बड़ी बाई साब - 13 vandana A dubey द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बड़ी बाई साब - 13

. सास ने डेढ़ तोले के झुमकों को देख कर बुरा सा मुंह बनाते हुए सुनाया- “ इतने हल्के झुमके दे पायीं तुम्हारी दादी! इससे अच्छा तो न देतीं.” नीलू का मन हुआ कि कहे –“ कभी एक तोले के झुमके पहन के देखे हों, तो वज़न का अन्दाज़ हो पाये, कि कान कितना भार सम्भाल सकते हैं.” लेकिन बोली कुछ नहीं.
शादी के बाद से ही लगातार नीलू को ताने सुनने पड़ रहे हैं. मन उकता गया है उसका. पति भी पूरी तरह मां-बाप के रंग में रंगा हुआ है. मां कोई ताना देती हैं तो हां में हां मिलाने लगता है. बहुत तक़लीफ़ होती है नीलू को . जब पति ही पत्नी के मन का हाल न समझता हो तो सास-ससुर से क्या उम्मीद!! शाही माहौल में पली नीलू, बिना किसी शिक़ायत के उस घर के माहौल में ढल रही थी, लेकिन ससुराल वालों को लगातार शिक़ायतें ही थीं उससे. वे ऐसा क्यों कर रहे, नीलू समझ ही नही नहीं पाती थी. लेकिन बचपन की परवरिश , कुछ पूछने या किसी बात का प्रतिवाद करने की अनुमति ही कहां देते थे उसे? जैसे इस माहौल को झेलने के लिये अभिशप्त हो गयी थी नीलू. कई बार यहां सब छोड़छाड़ के अपने घर भाग जाने का मन होता था उसका, लेकिन फिर तुरन्त दादी का चेहरा याद आ जाता, और उसकी भागने की इच्छा कमज़ोर पड़ जाती. ऐसे में उसे अपनी मां बहुत याद आती. याद आता उनका कई ऐसी बातों पर दादी का दबी आवाज़ में विरोध करना, जो नीलू के खिलाफ़ थीं. या जो भविष्य में तक़लीफ़ का कारण बन सकती थीं. लेकिन अब क्या………!
० ० o. o
गौरी का मन कभी-कभी बहुत भटकता है…… बचपन के बीहड़ों में…. हां अब बीहड़ ही तो हो गया था उसका बचपन. अपने घर की इकलौती, लाड़ली बेटी है गौरी. तीन-तीन भाइयों की प्यारी बहन. कितनी बड़ी हो गयी थी, कहीं बाहर जाते, मेले-ठेले में और पैदल चलना पड़े तो क्या मज़ाल गौरी के पांव ज़मीन पर पड़ें. भाई उसे गोद में उठाये रहते थे. छह साल की हो गयी थी, लेकिन पिताजी ने साफ़ कह दिया था, स्कूल की भीड़-भाड़ में परेशान होने न भेजेंगे हम गौरी को. घर में ही मास्टर आयेगा पढ़ाने और तैयारी करायेगा. ज़रा और बड़ी हो ले, तब भेजेंगे स्कूल. वो तो मां ने ज़िद करके उसे स्कूल भिजवाया, वरना आठ साल की घोड़ी हो जाती तब पहली कक्षा में दाखिला होता उसका. तब भी मास्टर साब आते ही थे उसे पढ़ाने . उन्हें सख्त हिदायत थी कि गौरी के साथ एकदम नरमी से पेश आयें. जितनी देर मास्टर जी पढ़ाते, तब तक परिहार साब वहीं थोड़ी दूर पर अपनी आराम कुरसी में धंसे, अखबार पढ़ते रहते. उधर मास्टर जी जाते, इधर गौरी अपने बाबूजी के गले से झूल जाती. बाबूजी पढ़ाई करने के एवज में एक बड़ी सी चॉकलेट पकड़ाते उसे. रोज़ का नियम था ये. मां मना करतीं, कि दांत खराब हो जायेंगे बच्ची के, तो बाबूजी हंस देते- “ हो जाने दो” कहते हुए. मां भुनभुनाती अन्दर चली जातीं, और बाप-बेटी दे ताली कर के ज़ोर से ठहाका लगाते.

(क्रमशः)