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मां का अंतिम समय 


‘बस। अब और नहीं होता मुझसे। परेशान हो गई हूं मैं।’ उसके अंतिम कौर मुंह में डालते ही जूठी थाली उसके सामने से उठाते हुए बड़बड़ाती वह बोली। बादल गरजने के लिए जैसे अनुकूल वातावरण तलाश रहे थे।

‘हिम्मत और शान्ति से काम लो स्नेहा। डॉक्टर के कहे अनुसार सिर्फ छह महीने ही है। मां का अंतिम समय सुख से गुजर जाये तो मन पर फिर सारी जिन्दगी कोई भार न रहेगा।’ हमेशा की तरह आज भी उसने एक दार्शनिक अंदाज में जवाब देते हुए अपनी जगह से खड़े होते हुए उससे कहा।

‘दुखी तो ये अपने कर्मों की वजह से होती हैं। तीखा खाया न जाता है तो आज सुबह दूध में रोटी चूरकर खिला रही थी। अचानक इत्ती जोर से मेरे हाथ पर अपना हाथ मारा कि मेरे हाथ से कटोरा छूटकर दूर जा गिरा। ये देखो कलाई में अब भी टूटी हुई चूड़ियों की खरोंच के निशान ताजा है।’ उसके सामने अपने हाथ फैलाते हुए उसका शिकायती स्वर तेज हो गया।

‘ठीक है। तुमसे न होता है तो एक फुल टाईम नर्स रख लेते है।’ उसकी कलाई पर उभरे घावों पर एक नजर डाली और रोज रोज की शिकायतों से निजात पाने के उद्देश्य उसने अपनी सलाह रखी।

‘और उसे चुकाने के लिए पैसे क्या किसी झाड़ पर लगेंगे? इनकी सेवा चाकरी करने के लिए तो पहले ही मैं अपनी नौकरी छोड़ बैठी हूं। उस पर दवा का खर्च.... इनके पीछे अपने बंटी को भी कई दफा नाउम्मीद कर देती हूं। बड़े आये अमीरजादे ! नर्स रखने वाले।’ उसकी आशा के विपरीत बात और ही उलझ गई। बादल फिर गरजने लगे।

‘तो क्या करूं? रोज रोज तुम्हारी एक ही तरह की शिकायत सुन सुनकर मेरे कान पाक गए है।’ उसके सब्र का बांध अब टूटा जा रहा था।

‘तीन महीने से घर की दहलीज के बाहर नहीं निकल पाई हूं। कोई फैसला भी तो नहीं आता। कामवाली बनकर रह गई हूं।’ उससे हमदर्दी की आशा में उभरी शिकायत अब परेशानी और चिढ़ में बदलकर अब शब्दों का आकार लेकर कहर बरसाने की तैयारी कर रहे थे।

‘तुम्हें घर की दहलीज के बाहर पैर रखने का बहुत शौक है न! कल के बाद जी भर घूमना बाहर।’ उसकी बात पर गुस्से से उबलते हुए उसने उसे घूरा और अपने बेडरुम में चला गया।

उसके गुस्से से सहमी सी, घबराई हुई सी वह जल्दी जल्दी बचे हुए काम निपटाने लगी। बर्तन मांजकर सास का डायपर बदलकर फिर उन्हें दवा पिलाकर बंटी को थपकियां देकर सुलाकर झट से अपने कमरे में पहुंच गई।

‘गुस्से में तुम अपना विवेक खो बैठते हो। खबरदार जो ऐसा वैसा कुछ किया तो....’ उसके शब्दों में नाराजगी के साथ एक शिकायत भी छुपी हुई थी। बादल जैसे अब छंटने की तैयारी कर रहे थे।

उसकी बात को अनसुनाकर उसने करवट बदल ली। सारी रात एक अनहोनी की आशंका से वह जागती पड़ी। उस पर पहरा देती रही। सुबह सुबह न जाने कैसे आंख लग गई। फिर जब आंख खुली तो उसे अपनी बगल में न पाकर उसके हाथ पैर ठंडे पड़ गए। बदहवास सी वह कमरे से बाहर निकली। बगल वाले कमरे में असहाय, परवश, बूढ़ी हो चुकी एक मां को निहारते हुए एक बेटे को वह देख रही थी। उसकी आंखों से खारा पानी गिरने को ही था कि डबडबाई हुई सी उसकी नजर उसके पैरों के पास रखे एक बैग पर पड़ी।

‘क्या चल रहा है रोहित तुम्हारें मन में? ये बैग...सुबह सुबह कहां जा रहे हो?’ उसकी आवाज कांपने लगी।
‘तुम्हें घर की दहलीज से बाहर पैर रखना है न! तो पहले मां को दहलीज पार करवानी पड़ेगी।’ अपनी जगह से खड़े होकर वह उसके पास आ गया।

‘क्या बोल रहे हो, मेरे तो कुछ पल्ले न पड़ रहा है।’ घबराहट के मारे उसने अपना सिर पकड़ लिया।
‘आज से तुम आजाद। जहां जाना हो जा सकती हो। मां अब से वृद्धाश्रम में रहेगी।’ उसने कहा तो दो पल के लिए पूरे कमरे में एक गहरी चुप्पी छा गई।

‘बस! हो गया? अपने मन का गुबार तुम पर इसी से निकालती हूं ताकि परेशानी और उलझन से मेरा मन खाली हो सके। मां भले ही सुन नहीं सकती पर चेहरे पर उभरे भाव आसानी से पढ़ लेती है। भारी मन से उनके पास गई तो हो सकता है मेरी खीज से अनजाने में उनका मन घायल हो जायें। मां के अंतिम समय के सुख की चिन्ता है मुझे।’ वह उसे बड़बड़ाते हुए विचारशून्य होकर सुने जा रहा था।
‘मेरे पास पहले से बहुत काम है। अब मेरा काम और न बढ़ाओं। इस बैग में जैसे मां के कपड़े भरें है न, वैसे ही निकालकर करीने से जहां थे वहां जमाकर रख दो...वरना मुझसे बुरा कोई न होगा। बड़े आये, वृद्धाश्रम को अपनी मां दान करने वाले। मैं मर गई हूं क्या?’ उसे एक नजर घूरकर वह वहां से रसोई में चली गई और चाय की पतीली गैस पर चढ़ा दी।

बादल गरज कर बरस चुके थे और अब वह अपनी भीग चुकी आंखों को पोंछ रहा था।

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