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सत्या - 7

सत्या 7

सत्या के घर का काम शुरू हो गया. पहले टूटा हुआ कमरा खड़ा किया गया. उसपर एसबेस्टस की छत डालकर मीरा के परिवार को इधर लाया गया. फिर मीरा वाले भाग पर हाथ लगाया गया. दोनों कमरों के आगे बरामदा, अलग से एक छोटा रसोईघर और शौचालय के निर्माण के साथ ही देखते-देखते घर तैयार हो गया. मीरा वापस अपने वाले भाग में चली गई.

जिस दिन क्रिसमस की छुट्टी हुई, सत्या अपना सामान लेकर आ गया. लोगों ने सलाह दी थी कि खरमास में नये मकान में गृह प्रवेष शुभ नहीं होगा. अच्छा होता अगर वह मकर संक्राति के बाद घर में आता. लेकिन सत्या इन सब बातों पर विश्वास नहीं करता था.

उस दिन सवेरे से ही मीरा घर को धो-पोंछ कर साफ करने में जुट गई थी. जब सत्या का सामान पहुँचा तो बस्ती के लोगों ने स्वेच्छा से ठेले पर से लकड़ी की कुर्सी, मेज़, चौकी, आलमारी वगैरह सामान उतार कर घर के अंदर उसके कमरे में लगा दिया. सविता ने भी आगे बढ़ कर हाथ बँटाया और अपना पड़ोसी धर्म निभाया.

शाम को संजय भी पहुँचा. सत्या ने खुशी-खुशी उसे सारा घर दिखाया. छोटे से कमरे में चौकी, मेज़, कुर्सी और आलमारी व्यवस्थित ढंग से लगी हुई थी. संजय ने थोड़ी चिंता जताई, “अपनी ज़िद के कारण तुम ये कैसी जगह आ बसे हो? यहाँ तो सारे के सारे घोर पियक्कड़ हैं. अभी अंधेरा ढला भी नहीं है और रास्ते में जो मिला शराब के नशे में लड़खड़ाता-लुढ़कता मिला. इन अनपढ़ और दरिद्र लोगों के बीच तुम कैसे रह पाओगे?”

सत्या ने हँस कर टाला, “अरे यार, सब अपना कमाते हैं, अपना खाते हैं. पीते भले हों, पर दिल के अच्छे हैं. और फिर हम जिस मकसद से यहाँ आए हैं, उसके आगे हमको यह सब दिखता ही कहाँ है?”

संजय कमरे में टहलता हुआ दीवार पर लगे आईने के आगे जा खड़ा हुआ. एक कागज़ का टुकड़ा आईने के ऊपरी भाग पर चिपका था. उसपर लाल स्याही से लिखा था - डी. ओ. आर. -13.11.2015. संजय ने इशारों से पूछा कि यह क्या है. सत्या मुस्कुराया, “मेरी बीस साल की सज़ा से रिहाई का दिन. डेट ऑफ रिलीज़.”

“तू पूरा पागल है,” संजय ने असहमति में सिर हिलाया. सत्या ज़ोर से हँसा.

संजय सचमुच चिंतित था और सत्या को आगाह करने से वह नहीं चूका, “सबसे बड़ी समस्या तो ये है कि तू इन लोगों के बीच अगर इतने साल रह गया तो या तो तू पागल

हो जाएगा या फिर इन्हीं की तरह पियक्कड़.”

“हम तो चल पड़े हैं अपनी मंज़िल की ओर. रास्ते से भटकेंगे नहीं. अगर कोई चाहे तो साथ हो ले मेरे,” सत्या ने शायराना अंदाज़ में कहा.

सत्या कमरे से बाहर चला गया. संजय भी उसके पीछे दरवाज़े से निकलकर संकरे से बरामदे में आ गया. बरामदे की दूसरी छोर पर मीरा खड़ी दोनों को देख रही थी.

“मीरा देवी, आज से आप केवल मेरे घर में काम करेंगी. साफ-सफाई, धोना-पोंछना सब. और मेरा खाना आपके घर पर बनेगा. इन सब काम के लिए हम हर महीने आपको एक हजार रुपए देंगे. ठीक है ना? राशन-पानी क्या लाना है, हमको लिख कर दे दीजिए,” सत्या ने एक ही सांस में जल्दी-जल्दी सारा कुछ कह दिया, जैसे उसे डर हो कि कहीं मीरा इन्कार न कर दे.

मीरा ने चौंक कर सवाली नज़रों से उसकी ओर देखा. लेकिन शायद संजय की उपस्थिति के कारण वह कुछ नहीं बोली. फिर वह अपने कमरे के अंदर चली गई. सत्या संजय को नया बना शौचालय दिखाकर लौटा तो देखा दोनों बच्चे वहाँ खड़े उनकी ओर देख रहे थे. मीरा हाथ में एक कागज़ लिए कमरे से बाहर आई. बच्चों को देखकर दबी आवाज़ में फुसफुसाकर बोली, “आ गये खेल कर? चलो अंकल को प्रणाम करो.”

बच्चे इस असमंजस में कि किसको प्रणाम करें, कभी सत्या तो कभी संजय को देखने लगे. सत्या के चेहरे की ओर देखे बिना मीरा ने कागज़ उसकी ओर बढ़ाया. सत्या ने ग़ौर किया कि उसकी आँखों में गहरी उदासी छाई थी. वह मुड़ा और संजय के साथ बाड़े की लकड़ी की गेट खोलकर गली में आ गया.

पास वाले घर की गेट पर सविता खड़ी थी. उसकी निगाहें दिलचस्पी से सत्या को निहार रही थीं. सत्या इस बात से बेख़बर संजय के साथ आगे बढ़ गया. उनके जाने के बाद सविता मीरा के कमरे में चली गई. मीरा कोने में रखी कंधे की ऊँचाई वाली छोटी आलमारी के ऊपर रखी फोटो फ्रेम में लगी फैमिली फोटो को एक टक देख रही थी. सविता की आहट पाकर उसने सर उठाकर देखा.

सविता, “मीरा.....क्या कर रही हो?”

“आओ सविता.”

“अरे वाह, तेरी तो लॉटरी निकल आई है. कितना प्यारा लग रहा है तुम्हारा ये घर... सत्या बाबू भले आदमी जान पड़ते हैं.....कितना कुछ कर रहे हैं तुमलोगों के लिए....

कहीं तुमसे प्यार तो नहीं करने लगे हैं?”

सविता की शरारत भरी हँसी पर मीरा की आँखें डबडबा गईं. सविता ने बात को संभालने की कोशिश की, “देखो-देखो, हम ये नहीं कह रहे हैं कि तुम उसको चाहने लगी हो. हम तो बस पूछ रहे थे कि तुमको क्या लगता है? सत्या बाबू तुमसे प्यार करने लगे हैं क्या? आख़िर कोई इतना किसी के लिए क्यों करेगा, जितना सत्या बाबू कर रहे हैं? हम औरतों को पता तो चल ही जाता है, नहीं क्या?”

“अभी तक तो ऐसा कुछ लगा नहीं. वो तो कभी आँख उठाकर हमको देखते भी नहीं हैं. लेकिन उनके मन में क्या है, यह तो वही जानेंगे,” फोटो फ्रेम को हाथ में लेकर मीरा उसे साड़ी के पल्लू से पोंछने लगी और फिर गोपी की तस्वीर पर उसने निगाहें टिका दीं, “खुशी के पापा, हमसे नाराज होकर कौन सा दिन देखने के लिए हमको छोड़ गए,” आँसू की एक बूँद उसके गाल पर लुढ़क पड़ी.

“अरे यार ये बात-बात पर रोना अब बंद करो. जो होना था हो गया. अब आगे की सोचो,” सविता ने समझाने की कोशिश की, “शुक्र मनाओ कि सत्या बाबू जैसे आदमी तुम्हारे जीवन में भगवान का अवतार बन कर आये हैं. तुमको कोई कमी नहीं होने देंगे. और कैसा हाल बना कर रखी हो? न बालों में तेल, न कपड़ों में सलीका, चेहरा मुर्झाया हुआ. पहले से कितनी दुबली हो गई हो. व्हाई डोन्ट यू टेक केयर ऑफ यॉरसेल्फ?”

मीरा अब फफक कर रोने लगी थी, “गोपी..गोपी...हमको माफ कर दो गोपी..माफ कर दो हमको....,” उसकी हिचकियाँ निकल आईं.

सविता ने सांत्वना दी, “मीरा, संभालो अपने आप को मीरा.”

मीरा, “हम जीना नहीं चाहते...हमको भी उठा लो भगवान.”

“तुम ऐसे हिम्मत हारोगी तो कौन देखेगा बच्चों को? हाँ? ... चलो अब चुप हो जाओ,” सविता ने प्यार से उसकी पीठ पर हाथ फेरा, “भगवान एक रास्ता बंद करता है, तो दूसरा खोल देता है. अब इसको भगवान की मर्जी समझकर अपना संसार संभालो. .... चलो अब, अपना घर तो दिखाओ. ... आओ, अब उठ भी जाओ.. शाबाश.”

मीरा ने चेहरे पर पानी के छींटे डालकर आँचल से पोंछा और उदास मन से सविता के पीछे हो ली. सविता रसोई और टॉयलेट देखने के बाद सत्या के कमरे का दरवाज़ा खोलकर अंदर चली गई. मीरा ने इशारे से उसे मना करना चाहा. फिर झिझकती हुई

वह भी कमरे में चली गई.

सविता ने बारीकी से पूरे कमरे को देखा. आईने के सामने वह ठिठक कर रुकी और ग़ौर से आईने के ऊपरी भाग पर चिपके कागज़ पर लिखी ईबारत पढ़ने लगी. फिर मुँह बिचकाकर टेबल की तरफ मुड़ी. शरत साहित्य का पूरा सेट वहाँ रखा था, बिराज बहु, देना पावना, परिणिता, शेष प्रश्न, चरित्रहीन........ सविता चरित्रहीन उपन्यास उठाकर उसके पन्ने पलटने लगी. फिर उसे सीने से लगाकर पलटी, “हम ये किताब ले जा रहे हैं. सत्या बाबू को बता देना.”

मीरा ने उसे रोकना चाहा. लेकिन किताब लेकर वह तेजी से निकल गई.

सत्या रतन सेठ की दुकान पर खड़ा संजय के साथ बातें कर रहा था. सेठ उसकी लिस्ट का सामान तौल रहा था. सहसा सत्या ने सेठ से कहा, “और सेठ जी, ज़रा गोपी का बकाया हिसाब भी दिखाना.”

तराजू पर से दाल का ठोंगा उतारते हुए सेठ ने कहा, “ये लीजिए सत्या बाबू, दाल. ... अभी का हुआ 765 रुपया और पहले का बकाया है 485. टोटल हुआ 1250.”

सत्या, “ज़रा पुराना हिसाब दिखाएँगे?”

रतन सेठ, “देखना क्या है सत्या बाबू. हमको पूरा याद है. 485 ही है.”

सत्या ने हिसाब की कॉपी उसके हाथ से खींच ली और पन्ने पर नज़र दौड़ाने लगा. संजय भी उसमें झाँक कर देखने लगा.

संजय, “ये दाम आपने कुछ ज़्यादा नहीं लगाया है? .... सरसों का तेल 50 की जगह 70, दाल 28 की जगह 40 रुपये...ये सब क्या है सेठ?”

रतन सेठ, “हें-हें-हें-हें... अब क्या बताएँ. ये लोग खुदरा में ले जाते हैं. कभी 50 ग्राम तो कभी 100. और फिर महींनों पैसे नहीं देते हैं. क्या करें, मेरी पूँजी फंस जाती है. सो आप तो समझ सकते हैं. कितना मुश्किल है इनके साथ व्यापार करना.”

“ये ठीक बात नहीं है सेठ. तुम तो जानते हो न हमको,” संजय ने धमकी दी, “साहब के पास शिकायत गई नहीं कि ..... और फिर इस सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा करके तुम जो इतना बड़ा मकान बनाए हो न, सब पर बुल्डोज़र चल जाएगा.”

“अरे साब, ये क्या कह रहे हैं. लाईये अभी ठीक करते हैं सारा हिसाब,” रतन सेठ हड़बड़ा गया.

पास खड़ा बस्ती का रमेश सबकुछ देख-सुन रहा था. वह गुस्से से चिल्लाया, “मेरा हिसाब भी सुधार कर लिखो सेठ. .. अभी हम सबको बताते हैं तुम्हारा बेइमानी...”

बोलकर रमेश दुकान से निकलकर भागा. रतन सेठ ने सर पर हाथ रखकर असहाय सा संजय और सत्या को देखा, “ये क्या कर दिया सत्या बाबू आपने? यहाँ आकर मेरा ही धंधा चौपट करना था आपको?”

सत्या ने कुछ कहा नहीं. बस मुस्कुराया और इशारे से हिसाब सही करने को कहा. सेठ ने माथा खुजाते हुए हिसाब की कॉपी पर नज़र दौड़ाई और पेन से कुछ लिखने लगा. संजय और सत्या एक दूसरे को देखकर मुस्कुराए.

रतन सेठ, “ये लीजिए कुल 982 रुपया हुआ.”

सत्या ने गिनकर एक हजार रुपये बढ़ाए. बाकी के पैसे लिए और दोनों मुड़ कर चले गए. इसके साथ ही लोगों का एक झुँड शोर मचाता हुआ अंदर आया, “हमारा हिसाब भी ठीक करो. और धाँधली नहीं चलेगा...नहीं चलेगा, नहीं चलेगा.”

रतन सेठ की चिल्लाने की आवाज़ आ रही थी, “आज से नगदी दोगे तो ठीक दाम लगाएँगे. उधार लोगे तो पुराना हिसाब चलेगा.”

भीड़ ने भी नारा लगाया, “धाँधलीबाजी नहीं चलेगा. नहीं चलेगा. नहीं चलेगा.”

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