डॉमनिक की वापसी - 24 Vivek Mishra द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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डॉमनिक की वापसी - 24

डॉमनिक की वापसी

(24)

बरसात के दिनों में दिल्ली की सड़कों को तालाब बनते देर नहीं लगती। खास तौर से पुरानी दिल्ली के कुछ इलाक़ों में बारिश बन्द होने के कई घंटों बाद भी पानी भरा रह जाता है। पर सर्दियों की शरुआत में ऐसी तेज़ बारिश कम ही होती है जिसमें सड़कों पर पानी भर जाए. उस शनिवार को भी क्नॉट प्लेस से पुरानी दिल्ली जाने के रास्ते में मिन्टो रोड से ही इतना पानी भर गया था कि सड़क पार करते लोगों के घुटनों से ऊपर बह रहा था। ऊपर से देखने पर लगता कि पानी में सिर्फ़ छाते तैर रहे हैं। शाम से ही हल्की बूँदा-बाँदी हो रही थी पर उन दोनो को इस बात का ज़रा भी अन्दाज़ा नहीं था कि अगले दो घंटे में इस क़दर तेज़ बारिश होगी। उस दिन रेबेका दीपांश को साढ़े छ:-सात बजे क्नॉट प्लेस के इम्पोरियम के सामने ही मिली थी और वहां से उसे अपने साथ लेकर सीधी पुरानी दिल्ली की ओर चली आई थी, पर उनका ऑटो मिन्टो ब्रिज पर आकर बंद हो गया था।

अब दोनो ब्रिज के नीचे से सड़क के किनारे-किनारे चल रहे थे। रिबेका ने एक हाथ से पकड़ कर अपनी सलवार के पोंचों को ऊपर चढ़ा रखा था, फिर भी मोहरी को भीगने से नहीं बचा पाई थी। अभी भी बारिश की हल्की फुहार के साथ तेज़ हवा चल रही थी जिसमें लोगों के छाते भी हिलडुल के उल्टे हुए जा रहे थे. इस बिन मौसम की बरसात से अचानक ही ठंड बढ़ गई थी. तेज़ हवा से शरीर में सिहरन सी भर रही थी. रिबेका ने दीपांश का हाथ पकड़ा और तेज़ क़दमों से आगे बढ़ने लगी. मानो उसे इस मौसम से बचा के जल्दी से किसी महफूज़ जगह पर पहुँचा देना चाहती हो.

दीपांश आज बिलकुल चुप था और किसी पानी के बुलबुले-सा हवा में तिरता उसके पीछे जा रहा था। वे अब तुर्कमान गेट के भीड़-भाड़ वाले इलाक़े को पार करते हुए, पुरानी दिल्ली के सीताराम बाज़ार की किसी संकरी गली में पहुँच गए थे। अभी भी बारिश की बूँदें बिजली के तारों के गुच्छों को छूती हुई उनपर गिर रही थीं। गीले तारों से बीच-बीच में चिन्गारियाँ उड़ कर नीचे गिर रही थीं। रिबेका ने कहा, 'देखो, आग-पानी एक साथ बरस रहे हैं' पर दीपांश को जैसे कुछ भी छू नहीं पा रहा था- न आग, न पानी।

बाज़ार की चहल-पहल पीछे छूट गई थी।

रेबेका ने दीपांश को खींचकर अचानक सामने आगए बिजली के खंबे से टकराने से बचाते हुए कहा, ‘कहाँ देख रहे हो?’ फिर वह दीपांश के दोनो हाथ अपने हाथों में लेकर वहीं ठिठक गई। उसने दीपांश की आँखों में झांकना चाहा पर इस समय उनमें उतर पाने की कोई गुंजाईश नहीं थी। वे अपने में खोई थीं। मन हुआ दीपांश को गले लगा ले, पर ऐसा न करके उसके कान के पास जाकर कुछ बुदबुदाने लगी, ‘जानते हो मेरे पिता एक कलाकार थे। सच्चे कलाकार, बिल्कुल निश्छल। मैं उनके बारे में सब कुछ भुला के उन्हें बस उसी रूप में याद रखती हूँ। मैंने भी उनसे थोड़ा-बहुत गाना सीखा था। उसी गाने की वजह से किसी के प्रेम में बंधी यहाँ तक चली आई थी। जिसके साथ आई थी वह भी ख़ुद को कलाकार कहता था। पर क्या किया उसने? अंधेरी गलियों में हमेशा के लिए भटकने के लिए छोड़ दिया। मैं जानती हूँ तुम बहुत बेमन से मेरे साथ यहाँ आए हो पर यहाँ अनंत जिन्हें मैं अपना गुरू कहती हूँ, केवल वही नहीं हैं। एक सात साल की बच्ची- दानी भी है। अनंत जी ही उसका ख्याल रखते हैं। मैं उसे पढ़ाना चाहती हूँ। नृत्य सिखाना चाहती हूँ। चाहती हूँ- वह कला को उसके सच्चे रूपों में समझे। यह बच्ची भी इति की तरह कहीं से उठाई गई थी, तब ये पाँच साल की थी, पर जब इसे यहाँ से निकाल के इसके घर पहुँचाना चाहा तो इसके माँ-बाप ने इसे वापस रखने से मना कर दिया। तबसे यह अनंत के पास ही रहती है. अभी भी इसकी जान को खतरा है। जो लोग पैसे देके लड़कियों को खरीदते हैं, अगर कोई लड़की उनके चंगुल से भाग निकले तब भी वे बड़े दिनों तक उसका पीछा करते हैं.’

ये सुनकर दीपांश ने उसके सिर पर हाथ रखा फिर ऐसे भींच लिया जैसे कोई बहुत दिन का खोया अभी-अभी दोबारा मिल गया हो, फिर वे एक साथ आगे बढ़कर एक संकरी गली में मुड़ गए। उस गली में जो एक दरवाज़े तक जाकर बन्द हो गई थी। गली में बमुश्किल खिड़की-दरवाज़ों की सन्धों से थोड़ी बहुत रोशनी आ रही थी। अन्दर से आती आवाज़ से लगता था भीतर कोई नाच रहा है।

रेबेका ने धीरे से सांकल खड़काई।

सात-आठ साल की एक साँवली लड़की ने दरवाज़ा खोला। उसके पैरों में घुंघरू बंधे थे। वह दरवाज़ा खोलते ही रिबेका के गले लग गई। दीपांश ने जब उस लड़की की ओर देखा तो रेबेका को लगा जैसे इतनी देर में उसने पहली बार अपनी पलकें झपकी हैं। वह उसका हाथ पकड़ कर फर्श पर बिछी दरी पर बैठ गई। दीपांश कमरे की पुरानी पटनौर वाली छत को ताक रहा था, जिसपर लोहे के कुंडे लटक रहे थे, जिनमें से एक पर, लोहे के मुड़े हुए तार में भिंदे कई ख़त हवा में झूल रहे थे।

रेबेका ने दीपांश का हाथ दबाते हुए कहा, ‘जानते हो यह सब चिट्ठियाँ उन लड़कियों की हैं, जिन्होंने गुरु जी से केवल नृत्य ही नहीं, जीवन भी सीखा है’।

फिर उसने लड़की की ओर देखते हुए कहा, ‘दानी, गुरू जी को बुला दे’ उसकी बात सुनकर लड़की उस छोटे से दरवाज़े से अन्दर वाले कमरे में चली गई, जिससे भीतर के कमरे में जलते बल्ब की रोशनी बाहर वाले कमरे में एक मटमैली चादर की तरह पड़ रही थी।

दीपांश मलीन रोशनी में कमरे के खुरदुरे फर्श को देख रहा था, तभी रोशनी पर पाँव रखती, एक कांटे-सी पतली और शीशम-सी काली देह, जिसके बाल कन्धे तक बड़े हुए थे और उस पर हरे रंग का एक झीना-सा कुर्ता और टखनों से ऊपर तक सफ़ेद तहमद झूल रहे थे, कमरे में आ गई।

रेबेका ने उठकर उसके पैर छुए। उसने रेबेका को अंक में भर लिया। रेबेका ने दीपांश की ओर देखते हुए कहा, ‘यह दीपांश है, ‘डॉमनिक की वापसी’ के डॉमनिक, बहुत जीवन्त अभिनय करते हैं, पर अचानक इन्हें न जाने क्या हो गया है, कहते हैं नाटक छोड़ दूंगा, मुझे लगता है- कला जैसे छूटती जा रही है, इनके हाथ से.’

फिर उसने उस लम्बी काया पर लगी बड़ी-बड़ी काजल लगी आँखों में देखते हुए कहा, ‘ऐसे में आप इनकी मदद कर सकते हैं, मैं जानती हूँ.’

आँखें गहरी होकर मुस्कराईं, उनसे निकला रहस्य कमरे की मद्धिम रोशनी में तिर गया। दीपांश छत पर लटकती चिट्ठियों को देख रहा था।

रेबेका के गुरू ने दीपांश की ओर देखते हुए कहा, ‘मैं अनंत हूँ, उन लड़कियों को नृत्य सिखाता हूँ, जिनको जीवन में कभी तुम्हारी तरह अपनी कला दुनिया को दिखाने का अवसर नहीं मिलता। जिनके सामने उन्हें इसका प्रदर्शन करना पड़ता है, उनके लिए नृत्य शारीरिक भाव-भंगिमाओं से ज्यादा कुछ नहीं, उनके लिए ये लड़कियाँ, इनकी देह से ज्यादा कुछ भी नहीं पर फिर भी ये बिना किसी अपेक्षा, किसी महत्वाकांक्षा के, पूरी लगन से सीखती हैं। इसके बिना भी इनका काम चल सकता है पर ये औरों के लिए नहीं अपने लिए सीखती हैं, ये जीवन के उन क्षणों के लिए सीखती हैं जिनमें इनके पास इसके सिवा कुछ नहीं रह जाता।’

तभी रेबेका ने दीपांश को कन्धे से पकड़कर हिलाया, ‘सुन रहे हो, या अभी भी कुछ सोच रहे हो?’

दीपांश ने अपने बालों से पानी झाड़ते हुए अपनी पीठ दीवार से लगा दी।

रेबेका के गुरू ने उसकी ओर देखते हुए कहा, ‘यह तुमसे नाराज़ है, सोच रहा है, आज जब इसकी प्रतिभा एक ऊँचाई पर आकर अपने भीतर झांकना चाहती है, तब तुमने इसे इस बन्द गली की इस कोठरी में लाकर, एक हिजड़े के सामने खड़ा कर दिया है। समझ नहीं आ रहा है इसे कि आखिर क्या मतलब है, इसका?’

बाहर आसमान में बादलों की भारी गर्जना के साथ ज़ोर से बिजली तड़की, जिसके कुछ कण छिटक के टूटे हुए किवाड़ की संधों से होकर कमरे में आ गिरे। गुरू की बात सुन कर जैसे दीपांश की तन्द्रा टूटी, उसके मुँह से निकला ‘नहीं ऐसा नहीं है.’

गुरू ने फिर कहा, ‘फिर क्या है?’

दीपांश ने सीधा बैठते हुए कहा, ‘क्या कहूँ? बस भीतर की अराजकता, एक बेचैनी है जिसके आगे, बाहर की मुसीबतें तो कुछ भी नहीं, बस वही है जो दिन रात तारी रहती है-दिलो-दिमाग़ पे’

अनंत ने धीरे से बात को मन के अंधेरे में भी एक दिशा दी, ‘ये कहती थी, तुम्हें कोई भय नहीं,…पर प्रेम से डरते हो!’

डॉमनिक को लगा जैसे सब कुछ छोड़ के उन्होंने उसकी नब्ज़ पकड़ ली उसने लम्बी साँस खींचते हुए कहा, ‘हाँ शायद अपनों के बिछुड़ने से, प्रेम के बिखरने से, रिश्तों के खो जाने से मेरे भीतर एक भीषण विद्रोह भर गया है, एक विराट अराजकता हर समय मेरे भीतर हाहाकार मचाए रहती है और ऐसे ही समय में मेरे अतीत का रंग, मंच पर मेरे वर्तमान को ढक लेता है. और वही मेरा अभिनय बन जाता है. पर अब मुझे यह सब व्यर्थ लगता है। अभिनय करते हुए अपने ही घाव बार-बार उघाड़कर दिखाने से जैसे वे नासूर बन गए हैं। अब लगता है यदि कुछ भी कहूँगा तो वह ख़ालिस दर्द बनकर ही फूटेगा जो सभी के लिए असहय हो उठेगा।’

उन्होंने जैसे उसे उसके भीतर से निकालते हुए कहा, ‘रेबेका कह रही थी वॉयलिन बहुत अच्छी बजाते हो! लुड्विक वैन बीथोवन के संगीत से और उसके जीवन से भी बहुत प्रभावित हो.’

इसके बाद उन्होंने एक पल रुकके, एक लम्बी साँस खींच कर ऐसे बोलना शुरू किया जैसे किसी किस्से को अतीत से खींचकर वर्तमान तक लाने के लिए समय का अंतराल अपनी साँस से पाट देना चाहते हों, ‘जानते हो कि अपनी तमाम बीमारियों के अलावा बीथोवन को एक बहुत गहरा दिल का रोग भी था। उसके दिल की धड़कने आम लोगों की तरह नहीं थी। उनमें एक अज़ीब बेतरतीबी थी। वे कभी बेहद तेज़ या कभी बेहद धीमी हो जाया करती थीं। कभी-कभी दिल धड़कते-धड़कते मानो रुक जाता था या उसकी कई धड़कने कहीं अनंत में बिला जाती थीं और फिर यकायक वह फिर धड़कने लगता था। उसकी कला की लय में डूबे संगीत प्रेमी समझते थे कि वह असामान्य रिद्मों का अपने संगीत में अविष्कार कर रहा है। वह दरसल किसी भी समय अपने दिल की धड़कन बंद हो जाने के खटके में रहता और उनकी लय पर उसके संगीत का टेम्पो तेज़ धीमा होता था। जब वह बीट्स लांघकर उन्हें वापस पकड़ता तो लोग उसकी कला पर पागल हो जाते पर वह दरसल उसी क्षण में मरकर एक बार फिर से जी उठता था। आज उसकी धुनें केवल संगीतज्ञों के लिए ही नहीं हृदय रोग विशेषज्ञों के लिए भी शोध का विषय हैं। उनका मानना है कि उसके संगीत का पैटर्न ‘इरिदिमिया’ के दिल के रोगी के दिल की तेज़-धीमी होती धड़कनों का पैटर्न है।’

दीपांश उनको एकटक देखे जा रहा था। वह जैसे सम्मोहन की अवस्था में उनकी बातें सुन रहा था।

‘कला को जिस रूप में हम जानते हैं उसका आनंद लेते हैं अगर हम उसके मूल स्रोत तक जाएंगे तो वे हमें बिलकुल अलग ही रूप में मिलेंगी। कितनी ही बार कितनी ही कलाएं दर्द से निजात पाने, डर से पार पाने, खालीपन को भरने के लिए पैदा हुईं. उनके मूल में आनंद नहीं पीड़ा ही है. आनंद तो उसके लिए है जो उन्हें देखता, सुनता और भोगता है. उनके मूल में पहुँच के देखोगे कि वे किसी और के लिए हैं ही नहीं। चाहे कोई उन्हें देखकर, उनके बारे में जानकर उनकी प्रशंशा करे या न करे, इससे उस कला पर, उसके उद्गम पर कोई अन्तर नहीं पड़ता। दरअसल उन कलाओं में कलाकार के जीने का तरीका छुपा है।’

बाहर बारिश का शोर धीमा हो गया था। हवाएं थम गई थीं।

गहरी साँस लेते हुए अनंत ने कहा, ‘कोई भी कला एक हाथ से संसार से जोड़ती है, यश दिलाती है, तो वहीं दूसरे हाथ से अपना कर्ज़ मांगती है, कलाकार को बिलकुल अकेला कर देती है।’

दानी ने सबके सामने पानी के गिलास लाकर रखे और एक कोने में बैठकर घुंघरू खोलने लगी।

गुरु ने एक साँस में गिलास खाली करके ज़मीन पर रखा, फिर दीपांश की ओर देखकर कहा ‘अगर कला को थामे रखना है, तो फिर दुनिया छूट भी जाए तो उसकी परवाह नहीं।’

‘मेरे भीतर की अकुलाहट, ये बेचैनी मुझे पागल किए दे रही है’ दीपांश ने दोनो हाथों से पानी का गिलास थामते हुए कहा।

‘तुम इन खाँचों, सीमाओं और मुखौटों के लिए नहीं बने। तुम स्वयं को मुक्त कर दो, अपनी क्षवि से, तुम्हारी कला सिर्फ़ प्रदर्शन के लिए नहीं है, इसमें किसी को बदलने की ताक़त है, अभी तक तुमने जो पाया, बस वही तुम्हारा प्राप्य नहीं है, वे तुम्हारी कला का इस्तेमाल कर रहे हैं, तुम्हें उनसे अलग होकर, इसे कहीं और लगाना है, किसी सच्ची जगह. वहाँ यदि तुम अपने प्रयास से एक जीवन भी बदल सको, तो तुम्हारी ये बेचैनी कम हो जाएगी। अभी ये बेचैनी और बढ़ेगी, इतनी कि कोई भी इसे रोक नहीं पाएगा, तुम भी नहीं, जब इस शोर से दूर जाओगे तो कोई तुम्हारे पाँव के निशान भी नहीं देख सकेगा, फिर कोई पीछा नहीं करेगा तुम्हारा.’ वे बोलते हुए उठे और उन्होंने कोने में पड़े, दानी के पैरों से उतरे घुंघरू अपने पैरों में बाँध लिए।

अब वे नृत्य की विशेष मुद्रा में कमरे के बीच में खड़े थे। उन्होंने पहले कमरे की ज़रज़र हो चुकी पटनौर की छत को देखा फिर दीवार पर लाल-काले आपस में गुथे तारों के सहारे होल्डर से लटकते बल्ब को देखा और बोले ‘कई बार जीवन को समझते, उसका विवेचन करते, हमें लगता है कि हम समय से, जीवन से पीछे छूट गए हैं। जब हम अपनी कल्पना में होते हैं, तब बाहर समय तेज़ी से बीत रहा होता है।…और जब हमें लगता है कि हाँ हमने इसे समझ लिया है, जान लिया है और तब हम अपने अंधेरों से, अपनी वैचारिक तन्द्रा से बाहर आते हैं, तो क्या देखते हैं कि जो हमने जाना है, समझा है उसे सुनने, समझने वाला बाहर कोई नहीं है। हम घबराए, मुंह बाए देखते हैं कि बाहर समय बीत चुका है, दुनिया बदल चुकी है। बदला हुआ समय कुछ और ही प्रश्न लिए सामने खड़ा है। इसलिए जो भी जानना है सिर्फ़ जानने के लिए ही जानना है। किसी के आगे सिद्ध करने के लिए नहीं. किसी से कहने-सुनने, या उसके प्रदर्शन के लिए नहीं। ये जीवन में सबकी निजी खोज है, अपनी-अपनी पड़ताल। कोई उत्तर पाएगा - कोई नहीं। धूप, हवा, पानी, चिड़ियों की चहचहाहट इन सबका अस्तित्व इन सबकी कोई कीमत तय किए बिना भी अपने में पूर्ण है.’

दीपांश को अनंत किसी अजूबे की तरह लग रहे थे। उसे लग रहा था जैसे उन्होंने उसके भीतर के द्वन्द्व को, उसके विचारों को स्कैन कर लिया है और उसके सामने उसकी ही दशा को शब्दों में अनुदित कर उसी से कह रहे हैं। अब वह संभलकर सीधा बैठ गया था।

इस बीच रेबेका भीतर के कमरे में जाकर सबके लिए चाय बना लाई थी. अब अनंत भी ज़मीन पर पालथी मार कर आराम से बैठ गए थे। उन्होंने दीपांश की आँखों में झाँकते हुए कहा, ‘मैं जानता हूँ यह कठिन है पर पलभर के लिए मान लो कि तुम्हारे चारों तरफ़ की दुनिया जो है, वो झूठ है, मिथ्या है, और तुम्हारे भीतर जो कल्पना है जो बाहर यथार्थ में कहीं है ही नहीं, वही कल्पना दरसल सच है। तुम्हारे लिए सबसे बड़ा सच। तुम्हें उसी कल्पना के भीतर स्थिर हो जाना है, टिक जाना है। जो है उसे भूलना, नया रचने की शुरुआत है। इसीलिए रचना यथार्थ की मिट्टी से बनने के बाद भी, यथार्थ नहीं है। रचना यथार्थ से जूझते हुए भी यथार्थ से पलायन के रास्ते खोजती है और उन वर्तमान के रास्तों पर चलते हुए भी वह भविष्य की संभावनाओं के बीज दबाती चलती है’ उन्होंने अपने हाथ से दीपांश की ओर चाय का कप बढाते हुए कहा, ‘कल्पना को ही यथार्थ समझ कर की गई रचना में भी जीवन का यथार्थ ख़ुद व ख़ुद उतर आता है। वह कल्पना भी यथार्थ का ही विस्तार है। इसे ऐसे समझ लो जैसे कविता से बाहर हो जाना ही कवि हो जाना है। बाहर मतलब- जब कविता रचने का भान और मान दोनों न रहें. वैसे ही आपके भीतर कला का कला के लिए होना ही सच्चा कलाकार होना है।’

दीपांश को जैसे कई अधुरे सवालों के जवाब बिन मांगे ही मिल गए थे. उसके बाद कुछ देर तक कमरे में सन्नाटा पसरा रहा. सबने चाय खत्म की.

अनंत ने अपनी जगह से उठते हुए दानी के सिर पे हाथ फेरते हुए कहा, ‘ये बच्ची बहुत अच्छा नाचती है. फिर रेबेका की ओर देखके बोले, ‘कुछ कांटे समय की सुई से ही निकलते हैं. हो सकता है समय कि वह सुई तुम्हें अतीत में मिले या फिर वर्तमान में.’

दीपांश और रेबेका दोनों ने अनंत को ध्यान से देखा.

अनंत ने बात को खोलने की जगह दूसरी ही बात कही, बोले ‘तुम दोनों को मिलकर मेरा एक काम करना होगा. मेरी दो चिट्ठियाँ हैं तुम्हें उन्हें दो अलग-अलग पतों पर पहुँचाना है.’

रेबेका ने दीपांश की तरफ देखा. दीपांश ने ‘हाँ’ में सिर हिला के हामी भरी.

अनंत दीपांश को रुकने का इशारा करके भीतर वाले कमरे में चले गए जहाँ से वह निकले थे। कुछ देर में कुछ क़ाग़ज़ हाथ में लिए बाहर निकले. बोले, ‘कुछ दिनों के लिए अभिनय से दूर रहो। ये वे दो चिट्ठियाँ हैं और ये इनके साथ इनके पते, उन तक पहुँचने के लिए रास्तों का ब्यौरा और जिन्हें ये देनी हैं उनके बारे में कुछ जानकारी है. अगर इनका जवाब साथ ही मिल जाए तो बेहतर नहीं तो मैं बाद में मंगा लूंगा. और हाँ इसमें रेबेका भी तुम्हारे साथ रहेगी. मुझे भरोसा है इनमें इसके लिए भी बहुत कुछ सीखने के लिए होगा.’

उसके बाद दीपांश ने दानी के सर पर हाथ फेरा, अनंत को नमस्ते की और कमरे से बाहर आ गया. रेबेका भी कुछ देर में उसके पीछे-पीछे बाहर आ गई.

***