डॉमनिक की वापसी - 27 Vivek Mishra द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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डॉमनिक की वापसी - 27

डॉमनिक की वापसी

(27)

सुबह जब रेबेका की आँख खुली तो उस कमरे की गर्माहट किसी घोंसले सी लगी. मन किया फिर से चादर में दुबक के सो जाए. पर देखा कि दीपांश पहले ही उठ चुका है और किचिन में है, तो वह चादर लपेट कर उठी और अपना गाउन ढूँढने लगी. कुछ देर में दो कप चाय के साथ दीपांश किचिन से बाहर आ गया. चाय पीकर रेबेका फिर वापस बिस्तर में लुढकने को थी कि दीपांश ने कंधे के सहारे से उसे रोकते हुए कहा ‘हमें बारह बजे तक अनंत जी के बताए पते पर पहुँचना है.’ रेबेका बच्चों की तरह ठिनकते हुए उठी और बाथरूम में चली गई.

कमरे से निकलते-निकलते साढ़े दस बज गए थे. दो-तीन दिन की बारिश के बाद बादल छट गए थे. आसमान बिलकुल साफ़ था.

ठंड के मौसम में बारिश में भीगने से रेबेका की आवाज़ कुछ भारी हो गई थी. इस मौसम में अक्सर उसे सिगरेट की सामान्य से ज्यादा तलब होती थी. उसने ऑटो में बैठते ही सिगरेट जला ली फिर कुछ झुंझलाते हुए बोली, ‘आगरा के बाद आज अनंत जी की चिट्ठी लेकर हम जहाँ जा रहे हैं, मुझे नहीं लगता वहाँ हमें कुछ उतना इंट्रेस्टिंग मिलने वाला है।’

दीपांश पहले से कुछ निश्चिन्त था और मंद-मंद मुस्करा रहा था फिर शायद रेबेका को आश्वस्त करने के लिए बोला, ‘कोई बहुत पुरानी आर्टिस्ट हैं, उनसे बात करने का ख्याल ही मुझे बहुत इंट्रेस्टिंग लग रहा है. हमेशा से बीते समय में उतरना, उस समय के लोगों के जीने, सोचने-समझने के तरीके जानना एक अलग ही अनुभव से गुजरना लगता है. खासतौर से दिल्ली जैसी जगह पर रहके कोई इसकी आपधापी से दूर अपनी संगीत साधना में लगा रहे यह ख्याल भी बहुत आकर्षित करता है।’

रेबेका आज बहुत थकान मेहसूस कर रही थी जबकि दीपांश आज आगरा की अपेक्षा ज्यादा उत्साहित था. जहाँ रेबेका दीपांश के कंधे पे सिर रखे ऊंघ रही थी. वहीं दीपांश की नज़र रास्ते पर ही थी. रेबेका ने अभी हल्की सी झपकी ली ही थी कि तभी दीपांश ने इशारा किया, ‘आ गया, आ गया। बस यहीं रोक दीजिए।’

ऑटो से उतरकर दोनों पूर्वी दिल्ली के लक्ष्मी नगर इलाक़े की एक संकरी सी गली के आखिरी मकान के सामने खड़े थे।

एक तेरह-चौदह साल के लड़के ने दरवाज़ा खोला और उन्हें एक दस बाई बारह के छोटे से कमरे में केन की कुर्सियों पर बैठाकर उसी कमरे में से निकलती संकरी सीढ़ियों से ऊपर चढ़ गया। ऊपर से तानपुरे की हल्की-हल्की आवाज़ पहले से ही आ रही थी, धीरे-धीरे उसमें एक महीन सा स्वर मिलकर सीढ़ियों से नीचे आने लगा। दीपांश ने देखा रेबेका उस बंदिश को सुनकर कुछ बेचैन हो गई थी। तभी वह लड़का सीढियों से फिर नीचे आया और उन्हें इशारे से ऊपर आने के लिए कहा। रेबेका को दीपांश ने लगभग धकलते हुए ऊपर चढ़ाया।

ऊपर के कमरे में फर्श पर बिछी दरी पर बैठी लगभग पचास के आस-पास की उम्र की, खिचड़ी बालों वाली एक महिला जिसने अपनी उम्र छुपाने के लिए कोई उपक्रम नहीं कर रखा था और फिर भी वह बहुत सुंदर लग रही थी, ...बड़ी महीन, पर बेहद सुरीली आवाज़ में गा रही थी। इन दोनों को देखकर उन्होंने तानपुरा एक तरफ़ रख दिया और मुस्कराकर स्वागत किया। पर उस आवाज़ ने जैसे रेबेका को किसी और समय में धकेल दिया था, उसने उनकी मुस्कराहट को लक्ष्य नहीं किया। दीपांश को रेबेका का व्यवहार कुछ समझ नहीं आ रहा था, वह कमरे की सामने की दीवार पर लगे अलग-अलग साइज़ के ब्लैक एण्ड व्हाइट फोटोस जो पुराने ढंग के लकड़ी के फ्रेम में जड़े हुए थे, बड़े ध्यान से देखे जा रही थी। उसकी आँखें कमरे में कुछ ऐसे घूम रही थीं मानो वे उस समय में बैठे हुए किसी और समय को देखना चाहती हों।

दीपांश ने वातावरण सहज करने के लिए बात शुरु की। महिला ने बहुत सधी हुई आवाज़ में उसके प्रश्नों का उत्तर देना शुरु किया। फिर थोड़ा और खुलते हुए दो एक चीज़ें गाके भी सुनाई। पर रेबेका अभी भी अन्यमनस्क ही लग रही थी।

दीपांश ने उसकी ओर देखते हुए कहा, ‘ये भी मध्य प्रदेश से ताल्लुक रखती हैं. इन्होंने भी गायन बचपन से ही सीखा है.’

यह सुनते ही उन्होंने कहा, ‘अच्छा मध्य प्रदेश में कहाँ से।’

रेबेका ने दीवार पर लगी एक पुरानी तस्वीर को बहुत ध्यान से देखते हुए कहा, ‘शिवपुरी के पास नरवर में संगीत का एक गुरुकुल था। वहीं सीखा था पर बहुत समय हुआ, अब तो सब छूट गया।’

उसके बाद बात जैसे दोनो के बीच हवा में स्थिर हो गई। नरवर का नाम सुनकर उनकी आँखें जैसे अपने में ही डूबने लगीं, जिनमें पत्ते पर टिकी ओस-सा कुछ झिलमिलाने लगा।

दीपांश ने अनंत जी की दी हुई चिट्ठी उनकी ओर बढाते हुए कहा, ‘बचपन में थोड़ा बहुत लोक संगीत मैंने भी सीखा, ...उसके बाद भी सीखना चाहता था पर मौका ही नहीं मिला. अनंत जी ने यहाँ आने से पहले आपके बारे में बताते हुए मुझे भी एक चिट्ठी दी थी. उसमें आपकी बहुत तारीफ की थी. उसे पढके बहुत उत्सुक था आपसे मिलने के लिए.’

उन्होने अनंत जी की चिट्ठी खोल के उसपर दृष्टि डालते हुए बहुत धीमी आवाज़ में कहा, ‘जी मैं जानती हूँ. वह बहुत गुणी और कला के सच्चे पारखी हैं, मैं उनका बहुत सम्मान करती हूँ. मैं तो कुछ भी नहीं पर अनंत जी ने जिनके बारे में आपको बताने के लिए कहा है. वह मेरी बहुत करीबी दोस्त थीं, आधिक्या.’

उन्होंने जैसे अतीत की ओर हाथ बढ़ाते हुए धीरे से बगल में रखे तानपुरे को छू लिया। फिर धीरे-धीरे उसके तारों को छेड़ते हुए अपनी महीन और सुरीली आवाज़ में बोलने लगीं। कमरा, उसमें लगीं तस्वीरें उनकी आवाज़ में घुलने लगीं… ‘अब न वो हैं और न ही उनके गुरू। पर कहानी है जो मुझे अपने जीते जी कह ही देनी है. शायद यही उन दोनो के लिए मेरी श्रद्धान्जलि हो....’

दीपांश और रेबेका उनकी आवाज़ की ऊँगली थामे किस्से में उतरने लगे...

किसी उबड़-खाबड़ रास्ते पर घोड़ा दौड़ रहा था। अकेला घोड़ा नहीं, तांगे को खींचता हुआ घोड़ा…

वह जिस रफ़तार से तांगे को खींच रहा था उससे भी ज्यादा तेज़ी से आने वाली रात का अंधियार शाम की लालिमा के पीछे भागा चला आ रहा था। लगता था घोड़ा जानता है कि रास्ते के अंधकार की गिरफ़्त में आने से पहले उसे कढ़ेसा पहुँच जाना है। इससे पहले की कोचवान बुद्धिबन उस पर चाबुक सूंतते, उसने अपनी पूरी झींक लगाकर तांगे को और तेज़ कर दिया। बुद्धिबन फिर भी सन्तुष्ट नहीं थे सो उन्होंने ज़ोर की हुंकार लगाई पर घोड़ा तांगे को उससे ज्यादा तेज़ी से नहीं खींच सका।

तभी तांगे में अपनी लम्बी टांगें सिकोड़कर बैठे ज्ञानेश्वर पाण्डेय ने बुद्धिबन को हल्के से डांटते हुए कहा, ‘इस औंधक-नीचे रास्ते पर थोड़ा धीरे चलाओ, अंधियार होने से पहले अगर गाँव एक-आधा कोस दूर भी रह जाएगा तो हम पैदल चल लेंगे, तुम पीछे से तांगा लेकर आते रहना।’

बुद्धिबन ने अपनी होशियारी दिखाते हुए कहा, ‘आप तनिक भी चिन्ता न करो पंडित जी, यह घोड़ा समय के मिन्ट का फॉरिन्ट कर देता है’

पंडित जी अबकी बार असली गुस्से से बोले, ‘तुम्हारी मति के साथ भाषा भी भ्रष्ट हो गई है, ऐसे अनर्गल शब्द बोलते हो जिनका कोई अर्थ नहीं होता, अभी तांगा पलट गया तो हाथ-पाँव तुड़वा बैठेंगे।’

पंडित जी के आग्रह पर बुद्धिबन ने घोड़े को पुचकारा और लगाम ढीली कर दी पर घोड़ा तो जैसे डूबते सूरज से होड़ कर रहा था। लगता था मानो कह रहा हो कि तेरे पश्चिम के तलाब में उतरने से पहले में तांगे को कढेसा के ठाकुर यशपाल सिंह की कोठी पर लगा के ही दम लूंगा।

ठा. यशपाल की हवेली पर उनके बड़े बेटे की सगाई का मौका था। पंडित ज्ञानेश्वर का गायन सुनने के लिए आस-पास के कई गाँवों से आए लोगों का जमावड़ा था। पूरे प्रदेश से तमाम नामी-गिरामी गायक, वादक और संगीत के विद्वान बुलाए गए थे पर ठा. यशपाल को पं. ज्ञानेश्वर की प्रतिभा पर जितना भरोसा था उतना और किसी पर न था। पंडित जी और ठाकुर का हीरे और ज़ौहरी का रिश्ता था और यह कई पीढ़ियों से चला आ रहा था। यशपाल कहते थे ‘पंडित जी साक्षात सरस्वती पुत्र हैं। उनका चरित्र सूरज की तरह निष्कलंक है, उन्होंने कई जन्मों के पुण्य संचित कर रखे हैं और आज भी अपने यम-नियम की पालना से नित्य नए पुण्य अर्जित करने से उनका प्रताप बढ़ता ही जा रहा है। उनके जैसा संगीत का साधक पूरे क्षेत्र में दूसरा नहीं है।’ वैसे यह मात्र ठाकुर यशपाल का ही विश्वास नहीं था बल्कि कमोवेश क्षेत्र के सभी लोग ज्ञानेश्वर पाण्डेय के बारे में ऐसा ही सोचते थे।

जैसे ही ज्ञानेश्वर का तांगा यशपाल सिंह की कोठी पर पहुँचा, लोगों ने आगे बढ़कर उनका स्वागत किया। हवेली के अहाते में लगी गाने की महफ़िल जैसे कुछ समय के लिए स्थगित हो गई। ठाकुर यशपाल ने पंडित जी को अपने बगल में, बराबर के आसन पर बैठाया। बंदिश फिर शुरु हुई। सामने थीं इलाक़े की सबसे उम्दा गाने वाली आधिक्या देवी जिनके बारे में लोग कहते थे कि तेरह साल की उम्र में ही गाने में उन्होंने वो ख्याति प्राप्त कर ली थी जो लोग पूरे जीवन भर संगीत साधना करने पर भी प्राप्त नहीं कर पाते। वह अभी तीस की पूरी भी नहीं हुई थीं और माना जाने लगा था कि पूरे प्रदेश में उनसा गला, रूप और अदायगी किसी के पास नहीं। लोग देखते तो निर्निमेष देखते ही रह जाते, सुनते तो रास्ता भूल जाते। लेकिन पं ज्ञानेश्वर के महफ़िल में पहुँचने से जैसे उनका तेज़ कुछ फ़ीका पड़ गया था। उसके बाद जो भी वहाँ आता, वो सबसे पहले पंडित जी के चरण छूता, ठा यशपाल को बधाई देता और फिर आधिक्या देवी की ओर मुख़ातिब होता। आधिक्या देवी भी जैसे पंडित जी की उपस्थिति से असहज हो उठी थीं, पर उन्होंने ख़ुद को संभालते हुए फिर से गाना शुरू किया। सब मन्त्र मुग्ध सुन रहे थे। तभी पंडित जी की संध्या वंदन का समय हो गया, सो उन्होंने वहीं बैठे-बैठे आँखें मूँद लीं। तभी आधिक्या देवी के स्वर से ऐसा लगा मानो उन्होंने मन ही मन ठान लिया हो कि तोड़ी खत्म होते-होते पंडित जी को अपनी आँखें तो खोलनी ही पड़ेंगीं। वह अतिरिक्त उत्साह से, अपने पूरे कौशल के साथ ऐसी तन्मयता के साथ गाने लगीं जैसे किसी भँवरे को पकड़कर अपनी आवाज़ में क़ैद कर लेना चाहती हों। श्रोताओं ने उनके स्वर की लय पकड़ी तो झूम उठे, वहीं साथ देते साजिन्दों के पसीने छूट गए, पर पंडित जी ने आँखें नहीं खोलीं।

तोड़ी खत्म हो गई।

लोगों ने आधिक्या देवी को बढ़चढ़ कर बधाइयाँ दीं पर उनकी नज़र पड़ित जी पर थी, जैसे ही पंडित जी ने आँखें खोलीं, उन्होंने ख़ुद अपने आसन से उठकर पंड़ित जी के पैर छुए। पंडित जी ने आशीर्वाद दिया पर आधिक्या देवी ने आशीर्वाद लेने से पहले जो कहा वह सुनकर सब थोड़े हैरान हो गए।

वह बोलीं, ‘आप ज्ञानी हैं, जानते है कि एक कलाकार के लिए सुधि जनों की प्रसंशा ही उसका असली पारितोषक है और जब सामने आप जैसा संगीत का प्रकाण्ड विद्वान बैठा हो तो अपनी प्रस्तुति के बारे में उसकी राय जानना तो कलाकार के लिए और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। अत: आप बताएं कि मेरी प्रस्तुति आप को कैसी लगी, वही मेरे लिए सबसे बड़ा आशीर्वाद होगा।’

पंडित जी ने एक पल सोचा फिर बोले, ‘मेरे आँखें बन्द करने से आपको यह लगा होगा कि मैं आपका गायन नहीं सुन रहा हूँ परन्तु यह सही नहीं, मैं आपके संगीत के साथ ही अपनी संध्या भी कर रहा था, आपकी प्रस्तुति बहुत सुंदर थी और उसने ध्यान लगाने में मेरी सहायता की, पर अन्तिम पँक्ति को दोहराते समय उसके आरंभ में आपका सुर दोषपूर्ण था। आपका ध्यान कहीं भटक गया था’।

पंडित जी की बात सुनकर आधिक्या देवी ने हाथ जोड़ लिए। वह जानती थीं कि ज्ञानेश्वर सही कह रहे हैं। उसके बाद वह उनका आशीर्वाद लेकर श्रोताओं में बैठ गईं और ज्ञानेश्वर की प्रस्तुति आरंभ हुई। जब प्रस्तुति अपने चरम पर पहुँची तो लगा समय रुक गया है। यदि वातावरण में कुछ है तो आँखें मूँदे गाते हुए ज्ञानेश्वर के स्वर का नाद है, उसकी लय है, उसका जादू है। प्रस्तुति समाप्त होने पर आधिक्या उठीं और अपना माथा उनके पैरों पर रख दिया। ज्ञानेश्वर ने आँखें खोली तो उन्हें उठाते हुए आशीर्वाद दिया। लोग दो कलाकारों के इस व्यवहार को देखते रह गए।

जब कार्यक्रम समाप्त होने पं ज्ञानेश्वर अपने घर वापस लौटे तो इस घटना की चर्चा उनसे आगे-आगे उनके गाँव और घर तक भी पहुँची। कुछ ने कहा कि जहाँ महफ़िल में ज्ञानेशवर की गायकी सबके सिर चढ़के बोली, वही आधिक्या की ख़ूबसूरती के भी कई लोग क़ायल हो गए और उनके रूप का जादू ज्ञानेश्वर पर भी चल गया। कुछ ने इसकी काट करते हुए कहा कि ज्ञानेश्वर एक सच्चे गृहस्थ और संगीत के गुरुकुल के संचालक हैं और ऊपर से बहुत पुरातन विचारों के कर्मकाण्डी ब्राह्मण हैं। उन्हें किसी का रूप सौन्दर्य डिगा नहीं सकता और फिर आधिक्या जैसी मनचली गाने वाली की उनसे क्या बराबरी। इसतरह दोनो के नामों के बीच चर्चा के तमाम तार खिंच गए जिन्हें लोग अपने-अपने ढंग से कभी सुलझाने तो कभी उलझाने लगे।

उस घटना के बाद होने यह लगा कि जहाँ कहीं भी पंडित जी के संगीत का कार्यक्रम होता आधिक्या देवी भी उन्हें सुनने वहाँ पहुँच जातीं। उनकी उपस्थिति में कई बार लोग उनसे भी कुछ गाने का आग्रह करते। कई बार वह मना कर देतीं। पर कई बार ज्ञानेश्वर के कहने पर गा भी देतीं। कुछ दिनों तक यह सिलसिला यूँ ही चलता रहा फिर एक दिन आधिक्या ने अपने घर सरस्वती पूजा का आयोजन कर पंडित जी को बुलाया। घर-परिवार और सहयोगियों ने पंडित जी पर पूरा दबाव बनाया कि वह आधिक्या के घर न जाएं पर पंडित जी सरस्वती पूजा के लिए कभी न नहीं करते थे। ऊपर से उन्हें यह भी लगा कि यह उनके संयम की परीक्षा है और उन्हें इसे देना ही होगा। इसलिए उन्होंने आधिक्या का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया।

वह पहला दिन था जब पंडित ज्ञानेश्वर आधिक्या देवी के घर जा पहुँचे। उन्होंने सरस्वती पूजा के बाद पंडित जी से दीक्षा लेने की पूरी तैयारी कर रखी थी। हमेशा नौकर-चाकरों और साजिंदों से घिरी रहने वाली आधिक्या देवी के घर उस दिन उनके अलावा और कोई नहीं था। उन्होंने पंडित जी के स्वागत में विशेष श्रंगार किया था। उनका रूप आँच तपे सोने-सा दमक रहा था। उनकी आवाज़ में सितार के तारों को बिलम्बित में छेड़ने जैसा नाद था जो वातावरण में एक सिहरन पैदा कर रहा था पर पंडित जी ने इस सबसे अपने को बिलग रखते हुए सरस्वती की पूजा सम्पन्न कराई, दीक्षा का गण्डा उनकी कलाई पर बांधा और आशीर्वाद देकर वापस जाने के लिए उठ खड़े हुए।

आधिक्या ने उन्हें रोकते हुए कहा, ‘आप में जो धैर्य और संयम है, उसका एक अंश भी यदि मुझमें होता तो मैं अपने को रोक लेती पर वह मुझमें नहीं है। इसलिए यह कहने की धृष्टता कर रही हूँ कि लोग भले ही मेरे गायन की कितनी ही प्रसंशा करें पर मैं जानती हूँ कि अभी उसमें त्रुटियाँ हैं। उन त्रुटियों को दूर करने के लिए आप जैसा पारखी सुनने वाला चाहिए। मेरी कला आपके मार्गदर्शन के बिना अधूरी है। ये आपकी कला का मोह है या व्यक्तित्व का मैं नहीं जानती पर अब मुझे आपके सिवा कोई रास्ता नहीं दिखाई देता। मैं आपसे सीखना चाहती हूँ। मैं जानती हूँ मैंने अभी तक संगीत को जिस तरह लिया है उसमें प्रदर्शन अधिक और साधना कम रही है। आपसे जुड़ना मेरे लिए केवल एक औपचारिकता ही नहीं है। मैं सचमुच संगीत को उस गहराई तक समझना चाहती हूँ। जहाँ से आप उसे देखते हैं।’

उस समय ज्ञानेश्वर ने यही कहा, ‘आप बहुत अच्छा गाती हैं। हम सभी अपने-अपने ढंग से संगीत की साधना करते हैं। परन्तु मैंने जो रास्ता चुना है उसके नियम बहुत कड़े हैं। वहाँ संगीत की शिक्षा एक कठिन अनुशासन में बंधी है।’

आधिक्या ने अधीर होते हुए कहा, ‘मैं हर नियम मानने को तैयार हूँ। हर तरह के अनुशासन में बंधने को तैयार हूँ। बस आप कहिए कि मुझे सिखाएंगे।’

आधिक्या के इतना कहने पर भी, उस समय पं ज्ञानेश्वर ने कोई उत्तर नहीं दिया पर बाद में धीरे-धीरे लोगों को पता चला कि वह गाहे-वगाहे आधिक्या के घर जाने लगे हैं। वह वहाँ बड़े ध्यान से उनका गाना सुनते, उसकी कमियाँ बताते, सही सुर लगा कर दिखाते। ऐसा करते हुए उनको भी लगने लगा कि उनका ज्ञान किसी ऐसे कलाकार के ही काम आ रहा है जो सच में कला के मर्म को समझता है और उसे आत्मसाध करना चाहता है। यहाँ जैसे-जैसे आधिक्या के साथ अभ्यास का समय बढ़ता गया, वहाँ यह खबर फैलती गई की अब पंडित ज्ञानेशवर की संगीत साधना पहले जैसी नहीं रही, लोगों ने कहना शुरु कर दिया कि उनके पास अब वह चरित्र बल और वैसी चित्त की निर्मलता नहीं रही जिसके कारण उनके गले में सरस्वती बसा करती थी।

कुछ समय बाद हालात बदलने लगे। लोगों का प्रेम ज्ञानेशवर की कला के प्रति घटने लगा। जिससे धीरे-धीरे पंडित जी की दुनिया भी बदलने लगी और एक दिन किसी मनचले ने पंडित जी को भरी सभा में उनकी प्रस्तुति के बीच में रोक कर ताने देने शुरु कर दिए। एक बार को लगा जैसे धरती कांप गई हो और उसकी ध्वनि से पंडित जी के घर की दीवारें भी हिल गई हों और सच में ऐसा हुआ भी।

उस घटना के बाद परिवार में भारी कलह हुई। घर की शान्ति कुछ इस तरह भंग हुई कि पंडित जी अपनी पत्नी से नाराज़ होकर, अपना सामान उठाकर, अपनी तेरह साल की बेटी और ग्यारह साल के बेटे को छोड़कर नहर के किनारे बने अपने उस कमरे में आकर रहने लगे, जिसमें बैठकर वह सुबह-सुबह रियाज़ किया करते थे, पर इतने भर से उनका चित्त शान्त न हुआ, मन बार-बार उचट जाता। शायद उन्हें भी घर से अलग रहकर ही आभास हुआ कि वह सचमुच आधिक्या से प्रेम करने लगे हैं। इस बीच आधिक्या ने उनके पास आकर उनसे कुछ दिन उनके घर आकर रहने का आग्रह किया। उन्होंने इसके लिए आधिक्या को साफ़ मना कर दिया। पर आधिक्या यही कहती रहीं कि यह सब उनके जीवन में उन्हीं की वजह से हुआ है और वह उसका प्रायश्चित करेंगीं। उनका अतीत कुछ भी रहा हो पर अब वह ज्ञानेश्वर की ही तरह पूरे नियम-संयम से संगीत की साधना करेंगी। ज्ञानेशवर ने उस समय उनकी बात मान ली।

इस बीच ज्ञानेश्वर की पत्नी अपने बच्चों को साथ लेकर उनके गुरू के पास जा पहुँचीं और उन्हें सारी बात बता डाली। गूरू ने पत्नी को आश्वस्त किया कि वह ज्ञानेश्वर को समझा कर घर वापस ले आएंगे। उसके बाद सब ठीक हो जाएगा।

उधर ज्ञानेश्वर के घर से अलग रहने पर आधिक्या का वहाँ आना-जाना और बढ़ गया। धीरे-धीरे दोनो के बीच बिना कुछ कहे-सुने ही प्रेम परवान चढ़ने लगा। ज्ञानेशवर सब भूलकर रात-दिन संगीत में डूबे रहने लगे। अब आधिक्या जैसे उनके जीवन का, उनके संगीत का हिस्सा बन गई। वह अपने और आधिक्या के रिश्ते को लेकर किसी निर्णय पर पहुँच पाते कि एक दिन उनके गुरू उनके पास पहुँच गए।

गुरू को देख जैसे मन की तमाम गाँठें खुल गई। दुख छलछलाके आँखों से बह निकला ‘बोले न जाने साधना में कहाँ चूक हो गई। लगने लगा था कि अब पहले जैसी बात नहीं रही पर मैंने फिर पूरे मन से साधना शुरु की है।’ उन्होंने बताया कि आधिक्या के साथ जिस बात को लेकर घर-परिवार में इतना हो-हल्ला मचा है उसके साथ उनका संबंध कला का है, ज्ञान का है, समर्पण का है, प्रेम का है। उसने सब कुछ त्याग कर नए सिरे से संगीत की साधना शुरु की है। वह हर तरह से इस शिक्षा के योग्य है। उन्होंने कहा कि प्रेम एक पवित्र भावना है और इसे मैंने आधिक्या की आँखों में अपने लिए देखा है। मैं उसके प्रेम का तिरिस्कार नहीं कर सका। मैंने उसकी कला, उसकी साधना, उसके प्रेम का सम्मान किया है।’

गुरु ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा, ‘मैं सब जानता हूँ। तुम चिन्ता मत करो, सब ठीक हो जाएगा पर इसके लिए एक पूजा करनी होगी। जिसके लिए लगने वाली तमाम सामग्री के अलावा तुम जिसे प्रेम करते हो और वो भी तुम्हारी कला और ज्ञान की दीवानी है, उसके आँगन की थोड़ी सी मिट्टी लानी होगी। वह भी उसे बिना बताए और तुम्हें ख़ुद अपने हाथ से ऐसा करना होगा। पहले ज्ञानेश्वर थोड़े सकुचाए फिर गुरू जी पर अटूट आस्था ने उन्हें इस काम के लिए मन ही मन राज़ी कर लिया।

कार्तिक का महीना था रात जड़ाने लगी थी। ज्ञानेश्वर शरीर पर चादर लपेटकर आधिक्या के घर की ओर बढ़ चले। घर अभी कुछ दूरी पर था पर उन्हें लगा कुछ टूटती-जुड़ती स्वर लहरियाँ उनके कानों से टकरा रहीं हैं। पास आए तो लगा कि घर के भीतर वाले कमरे से प्रकाश छन-छन कर बाहर आ रहा है। इस अबेर के संगीत का कारण समझ नहीं सके ज्ञानेश्वर। अपने मन के लिए आलम्ब गढ़ा नींद न आने कारण इस अबेर में भी अभ्यास कर रही होगी। फिर सोचा गुरू का मान रखने के लिए वह विरथां इस अंधविश्वास में पड़े। यदि ऐसा करते आधिक्या की दृष्टि में आ गए तो क्या सोचेगी? वह क्या कहेंगे उससे? इस तरह चोर की भाँति क्या करने आए हैं? कौन जाने क्या सोच बैठे? सोचेगी मुझे भरोसा नहीं है उसपर, उसके प्रेम पर, भरोसा नहीं है उसके चरित्र पर। सोचेगी उसे, उसकी सुचिता को परखने आए हैं, यदि ऐसा हुआ तो गिर जाएंगे अपनी ही दृश्टि में। एकबार को मन किया लौट जाएं पर गुरु की अवज्ञा का साहस न हुआ। उनका आदर, उनका मान सामने आ खड़ा हुआ। सभी कुछ उन्हीं का दिया तो है। लगा शायद इससे और पुख्ता होगा प्रेम, उपासना, संबंध। कठिन समय रात-सा बीत जाएगा, जल्दी ही भोर होगी। शरीर को धकेलते, भारी मन को ढाँढस बंधाते, थके पाँव जा लगे आधिक्या के घर के पीछे की दीवार से। पास लगे पेड़ का सहारा लेकर दीवार पर चढ़े। आधिक्या अपनी आवाज़ की खनक के साथ ऐसे गा रही थीं मानो उसकी हँसी ही रोशनी बनकर कमरे में छिटक रही हो। आज विचित्र सी खनक थी उनकी आवाज़ में। बिलकुल अपरिचित स्वर था। ऐसा पहले कभी नहीं सुना था इस गले से। मादकता में पगा, नशे में डूबा कण्ठ था। जिस आधिक्या को वह जानते हैं यह उसका स्वर नही हो सकता। किसी और के घर तो नहीं आ गए। नीचे उतरकर आँगन में लगी चमेली की बेल की ओट कर ली और साहस करके कमरे के भीतर देखा। आँखें विस्मय से फैल गईं, गला सूख गया। विश्वास नहीं हुआ। सुनहले प्रकाश में आधिक्या की नग्न देह कुंदन सी चमक रही थी। किसी उन्माद में हँसती, गाती, थिरकती आधिक्या देवी। वस्त्र-आभूषण सब धरती पर पड़े पैरों तले रौंदे जा रहे थे। मन के रुदन ने चीत्कार करनी चाही पर गले की आवाज़ किसी अंधकूप में डूब गई। आधिक्या की हँसी में किसी पुरुष का स्वर मिलने लगा। जिसकी पहचान उनके कानों ने ठाकुर के बड़े बेटे की आवाज़ के रूप में की। उसी की शादी में आधिक्या को पहली बार देखा था।

तब से अब तक की तमाम स्वरलहरियाँ-हाहाकार में बदलने लगी।

हे प्रभु क्या दिखा दिया। गड़ जाऊँ धरती में। वापस लौटने को हाथ-पैरों ने अधीर मन का साथ नहीं दिया। खड़े-खड़े पत्ते-से कांपने लगे। लगा चमेली की बेल से सैकड़ों चींटियाँ चढ़ आईं देह पर। चूस लिया क्षणभर में प्रेम, ज्ञान, धैर्य, सब कुछ। पलभर में चुक गया जीवन। वापस दीवार पर चढ़े, पीछे अंधेरे में कूदे। कूदते हुए हाथ से वह कांसे का कटोरा जिसमें आधिक्या के घर की मिट्टी लेनी थी आँगन में जा गिरा। अचानक हुई इस आवाज़ से आधिक्या का हँसना, गाना थम गया। यह भूल कर कि वह किस आवस्था में है, आँगन में निकल आईं। वहाँ कोई नहीं था पर कुछ अनिष्ठ घटने को है यह भान उन्हें भी हो गया था। वह सुध-बुध खोकर आँगन का एक-एक कोना ध्यान से देखने लगीं। उनके साथ एक पुरुष काया भी बाहर आकर उन्हें आश्वस्त करने की कोशिश करने लगी कि वहाँ कुछ नहीं है, वह आवाज़ उनका वहम है पर उन्हें उसकी बात पर विश्वास नहीं हुआ। उन्हें लगा जो गिरा है वह जा कहाँ सकता है उसे यहीं होना चहिए। तभी चमेली की बेल की जड़ों के पास उन्हें ज्ञानेश्वर के हाथ से छूटा कांसे का कटोरा मिल गया। वे झपट पड़ीं उसपे। पहचानती थीं उस कटोरे को। नग्न छतियों में कटोरा भींचकर बिलख पड़ीं। सुरीले कण्ठ में कांटे निकल आए। चीखते हुए बोलीं ‘पंडित ज्ञानेशवर यहाँ आए थे’ पुरुष स्वर ने उन्हें बहुत ढाँढस बंधाने की कोशिश की पर वह और अधीर होती गईं। देह का ताप उतरा तो वह वर्फ़ सी ठण्डी होकर थरथर काँपने लगीं।

उधर अंधरे में एक लम्बी काया को कुछ लोगों ने नहर की ओर बढ़ते देखा। उसके बाद वह अंधेरे में विलीन हो गई।

ज्ञानेशवर को फिर किसी ने नहीं देखा।

सुबह गुरू जी खाली हाथ घर के बाहर आके बैठ गए। भास हो गया था अंधेरे में घटी घटना का। ख़ुद को दोषी मान अन्न-जल त्याग दिया। नहर, खेत, जंगल सब जगह ज्ञानेशवर को ढूँढा गया पर तीसरे दिन शाम तक उनकी कोई ख़बर नहीं मिली। पर आधी रात बीतते-बीतते उस समय घर में हाहाकार मच गया, जब अंधेरे में कुछ परछाइयाँ ज्ञानेश्वर के शव को चारपाई पर रखकर घर पहुँचीं। उसी समय गुरू जी ने अपने प्राण त्याग दिए। अंधेरे में गूँजते रुदन से बच्चे सिर्फ़ इतना जान सके कि उनके बाबा को उनका प्रेम लील गया। उनका प्रेम, उनकी कला, उनकी इज्जत सब उनके साथ नहर में डूब गया। उसके बाद किसी ने आधिक्या देवी को गाना गाते नहीं सुना। बाद में पता चला कि उस घटना के कुछ दिनों बाद वह पहले बनारस और बाद में फिर अपने किसी दूर के रिश्तेदार के साथ दिल्ली चली आईं…

कहानी खत्म हुई तो उन्होंने तानपुरे को पास खींचकर अपनी गोद में रख लिया। फिर दीवार पर लगी पीली पड़ चुकी तस्वीरों को देखते हुए बोलीं, ‘अब वे दोनो ही नहीं हैं। बस समय की दी हुई एक सीख है… जीवन का सच वही नहीं होता जो हम सोचते हैं, जिसे हम जीना चाहते हैं, हम जिसके सपने देखते हैं। एक सच वह भी होता है जो हम दूसरों से कहते हैं, जिसका हम दूसरों को यक़ीन दिलाते हैं, जिसके कहने से हमारे और दूसरों के बीच एक रिश्ता क़ायम होता है, कलाओं के साथ जीवन में उस सच की भी हिफ़ाजत की जानी चाहिए, क्योंकि कई बार दूसरे आपके कहे पे यक़ीन करके, उसे ही अपने जीवन का सबसे बड़ा सच बनाकर जीने लगते हैं।’

कहानी कह चुकने के बाद, उनके चेहरे पर अपनी सहेली का तर्पण कर चुकने जैसी शान्ति थी. उनको देखके लग रहा था उनके मन से कोई भारी बोझ उतर गया है. वह बहुत धीरे से बोलीं, ‘मैं नहीं जानती, अनंत जी क्यूँ चाहते थे कि आधिक्या और उसके गुरु की ये कहानी में आप दोनों से कहूँ. पर कहके लग रहा है- मन हल्का हुआ.’

दीपांश आगे उनसे कुछ और पूछता कि रेबेका अचानक उठकर सीढ़ियाँ उतर गई।

उसके यूँ चले जाने से वातवरण कुछ असहज हो उठा। पर दीपांश ख़ुद को संयत करते हुए बोला, ‘कुछ बातें हैं जो मैं आपसे और विस्तार से जानना चाहूंगा। मैं जल्दी ही किसी दिन फोन करके फिर आऊंगा आपके पास.’

उसके बाद उन्होंने भी उसे रोका नहीं। तानपुरा एक ओर खिसकाते हुए वह खड़ी हो गईं। दीपांश उनसे विदा लेकर नीचे उतर आया। रेबेका बाहर निकलकर गली में खड़ी सिगरेट जला रही थी।

दीपांश थोड़ी नाराज़गी दिखाते हुए बोला, ‘हद करती हो। यूँ अचानक उठकर चली आई। वे क्या सोच रही होगीं?’

रेबेका ने सिगरेट का कश खीचते हुए कहा, ‘उठके चली आई क्योकि इसके बाद की कहानी मुझे मालूम है। सुनना चाहते हो?’

दीपांश स्तब्ध, रेबेका को देख रहा था।

इतना कहकर रेबेका बड़बड़ाते हुए बड़े-बड़े डग भरते ऐसे गली से बाहर की ओर बढ़ने लगी मानो वहाँ एक पल भी रुकना न चाहती हो।

दीपांश बिना कुछ कहे उसके पीछे-पीछे चल रहा था।

कोई सुन रहा है या नहीं इसकी परवाह किए बिना वह बोले जा रही थी, ‘उसके बाद पं ज्ञानेशवर की पत्नी आधी पागल हो गईं। खाली बैठी हमेशा उनके इन्स्ट्रूमेन्ट्स को छेड़ती रहतीं, कहतीं अपने पति के जाने के बाद सब कुछ वही संभालेंगीं। गाएंगी, बजाएंगी, गुरुकुल चलाएंगी। पर फिर उनके परिवार ने जितने क़दम बढ़ाए, सब जैसे किसी दल-दल में ही धंसते चले गए। सुनने-सुनाने वाले, मिलने-चाहने वाले कोई नहीं रहे। खेत, तांगा, घोड़ा कुछ नहीं रहा। बेटे को बुरी संगत ने जुआरी बना दिया और बेटी किसी के साथ अचानक एक दिन घर छोड़कर दिल्ली भाग गई। वो भी कुछ इस तरह की वापस लौटने का कोई रास्ता नहीं बचा। रह गए तो बूढ़े कोचवान बुद्धिबन और इतने बड़े घर में अकेली बैठी बेसुरे गीत गाती पं ज्ञानेश्वर की पत्नी।’

दीपांश ने रेबेका की वाँह पकड़कर उसे रोका और लगभग चीखते हुए पूछा, ‘तुम यह सब कैसे जानती हो?’

रेबेका ने पैर से सिगरेट बुझाते हुए कहा, ‘यह वही कहानी है जो मैंने तुम्हें अधूरी सुनाई थी। मैं ही पं ज्ञानेश्वर की बेटी हूँ- रिद्धि।’

दीपांश ने उसे ऐसे देख रहा था जैसे कहानी का कोई चरित्र यकायक किताब के पन्नों से निकलके उसके सामने आ गया हो। वह धीरे-धीरे अविश्वास में सिर हिला रहा था।

तभी उसने दीपांश को घूरते हुए कहा, ‘और एक सच जानना चाहते हो तो सुनो… आधिक्या देवी मरी नहीं हैं। जिन्होंने हमें उनकी कहानी सुनाई है, वही आधिक्या देवी हैं। इतने सालों बाद, मैं वह चेहरा भले ही न पहचान पाऊँ पर उस आवाज़ को मैं बहुत अच्छे से पहचानती हूँ। शायद अनंत जी ने इसीलिए हम दोनो को साथ भेजा था. एक बार पहले भी उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम्हारे कई प्रश्नों के उत्तर हैं मेरे पास पर समय आने पर वे अपने आप तुम्हारे सामने आएँगे.’

अबकी दीपांश ने जेब से निकालकर सिगरेट सुलगाई और रेबेका माने रिद्धि का हाथ पकड़कर सड़क पर आ गया।

दीपांश ने रेबेका को गले लगाकर उसे पूरी तरह ढक लिया। फिर आसमान की ओर देखते हुए बोला, ‘माँ याद आती है?’

रेबेका ने ख़ुद को संभालते हुए कहा, ‘तुम यह बता रहे हो या पूछ रहे हो, तुम्हारी आँखों के खालीपन में कहीं तुम्हारी माँ की याद जैसी कोई चीज़ दिखती है। वैसे मेरी माँ की कभी-कभी चिट्ठी आती है, जवाब भी जाता है उन्हें पर अब हम एक दूसरे की भाषा नहीं समझते। हाँ बाबा याद आते हैं। पता नहीं क्यूँ माँ के मुँह से उनके लिए लाख गालियाँ सुनने के बाद भी उनसे नफ़रत नहीं कर पाती। यहाँ तक कि आधिक्या देवी को भी वैसे नहीं देख पाती थी जैसे माँ देखती हैं पर आज अचानक अतीत को यूँ सामने पाकर न जाने क्या हो गया.’

दीपांश ने गहरी आँखों से रेबेका को देखा। कुछ झिझकते हुए पूछा, ‘रिद्धि कह सकता हूँ तुम्हें?’

‘एक शर्त पर मैं तुम्हें डॉमनिक बुलाऊँगी. क्योंकि तुम्हें फिर से अपनी कला में लौटना है.’

रिद्धि ने माहौल को हल्का करने की कोशिश करते हुए कहा, ‘सोचते होगे हर बार की तरह आज भी न जाने किस ज़माने की कथा सुना डाली पर यह सच है कि मैं इसी अविश्वसनीय जान पड़ती कथा से निकलकर यहाँ पहुँची हूँ। एक ही समय में कई सदियों का फ़ासला है इन दो जगहों के बीच में। कभी लगता था जहाँ से मैं आई हूँ वहाँ संगीत प्रेमी रहते हैं। अब कभी वहाँ की ख़बरें सुनती हूँ तो लगता है वहाँ सिर्फ़ कीर्तनिये रहते हैं। कभी जाना हो तो देखना मेरा गाँव जो अब थोड़ा बड़ा होकर कसबे से मिल गया है।’

दीपांश ने रेबेका की बदली हुई आवाज़ की आत्मीयता का स्पर्श भीतर तक अनुभव किया..

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