Domnik ki Vapsi - 33 - Last Part books and stories free download online pdf in Hindi

डॉमनिक की वापसी - 33 - Last Part

डॉमनिक की वापसी

(33)

दीपांश को अस्पताल में आए पाँच दिन बीत चुके थे... कमज़ोरी और खून कमी के कारण डॉक्टर ने फिलहाल ऑपरेशन स्थगित कर दिया था..

बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी। आँखों के आगे अँधेरा छा रहा था. कमरे की हर चीज़ घूमती हुई लगती थी. बहुत मुश्किल से साँस आती, रह रहके सीने में टीस उठती। कभी खाँसी आती तो मुँह लाल हो जाता, खाँसी रुकती तो आँसू बह निकलते..

चार दिन से लड़के-लड़कियाँ दिन-रात उनकी हर जरूरत के लिए पूरी मुस्तैदी से लगे थे। उनकी ज़रा-सी तक़लीफ़ में कोई डॉक्टर को बुलाने दौड़ जाता, कोई नर्स को आवाज़ देता, कोई छाती मलता। सुबह से शाम तक ग्रुप के सभी सदस्य जिला अस्पताल के आस-पास ही मंडराते रहते। दो-दो के जोड़े बनाकर रात में उनके कमरे में तैनात रहते। उनके लिए डॉमनिक दा का बीमार पड़ना उनके शहर में, उनके जीवन में, उनके मन में, इतने दिनों बाद जगी प्रेम और कला की उम्मीद का मंद पड़ना था। इन चार दिनों में रमाकांत से उन्होंने दिल्ली में दीपांश के अभिनय के बारे में बहुत कुछ जाना था और रमाकांत ने भी उन्हें उनके ग्रुप ‘रिद्धिरंग’ की हर संभव मदद के लिए और जब तक जरूरत हो तब तक अपने वहाँ रुकने के बारे में आश्वस्त कर दिया था. पर उनके डॉमनिक दा उनकी हर उम्मीद की धड़कन बन गए थे. उनकी हालत ज़रा भी ऊपर-नीचे होती, सब झुंड बनाकर उनके कमरे के बाहर इक्ट्ठे हो जाते। किसी की आँख बिना कुछ कहे-सुने ही गीली हो जाती। ऐसे में सब एक दूसरे को ढाँढस बंधाते.

वे सब डॉमनिक दा के अतीत के बारेमें इतना कुछ जानने के बाद उनके ठीक हो जाने पर उनसे सैकड़ों बातें पूछना चाहते थे. पर एक बात उनके चेहरे को देखके सबके मन में बैठने लगी थी कि अब वह ठीक नहीँ होना चाहते. पर साथ ही उन्हें देखके यह भी लगता कि कुछ है जो उनके भीतर अटका है, कुछ है जो मुक्त हुआ चाहता है, कोई गाँठ है जो अभी खुलनी बाकी है।

रात से ही रह रहके उनकी आँखें दरवाज़े की ओर देख रही थीं। सुबह होते ही निशान्त ने आकर बताया, 'दादा कोई बाहर से, आपसे मिलने आया है.'

दीपांश की आँखें हल्के से चमक उठीं, लगा जैसे वह जानता हो कि कौन आया है, आँखें फिर दरवाज़े की ओर उठीं। सामने अनंत खड़े थे। बड़ा कुर्ता, ढीली तहमद, कंधे पर एक तनी वाला कपड़े का थैला, बाल बंधे हुए.

बड़ी-बड़ी काजल लगी हुई आँखें, दीपांश को देखके नम हो गईं.

कुछ समय के लिए कमरे में सन्नाटा छा गया। आस-पास की ध्वनियाँ कहीं बिला गईं। हवा में बिना भाषा के बातें तिरने लगीं..

कुछ देर बाद अनंत ने कहा, ‘रिद्धि के घर से आ रहा हूँ, उस समय नहीं आ सका था. उसकी माँ से मिलना था. उनकी चिट्ठियाँ मेरे ही पते पर आती थीं. कुछ कर्ज़ था रेबेका पर रिद्धि के अतीत का। रिद्धि के नाम आईं माँ की चिट्ठियाँ, रेबेका ने कभी नहीं पढ़ीं. उसके कहने पर मैं ही उनके जवाब लिखता था. कहती थी, ‘आख़िर में.. एक चिट्ठी माँ को जरूर लिखूँगी.’ दानी भी आई है मेरे साथ. रिद्धि की माँ ने उसे अपने पास रोक लिया. वह चाहती थीं दानी उनके पास ही रह जाए. मैं सोच ही रहा था कि उनसे क्या कहूँ तब तक रिद्धि की माँ ने उसकी आख़िरी चिट्ठी मुझे पकड़ा दी. उसमें मेरे, तुम्हारे और दानी के बारे में लिखा था. वह भी यही चाहती थी. चिट्ठी सालभर पहले उन्हीं दिनों में गोवा से पोस्ट की गई थी.’ उसके बाद वह दीपांश के पास बैठते हुए बोले, ‘उन्हीं से पता चला कोई डॉमनिक भी आया था जिसने बंद पड़ा गुरुकुल दोबारा शुरू किया और अब यहाँ अस्पताल में है.’

दीपांश ने किसी अबोध बच्चे की तरह अनंत की तरफ़ हाथ बढ़ा दिया.

उसकी आँखें धीरे-धीरे बही जा रही थीं, ‘बहुत देर कर दी समझने में, जब आँख खुली तो शरीर ने साथ छोड़ दिया, लगता है कुछ नहीं कर सका, सब व्यर्थ गया. कितनी ही लड़ाइयाँ लड़ने की नाकाम कोशिश की पर जीतना तो क्या, कभी अपने पैरों पर मजबूती से खड़ा भी नहीं हो सका.’

अनंत ने कंधे से थैला उतार कर ज़मीन पर रख दिया, बोले, ‘बीथोवन याद है- बीस साल की उम्र से ही उसे सुनाई देना कम हो गया था...’

‘याद है- आख़िरी दिनों में तो वह अपने बजाए संगीत को ही नहीं सुन पाता था..’ दीपांश ने मुस्कराने की कोशिश की.

अनंत थोड़ा और पास आते हुए बोले, ‘..व्यर्थ कुछ नहीं होता, तुमने अपना काम कर दिया, मैं बाहर खड़े बच्चों से मिलकर आ रहा हूँ, तुमने इनमें बीज बो दिए हैं, ये किसी भी जीत-हार से बड़ा काम है. तुम इनमें बार-बार लौटोगे. इनके रूप में अपनी कला में बार-बार लौटोगे.’

सूरज ने सुबह की धूप का एक रूमाल काटकर बिस्तर पर रख दिया था। अनंत की बात सुनके जैसे मन की कोई आखिरी गाँठ खुल गई.

अब धूप का वह टुकड़ा ऐसे चमक रहा था जैसे वह रोशनी का टुकड़ा न होकर ख़ुद सूरज ही हो और कुछ कहने के लिए उसके बिस्तर पर आ बैठा हो। किरणों के तार धरती और आसमान को जोड़ रहे थे। रोशनी के दोनो सिरे आपस में संवाद कर रहे थे। उनके इस संवाद से बने प्रकाश स्तंभ में अदृश्य कही जाने वाली हवा में तिरते हज़ारों बारीक कण, छोटे-छोटे असंख्य रेशे दृश्यमान हो उठे थे। …लगा उसके भीतर हज़ारों अनजाने-अनदेखे संसार साँस ले रहे हैं।

दीपांश ने धूप के उस टुकड़े को हथेली पर लेकर हल्का-सा ऊपर उठाकर देखा।

पलकें रह-रहके झपक जाती थीं...

लग रहा था रोशनी के रेशों में कोई दृश्य देख रहा है.... जिसे देखते हुए चेहरे पर मुस्कान फैल रही है.

......रोशनी में तिरते किसी रेशे पर बैठी हिमानी नीचे उतर रही है...

अब उसे उससे कोई शिकायत नहीं है। उसके पिता से, उसके परिवार से, किसी से भी नहीं। आखिरी मुलाक़ात में वह बिना उसकी ओर पलटकर देखे पहाड़ की ढलान पर उतरता चला गया था। उसे लगा वह भी तिर रहा है इसी रोशनी में और हिमानी से उसे अलग कर देने वाला वह लम्हा भी। वह अभी उस ढलान पर उतरने से पहले पलटेगा। वह हिमानी के आँसू पोछकर उसे गले लगा लेगा। उसे चुमेगा और फिर चूमता ही चला जाएगा। फिर बीच में रुक कर कहेगा, ‘मेरा जाना प्रेम का अन्त नहीं है, तुम मेरे जाने के बाद फिर प्यार करना। अबकी बार पूरी हिम्मत से करना। डरना मत अपने पिता से। तुम मुझे भूल जाना।’

यह क्या? हिमानी ने बिना कहे ही सब सुन लिया।

वह दीपांश का हाथ पकड़कर बोली ‘तुम इतने अच्छे क्यों हो? तुम मेरे पिता की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ मेरी बातों पर कान न देते, उस दिन क्यों उस ढलान से मुझे खींचते हुए नहीं ले गए। क्यूँ नही ले जाकर खड़ा कर दिया चर्च की उस दीवार से सटाकर मुझे, जिसपर मेरा तुम्हारा नाम लिखा था। जहाँ की हवा में जादू था- प्रेम का जादू। जहाँ मुझे अपने घर से आती आवाज़ें सुनाई ही न देतीं पर तुमने ऐसा नहीं किया। मैं वही कहती रही जो मेरे पापा ने मुझसे कहा।’

उसने दीपांश को गले लगा लिया और आसमान की ओर देखते हुए बोली, ‘तुम जानते हो पापा ने बचपन से खिलौनों की तरह चाबी भरी है, हममें। हम अपनी जुबान से वही बोलते आए हैं जो वह चाहते हैं। हमारी जुबान हमारी होकर भी हमारी नहीं। हमारे पाँव लगातार आगे बढ़ते हैं पर हम कोई फासला तय नहीं कर पाते। मैंने कई बार तुम्हारा हाथ पकड़कर उस चाबी पर रखा। मैं चाहती थी तुम वह चाबी पकड़कर उल्टी घुमा दो। न घुमा सको तो तोड़ दो, पर जो मैंने कहा उसे तुमने मेरा कहा ही समझा और तुम चले गए। तुम्हारे जाने के बाद मैंने अपनी छाती पीट-पीटकर वह चाबी तोड़ डाली। वह चाबी जो पिता भरते थे जिससे मैं खिलौने की तरह नाचती थी। जानते हो उस दिन तुम नहीं गए होते तो वो गुस्सा मेरे भीतर कभी न आता.’

दीपांश कुछ कहना चाहता था पर हिमानी रोशनी में घुलकर रेशा-रेशा बिखर गई।

……रोशनी के प्रांकुर से नदी बहने लगी।

पहाड़ से उतरती दूध-सी सफेद नदी।

शिमोर्ग नदी के किनारे खड़ी सदा से असंतुष्ट रही आई अपनी माँ की अधूरी महत्वाकांक्षाओं का तर्पण कर रही है। वह नदी का पानी उलीच-उलीच कर उन्हें तेज़ धार में बहा रही है। उसके पिता चैन की साँस ले रहे हैं।

अपने मन की एक पूरी साँस।

शिमोर्ग एक पत्थर पर बैठी वॉयलिन बजा रही है... अपनी वॉयलिन...

सुर ठीक नहीं लग रहे हैं। दीपांश हाथ पकड़ कर सुर बिठा रहा है....

वॉयलिन की धुन दूर तक फैल रही है...

वहाँ भी जहाँ रेबेका खो गई थी... दानी बड़ी हो गई है. बिलकुल रिद्धि की तरह दिखती है. ‘रिद्धिरंग’ में बच्चों को संगीत सिखा रही है.. बच्चे गाना सीख रहे हैं, गाने में आवाज़ उठाना सीख रहे हैं.... उनके साथ पिताजी और माँ भी गा रहे हैं. गीत पाहड़ से लेकर समंदर तक गूँज रहा है..

साँस तेज़-तेज़ चलने लगी है. उखड़ने लगी है. आँखें बुझने लगीं हैं. वह फिर भी गाना चाहता है.

मैं, अजीत, रमाकांत, घेर के खड़े हो गए. कोई डॉक्टर को बुला लाया.

‘रिद्धिरंग’ के सभी सदस्य कमरे में आ गए. पलंग के चारों ओर एक घेरा बन गया. लगा सब एक अदृश्य तार से बंध गए हैं...

अनंत के गले से निकली आवाज़, उन सबकी भी आवाज़ बन गई...

‘धुंध बहुत है, छट जाएगी

धूप ही सच है, कितना भी तोड़ो

थोड़ी चौंध रही आएगी...’

धूप का टुकड़ा बिस्तर से उतरकर पूरे कमरे में फैल गया....

समाप्त

- विवेक मिश्र

- 123-सी, पॉकेट-सी, मयूर विहार फेस-2, दिल्ली-91;

- मो - 09810853128

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