प्रकृति मैम - मिलके बिछड़ गए दिन Prabodh Kumar Govil द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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प्रकृति मैम - मिलके बिछड़ गए दिन

मिलके बिछड़ गए दिन !
दादर में एक दिन एक कार्यक्रम था। किशन कुमार केन मुझसे बोले- आपको साथ में लेकर चलूंगा।
किशन कुमार केन उन दिनों मुंबई में एक प्रिंटिंग प्रेस चलाते थे और अरविंद जी के पास कथाबिंब के ऑफिस में कभी - कभी आया करते थे। वहीं उनसे मुलाक़ात होती पर वो किसी न किसी साहित्यिक बहस में उलझा कर मुझे नज़दीक के एक बीयर बार में ले जाते। और फ़िर हमारी बहस का फ़ैसला इस बात से होता कि बिल कौन देगा। मैं दूं,तो बात मेरे पक्ष में जाती और यदि वो दें,तो फ़िर वो अपनी कह कर छोड़ते थे।
साहित्य से उनका संबंध शायद इतना ही था कि तमाम साहित्यकारों के कच्चे- चिट्ठे उनकी जबान पर हर वक़्त तैयार मिलते थे।
उनकी प्रेस का उदघाटन हरिवंश राय बच्चन ने किया था। पद्मा सचदेव से उनके अच्छे संपर्क थे। पदमाजी का मुझसे साक्षात्कार उन्होंने ही तय करवाया।
तो दादर में जो कार्यक्रम था वो "समीक्षा" के संपादक गोपाल राय द्वारा आयोजित किया गया था। हम दोनों पहुंचे तब हॉल में खासी भीड़- भाड़ हो चुकी थी। पीछे कहीं जगह देखकर हम बैठ गए। कार्यक्रम बेहद सार्थक और पर्याप्त गंभीर था। स्वयं गोपाल राय सहित कई बड़े नामों को वहां पहली बार प्रत्यक्ष सुना।
कार्यक्रम जब क़रीब - क़रीब समाप्ति पर था, तब लगभग एक चौंकाने वाली घोषणा मंच से सुनी।
उद्घोषक द्वारा कहा जा रहा था कि पिछले दिनों मुंबई की एक युवा कलम तेज़ी से साहित्य जगत में छाती जा रही है,और आज हम सब उसका अभिनन्दन और सम्मान करेंगे।
उस दिन पहली बार मुझे पता चला कि बेहद मुखर केन जी कोई बात इस तरह अपने पेट में छिपा कर भी रख सकते हैं।
चौंका केवल मैं, केन जी बिल्कुल नहीं,जब मंच से मेरा नाम पुकारा गया और स्वयं गोपाल राय ने गुलदस्ता देकर मेरा अभिनन्दन मंच पर किया। ये मेरे लिए अपने लिखे हुए पर लोगों की पहली सार्वजनिक स्वीकारोक्ति थी।
मैं फूला नहीं समाया।
इसके बाद मुंबई के साहित्यिक कार्यक्रमों में मेरा जाना शुरू हो गया।
आकाशवाणी के लिए कथाकार जितेंद्र भाटिया से एक बातचीत भी की।
सूर्यबाला की अध्यक्षता में कहानीकार तेजेन्द्र शर्मा पर एक पर्चा पढ़ा जो बाद में "हंस" पत्रिका में छपा।
विद्यानिवास मिश्र, गिरिजा कुमार माथुर, अंबिका प्रसाद 'दिव्य' की किताबों पर समीक्षाएं भी एक पत्रिका ने मुझसे लिखवाई।
इन्हीं दिनों मुंबई में एक संगोष्ठी सूर्यबाला पर भी आयोजित हुई। इसमें आत्माराम, हृदयेश मयंक, जगदम्बा प्रसाद यादव आदि भी मौजूद थे। संचालन देवमणि पाण्डेय कर रहे थे। मुझे भी बोलना था। मैं सभागृह में कुछ पीछे की तरफ बैठा अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहा था,तभी मैंने कुछ दूरी पर बैठे दो साहित्यकारों की आपसी खुसर- फुसर सुनी। एक कह रहा था, ये प्रबोध कुमार गोविल हैं, सूर्यबाला को मुंबई की नंबर एक कहानीकार घोषित करने की कोशिश करेंगे।
मैं न केवल चौंका, बल्कि खिन्न भी हो गया,और सच कहूं तो उस दिन ढंग से बोल भी नहीं पाया।
मैं बचपन से ही अच्छा डिबेटर रहा था और मुझे किसी भी बहस में भाग लेने का अभ्यास बचपन से ही था, किन्तु ऐसी टिप्पणियां मुझे अपने एक अध्यापक की याद दिलाती थीं जो कहते थे कि पेड़ पर जब पत्थर फिंकने शुरू हो जाएं तो समझो कि उसके फल पकने लगे।
सूर्यबाला के लेखन और व्यक्तित्व से मैं खासा प्रभावित था और उनसे मिलने उनके आवास पर भी जाता रहा था। किन्तु उस दिन उन पर कुछ नहीं बोला।
लखनऊ के त्रिभुज प्रकाशन से उन दिनों "पृष्ठभूमि" पत्रिका निकलती थी। उसके संपादक कृष्ण कुमार चंचल भी कभी- कभी मुंबई आते थे और हम लोग मिलते, बातचीत होती। उन्होंने भी मुझे पत्रिका के मुंबई ब्यूरो का प्रमुख बना दिया।
मैं अपने कार्यालय जाते समय कभी - कभी शॉर्ट कट लेने के प्रयास में जे जे इंस्टीट्यूट ऑफ आर्ट्स के परिसर के भीतर से निकला करता था।
एक बार रात को लौटते समय मैंने देखा कि इंस्टीट्यूट के गार्डन का कुछ लोग गलत फ़ायदा उठाते हैं। प्रेमी तो एकांत में कहीं जगह मिलने पर बैठते ही हैं, वहां इससे कुछ आगे बढ़ कर जिस्म की तिजारत में लिप्त लोगों की आवाजाही भी उन दिनों शुरू हो गई। कुछ लोगों, छात्रों और आसपास के व्यापारियों से बातचीत करके मैंने कुछ लेख पृष्ठभूमि पत्रिका में लिखे।
लेकिन कुछ दिन बाद ही शायद वहां के प्रबंधन द्वारा तत्पर कदम उठाए जाने पर माहौल बदल गया।
उसके बाद एक दिन मैंने वहां तैनात पुलिस कर्मी को देखा जो दोपहर बाद अपने ख़ाली समय का उपयोग करने के लिए एक बेंच पर बैठ कर स्वेटर बुनता हुआ मिला।
इसके बाद मैंने इस विषय पर एक लंबा आलेख लिखा कि कहीं भी गार्ड या चौकीदार की ड्यूटी किसी हादसे को रोकने या न होने देने के लिए लगाई जाती है। जैसे, कोई चोरी, हिंसा, लूटपाट,आगजनी, दुर्घटना आदि से बचाव के लिए सक्षम आदमी तैनात किया जाता है।
लेकिन कभी - कभी ऐसा होता है कि लंबे समय तक ऐसा कोई हादसा घटित न होने पर उस व्यक्ति को ये महसूस होने लगता है कि उसका दुरुपयोग हो रहा है, वो क्या करे, कैसे समय काटे।
और फ़िर या तो खुद उसका ख़ाली दिमाग़ शैतान का घर बन जाता है, या वो आलसवश नशे का ग़ुलाम हो जाता है।
अतः ऐसी ड्यूटी पर लगाए जाने वाले लोगों के लिए पर्याप्त कार्यभार निर्धारित होना चाहिए कि ये कोई घटना होने पर तो सुरक्षा का दायित्व संभालेंगे ही,पर कोई व्यस्तता न होने पर क्या कार्य करेंगे। जैसे उन्हें पेड़ पौधों की देखभाल, सफ़ाई के रखरखाव, ट्रैफिक, पार्किंग आदि से संबंधित कार्य दिए जा सकते हैं।
मेरी कहानी "सपाट अक्स" भी इसी समस्या को लेकर थी।
मुंबई की रेलों में ज़बरदस्त भीड़ होती थी। इस भीड़ का अंदाज़ केवल वही लगा सकता है जिसने इन लोकल ट्रेनों में सफ़र किया हो। ख़ासकर कार्यालय समय में, जिसे "पीक" आवर कहा जाता है, तो ये गाडियां माल की भांति लोगों के हुजूम को ढोने वाली बन जाती हैं। एक दूसरे से सटे,एक दूसरे में गुंथे,एक दूसरे से लिपटे हुए लोग, एक दूसरे की सांस को महसूस करते लोग बहते हुए सैलाबी पानी की तरह गंतव्य तक जाते हैं।
जिन्हें संयोग से सीट मिल जाती है, उनका भाग्य तो ऐसा माना जाता है मानो उन्हें कोई पदवी या रुतबा मिल गया हो।
इसीलिए ट्रेनों में महिलाओं के डिब्बे अलग होते हैं। और किसी किसी रूट पर तो महिला स्पेशल गाड़ियां ही अलग से चलाई जाती हैं। मुंबई में महिला कामगारों की संख्या भी इतनी अधिक होती है कि ये गाड़ियां या डिब्बे भी खचाखच भरे होते हैं।
मुझे लगता था कि कमलेश्वर जैसे महान कथाकार को अपनी कहानी के लिए "मांस का दरिया" जैसे शीर्षक भी इन्हीं गाड़ियों की भीड़ को देख कर सूझे होंगे।
इन ट्रेनों में ऑफिस टाइम में सफ़र करते समय आपका अपना कुछ भी निजी नहीं रह जाता था।आपके शरीर के हर अंग तक पर दूसरों का अधिकार मालूम होता था। ऐसे में यदि आपके पास कोई साफ़ सुथरा, मनपसंद व्यक्ति खड़ा हो तो आपका रास्ता आराम से कट जाता था पर यदि कोई खुराफ़ाती, हिंसक, झगड़ालू, नशेड़ी या गिरहकट आदमी खड़ा हो तो आपका रास्ता राम - राम करते ही कटता था।
धर्मयुग के उपसंपादक ओमप्रकाश कभी - कभी मुझे कहते थे कि वो रोज़ सुबह जेब में दो चाय और बस भाड़े के लायक पैसे जेब में रख कर उसे मुट्ठी से पकड़ लेते थे, अन्यथा जेब से पैसे पार हो जाना वहां मामूली बात थी।
मुंबई में गर्मी और उमस के चलते लोग जूते भी कम पहनते थे। ज़्यादातर लोग चप्पल या सैंडल पहनना ही पसंद करते थे।
मित्र लोग कहते थे कि देश के अन्य शहरों में साहित्यकार, कवि, लेखक लोग कुर्ता - पायजामा पहनना पसंद करते हैं किन्तु यदि यहां कुर्ता - पायजामा पहना तो सहयात्री भाई लोग आपका पूरा फिगर नाप लेंगे। आश्चर्य नहीं कि पायजामा जैसा हल्का बंधन तो कभी भी रास्ते में खुल ही जाए।
ऐसे भीड़ भरे रास्ते के नफे- नुकसान को सहते ऑफिस जाते हुए आपस में घनिष्ठ मैत्री संबंध भी पनप जाते थे। और शहरों में जहां मित्र से नज़दीक आकर हाथ मिलाने में भी लोगों को संकोच होता था,यहां अगर कोई आपका दोस्त बन गया तो वह रोज आपसे चिपट कर आपके मुंह पर अपने मुंह से गर्म सांस छोड़ता हुआ आपके साथ जाएगा। ऐसी मित्रता को मुंबई में ट्रेन - फ्रेंडशिप कहा जाता था।
कई लोग अप- डाउन गाड़ियों में सीट पाने के लिए अपने स्टेशन से पहले और बाद तक का सफ़र भी करते थे। सीट पाने वालों के भी गुट बन जाते थे और वो रोज ट्रेन में ताश खेलते, भजन गाते,या अंत्याक्षरी करते हुए भी जाते देखे जाते थे।
लोकल ट्रेन का ये सफ़र केवल सज़ा ही नहीं, बल्कि मज़ा भी था।
एक बार मैं दादर स्टेशन पर एक बेंच पर बैठा अपनी ट्रेन का इंतजार कर रहा था।
तभी एक लड़का गाना गाकर भीख मांगता हुआ वहां आया।लड़का एक पैर से अपंग था। शक्ल सूरत से वह अच्छा भला था और वो एक बहुत ही मार्मिक ग़ज़ल गा रहा था।
मैंने लड़के से बात की तो पता लगा कि लड़का जन्म से भिखारी नहीं है, बल्कि मुंबई में कहीं काम की तलाश में आया था। पर एक दुर्घटना में अपना पैर गंवा देने के कारण अपने गांव न लौट सकने के बाद यहीं भीख मांग कर गुज़ारा करने लगा। वो ग़ज़ल उसने किसी को कभी गाते सुना तो अपनी मधुर आवाज़ में वो भी गाने लगा।
मैंने अपनी गाड़ी को आते देखा तो झटपट उठते हुए उस लड़के को पांच का एक नोट दिया और गाड़ी में चढ़ गया।
गाड़ी में उसी डिब्बे में कुछ स्कूली छात्र भी थे। वे आपस में बात करने लगे। एक लड़का बोला- देख, उन अंकल ने भिखारी को पांच रुपया दिया है।
दूसरा लापरवाही से बोला- मुंबई में कोई किसी को फोकट में कुछ नहीं देता, वो पांच के पचास बनाएंगे,इसलिए दिया होगा।
बच्चों की बात सुन कर मुझे अजीब सा लगा। मैं सोचने लगा, कि देखो,इस शहर ने पंद्रह - सोलह साल की उम्र में इन लड़कों की मानसिकता कैसी बना दी!
मैंने रात को घर लौटने के बाद ये घटना लखनऊ के अख़बार "स्वतंत्र भारत" को लिख कर भेज दी।
संयोग देखिए, कि कुछ दिन के बाद एक दिन डाक से एक लिफ़ाफे में अख़बार में छपी मेरी इस घटना की कटिंग और एक पचास रुपए का चैक आ गया।
मैं मुस्कुरा के रह गया। आते - जाते मैं सोचता था कि अगर कभी वो बच्चे मुझे ट्रेन में फ़िर कहीं दिख जाएं तो मैं उन्हें ज़रूर बताऊंगा कि वो ठीक कह रहे थे, मैंने पांच के पचास ही बना लिए।
इस बीच मैंने समय निकाल कर "नेहरू और भारत" विषय पर भी एक लंबा आलेख तैयार करके भेज दिया। इसे जर्नलिस्ट वेलफेयर फाउंडेशन, दिल्ली को भेजना था।
इस लेख के लिए अच्छी खासी तैयारी करनी पड़ी।
मेरी पत्नी वैज्ञानिक होने के नाते हर काम को व्यवस्थित तरीके से करने की आदी थी। उसने एक छोटी डायरी बना कर मुझे दे दी, और उसमें उन सभी पत्र- पत्रिकाओं का एक - एक पेज बना दिया, जिनमें अमूमन मैं अपनी रचनाएं भेजा करता था।
जब कोई रचना किसी पत्रिका में जाती,तो उसकी तारीख़,शीर्षक आदि नोट किया जाता,और कुछ दिन बाद रचना की स्वीकृति आती या वापसी होती तो उसमें लिखा जाता। रचना छपने पर तारीख़ नोट होती और यदि कोई मानदेय आता तो वह भी लिखा जाता।
पत्नी हमेशा मेरी अलमारी में अलग- अलग आकार के लिफाफे, पिन, स्टेपलर,दो - तीन अच्छे पैन और सौ- पचास रुपए के डाक टिकिट रखती।
कई बार पड़ोस के लोग,घर में आने वाले मेहमानों और मित्रों के सामने भी ये चर्चाएं हो जाती थीं कि मैंने अमुक विषय पर कोई लेख,कहानी या कविता लिखी है, और उसे अमुक पत्रिका में भेजा गया है।
मिलने वाले मुझे कभी - कभी पूछते कि अमुक रचना छपी या नहीं। इससे मुझे बड़ी खीज होती थी।
अगर कभी एक रचना छपने का संतोष होता तो दूसरी वापस लौट आने पर होने वाली चर्चा से खिन्नता होती।
कभी- कभी किसी रचना की स्वीकृति आती या मानदेय का चैक आता तो मेरी पत्नी उसे पहले छिपा कर रख लेती और फ़िर मुझे सरप्राइज देने के लिए कभी बाद में अचानक बताती। कभी - कभी एक - दो दिन के बाद भी बताती।
मैं जानता था कि वो ऐसा मुझे अचानक खुश करके होने वाले सुख को पाने के लिए करती थी। पर इसका एक बड़ा नुकसान ये हुआ कि मैं बार- बार ये पूछता रहता कि कोई डाक तो नहीं आई? मुझे धीरे -धीरे ये तनाव हमेशा रहने लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं, कि कोई चिट्ठी आई हो और मुझे न बताया गया हो। दिन भर कड़ी मेहनत करने, लंबी दूरी की ट्रेन- बस यात्रा करने,और उसके बाद देर रात तक लेखन मुझे ऐसा थका देता था कि इस तनाव को लेकर मेरा स्वभाव कभी - कभी चिड़चिड़ा हो जाता।
मैंने कई साहित्यकारों की जीवनियां पढ़ डाली थीं, जिससे अब मुझे ये अहसास होने लगा था कि वो इतने रूखे स्वभाव के क्यों हो जाते हैं! वे अपनी रचनाओं को लेकर इतने संवेदनशील होते हैं कि उनके न छपने, या कहीं गुम हो जाने पर व्यथित हो जाते हैं।
मैं अपनी डाक किसी और के द्वारा खोले जाने पर भी बेचैन या कुपित हो जाता था।
मुझे मन ही मन ये महसूस होता रहता था कि हो न हो, मेरे भीतर ज़रूर किसी पिछले जन्म के साहित्यकार की ही आत्मा है।
मैं इस बात से बहुत डरा करता था।
मैंने पढ़ा था कि अधिकांश साहित्यकार या लेखकों को दुःख ने ही बनाया है। मैं मन ही मन किसी अनहोनी या आशंका से त्रस्त रहा करता था।
कभी - कभी तो मैं छटपटा कर खुद अपनी अवहेलना करने लगता और मुझे लगता कि मुझे इस कैरियर से निजात पा लेनी चाहिए। मुझे प्रेस या ब्यूरो के दायित्व देने वाले लोग भी अब हताश या खिन्न होकर मुझसे उदासीन और बे - उम्मीद होने लगे थे। उन्हें लगता था कि मैं उनके दिए हुए दायित्व तो गंभीरता से नहीं लेता,और उन विषयों पर कलम चलाता हूं जो मेरे खुद के चुने हुए होते हैं।
मैं किसी बंधन,लालच,प्रेरणा से काम नहीं करता,किसी के अधीन मेरा मानस नहीं रहता।
जबकि असलियत ये थी कि मैं खुद अपने अधीन भी नहीं था। मैं नहीं जानता था कि मुझसे न जाने कौन,न जाने कब, न जाने किस विषय पर लिखवाता है? मेरे दिमाग़ पर न जाने कौन सा दबाव मुझसे लेख लिखवाता है, न जाने मेरे शरीर पर गिरा कौन सा सुख मुझसे गीत - ग़ज़ल- कविता लिखवाता है, न जाने मेरे मन की कौन सी बेचैनी मुझसे कहानी लिखवाती है???
कमलेश्वर "गंगा", "श्रीवर्षा", "कथायात्रा" के बाद अब फ़िल्म स्क्रिप्ट्स में काफ़ी व्यस्त थे। मैं कभी उनके पास जाता तो नई - नई जानकारियां मिलती थीं। वे एक साथ कई कहानियों पर भी काम कर लेते थे।
उनकी फ़िल्म "बर्निंग ट्रेन" के सेट पर भी एक बार जाना हुआ और उस गाड़ी पर चढ़ कर भी देखा, जिसे दुनिया ने बाद में जलते हुए देखा।
सारी गाड़ी में केवल एक डिब्बा ऐसा था जिसे पूरी फिनिशिंग और रंग - रोगन के साथ बनाया गया था। क्लोज शॉट्स सब उसी में फिल्माए गए थे।
इन्हीं दिनों एक दिन उस परीक्षा की तारीख़ और प्रवेश पत्र भी आ गया, जिसके लिए मैंने आवेदन भेजा था। परीक्षा में इंग्लिश, हिंदी, करेंट अफेयर्स और ट्रांसलेशन के पेपर्स थे।
न तो इस परीक्षा की कोई तैयारी की थी और न ही कुछ ध्यान दिया था, पर परीक्षाओं की चुनौतियों से तो वैसे भी खेलने का शौक़ रहा ही था।
परीक्षाओं से वैसे भी कभी तब भी डर नहीं लगा जब रोजगार नहीं था, और अब तो अच्छा खासा रोजगार हाथ में था। फ़िर भी परीक्षा दे डाली।
एक दिन मेरी एक कहानी "सॉफ्ट कॉर्नर" नवभारत टाइम्स में छपी।इसे सभी संस्करणों में होने के कारण दिल्ली और दूसरी जगहों पर भी पढ़ा गया था।
दिल्ली के एक प्रकाशन की ओर से पत्र आया कि यदि आपकी प्रकाशित कहानियों की संख्या दस - पंद्रह हो चुकी हो तो हम आपका एक कहानी संग्रह छाप देंगे।
उन दिनों अपनी सारी व्यस्तता के बावजूद मैंने एक उपन्यास लिखना शुरू किया हुआ था, जिसपर लगभग साठ- सत्तर प्रतिशत काम हो चुका था।
मैंने प्रकाशक से एक महीने की मोहलत और मांग ली और उस उपन्यास को पूरा करने में जुट गया।
उपन्यास हाथ से ही लिखा हुआ था, पर मेरी लिखावट काफ़ी ठीक थी। प्रकाशक की ओर से हैंडराइटिंग की तारीफ़ करते हुए जवाब तो आया पर उन्होंने ये लिखा कि ये मेरी पहली किताब है, इसलिए मुझे इस किताब की कुछ प्रतियां ख़रीद कर उन्हें सहयोग करना पड़ेगा।
मेरे इज्तिरार से मैं तो वाक़िफ था ही। उतावली, जल्दबाजी, बेचैनी ने मुझे उनकी शर्त मानने को बाध्य कर दिया। उनका कहना था कि पहली किताब हमें कई जगह भेंट प्रति के रूप में भी देनी पड़ती है।
मैंने किताब छपने भेज दी और उसके आने की प्रतीक्षा में खो गया।
न जाने कैसे दिन थे। हम दोनों ही लगातार मेहनत में अपने को डुबोए हुए थे।
कभी- कभी हम आपस में ये बात भी करते थे कि मुंबई में जो एक बार आ जाए वो हमेशा के लिए यहां का होकर रह जाता है,ऐसा लोग कहते हैं। तो क्या हम भी अब हमेशा यहां रह जाने की बात सोचें?
उन्हीं दिनों नई मुंबई के वाशी के सेक्टर एक में अठारह हज़ार रुपए में फ्लैट बुक हो रहे थे। हमारे कई परिचित और मित्र वहां बुकिंग करवाने लगे थे। अच्छी कॉलोनी थी, सबसे बड़ा लाभ ये था कि कई जानकार,मित्र और परिचित वहां बसने की तैयारी कर रहे थे। समुद्र पर वाशी ब्रिज भी जल्दी ही बन जाने की खबरें रोज़ आती थीं।
पर हमारे सोचने से क्या, दुनिया में बसेरे भी खुदा तय करता है और निवाले भी!