सत्या - 4 KAMAL KANT LAL द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • तेरा...होने लगा हूं - 5

    मोक्ष के खिलाफ और खुद के फेवर में रिपोर्ट बनाकर क्रिश का कस्...

  • छावां - भाग 2

    शिवराय द्वारा सन्धि का प्रस्ताव मिर्जाराज जयसिंह के पास भेजा...

  • Krick और Nakchadi - 3

     " एक बार स्कूल मे फन फेर हुआ था मतलब ऐसा मेला जिसमे सभी स्क...

  • पथरीले कंटीले रास्ते - 27

      पथरीले कंटीले रास्ते    27   27     जेल में दिन हर रोज लगभ...

  • I Hate Love - 10

    और फिर उसके बाद स्टडी रूम की तरफ जा अंश को डिनर करने को कहती...

श्रेणी
शेयर करे

सत्या - 4

सत्या 4

रतन सेठ की दुकान से संजय ने चिप्स की एक पैकेट ख़रीदी और खाने लगा. बगल की गली से गोपी का शव कंधे पर लेकर लोग निकले. आगे चल रहे व्यक्ति के “हरी बोल हरी” के जवाब में पीछे चल रहे सारे लोग “बोल हरी” कहते हुए सामने से तेजी से निकल गए.

संजय ने अनजान बनकर रतन सेठ से पूछा, “कौन मर गया?”

रतन सेठ ने अफ़सोस ज़ाहिर किया, “था एक लड़का गोपी....बेचारा...भगवान इसकी आत्मा को शांति दे.”

संजय, “कैसे मर गया?”

रतन सेठ ने जवाब दिया, “कल रात अंधेरे में गिरा. पत्थर पर सिर टकराया. माथा फट गया और वहीं मर गया.”

संजय, “किसने देखा गिरते हुए?”

“आधी रात को यह इलाका पूरा सुनसान रहता है,” रतन सेठ ने जानकारी दी, “हाँ, जब गिरा तो चोट लगने से वह चीखा जरूर था. हम खाना खाने जा रहे थे. सुने थे उसकी चीख.”

“क्या पता गिरा न हो, किसी ने मारा हो उसे?” संजय के इस प्रश्न पर रतन सेठ ने अजीब नज़रों से उसकी ओर देखा, “इसको कोई क्यों मारता? सीधा-साधा लड़का था. मेरी ही दुकान से राशन-पानी ले जाता था.”

संजय थोड़ आश्वस्त हुआ और उसने अगला सवाल पूछा, “पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट में मरने का कारण क्या लिखा है?”

रतन सेठ ने संजय के इस सवाल का कोई जवाब नहीं दिया और अपनी दुकान में व्यस्त हो गया. संजय भी वहाँ से निकल गया.

“मनोज जी, नमस्कार.......एस. डी. ओ. ऑफिस से संजय बोल रहे हैं. कैसे हैं?........ अच्छा, एक बात ज़रा बताएँगे कि अभी दो दिन पहले श्मशान घाट वाली सड़क पर एक लाश मिली थी. सर में चोट थी. मामला क्या है?.............वो बात ये है कि साहब उस इलाके में बढ़ रही छिनताई की घटनाओं से ज़रा चिंतित थे. कहीं कोई....................... अच्छा-अच्छा. फिर ठीक है...........सही बोल रहे हैं. साहब से बोलकर वहाँ की शराब की भट्टी को हटवाना पड़ेगा. अच्छा जी, बहुत-बहुत धन्यवाद. नमस्कार. रखते हैं फोन,” फोन रखकर संजय अभी मुड़ा ही था कि ऑफिस में बड़ा बाबू ने प्रवेष किया. अपनी मेज़ के पास आकर बड़ा बाबू ने वहाँ रखा ग्लास उठाकर पानी पिया और अपनी फाईलें टटोलने लगे.

संजय अपनी मेज़ के पास चला आया. उसने भी एक फाईल निकाली और खोलकर उसमें नज़रें दौड़ाने लगा. अचानक बड़ा बाबू के टेबल पर रखा फोन घनघनाने लगा. बड़ा बाबू ने यंत्रवत फोन उठाया और बोले, “हैलो..... कौन? सत्यजीत?....माँ की तबियत अब कैसी है?....ठीक है? ठीक है, ज़रूरत पड़ने पर छुट्टी बढ़ा लेना. सब ठीक हो जाएगा. हिम्मत रखो......क्या, संजय से बात करना है?...हाँ लो बात करो. संजय, सत्या का फोन है. समझाओ इसको. बहुत घबराया हुआ है.”

संजय तेजी से आया और फोन पर बातें करने लगा, “हाँ सत्या, घबराना नहीं. सब ठीक है, मतलब ठीक हो जाएगा. हम यहाँ बात किए थे. सब रिपोर्ट नॉर्मल है.....हाँ-हाँ डॉक्टर से बात किए थे...छोटी बात है, मत घबराओ. माँ अगर ठीक है तो जल्दी आ जाओ.”

फोन रख कर संजय जैसे ही मुड़ा, बड़ा बाबू ने टोका, “अरे भाई आने को क्यों कहते हो? दो-चार दिन माँ की सेवा कर लेने देते. एक तो ऐसे ही कभी छुट्टी नहीं लेता है.”

“बहुत ईमोशनल है सर, वहाँ रहेगा तो अपनी ही तबियत ख़राब कर लेगा,” बोलता हुआ संजय अपनी मेज़ पर आकर बैठ गया. उसके चेहरे पर इत्मिनान के भाव थे.

गीता हाथ में चाय की ट्रे लेकर कमरे में आई और उसने ट्रे सेंटर टेबल पर रखी. सत्या रुआँसा कुर्सी पर आगे झुक कर बैठा था. संजय का हाथ उसकी पीठ पर था और वह उसे समझा रहा था, “क्यों इतना उदास है? तूने जानकर तो नहीं मारा ना? और फिर किसी को भी शक नहीं है. भूल जा सबकुछ. हम तो कहते हैं ऐसा कुछ हुआ ही नहीं. चल चाय पी, ठंढी हो रही है.”

संजय ने इधर चाय की प्याली उठाई और उसी समय सत्या उठकर दरवाज़े की तरफ जाने लगा. गीता के मुँह से निकला, “अरे-अरे की होलो? कुथाई जाच्छो?”

संजय प्याली वापस रखकर हड़बड़ाया हुआ सत्या के पीछे भागा. घर के बाहर उसने सत्या की बाँह पकड़कर उसे रोका. गीता भी बरामदे में निकल आई थी.

“कहाँ जा रहा है, कुछ बता तो?”

“कोई जाने, ना जाने. लेकिन हत्या तो हम किए हैं. जितने दिन हम गाँव में रहे, माँ कसम एक दिन भी सो नहीं पाए....,” सत्या उस घटना को भूल नहीं पा रहा था. संजय के रोकने से सत्या के कदम रुक तो गए लेकिन उसकी आँखों के आगे वह घटना जीवंत हो गई. ......वह गोपी का साईकिल लेकर बढ़ना...एक हाथ में चेन और नीचे लटकता ताला...हाथ का ज़ोर से लहराना....कनपट्टी पर ताले का प्रहार...गोपी का ज़ोर से चीखना.

सत्या के मुँह से भी चीख निकल गई, “उफ्फ.”

सामने खड़ा संजय उसे कुछ समझाने की कोशिश कर रहा था. वह भी उसकी चीख सुनकर चुप होकर उसका चेहरा देखने लगा. सत्या बड़बड़ाने लगा, “जबतक हम अपनी सज़ा नहीं भुगतेंगे, चैन से नहीं सो पाएँगे,” और हाथ छुड़ाकर वह फिर से जाने लगा.

संजय उसका रास्ता रोककर दबी आवाज़ में चीखा, “तू पुलिस को बताने जा रहा है? ...तेरा दिमाग तो ख़राब नहीं हुआ है? चल इधर.”

बाँह से खींचते हुए संजय उसे वापस घर में ले गया. सत्या के शरीर में अब जैसे कोई जान नहीं थी. उसे ज़बरदस्ती कुर्सी पर बैठाते हुए संजय बोला, “सुनो, मेरी बात सुनो. तुम ऐसा कुछ नहीं करने जा रहे हो....सुन रहे हो ना?”

सत्या सिर झुकाए बैठा रहा. मुँह से कोई आवाज़ नहीं. संजय उसका चेहरा गौर से देखता रहा. अचानक सत्या रो पड़ा और देखते-देखते उसकी हिचकियाँ बँध गईं, “ओ माँ. क्या कर दिए हम. क्या कर दिए हम.”

संजय ने इशारों से गीता को पानी लाने को कहा और सत्या की पीठ पर हाथ रखकर उसे दिलासा देने की कोशिश करने लगा, “शांत हो जाओ. शांत हो जाओ. माँ को याद करो. तुम जेल चले जाओगे तो तुम्हारी माँ को कौन देखेगा? सोचो? माँ का तुम्हारे सिवा और कौन सहारा है? चुप-चुप,चुप, बस हो गया ना. माँ को याद करो.”

“ओ माँ गो, ओ माँ...हम सच्च में उसको मारना नहीं चाहते थे....माँ...ज़ोर से लग गया माँ ...हम मारना नहीं चाहते थे...... माँ...,” सत्या का विलाप जारी रहा.

गीता ग्लास में पानी ले आई. संजय ने पानी का ग्लास सत्या के होठों से सटाकर उसे पानी पिलाने की कोशिश की. सत्या ने हाथ से ग्लास हटाकर रोना जारी रखा. गीता से रहा नहीं गया. उसने भी कोशिश की, “सत्या भाई, एई रॉकॉम कॉरो ना. चुप हॉए जाओ. दैखो तुम उसको नेही मारा. एई एकटा दुरघॉटॉना छिलो.” (सत्या भाई, ऐसा

मत करो. चुप हो जाओ. देखो तुमने उसको नहीं मारा. यह एक दुर्घटना थी.)

सत्या, “नहीं बोऊदी, हम मारे हैं उसको. हम मारे हैं...”

संजय, “देखो मेरी बात सुनो. जो हो गया, हो गया. तुमको दुख है कि तुम साईकिल वापस पाने के लिए उसको मारे और ज़ोर से लग गया. चलो ऐसा करो, उसकी पत्नी और बच्च़ों की पैसों से कुछ सहायता कर दो. ठीक है?..... ठीक है? गीता तुम खाना बनाकर रखो. हम लोग आते हैं.”

दोनों उठकर बाहर चले गए.

रतन सेठ की दुकान पर पहुँचते-पहुँचते सत्या पहले से थोड़ा सामान्य हो गया था. रतन सेठ जब एक ग्राहक से निपट कर खाली हुआ तो सत्या ने कहा, “सेठ जी, याद है कुछ दिन हुए हम एक बच्चे को सौ रूपया देना चाहते थे, जिसका बाप उस दिन मर गया था?”

“कौन, गोपी? हाँ-हाँ, उसके परिवार की पैसे से सहायता करने आए हैं? बहुत अच्छा किया. बेचारी उसकी औरत मीरा का तो बहुत बुरा दिन चल रहा है. आप ही बताईये, हम कब तक उसको उधार में राशन दे सकेंगे?” सेठ तो अपना ही दुखड़ा ले बैठा, “देना ही है तो कुछ जादा ही दीजिएगा. कम से कम मेरा बकाया चुका पाती......बेचारी एक घर में झाड़ू-बर्तन का काम पकड़ी है. चार सौ रुपये में. क्या होता है आजकल इतने में? आप लोग यहीं बैठ जाइये. आधे घंटे में काम पर से वापस आएगी तो हम दुकान पर ही बुला लेंगे. .....हम तो कहते हैं कि पैसा के बदले उसको कोई काम ही दिला दीजिए. बच्चों का स्कूल तो छूट ही गया है. अब राशन-पानी और घर का भाड़ा देने लायक कमाएगी तभी तो जिंदा रह पाएगी.”

इतना कहकर सेठ बड़बड़ाने लगा, “उसका मालिक-मकान भी उसको घर खाली करने का नोटिस दे दिया है. कहीं चली गई तो मेरा सारा पैसा डूबा.....भलाई का जमाना ही नहीं है.”

“सेठ जी, गोपी और मीरा नाम बताए ना?” संजय ने पूछा, “हम लोग तबतक उसका घर देख कर आएँ?”

सेठ ने मुँह बनाकर इशारे में हाँ कहा है और अपने काम में व्यस्त हो गया. संजय और सत्या दुकान से निकलकर बगल की गली में चले गए.

बस्ती की गंदगी देखकर संजय ने नाक पर रुमाल रख लिया. सुअरों की एक जोड़ी अपने आठ-दस बच्चों के साथ उनका रास्ता काट गई. आगे बढ़े तो एक पगली बुढ़िया डंडा लेकर बच्चों के झुंड को खदेड़ती हुई सामने से गुजरी. बच्चे उसे झारखंड बुढ़िया कहकर चिढ़ा रहे थे. सुनते ही वह उनपर ज़ोर से झपटती. बच्चे भाग कर दूर चले जाते और फिर रुककर चिढ़ाते.

संजय ने मीरा के घर का पता पूछने के लिए इधर-उधर नज़र दौड़ाई. गली अब सुनसान हो गई थी. दोनों आगे बढ़े. अंत में अन्हें शराब के नशे में धुत्त एक व्यक्ति नज़र आया. पूछने पर उंगली से उसने एक ओर इशारा किया और आगे बढ़ गया. शाम हो चली थी. तभी एक अधेड़ महिला कंपनी का सेफ्टी जैकेट पहने उनके पास से गुज़री. उसका नाम गोमती था और वह कंपनी के सफाई विभाग में एक ठेकेदार के लिए सड़कों पर सारा दिन झाड़ू लगाने का काम करती थी. सत्या ने उसे रोकते हुए मीरा के घर के बारे में पूछा.

उसने सामने एक टूटे-फूटे घर की ओर इशारा किया, “यहीं पर रहता है. अभी तो काम पर गया है. घंटा-आध-घंटा में आएगा,” बोलकर गोमती अपने रास्ते बढ़ गई. संजय ने पीछे से आवाज़ लगाई, “और उसके बच्चे कहाँ हैं?”

“बस्ती में ही कहीं होगा.”

गोमती तो चली गई, लेकिन पास से गुज़रते दो बच्चों में से एक ने बताया कि रोहन और खुशी बाज़ार में मिलेंगे.

“बाज़ार में क्या कर रहे हैं दोनों?”

दोनों बच्चे एक दूसरे को देखकर हँसे. तभी झारखंड बुढ़िया उधर आ निकली. दोनों बच्चे उसे देखकर शोर करते हुए उसके पीछे भागे.

संजय ने सलाह दी, “चल, बाज़ार चलते है. पास ही है.”

संजय और सत्या गलियों से निकलकर बाज़ार की ओर चल दिए. बाज़ार की भीड़ में उनकी निगाहें बच्चों को ढूँढने लगीं. दोनों बच्चे चाट की एक दुकान के पास खड़े ग्राहकों को खाते हुए देख रहे थे. अचानक चाट वाले ने एक ग्लास का पानी दोनों पर फेंका. वे छिटक कर भागे.

“चल जा. भाग यहाँ से,” चाट वाले ने उन्हें दुत्कारा, “साले हराम के जने कहाँ-कहाँ से आ जाते हैं.”

सबसे पहले सत्या की नज़र उनपर पड़ी. वह जैसे अपनी जगह पर जम गया. संजय ने भी देखा. वह दुकान वाले के पास जाकर बोला, “क्या बात है भाई, क्यों इनको दुत्कार रहे हो?”

“क्या बताएँ साहब, ये दोनों तबसे खड़े ग्राहकों को ऐसे घूर रहे हैं कि उनको मुँह में निवाला डालते ही नहीं बनता है.”

“अरे भाई छोटे बच्चे हैं. भूखे हैं, कुछ तो खया..ल ...” तभी सत्या की गंभीर आवाज़ सुनकर वह रुक गया.

“कितने का चाट दिया?”

संजय ने सत्या की ओर देखा. कुछ कहने लगा, फिर कुछ सोचकर रुक गया.

“कौन सी बनाएँ?”

“स्पेशल क्या है?”

“अभी बनाते हैं, एक ना दो प्लेट...और मिर्चा जादा ना कम?”

“दो प्लेट ... और मिर्च कम.”

दुकानदार चाट बनाने में व्यस्त हो गया. संजय सत्या की आँखों में देखने लगा. फिर उसने दूर खड़े बच्चों पर नज़र डाली. सत्या के चेहरे पर सख़्ती के भाव थे. दोनों चाट के बनने का इंतज़ार करने लगे.

“हाँ, ये लो साहब,” चाट वाले ने चाट की प्लेटें आगे बढ़ाई.

सत्या ने सख़्ती से कहा, “उन दोनों बच्चों को बुलाओ और पूरे सम्मान के साथ उनको खाने के लिए दो.”

दुकानदार आवाक होकर कभी सत्या तो कभी बच्चों को देखने लगा. सत्या ने जेब से सौ रुपये का नोट निकाला और दुकान पर फेंका, “ये लो अपनी चाट के पैसे.”

दुकानदार ने कंधे उचकाए और बच्चों को पास बुलाकर उनके हाथों में चाट की प्लेटें थमा दी. बच्चे भूखे थे. चाट मिलते ही जल्दी-जल्दी खाने लगे. संजय और सत्या करुणा भरी नज़रों से बच्चों को खाता हुआ देखते रहे. दुकानदार गल्ले में से छुट्टे निकालने लगा और बोला, “आप लोगों के लिए भी बनाएँ क्या? एक बार खा कर देखिए, याद कीजिएगा.”

सत्या ने हाथ के इशारे से मना कर दिया.

“ये लीजिए, आपके बचे हुए पैसे.”

सत्या ने तल्ख़ अंदाज़ में कहा, “रख लो, तुम्हारे बच्चों के काम आ जाएँगे.”

दुकानदार पूरी तैश में आ गया और ऊँची आवाज़ में झगड़ने लगा, “ओए सुनो ...थोड़ा जादा बोल गए...मेरे बच्चों के लिए हम जिंदा हैं अभी....जादा तरस आ रहा है न इनपर, तो ले लो इनको गोद. एक दिन के लिए तरस खा कर बहुत महान बन रहे हो? ... रोज ऐसे दस दयावान गुजरते हैं यहाँ से. बड़े आए....”

दुकानदार ने सत्या की तरफ पैसे फेंके. कई नोट ज़मीन पर गिरे. रोहन खाना छोड़कर लपका और उसने पैसे उठा लिए. इससे पहले कि सत्या कोई जवाब देता, संजय उसे बाँह से घसीटते हुए वहाँ से दूर ले गया. सत्या ने अपने को छुड़ाते हुए सख़्त निगाहों से दुकानदार को घूरा. कुछ कहने के लिए उद्धत हुआ, फिर मुड़कर चल दिया. उसके पीछे संजय भी तेजी से भागा और उसके साथ कदम मिलाते हुए बोला, “गोली मारो दुकानदार की बात को. चलो बस्ती में चलते हैं. मीरा जी अबतक आ गई होंगी.”

सत्या ने जैसे उसकी बात सुनी ही नहीं. वह बड़बड़ाने लगा, “ठीक कहा. पैसे देने से क्या होगा? पैसे से कभी किसी का भला हुआ है क्या? उनको पैसा नहीं बाप चाहिए, बाप, जो उनकी देखभाल करे. उनको पढ़ाए-लिखाए. समाज में इज्ज़त दिलाए. पैसे से यह सब होगा क्या?”

दोनों रुककर एक-दूसरे की आँखों में देखने लगे. सत्या के चेहरे पर दृढ़ता थी, जैसे उसने कोई निर्णय कर लिया हो. संजय धीरे से बुदबुदाया, “क्या चल रहा है तेरे मन में?”

सत्या कुछ नहीं बोला. मुड़कर चल दिया. संजय ने भागकर उसका रास्ता रोका. किसी अनिष्ट की आशंका उसकी आँखों में झलक रही थी. उसने घबराई हुई आवाज़ में पूछा, “क्या सोच रहा है तू? क्या करना चाहता है?”

सत्या ने निर्णायक स्वर में कहा, “हमको अपनी सज़ा भुगतनी है. बीस साल की सज़ा.”

संजय की आवाज़ काँप गई, “क्..क्..करना क्या चाहता है तू?”

“हमको उस बस्ती में जाकर रहना होगा. मेरे कारण उनके उनके सर से बाप का साया उठ गया. अब हमको ही उनका सहारा बनना होगा.”

संजय ने सिर पकड़ लिया, जैसे चक्कर आ गया हो. सत्या आगे बढ़ गया. पीछे से

उसे संजय की बेबसी भरी आवाज़ सुनाई दी, “ये क्या पागलपन है सत्या?”

सत्या अपने कमरे में चहलकदमी करता हुआ अपना सामान समेट रहा था. संजय उसके आगे-पीछे चलते हुए उसे समझाने की कोशिश कर रहा था, “सत्या तू ऐसा नहीं कर सकता. देख ये सब ठीक नहीं है. कोई ऐसे किसी की मदद करता है क्या?”

“जिसने उनके बाप को मारा है, अब वही उनका सहारा बनेगा. यही है उसकी सज़ा. यही है असली इंसाफ.”

“क्या करेगा तू? कैसे जाकर सहायता करेगा? लोग पूछेंगे नहीं कि क्यों सहायता करने आया है? या शादी कर लेगा मीरा जी से?”

सत्या ने उसे ज़ोर से डाँटा, “छिः, ऐसा सोचा भी कैसे तूने? क्या बस बाप ही देख-भाल कर सकता है बच्चों की? हम कर देंगे तो क्या फाँसी पर चढ़ा देंगे हमको?” फिर मेज़ की ओर बढ़ते हुए उसने कहना जारी रखा, “ रुक ज़रा. मेरी सप्ताह भर की छुट्टी को बढ़ाने की दरख़्वास्त ले जाकर बड़ा बाबू को दे देना. हम देखते हैं, इधर क्या उपाय निकलता है.”

“मतलब तू नहीं मानेगा. पागलपंथी करके ही दम लेगा. जा खुद जाकर अपनी दरख़्वास्त दे. हम नहीं देंगे.”

“तो तू अब मेरा दोस्त नही रहा?”

“यार तुझे कौन समझाएगा. यह सब पागलपन है, अव्यवहारिक है,” संजय जैसे हार मानकर कुर्सी पर ढेर हो गया. सत्या मेज़ पर बैठ कर लिखने लगा. अचानक संजय उत्तेजना में खड़ा होकर मनुहार करने लगा, “सुन मेरी बात. चलकर अपनी भाभी से एक बार बात कर ले. फिर जैसा तुमलोगों का विचार बनेगा वैसा ही करना.”

सत्या ने लिखना जारी रखा. साईन करके कागज़ संजय की तरफ बढ़ाया और बोला, “बोऊदी से तो हम ज़रूर मिलेंगे. ये बड़ा बाबू को दे देना. कल बस्ती जाकर देखते हैं. कोई तो उपाय निकलेगा. कल रात के खाने पर मिलते हैं. चल अब जा. देर हो रही है.”