जमी - जमाई गृहस्थी को छोड़ कर जाना भीतर से खल रहा था किन्तु वक़्त ने एक अनुकम्पा हम पर और की, जिससे मेरी पत्नी का तनाव काफ़ी हद तक कम हो गया।
उसे वरिष्ठ वैज्ञानिक अधिकारी के पद पर प्रमोशन मिल गया।
इधर मैं दिल्ली गया,उधर उसने फ़िर से ऑफिसर्स हॉस्टल ज्वाइन करके अपने दिल्ली ट्रांसफर की एप्लीकेशन भी दे डाली।
ऑफिस से पता लगा कि अभी अभी पदोन्नति मिलने के कारण तबादले में थोड़ा समय ज़रूर लगेगा,किन्तु दिल्ली के परमाणु खनिज विभाग में प्रमोशन के साथ ट्रांसफर मिल सकता है।
हमारा कष्ट आधा रह गया।
दिल्ली में ज्वॉइनिंग पर मुझे बैंक से और मेरी पत्नी को सरकारी मकान अलॉट होने वाला था,जिसमें से कोई भी एक हम रख सकते थे। लेकिन ये सब अभी अनिश्चित था कि मेरी पत्नी का ऑफिस किस जगह होगा, और ट्रांसफर कब तक होगा, इसलिए अभी मकान न लेकर मैं कुछ समय तक अपने अंकल के घर में रहा। यद्यपि मैंने पेइंग गेस्ट के रूप में ही रहना स्वीकार किया।
दिल्ली में मेरा ऑफिस कनाटप्लेस के पास ही था।
अब मैं था तो बैंक में ही,लेकिन मेरा विभाग बदल गया था, और मुझे अपनी प्रकृति के अनुरूप मनपसंद काम मिल गया था।
यहां से जयपुर नज़दीक था अतः मैं लगभग हर एक - दो सप्ताह में घर भी चला जाता था।
मैंने प्रेस ब्यूरो संबंधित कार्य जिस - जिस पत्रिका या अख़बार से ले रखा था, एक - एक कर के मुझे सब छोड़ना पड़ा।
एक बार मुंबई जाने पर कृष्ण कुमार चंचल से भेंट हुई तो कहने लगे कि हमारे कुछ पाठक पूछते रहते हैं कि अब हम प्रबोध कुमार गोविल को क्यों नहीं छापते? एक पाठक ने तो यहां तक पूछा कि प्रबोध कुमार गोविल हैं या गुज़र गए?
मेरी मां अब सेवा निवृत्त हो चुकी थीं और सबसे बड़े भाई के साथ रह रही थीं। छोटी बहन अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद अब जयपुर में ही नौकरी करना चाहती थी, जिसे ढूंढ़ रही थी। छोटे भाई की नौकरी लग चुकी थी और अब उसकी पोस्टिंग कुछ दूर के एक कस्बे में थी जहां वह अकेला रह रहा था।
हम लोगों ने मिल कर छोटे भाई और बहन के विवाह के लिए रिश्ते देखने शुरू कर दिए थे। अख़बारों में इसके लिए विज्ञापन भी दिए।
यद्यपि हम चाहते थे कि पहले बहन की शादी करें, किन्तु संयोग के चलते पहले भाई की शादी हुई।
इसी बीच मेरी पत्नी का तबादला भी दिल्ली में हो गया। हमने लोधी रोड में मकान लिया और मां और छोटी बहन को भी साथ में वहीं ले आए।
अब हम निश्चिंत होकर ऑफिस जाते और घर भी भरा- भरा रहता।
जल्दी ही हम अपने - अपने काम में रम गए।
मेरे बैंक की उत्तर भारत में कम शाखाएं होने के कारण ये सात राज्यों में फैला हुआ अंचल था,और मुझे इन सभी शाखाओं में समय - समय पर निरीक्षण के लिए जाना होता था।
जल्दी ही मेरा जाना देशभर के कई छोटे बड़े शहरों, यथा जयपुर,उदयपुर,बीकानेर,कोटा,जोधपुर,अजमेर आदि में हुआ। हरियाणा के सोनीपत,पानीपत, करनाल, अम्बाला,पंजाब के अमृतसर, जालंधर,लुधियाना,फिरोजपुर,होशियारपुर,और चंडीगढ़,शिमला,के साथ साथ उत्तरप्रदेश के वाराणसी, इलाहाबाद, कानपुर, लखनऊ,गाजियाबाद, आगरा, मेरठ में हुआ।
इसके साथ ही दिल्ली के भी लगभग हर इलाक़े में मेरा जाना हुआ।
जम्मू कश्मीर में हमारी केवल एक शाखा थी श्रीनगर में।
मैं निरीक्षण के दौरान बैंक का तो निरीक्षण करता ही था, साथ में उस क्षेत्र या शहर का भी पूरा मुआयना करता था जहां जाता। बैंक में भी कामकाज की भाषा, उपलब्ध स्टेशनरी, स्टाफ का भाषा ज्ञान,प्रशिक्षण की आवश्यकता,नकदी,सुरक्षा, सफ़ाई का रखरखाव आदि भी व्यापक पड़ताल से देखता था और अपने पत्रकारीय दृष्टिकोण से अधिकारियों को फीडबैक देता। शायद इसीलिए ज़्यादा भेजा भी जाता था।
बैंक की गृह पत्रिका के लिए सामग्री जुटाने के लिए शाखाओं, लोगों, ग्राहकों और उपलब्धियों का लेखाजोखा खंगालता।
एक बार पंजाब के अमृतसर शहर की शाखा का दौरा करने के बाद मैं रात को वहां एक होटल में ठहरा हुआ था। मुझे अगले दिन सुबह जम्मू कश्मीर के लिए निकल जाना था।
रात को टीवी पर कुछ खौफ़नाक खबरें सुनीं कि ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद दंगा फसाद के चलते सारे राज्य में कर्फ्यू जैसे हालात हैं और कल से सभी गाड़ियां रद्द कर दी गई हैं।
ये गनीमत थी कि सुबह जल्दी मैं जिस ट्रेन से जम्मू जा रहा था वो समय पर जा रही थी। मैं जम्मू पहुंच गया।
लेकिन यहां आने के बाद वही स्थिति हुई कि आसमान से गिरे और खजूर में अटके।
एक छोटे से होटल में शरण लेनी पड़ी। अगले दिन से जम्मू में कर्फ्यू लग गया और श्रीनगर के लिए जाने वाले सभी साधन बंद हो गए।
एक - दो दिन तो जैसे - तैसे निकले,पर उसके बाद बेचैनी बढ़ने लगी। सैलाब के पानी की तरह होटल में भीड़ बढ़ने लगी। बाज़ार बंद हो गए। दूध- चाय और फल सब्ज़ी सब देखते देखते गायब होने लगे। होटल के बरामदे तक में गद्दे डाल डाल कर बौखलाए हुए लोगों को ठहराया जा रहा था, जो स्टेशन और बस स्टैंड से किसी मवेशियों के हुजूम की तरह उमड़े आ रहे थे।
यहां तक कि जम्मू से कटरा होकर वैष्णों देवी के दर्शन को जाने वाले लोग भी बस अड्डों पर इंतजार कर कर के शहर के होटलों धर्मशालाओं में पनाह के लिए मारे मारे फ़िर रहे थे। कहीं जगह नहीं। एक एक दिन के लिए घर से आने वालों को जब सात आठ दिन बाद भी साधन नहीं मिले तो हाहाकार सा मच गया।
हम जैसे अकेले ठहरे हुए लोगों से भी होटल मालिक आ आ कर बिनती कर रहा था कि जो चाहो किराया दे देना पर अपने साथ और आदमियों को ठहरा लो।
वैष्णो देवी के दर्शन को जा रहे दो छात्रों को मैंने अपने साथ एडजस्ट किया। कुछ पढ़े लिखे समझदार से दिखे तो ठहरा लिया। आगरा के आसपास से आए थे।
खाने के नाम पर सब्ज़ी पूड़ी मिलती। अख़बार में लपेट कर देते। बाहर जाने का सवाल ही नहीं।
जैसे तैसे भीड़ में धक्का मुक्की करके चाय मिले। गुसल में पानी बंद। लड़कों का ये फायदा ज़रूर रहा कि कहीं से खोज बीन के चाय पानी ले आते। बाक़ी हम तीनों दिनभर छोटे से कमरे में पड़े रहते। रात को एक बिस्तर पर तीन।
ये गनीमत थी कि सिंगल बेड का कमरा होते हुए भी पलंग कुछ बड़ा था। बनियान चड्डी पहन के पड़े रहते तीनों।
सुबह सात से आठ और शाम को चार से छह बजे तक कर्फ़्यू खुलता। लोग भागदौड़ करके पता कर लेते कि कोई साधन चला या नहीं। फ़ैमिली वाले लोग ढूंढ़ ढांढ के बच्चों के लिए दूध आदि की व्यवस्था कर लाते। फ़िर दिन भर के लिए दड़बे में।
न नहाने के लिए पानी मिले न नहाने की जगह। कपड़े धोने का सवाल ही नहीं। चड्डी भी दो- तीन दिन में एक बार धुले।
स्टेशन पर जाने वाले पोस्ट ऑफिस में जा जा कर घरों में तार देकर पैसे मंगा रहे थे।
एक दिन घर पर खबर कर देने की गरज़ से मैं भी पोस्ट ऑफिस चला गया। वहां देखा कि भीड़ लगी है, लोगों को तार की भाषा लिखना नहीं आ रहा है। जो संदेश छह सात रुपए में जा सकता है उसके पच्चीस रुपए दे रहे हैं। मैंने वहां खड़े होकर कई ग्रामीणों के टेलीग्राम लिखे।
एक दिन लोगों के एक बड़े झुंड को बोलते सुना- हम तो देवी दर्शन को आए थे, देवी यहां हमको भूखा मार रही है। तभी ट्रेक्टर ट्राली से पूड़ी सब्ज़ी के टोकरे आकर वहां भी खाना बांटा जाने लगा। बताया गया कि ये व्यवस्था वैष्णो देवी मंदिर की ओर से ही की गई है।
बच्चे बूढ़े औरतें मर्द सब ज़ोर से देवी के नाम का जयकारा लगाते और भोजन की कतार में लग जाते।
एक दो दिन बाद सुबह शाम और कभी कभी रात को बिजली भी गुल होने लगी। पंखा बंद हो जाता तो कमरा नरक जैसा लगने लगता। कभी कभी हम तीनों गद्दा उठाकर छत पर सोने चले जाते।पर वहां भी तिल रखने की जगह न होती। एक कौने में कहीं बिस्तर फैला कर तीनों एकसाथ उसमें दुबक जाते।
शुरू में कुछ दिन अपने सामान की सुरक्षा की चिंता होती किन्तु बाद में लोगों के पैसे खत्म हो जाने, और कपड़े तक मैले कुचैले हो जाने के बाद किसी को कोई चिंता नहीं रहती। सब किसी शरणार्थी शिविर में पड़े बाशिंदों की तरह दिन काटते।
सुबह सुबह शौचघर की लंबी कतार देख कर केवल महिलाएं वहां रुकतीं, हम सब बाहर निकल कर होटल के ऊबड़ खाबड़ पिछवाड़े में बैठ आते।
आख़िर इस सब का अंत हुआ। कर्फ्यू खुला।गाड़ियां चलने लगीं।होटल मालिक ने बेहद दरिया दिली का परिचय देते हुए किसी को जाते समय बिल नहीं दिया,बस यही कहा कि अपनी सहूलियत से जो दे सकते हो दे जाओ।
मैंने अपनी आंख से वो दृश्य भी देखा जब कर्फ्यू के दौरान खिड़की से गिलास लेकर छोटे बच्चों के लिए दूध पुलिस वालों ने अपनी जेब के पैसों से ला लाकर दिया।
मैं जब लौट कर दिल्ली आया तो ऑफिस में मुझे बताया गया कि बैंक के सिक्योरिटी ऑफिसर को मुझे साथ में लेकर वापस आने के लिए भेजने की तैयारी की जा रही थी।
इस घटना ने दिल्ली से लेकर कश्मीर तक सब राज्यों में जन जीवन को हिला कर रख दिया।
इस तरह मेरे अनुभव के खज़ाने में निरीक्षण के दौरान हुए घटना क्रम ने एक और अध्याय जोड़ दिया, जिसने मेरे वो पुराने दिन एक बार फ़िर मुझे लौटा दिए जब मैं गांव की नौकरी में अपने युवा मित्रों के साथ रहा करता था।