सत्या - 5 KAMAL KANT LAL द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

  • आखेट महल - 7

    छ:शंभूसिंह के साथ गौरांबर उस दिन उसके गाँव में क्या आया, उसक...

  • Nafrat e Ishq - Part 7

    तीन दिन बीत चुके थे, लेकिन मनोज और आदित्य की चोटों की कसक अब...

श्रेणी
शेयर करे

सत्या - 5

सत्या 5

सत्या बस्ती की गलियों में चला जा रहा था. मीरा के घर के आगे भीड़ लगी देखकर उसके कदम तेज़ हो गए. पास जाकर उसने भीड़ के पीछे से उचक कर देखने की कोशिश की. एक काला-कलूटा आदमी ऊँची आवाज़ में हाथ लहरा-लहरा कर कह रहा था, “क्या मजाक है, छे महीना का किराया नहीं दिया. घर भी खाली नहीं कर रही है. मेरा तो नुस्कान हो रहा है ना? तुमलोग मेरे बारे में भी तो सोचो. मेरा भी बाल-बच्चा है.”

औरतों के बीच खड़ी गोमती ने समझाने वाले अंदाज में कहा, “अरे तभी तो बोल रहे हैं, इसका बच्चा लोगुन को देखो. इतना ठंडा पड़ रहा है. कहाँ जाएगी? अरे थोड़ा दिन और रह लेने दो. भगवान भी तेरा बच्चा लोगुन को देखेगा ना. एक बिधबा पर ऐसा जुलुम नेहीं करो.”

भीड़ के औरत और मर्द सर हिलाकर गोमती की बातों का समर्थन करने लगे. मकान-मालिक पूरा झुँझलाया हुआ था, “सब दया माया हम ही करेंगे? तुमलोग के मन में दया नहीं है? तुम लोग में से कोई दे दो मकान का किराया. हमको तो किराया से मतलब है. .....अब सब चुप?...हैं?”

“अरे मान जा ना बाबू. बहुत पुन्न मिलेगा,” गोमती ने उसे पुचकारा.

“पुन्न-वुन्न हमको नहीं मालूम. आज एक तारीख हो गया. परसों तक मेरा पैसा दिला दो. नहीं तो घर खाली करो. और हम कुछ नहीं सुनेंगे.”

भीड़ में सुगबुगाहट होने लगी. सब एक दूसरे का मुँह ताक रहे थे. अब क्या किया जाए. सत्या ने कुछ कहने के लिए मुँह खोला. लेकिन तब तक मकान-मालिक आगे कहने लगा, “हम तो बोलते हैं कोई खरीद लो यह झोपड़ी और हर महीना इसके साथ माथा फोड़ते रहो किराया वसूलने के लिए. बोलो कोई खरीदता है क्या? 20-25 हजार नहीं, चलो 15 हजार ही दे दो.”

भीड़ में सन्नाटा छा गया. मकान-मालिक ने सबका मुँह बंद कर दिया था. अचानक कहीं पीछे से आवाज़ आई, “हमको ख़रीदना है.”

मकान-मालिक चौंक गया और उचक कर पीछे देखने की कोशिश करने लगा. सारे लोग मुड़कर सत्या को देख रहे थे. मकान-मालिक ने अंत में कहा, “आप कौन हैं? इस बस्ती के तो नहीं लगते? ये घर तो बस्ती का ही कोई आदमी खरीद सकता है ना? क्या कहते हो तुमलोग?”

अचानक सारे लोग बोलने लगे. गोमती भीड़ चीर कर सत्या के सामने आ खड़ी हुई, “आप कौन है साब? कहाँ से आया है?”

“गोपी हमको जानता था. मरने का सुनें तो आए थे परिवार से मिलने.”

गोमती, “मीरा और उसका बच्चा लोगुन को घर से नहीं निकालेगा और भाड़ा के लिए तंग नहीं करेगा तभी ये घर खरीदने को सकेगा. बोलो क्या बोलता है?”

“नहीं निकालेंगे. भाड़ा भी नहीं लेंगे.”

यह सब सुनकर मकान-मालिक चिल्लाया, “बाहर का आदमी को हम 15 हजार में नहीं बेचेंगे. पूरा 25 लगेगा.”

इसके पहले कि सत्या कुछ बोले, सारी औरतें शोर करने लगीं और गोमती के स्वर में स्वर मिलाने लगीं.

गोमती, “अपना बात से तुम मत पलटो. 15 हजार में बात हो गया बस.”

“ऐसे कैसे होगा? बाहर का आदमी के लिए 25 से एक पैसा कम नहीं लेंगे.”

“15 में ही देना होगा. अपना बात से मत फिरो.”

“नहीं 25.”

“तो चलो फिर, मुखिया फैसला करेगा.”

मकान-मालिक ने भी ताव में कहा, “हाँ-हाँ चलो.”

सारे लोग एक दिशा में चल पड़े. दो गलियाँ पार करके मुखिया का घर आया. पचपन-छप्पन बरस का मुखिया घर के बाहर कुर्सी पर बैठकर बीड़ी फूँकते हुए धूप सेंक रहा था. भीड़ के आगे-आगे गोमती को अपनी ओर आता देखकर वह बोला, “क्या बात है गोमती?”

“दादा, देखो पहले अपना झोपड़ी का दाम 15 हजार लगाया. बाद में अपना बात से पलट रहा है. अब 25 बोलता है,” गोमती ने शिकायत की.

मकान-मालिक ने भी तपाक से जवाब दिया, “देखो-देखो दादा, बस्ती का कोई खरीदेगा तो 15 और बाहर का आदमी खरीदने पर पूरा 25 लगेगा.”

मुखिया सारी बातों से अनजान था. उसने पूछा, “कौन है बाहर का आदमी? गोपी तो बस्ती का लड़का था ना? मीरा भी तो यहीं की हुई?”

मकान-मालिक ने सत्या की ओर इशारा किया, “ये बाबू साहब खरीदना माँग रहे हैं.”

“आप कौन हैं भाई साब, और यहाँ घर क्यों खरीदना माँग रहे हैं?” मुखिया ने थोड़ी सख़्ती से पूछा.

इसका जवाब गोमती ने दिया, “गोपी का दोस्त है. बोलता है मीरा और बच्चा लोग को मुफत में रहने देगा.”

मुखिया ने मीरा से पूछा, “क्या रे मीरा, तुम जानती है इस बाबू को?”

सत्या ने झट से कहा, “मेरा नाम सत्यजीत है, सत्यजीत पाल. घाटशिला के रहनेवाले है. यहाँ एस. डी. ओ. ऑफिस में काम करते हैं. गोपी हमको जानता था. उसकी औरत हमको नहीं जानती.”

एस. डी. ओ. ऑफिस का नाम सुनकर भीड़ में अचानक सुगबुगाहट होने लगी. मुखिया भी संभल कर बैठ गया, “अरे आप बैठिए ना. कोई अंदर से कुर्सी लाओ रे....तो आप एस. डी. ओ. ऑफिस में काम करते हैं? ये घर आप गोपी के परिवार के लिए खरीद रहे हैं?”

कोई दौड़कर एक कुर्सी ले आया. सत्या कुर्सी पर बैठते हुए बोला, “नहीं-नहीं हम अपने लिए ख़रीद रहे हैं. नौकरी इस शहर में कर रहे हैं तो कोई जगह-ज़मीन तो होनी ही चाहिए ना?”

मुखिया ने तपाक से कहा, “हाँ-हाँ जरूर. हम दिलाएँगे जगह आपको. क्या रे, कितना दाम लगाया ...15 हजार? उस टूटा-फूटा झोपड़ी का 15 कौन देगा? सीधा आदमी देखकर बेकूफ बना रहा है? सत्यजीत बाबू, इसको 10 दे दीजिए. और नहीं मानता है तो छोड़िए, हम अपना जगह देंगे आपको.”

मकान-मालिक गिड़गिड़ाने लगा, “मर जाएँगे दादा. अच्छा चलो 14 दिला दो.”

“अभी आते हैं,” कहकर मुखिया उठकर अपने घर के अंदर चला गया. इशारे से उसने मकान-मालिक को भी बुलाया. एकांत मिलने पर वह समझाने के अंदाज़ में बोला, “तेरा दिमाग तो ठीक है? समझ नहीं रहा, एक सरकारी आदमी बस्ती में जगह-जमीन ले ले तो कितना फायदा है?”

“बस्ती का फायदा तो ठीक है, मेरा भी तो कुछ सोचो,” मकान-मालिक रुआँसा होकर बोला.

“आरे मूरख, सरकारी जमीन पर कब्जा कर के बैठा है और सरकारी आदमी से मोल-भाव करता है. अभी ओ जाके एस. डी. ओ. साब को काम्पलेन करेगा तो हमलोग

परेसानी में पड़ जाएंगे. अच्छा चल 11 में बात पक्का कर.”

मकान-मालिक ज़ोर से गिड़गिड़ाया, “दादा, साढ़े बारा दिला दो.”

“11 बोल दिया ना. बस फाईनल.”

दोनों घर से बाहर आ गए. मुखिया ने मज़बूरी दर्शाई, “सत्यजीत बाबू, 11 से नीचे मान नहीं रहा है. हम तो कहते हैं आप मेरा जमीन एक बार देख लीजिए.”

सत्या ने लापरवाही से कहा, “ठीक है ना. दे देंगे ग्यारह. हम कल बैंक से पैसा निकाल कर लाते हैं. आप कागज़ तैयार कर लीजिए.”

सत्या ने सबको हाथ जोड़े और बस्ती से बाहर निकल गया. भीड़ में खुशी की लहर दौड़ गई. मीरा ने मुखिया के पैर छूए और दूसरी औरतों के साथ चली गई.

भीड़ छंटने के बाद मकान-मालिक ने आशंका जताई, “ये कौन सा कागज का बात कर रहा है? रजिस्ट्री कागज तो नहीं?”

“तेरा दिमाग ख़राब है. एस. डी. ओ. ऑफिस में काम करता है. उसको क्या पता नहीं होगा?” मुखिया ने उसकी आशंका को रफा-दफा किया.

लगभग सारी बस्ती मुखिया के घर पर जमा थी. संजय, सत्या, मुखिया और मकान-मालिक एक मेज़ को घेरकर बैठे थे. संजय एक कागज़ पढ़ रहा था. मकान-मालिक कभी मुखिया तो कभी संजय का मुँह देख रहा था. उसे जिस बात की आशंका थी वह अंत में सच हो गई. संजय ने कागज़ मेज़ पर फेंकते हुए कहा, “ये कैसा कागज़ है? ज़मीन का कागज़ कहाँ है?”

मुखिया सकपका गया. उसने बात बनाई, “आप तो जानते ही होंगे बाबू, यहाँ यही कागज चलता है. हम एक बार साईन कर देंगे तो समझिये जमीन पर आपका हक हो गया.”

संजय ने सत्या की ओर देखा. सत्या ने आँखों के इशारे से इत्मिनान रखने को कहा. सत्या ने पैसे मकान-मालिक की ओर बढ़ाए, “कोई बात नहीं. ये लीजिए पैसे. कागज़ बनाइये.”

संजय ने ज़ोर से प्रतिवाद किया, “नहीं, तुम ऐसा नहीं कर सकते. तुम सरकारी कर्मचारी हो. तुम ये सरकारी ज़मीन खरीदोगे तो तुम्हारी नौकरी चली जाएगी.”

सत्या ने दलील दी, “हम मीरा देवी के नाम पर तो ज़मीन ख़रीद सकते हैं ना?”

एक सन्नाटा खिंच गया. अंत में मुखिया ने कहा, “फिर जमीन आपका कैसे होगा?”

“मुखिया दादा, आप अभी मीरा देवी के नाम से कागज़ बना दीजिए. बाद में गाँव से बुलाकर हम मौसी के नाम ज़मीन लिखा लेंगे. फिर आपलोग तो गवाह हैं ही. मीरा देवी कैसे मुकर जाएँगी?”

सत्या उठकर टहलने लगा. संजय चुपचाप सारा माज़रा देखता रहा. नए सिरे से कागज़ लिखा गया और मीरा ने दस्तख़त कर दिए. सत्या उसकी सुंदर लिखावट को ध्यान से देख रहा था. उसने पहली बार मीरा देवी को ग़ौर से देखा और उसके व्यक्तित्व से काफी प्रभावित हुआ.