रोज़ शाम को पनबेसुर का आना, खुसुर-पुसुर करना, और उसके अगले ही दिन पंडित जी का पधारना जब लगातार होने लगा तो सुनंदा की मां का माथा ठनका था. उस दिन उन्होंने ठाकुर साब के किसी ज़िक्र के पहले ही अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया-
“ सुनिये, ये पनबेसुर और पंडित का रोज़-रोज़ आना साबित कर रहा है कि आप सुनन्दा के लिये लड़के की खोज में लग गये हैं. सुनन्दा अभी केवल सोलह की है और मैं उसे अट्ठारह के पहले नहीं ब्याहने वाली, चाहे जितना अच्छा रिश्ता आप मेरे सामने ला के पटकें. लड़की पढ़ रही है और अच्छा पढ़ रही है. कम से कम इंटर तो कर ले.”
“अरे सुनंदा की मां, तुम भी न. हां ये ठीक है कि पनबेसुर रिश्ते ही ला रहा, लेकिन ये काम वो अपने आप कर रहा, मैने नहीं कहा. फिर, मैने सोचा यदि कोई अच्छा घर-वर मिल जाता है तो बात पक्की करने में क्या हर्ज़? अभी से खोजूंगा तभी तो अच्छा लड़का मिल पायेगा हमारी नंदू को. रही बात पढ़ाई की, तो वो कौन रोक रहा? अरे इंटर क्या, वो अपना बी.ए. भी पूरा करेगी. “ ठाकुर साब मूंछों में मुस्कुरा रहे थे. “ अच्छा!! और अगर ससुराल वालों ने पढ़ाई रोक दी तो? न भाई. कोई भरोसा न है हमें अपने यहां के ठाकुरों पर. सोने के पिंजरों में क़ैद हो जाती हैं लड़कियां…..” सुनन्दा की मां को शायद अपनी ससुराल याद आ गयी थी.
“ तुम भी न रही मूरख की मूरख. अरे नंदू को अपने घर से भेज कौन रहा? यहां तो मैं बिटिया की नहीं, दामाद की विदाई करवाऊंगा… हा हा हा…..” ठाकुर साब का गर्वोन्मत्त ठहाका, सुनन्दा की मां को अट्टहास जैसा लगा. पति की योजना भी समझ में आई, जो उन्हें बहुत अच्छी तो नहीं लगी, लेकिन विरोध करने लायक़ भी न लगी. आखिर बुढ़ापे का सहारा केवल सुनन्दा ही तो थी. फिर इतनी ज़मीन-जायदाद, वो सब भी तो सुनन्दा और दामाद को ही सम्भालनी थी. तब घरजमाई लाने में उन्हें कोई खास बुराई नज़र नहीं आई. राहत की सांस भी ली उन्होंने कि बिटिया उनके ही सामने रहेगी.
दो साल बाद सुनन्दा का ब्याह बुन्देला परिवार में हो गया था. लड़का पढ़ा लिखा , तीन भाइयों और तीन बहनों में सबसे छोटा था. परिवार ठाकुर साब की टक्कर का तो नहीं था, लेकिन खानदानी लोग थे. ज़मीन भी ठीक-ठाक ही थी. सभी पढ़े-लिखे लोग थे परिवार में. ठाकुर साब यही तो चाहते थे. परिवार कुलीन, और बड़ा हो, जबकि ज़मीन उस हिसाब से कम हो, ताकि लड़के को यदि अपनी ससुराल में रहने और कारोबार सम्भालने का न्यौता दें, तो ना-नुकुर की गुंजाइश कम हो. ठाकुर साब ने वैसे कोई चालाकी से दामाद को घर जमाई बनाने की योजना प्लान नहीं की थी. ये बात उन्होंने रिश्ता तय होने की अन्तिम दहलीज पर लड़के वालों को बता दी थी. उन्होंने अपने होने वाले समधी से साफ़ शब्दों में कहा था- “ देखिये बुन्देला साब, हमारी एक ही बेटी है. सारी ज़मीन ज़ायदाद उसी की है. अभी तो हम सक्षम हैं सो देखरेख कर रहे हैं, लेकिन कल के दिन जब हमें ज़रूरत होगी, तब बिटिया को ही हमारा साथ देना होगा. आ के अपनी ज़ायदाद, कारोबार सब उसे ही सम्भालना होगा. ऐसे में आप ही तय कीजियेगा कि बेटी अकेली हमारे पास रहे, या दामाद भी उसके साथ हमारी, जो तब उसकी ही हो चुकी होगी, ज़ायदाद सम्भालने आयेगा वहां?” बुंदेला साब को मन ही मन हंसी आई होगी ऐसे प्रस्ताव पर. सोचते होंगे कि अभी तो खुद ठाकुर साब की उमर चालीस से बस कुछ ही ऊपर है. जब तक ज़रूरत पड़ेगी, तब तक बिटिया ससुराल में रम चुकी होगी. और बाद में देखना भी पड़ा तो क्या? आखिर सारी ज़ायदाद बेटे के नाम हो भी तो जायेगी, सो देखभाल भी जायज़ है.