सत्या - 8 KAMAL KANT LAL द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सत्या - 8

सत्या 8

दारू के नशे में धुत्त लोगों का एक झुँड ढोल बजाकर नाचता हुआ चला जा रहा था. सबसे आगे रमेश थिरक रहा था. बीच-बीच में ऊँची आवाज़ में वह नारा बुलंद करता था, “सत्या बाबू की जै.”

जवाब में उसके साथ चल रही पूरी भीड़ एक स्वर में दोहराती थी, “सत्या बाबू की जै.”

रमेश, “सत्या बाबू की जै.”

भीड़, “सत्या बाबू की जै.”

रमेश, “डिडिंग-डिडिंग, डिडिंग-डिडिंग...”

शोर सुनकर सत्या कमरे का दरवाज़ा खोलकर बाहर बरामदे में निकल आया. देखते ही लोगों ने उसको घेर लिया और साथ में नचाने का प्रयास करने लगे. सत्या अपने को छुड़ाने की कोशिश कर रहा था. लेकिन छुड़ा नहीं पा रहा था. लोग उसकी जयजयकार कर रहे थे. औरतों और बच्चों का झुँड तमाशा देखने के लिए आ जुटा था. झारखंड बुढ़िया सबसे आगे-आगे झूमती हुई नाच रही थी और बार-बार सीटी बजा रही थी. सत्या बड़ी मुश्किल से कह पाया, “अरे बात क्या है, कोई कुछ बताएगा भी?”

रमेश पूरी तरह नशे में चूर था. उसने तो नहीं, लेकिन चँदू ने जवाब दिया, “सत्या बाबू तुम हमलोग का आँख खोल दिया. रतन सेठ हम लोग को चूना लगा रहा था. बहुत गलत हो रहा था हमलोग के साथ. सत्या बाबू के कारण अब सब ठीक हो गया...... सत्या बाबू की जै.”

“सत्या बाबू की जै.”

उनका नाचना गाना थम ही नहीं रहा था. वे ऐसे नाच रहे थे जैसे शिव जी के बाराती हों. सत्या चिल्लाया, “अरे तो इसमें शराब पीने वाली क्या बात है?”

रमेश, “आज तो खुशी का दिन है सत्या बाबू... देखो हम आपके लिए विलायती लेकर आए हैं.”

“अरे नहीं-नहीं, हम शराब को हाथ भी नहीं लगाते हैं.”

सत्या अपने-आप को लोगों की जकड़न से छुड़ाने का प्रयास करने लगा. लोग उसकी

एक नहीं सुन रहे थे. रमेश ने बोतल का ढक्कन खोलकर उसके मुँह से लगाने का प्रयास किया, “एक घूँट, बस एक घूँट.... बस एक घूँट...हमारा खातिर, बस एक घूँट.”

अचानक मीरा ने भीड़ में घुसकर ढोलक बजाने वाले के हाथ से लकड़ी का टुकड़ा छीन लिया और बिफरी हुई शेरनी की तरह ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगी, “बंद करो ये मताल डाँस, बंद करो. तुमलोग को दारू पीने का बहाना चाहिए, बस. खुशी है तो दारू. दुखी है तो दारू. बस्ती में बच्चा पैदा हुआ...दारू...कोई मर गया .. दारू... साला ऐसे ही तुमलोग मेरे गोपी को भी पिलाकर मताल कर दिया .. और..वो मर गया,” गोमती और अन्य औरतें उसके साथ आ खड़ी हुईं.

बोलते-बोलते मीरा का गला रुँध गया था. गाना बजाना तो बंद हो गया, लेकिन भीड़ छंटी नहीं थी. अब गोमती ने मोर्चा संभाला, “क्या रे, और कोई काम नेहीं है? बस दारू, दारू, दारू. रतन सेठ से पैसा बचा तो बच्चा लोगुन के लिए मिठाई-कपड़ा लेके जाओ. नेहीं, ... दारू पियेंगे और मरेंगे. अरे ओ झारखंड बुढ़िया. तुम भी इन लोगुन का साथ मजा लेती रहती है.... जाओ भागो सब.”

मीरा फिर तैश में बोली, “इन लोगों का क्या..... दारू पिया मर गये. पीछे जवान औरत, छोटे-छोटे बच्चे....कौन खिलाएगा .... कौन पढ़ाएगा...कुछ नहीं सोचा ... बस दारू चाहिए .... गिन कर देख लो, शादी-शुदा से ज़्दाया विधवा हैं इस बस्ती में.”

बस्ती की चार विधवाएँ मीरा के पास आ खड़ी हुईं और रोषपूर्ण नेत्रों से लोगों की ओर देखने लगीं. मीरा के इस रौद्ररूप से हक्का-बक्का सत्या लोगों की पीठ पर हाथ रखकर उन्हें वहाँ से चले जाने का इशारा करने लगा. लोग धीरे-धीरे खिसकने लगे. अब झारखंड बुढ़िया डंडा उठाकर लोगों को खदेड़ने का स्वाँग करने लगी थी.

रात काफी हो चुकी थी. रमेश और चँदू कंबल में लिपटे दारू के अड्डे पर एक साथ फर्श पर बैठे दारू पी रहे थे. रमेश नाराज़गी दिखाते हुए बोला, “हम कभी बुलाते थे गोपी को दारू पीने के वास्ते? मीरा भाभी को हमलोग को गाली नहीं देना चाहिए था. हमारा क्या दोस है?”

चँदू, “उस दिन तुम नहीं बुलाया था उसको दारू पीने के लिए?”

“हम तो यहाँ बैठकर पी रहा था,” रमेश नाटकीय अंदाज़ में बताने लगा, “वह आया और ... जहाँ तू बैठा है न, ठीक वहाँ पर बैठ गया. बोला रमेश, मेरे भाई, कहीं से एक हजार रुपया दिला दे. बहुत परेसानी में हैं. हम बोला परेसानी का इलाज है न यहाँ,” रमेश ने ऊँची आवाज़ में कहा, “एक बोतल अंदर और परेसानी बाहर. क्यों ठीक बोला कि नहीं?”

चँदू अचानक खुश हो गया और गाने लगा, “एक बोतल दारू, बस एक बोतल. मत छीनो हमसे ये एक बोतल. रमेश बाबू....एक बोतल दारू गरीब का जीने का आधार है... एक बोतल दारू हम मजदूरों का पूरा संसार है.....बस एक बोतल दारू.”

दोनों देर तक लोट-पोट होकर हँसते रहे. आँखों में छलक आए आँसू को पोंछते हुए रमेश ने कहा, “किसका याद दिला दिया यार. ये बात तो अपना जिगरी दोस्त सोनू बोलता था. मर गया साला .... दारू पीकर बिंदास जीता था...दारू पीकर शान से मर गया....हे भगवान उसका आतमा को शाँति देना.”

रमेश ने ग्लास मुँह से लगाकर खाली कर दिया. चँदू ने भी जल्दी से वैसा ही किया. फिर उसने बोतल से दोनों ग्लासों में शराब उंडेली, “तो गोपी उस दिन दारू नहीं पिया?”

“पिया ना.......हम अपना पैसा से पिलाया. क्या समझा,” रमेश ने शेखी बघारी.

“वाह-वाह क्या बात है. तुम तो महान हो रमेश बाबू.” चँदू दोनों हाथ जोड़कर उसके पैरों पर झुक गया.

रमेश ने कहना जारी रखा, “हम बोला, तुमको पैसा चाहिए तो दारू पीना होगा. दारू पिएगा तब तो हिम्मत आएगा. क्यों, ठीक बोला कि नहीं?”

“सही है. पर दारू पीने से पैसा कहाँ मिलता है?”

“हम बोला एक बोतल चढ़ा और ये चाकू लेकर जा. अपना पुराना सेठ को एक बार धमकाया नहीं और तेरे हाथ में तेरा बकाया पैसा आया नहीं..... वो एक सांस में पूरा बोतल खतम करके उठा और मेरा चाकू लेकर चला गया........ सुबह देखा तो मरा पड़ा था. .... उसको एक सांस में पूरा बोतल खाली नहीं करना चाहिए था. उसका पीने का तरीका एक दम गलत था.”

चँदू, “और तेरा चाकू कहाँ गया?”

“ठीक बोला, हम भी डर गया था,” रमेश फुसफुसाता हुआ बोला, “उसका मरने का खबर सुनकर हम सोचा रमेश किसी के साथ उलझ तो नहीं गया था रात को? जब वहाँ पहुँचा तो देखा पत्थर के बीच मेरा चाकू पड़ा है. उसका लाश जब वहाँ से हट गया तो हम चुपके से अपना चाकू निकाल के ले आया.”

“ठीक किया बॉस. पुलिस को तेरा चाकू मिल जाता तो तू झमेले में पड़ जाता.”

शराब की भट्टी का मालिक कालिया कमरे में आया. उसका नाम शायद कुछ और था. लेकिन काला कलूटा रंग और अच्छी खासी डील-डौल के कारण सब उसे कालिया ही कहते थे. उसने सबको आवाज़ लगाई, “चलो-चलो, अब दुकान बढ़ाने का समय हो गया.”

भट्टी में बैठे चार लोग अपनी-अपनी ग्लास का आख़िरी धूँट भर कर बाहर चले गए. रमेश और चँदू भी उनके पीछे हो लिए. बाहर निकलकर दोनों पास की झाड़ी के पास पेशाब करने के लिए रुके. चँदू ने सवाल किया, “यार वो गोपी का पुराना सेठ पैसा दिया कि नहीं?”

“एक बात बोलें?” रमेश ने उसके कान में धीरे से कहा, “हमको तो लगता है सत्या बाबू ही उसका पुराना सेठ है. तभी तो गोपी के परिवार के लिए इतना सब कुछ कर रहा है. शायद उसका दिल में दुख है कि समय पर पैसा नहीं लौटाने के कारण गोपी का परिवार का ये हाल हो गया.”

“ऐसा क्या?” चँदू ने आश्चर्य से पूछा.

“तुम मेरा नाम बदल देना, अगर एक दिन मेरा बात सच नहीं निकला तो. सत्या बाबू ही गोपी का पुराना सेठ है,” कहकर रमेश पेशाब की धार छोड़ने लगा.