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नीलू को विदा कर लौटे रोहन का तमतमाया चेहरा सुनन्दा जी को बार-बार याद आ रहा था. सुनंदा जी यानि बड़ी बाईसाब, सौ एकड़ उपजाऊ ज़मीन, पचास एकड़ प्लॉटिंग की गयी बंजर ज़मीन, पन्द्रह कमरों, और दो दालानों वाली इस तीन मंज़िला हवेली, मुख्यमार्ग पर स्थित तीस दुकानों और उन दुकानों पर बने पन्द्रह मकानों की एकछत्र मालकिन, जिन्हें लगता था कि पैसे की दम पर वे कुछ भी कर सकती हैं, आज परेशान दिखाई दे रही हैं. उनका गोरा चेहरा गुस्से और अपमान से लाल पड़ गया है. चिन्ता के कारण कभी-कभी लाल रंग पीली आभा देने लगता है. ऐसा कैसे हो गया? उन्होंने तो सोचा था इतना देंगीं, कि बुन्देला परिवार कभी सिर ही न उठा सके लेकिन सिर? यहां तो बुन्देला साब आवाज़ भी उठा रहे!!!
अपने मां-बाप की इकलौती बेटी सुनंदा, अपने पूरे खानदान की लाड़ली थीं. बहुत मन्नतों के बाद सिंह साब ने पाया था इस बच्ची को. खूब दुलारी, खूब प्यारी गदबदी सी बच्ची. पांच गांवों की ज़मीदारी थी सुनंदा जी के पिता यानी ठाकुर रुद्र प्रताप सिंह परिहार के पास. दो सौ एकड़ की खूब उपजाऊ ज़मीन. बड़ी सी हवेली के ऊपर चढ़ जाओ तो पीछे की ओर हरे-भरे लहलहाते खेत दिखाई देते. जहां नज़र डालो, ठाकुर साब के खेत ही खेत. हवेली के चारों तरफ़ घना बगीचा. लगभग हर तरह के फलों के पेड़ मौजूद थे. जलवायु के हिसाब से कई पेड़ लग तो गये थे, लेकिन फल देने में असमर्थ थे, तब भी लगाये गये थे ठाकुर साब की ज़िद पर. आगे का पूरा दालान तरह-तरह के फूलों से भरा. मौसम बदलने के पहले ही मालियों की फ़ौज, पौध तैयार कर देती. ऐसे शाही माहौल में बड़ी होने वाली सुनंदा के स्वभाव में अपने आप एक ठसक आ गयी. आदेश देना उनकी आदत में शामिल हो गया . हर आवाज़ पर तत्काल हाथ बांधे खड़े नौकर को देखना उन्होंने अपना अधिकार समझ लिया. ललितपुर और बानपुर के बीच दूर-दूर तक केवल ठाकुर साब की ज़मीन ही दिखाई देती थी. बड़े-बड़े गोदाम अनाज से भरे, खाली होने की बाट जोहते. ललितपुर के पास की पचास एकड़ ज़मीन पर ठाकुर साब प्लॉटिंग करवा रहे थे. हाइवे से लगी इस ज़मीन की कीमत खूब बढ़ चुकी थी. इतनी ज़मीन जायदाद के मालिक रुद्र प्रताप सिंह की जब तक संतान नहीं थी, वे चिन्तित रहते थे. लेकिन सुनंदा के जन्म के बाद उनकी सारी चिन्ताएं मिट गयीं. बिटिया के जन्म के साथ ही उन्होंने घर-जमाई की भी पुख्ता तस्वीर दिमाग़ में बना ली थी. आखिर इतना सब धन-धान्य कौन संभालेगा?
सुनंदा जी को याद है जब उनकी शादी की बात घर में चलने लगी थी, उस वक़्त उनकी उम्र सोलह साल थी. खुल के विरोध करने की तब न प्रथा थी, न लड़कियों को मालूम था कि वे विरोध भी कर सकती हैं. तब मां आगे आई थीं. ठाकुर रुद्र प्रताप सिंह से साफ़ शब्दों में बोलने की हिम्मत केवल मां के पास थी. रोज़ शाम को पनबेसुर का आना, खुसुर-पुसुर करना, और उसके अगले ही दिन पंडित जी का पधारना जब लगातार होने लगा तो सुनंदा की मां का माथा ठनका था. उस दिन उन्होंने ठाकुर साब के किसी ज़िक्र के पहले ही अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया।
(क्रमशः)