Domnik ki Vapsi - 25 books and stories free download online pdf in Hindi

डॉमनिक की वापसी - 25

डॉमनिक की वापसी

(25)

चलते-चलते दीपांश कुछ सुस्त हो गया था। रेबेका भी थक गई थी। दोनो के चेहरे से लग रहा था कि वह एक दूसरे से कहना चाह रहे हों कि ये किस काल खण्ड की कहानी पूरी करने अनंत ने हमे यहाँ भेज दिया। इन कहानियों से उलझते हुए हमारे अपने जीवन की कौन सी गुत्थी सुलझने वाली है। वह सुबह की बस से आगरा और अब कई साधन बदल कर दोपहर बाद यहाँ पहुँचे थे. यहाँ पहुँच के लग रहा था जिस जगह के बारे में अनंत ने लिखा था, वह जगह और उस तक पहुँचने के निशान समय की गर्त में कहीं बिला गए हैं। वहाँ कुछ था तो बादलों से छनकर आती धूप में चमकता, मीलों दूर खड़ा सफ़ेद संगमरमर का ताज़ महल और उससे छिटक के थोड़ी और दूर एक मैली चादर-सी बिछी, कहीं-कहीं पुरानी चांदी सी झिलमिलाती, यमुना नदी।

वे थोड़ा और आगे बढ़ते तो ये दोनों निशान भी आँखों से ओझल हो जाते। पते और नक़्शे के सहारे थोड़ा और आगे बढे तो एक जरजर हो चुकी कोठरी दिखाई दी जिसको देखके लगता था कि उसपे दसियों साल से सफेदी नहीं हुई थी. उसके दरवाज़े पर लोहे की मोटी सांकल चढ़ी थी जिसपे एक जंग खाया ताला लटक रहा था. यही वो जगह होनी चाहिए थी जहाँ उन्हें पहुँचना था. पर उस कोठारी पर लटकते ताले ने उन्हें निराश कर दिया था. वे उस बंद दरवाज़े के सामने खड़े किसी निर्णय पर पहुँचने ही वाले थे कि उस सुनसान में किसी के गाने की हल्की सी आवाज़ सुनाई दी। बहुत ध्यान देने पर भी बोल स्पष्ट समझ नहीं आ रहे थे। वे थककर उस कोठरी के आगे एक सपाट चट्टान देखकर बैठे गए. आवाज़ धीरे-धीरे पास आ रही थी और उसका असर भी हवा पर तिरता हुआ उन तक पहुँच रहा था. फिर आवाज़ आनी बंद हो गई. कुछ ही देर में एक फ़कीर-सा दिखने वाला आदमी कोठरी के पीछे की ओर से आता दिखाई दिया। चेहरे पर सफ़ेद-कालेबालों की खिचड़ी दाड़ी बेतरतीब बड़ी हुई थी, सिर पर लाल कपड़ा बंधा था, उसने जो काला चोगा पहना था वो कई जगह से फटा हुआ था।

रेबेका ने हँसते हुए कहा, ‘अरे ये तो तुम्हारे क़िरदार की तरह ही दिखता है। डॉमनिक भी नाटक में बूढ़ा होता तो ऐसा ही दिखता. ये यहाँ नाटक के बाहर क्या कर रहा है?’

उसे पास आता हुआ देखकर दीपांश ने उठते हुए कहा, ‘चलो चलते हैं यहाँ से।’

रेबेका ने हाथ पकड़कर बैठा लिया, ‘रुको ना पूछते हैं कौन है। वो आवाज़ शायद इसी की हो।’

तब तक वह बिलकुल सामने आकर खड़ा हो गया। दीपांश कुछ कह पाता उससे पहले ही रेबेका ने पूछ लिया, ‘क्या गा रहे थे आप?’

‘ये चन्दा की प्रेम कहानी है। भोजपुरी लोक गाथाओं में से एक, सदियों पुरानी। बस दिल से दिल का सफ़र करती इत्ती-उत्ती ही बची है, कहीं-कहीं।...लोरिकी है ये! जिस दिल में प्रेम हो उसमें कील सी गड़ती है।’

‘और उसके पहले क्या गा रहे थे?’

‘गंगा लहरी का पद था कवीन्द्राचार्य के शिष्य पंडित जगन्नाथ का। आज भी काशी में गंगा के घाट पे गाओ तो लगता है जगन्नाथ का स्वर लहरों पे साथ-साथ डोल रहा है।’

‘बनारस के हो?’

‘हम वतन परस्त नहीं। हमारा कोई हम वतन नहीं। अपनी कहो यहाँ कैसे आए हो.’

‘ताजमहल देखने आए थे.’

वह जोर से हँसा, ‘इतनी दूर से ताजमहल देखने वाले कम ही होते हैं. कोई और बात होगी?’

‘हाँ, किसी से मिलना था पर तुम कौन हो?’

‘शाहजहाँ का वंशज हूँ- कभी औरंगजेब तो कभी दाराशिकोह हूँ. ये जहाँ वो ताला लटक रहा है ये मेरा ही गरीबखाना है.’

दीपांश ने अपनी झेंप छुपाते हुए जेब से निकाल के अनंत की चिट्ठी उसके सामने कर दी और अपनी जगह से खड़ा हो गया. उसने चिट्ठी को खोल के उस पर एक नजर डाली. फिर उसे बंद करके कुछ सोचते हुए बोला, ‘जहाँ खड़े हो यहाँ ताजमहल नहीं बना पर यहाँ मुमताज और शाहजहाँ से भी बड़ी मुहब्बत की कहानी दफ़न है।’

‘यहाँ इस जगह?’ रेबेका ने सवाल किया.

‘हाँ यहीं। जगन्नाथ और लबंगी बेगम की कहानी।’

कहानी का नाम सुनकर दीपांश जो वापस चलने को तैयार खड़ा था, ठिठक गया। रेबेका ने हाथ पकड़कर उसे फिर से बिठा लिया.

दीपांश ने हल्के से अविश्वास के साथ पूछा, ‘तो सचमुच तुम शाहजहाँ के वंशज हो?’

उसने कमर में बंधे कपड़े से चिलम और एक तम्बाकू की पुड़िया निकाल ली फिर उसे भरते हुए, आँखें चौड़ी करके बोला, ‘मेरी छोड़ो अपनी कहो? बहुत चोट खाए हुए लगते हो। बैठ जाओ थोड़ी देर। कहानी नहीं सुननी है, तो मत सुनना। पर बैठ तो जाओ।’

रेबेका लगभग बच्चों की तरह ठिनकते हुए बोली, ‘अरे नहीं हमें सुनना है।’

वह मुस्करा दिया। उसने आसमान की ओर देखते हुए कहा, ‘वही जगन्नाथ जिन्हें शाहजहाँ ने राजकवि की उपाधि दी थी। ऐसा कवि जो अपने काव्य की अंतिम पंक्तियाँ लिखने में ऐसा डूब गया कि उसे होश ही नहीं रहा कि गंगा की लहरों का उफ़ान बढ़ता जा रहा है। बेसुध होकर लगे थे लिखने गंगालहरी के आख़िरी बंध। इधर रचना पूरी हुई और उधर गंगा उन्हें बहा ले गई। रचना रह गई, कवि बह गया.’

वह अपने आसपास किसी अदृश्य नदी के प्रवाह को सुनते हुए बोला, ‘गंगा और बनारस के घाटों से विचित्र रिश्ता था कवि का। बचपन से ही अनाथ और बेसहारा था। गंगा के घाटों ने ही पाला था। वहीं अपने गुरु कवीन्द्राचार्य से मिला था। पर किस्सा तो तब शुरु हुआ जब बनारस में रमे इस कवि को उसके गुरु ने शाहजहाँ के शहज़ादे दाराशिकोह को संस्कृत पढ़ाने के लिए आगरा भेज दिया। जगन्नाथ जिस तरह डूबकर अपने अदब और तहज़ीब की तालीम दाराशिकोह को देते थे उससे केवल दाराशिकोह ही उनका मुरीद नहीं हुआ बल्कि उसकी बहिन शाहजहाँ की चौथी बेटी लबंगी और उसकी बहिन जहाँआरा भी उनकी दीवानी हुए बिना नहीं रह सकी। जब वे दाराशिकोह को पढ़ाते तो लबंगी उन्हें छुप छुपके देखती। धीरे-धीरे दोनो एक दूसरे के प्रेम में इस तरह बंध गए कि दोनो का अलग रहना मुश्किल हो गया। जहाँआरा ने यह बात दाराशिकोह को बताई पर जब उन्हें मिलाने के लिए दाराशिकोह ने उनका निकाह कराने की बात शाहजहाँ से कही तो बादशाह ने कहा कि यदि ये निकाह करते हैं तो इन्हें आगरा छोड़ना होगा। मुहब्बत के आगे उन एशोआराम की परवाह किसे थी। वे निकाह करके सब कुछ छोड़कर बनारस चले गए। और आज के समय में भी मज़हब के नाम पर कत्लोगारत करने वालों के लिए सुननेवाली बात है कि न जगन्नाथ अपना मज़हब बदलकर मुसलमान बने और न ही लबंगी हिंदू। बनारस में संस्कृत के विद्वानों ने उनका जबरदस्त विरोध किया पर इससे दोनों की मुहब्बत ज़रा भी कम नहीं हुई.’

उसने चिलम सुलगाकर ज़ोर से खींची। धुआँ दीपांश के सिर भी चढ़ा। उसने धीरे से चिलम दीपांश की तरफ़ बढ़ा दी। दीपांश ने न करना चाहा पर उसने दीपांश की आँखों में देखते हुए कहा, ‘ये धुआँ पीने वाले को पहचान लेता है।’ दीपांश को उसकी बात पर आश्चर्य हुआ. सचमुच ही उसने पिछले दिनों कई बार रमाकांत के साथ चिलम पी थी. उसने चिलम लेकर धीरे से खींची और उसे लौटा दी।

वह आसमान की तरफ़ देखते हुए बोला, ‘किस्सा ख़त्म होते ही यहाँ से निकल जाना मौसम का मिजाज़ ठीक नहीं लगता।’

‘पर आसमान तो एकदम साफ़ है।’ रेबेका ने ऊपर देखकर कहा।

वह हँस दिया। फिर चिलम पत्थर पर रखते हुए बोला, ‘बादल घिरते देर नहीं लगती।’

रेबेका ने उसका ध्यान वापस किस्से पर लौटाने के लिए कहा, ‘फिर वे बनारस में ही बस गए।’

‘मुहब्बत करने वालों की ज़िन्दगी में ख़ुशियों को ज्यादा देर टिकने की मोहलत, दुनिया न तब देती थी, न अब देती है। लबंगी और जगन्नाथ की ख़ुशी भी ज्यादा दिन नहीं टिकी। लबंगी बेगम बीमार रहने लगी। उसी की वजह से अपनी कोख में आए बच्चे को भी खो देना पड़ा। उसके बाद तो लबंगी बेगम की हालत और बिगड़ती गई। किसी तरह का कोई इलाज़ काम नहीं आया और एक दिन वो जगन्नाथ को छोड़कर चली गईं। अकेले रह गए जगन्नाथ दिन रात गंगा की लहरों को देखते रहते। एक दिन गंगा की वही लहरें उन्हें अपने साथ बहा ले गईं।’ बोलते हुए उसकी आँखों में गंगा की लहरें झिलमिलाने लगी थीं.

‘बिछड़ने का दर्द सह नहीं पाए होंगे।’ रेबेका ने लंबी साँस खींचते हुए कहा।

‘नहीं, लोग कहते थे लबंगी की मौत से ज्यादा सदमा उन्हें यह जानकर लगा था कि आगरा से विदा होते समय औरंगजेब की बहिन रौशनआरा ने लबंगी बेगम को अपने हाथों से बनाकर ऐसा शर्बत पिलाया जिसमें ज़हर मिला था। वह ऐसा धीमा ज़हर था जो धीरे-धीरे लबंगी बेगम को मौत की ओर धकेलता गया।’ इसके बाद किस्सागो का गला रुंध गया. वह खांसते हुए, आसमान की ओर देखने लगा फिर बोला, ‘हर समय में तुम्हें बनाने और मिटाने वाले तुम्हारे साथ-साथ चलते हैं। जगन्नाथ ने एक ही समय में दाराशिकोह और जहांआरा तथा औरंगजेब और रोशनआरा की शक्ल में मुहब्बत के मददगार और उसके दुशमनों को एक ही छत की सरपस्ती में आमने-सामने खड़ा देखा था।’

फिर उसने चट्टान से अपनी चिलम उठाई और उठते हुए बोला, ‘रुकना नहीं वर्ना निकल नहीं पाओगे।’

रेबेका ‘आप चिट्ठी का कोई जवाब देंगे.’

‘मेरा सलाम कहना.’ उसने हाथ हिलाते हुए कहा.

दीपांश और रेबेका उसे जाते हुए देखते रहे।

पश्चिम से उठते बादलों ने धूप समेट ली थी। वे सड़क की तरफ़ बढ़ ही रहे थे कि फुहार पड़ने लगी। हवा के साथ पड़ती तिरछी बूँदों ने उन्हें इस तरह भिगोना शुरू किया कि उन्हें भागकर दक्षिण की ढलान पर बनी सैकड़ों साल पुरानी, बारह खंबो वाली एक छतरी के नीचे सिर छुपाना पड़ा।

रेबेका के मन में अब भी वही किस्सा घुमड़ रहा था। उसे लग रहा था कि हाथ में ज़हर का प्याला लिए आज भी औरंगजेब के इशारे पर रोशनआरा यही कहीं घूम रही है। उसने दीपांश के पास आते हुए कहा, ‘सचमुच फ़रेब खाने का दुख किसी के बिछड़ जाने से ज्यादा होता है। झूठ खुलने पर कलेजा काट के रख देता है।’

दीपांश हल्के से मुस्करा दिया। उसने रेबेका का हाथ पकड़ा और अपनी दोनों हथेलियों में बंद कर लिया। भीगने से रेबेका के हाथ ठण्डे हो गए थे। उसे लगा तेज़ होती बारिश में उसके भीतर कुछ पिघलकर बह रहा है। उसे लगा वह रोना चाहता है। उसने रोने की कोशिश की पर रुलाई नहीं आई। वह छतरी के खंबे से पीठ टिका कर खड़ा था। रेबेका ने सीने पर सिर रख दिया। उसने बालों से ढलक कर गाल पे आ टिकी बूँद को उँगली से छूआ तो वो हथेली पर उतर आई। दीपांश ने अपने होठ रेबेका के माथे पे रख दिए। मन किया रेबेका को अपने भीतर समेट ले। तभी रेबेका ने सिर उठाते हुए उसे याद दिलाया, ‘मुझे छूने के पैसे लगते हैं।’

दीपांश उसका हाथ छोड़कर आसमान में घिरे काले बादलों को देखने लगा। तभी रेबेका ने उसे ज़ोर से भींचकर गले लगा लिया और उसकी ओर देखकर बोली, ‘वो सही कह रहा था, ‘अगर यहाँ रुकोगे तो फिर निकल नहीं पाओगे।’ इस बीच दो बार रेबेका का फोन बजा था जिसे उसने बिना देखे ही काट दिया था, वह दीपांश के साथ का एक भी पल कुछ और सोचते हुए बिताना नहीं चाहती थी.

दीपांश ने उससे अलग होते हुए कहा, ‘रुकेगा तो वो जिसे भीगने का डर हो हम दोनो तो पहले ही भीगे हुए हैं।’ फिर दोनो एक दूसरे का हाथ पकड़कर तेज़ तेज़ डग भरते सड़क की ओर बढ़ गए।

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