Domnik ki Vapsi - 18 books and stories free download online pdf in Hindi

डॉमनिक की वापसी - 18

डॉमनिक की वापसी

(18)

इति अब सेतिया की उपस्थिति में पहले जैसी सहज नहीं थी. रमाकांत के कहने से उसने दुबारा काम शुरू तो कर दिया था. पर आत्मविश्वास से भरी रहने वाली लड़की की पीठ पर भी आशंका की आँखें निकल आईं थीं. अपनी माँ की इकलौती बेटी जो बिहार से दिल्ली आकर, मुखर्जी नगर इलाके में किराए के मकान में अकेली रहते हुए, अपनी पढ़ाई के साथ-साथ थिएटर का अनुभव लेकर, आगे अपना प्रोडक्शन हॉउस खोलना चाहती थी, अब अपने निर्णय के बारे में नए सिरे से सोचने लगी थी.

रमाकांत ने उसे वापस लाने के लिए समझाते हुए कहा था, ‘देखो, यहाँ सफल होना बहुत मुश्किल भी है और बहुत आसान भी. अब चुनाव तुम्हारे हाथ में है- तुम कौन-सा रास्ता चुनना चाहती हो. समझौते करके आगे बढ़ने का आसान रास्ता, या तुम जैसी हो वैसी बनी रहकर अपना वजूद कायम रखते हुए आगे बढ़ने वाला संघर्ष का रास्ता.’

उसने दूसरा रास्ता चुना था.

जिसपर रमाकांत ने कहा था, ‘फिर छोड़ के भागो मत, घर मत बैठो, वापस लौटो, अपनी बात सामने रखो, हल न निकले तो आगे शिकायत करो, लड़ो, तुम सही हो उसे तुम्हारी बात माननी ही पड़ेगी.’ उस समय रमाकांत की बात सच साबित हुई.

सेतिया ने इति से और शिकायत करने वाली लड़की से माफ़ी मांगी और भविष्य में ऐसी हरक़त न करने का वादा किया. पर न दुनिया इतनी सीधी थी, न ही इसमें अपनी शर्तों पर चलने वाले के लिए रास्ते ही इतने सीधे थे. सेतिया फिर धीरे-धीरे अपनी पुरानी हरक़तें दोहराते हुए अपना असली रंग दिखाने लगा. वह मुँह से भले कुछ न कहे पर इति से ख़ासा चिढ़ गया था. जिसकी वजह से उसके किए हर काम में मीनमेख निकालता रहता था. एक दिन जब अति हो गई तो इति सामान वहीं पटक कर विश्वमोहन के ऑफिस पहुँच गई. वह ऑफिस में नहीं मिले तो रमाकांत को फोन किया, रमाकांत ने रिहर्शल में होने की वजह से फोन नहीं उठाया, तब हार कर उसे बिना बात किए बाद में इस बात का निपटारा करने के निर्णय के साथ अपने कमरे पर लौटना पड़ा.

दूसरे दिन जब इस बात का पता चलने पर ग्रुप के सदस्यों ने उससे संपर्क करने की कोशिश की तो पता चला कि वह सुबह अपने कमरे से तो तय समय पर निकली थी पर न तो ऑडिशन की जगह ही पहुँची और न ही विश्वमोहन के कनॉट्प्लेस स्थित ऑफ़िस ही गई। इति से संपर्क न हो पाने का मतलब था ग्रुप का सारा काम ठप हो जाना। जब शाम ढलने तक इति की कोई ख़बर नहीं मिली तो ग्रुप में हलचल शुरू हुई। अपने काम से इतर वह और जहाँ-जहाँ हो सकती थी, वहाँ फोन किए गए। जहाँ जाके देखा जा सकता था, वहाँ जाके देखा गया। शिमोर्ग सहित ग्रुप के सभी सदस्यों से बात की गई, पर किसी को इस बारे में कुछ पता नहीं था।

दीपांश के दिल्ली पहुँचते ही उसका सामना भी इसी ख़बर से हुआ. वह जिस हालत में था वैसा ही विश्वमोहन के ऑफिस पहुँचा. वहीं शिमोर्ग से भी मुलाक़ात हुई. ऐसे में अपने दुःख का कहना-सुनना पीछे छूट गया. सीने में जब्त तमाम बातें आँखों में डबडबा के रह गईं.

दीपांश ने उनसे बात करने के बाद सीधे सेतिया को फोन लगाया. सेतिया ने फोन नहीं उठाया. सभी का मन किसी अनिष्ठ की आशंका से भरा था. वह सेतिया से इस बारे में सीधे बात करना चाहता था इसलिए शिमोर्ग के मना करने पर भी वह भूपेन्द्र के साथ सेतिया के घर जा पहुँचा. दक्षिणी दिल्ली के ग्रेटर कैलाश इलाके में उसकी बहुत बड़ी कोठी थी. जिसके ड्राइंगरूम कहे जाने वाले कमरे से पहले, एक बरामदानुमा बड़ी-सी लॉबी थी जिसमें दो लोग पहले से बैठे उससे मिलने का इंतज़ार कर रहे थे. एक लड़का उन्हें वहाँ बैठने को कहके, उनका नाम पूछ के भीतर चला गया. सेतिया ने कुछ देर बाद, उन दो लोगों से पहले ही उसे बुला लिया. भूपेन्द्र को वहीं रुकने का इशारा करके दीपांश अन्दर चला गया.

उसको देखते ही सेतिया ने कहा, ‘तुम्हारी माँ के बारे में सुन के दुःख हुआ, बैठो... बताओ क्या पियोगे?’

दीपांश ने उस बहुत बड़े और आलीशान सजावट वाले कमरे में नज़र घुमाते हुए कहा, ‘नहीं मैं बैठूँगा नहीं, आपका फोन नहीं लग रहा था तो सोचा घर जाके ही मिल लूँ’

सेतिया ने अपना विहिस्की का गिलास टेबिल पर रखते हुए कहा, ‘हाँ.., हाँ बोलो मैं क्या कर सकता हूँ?’ उसको देख के लगता था वह सूरज ढलते ही पीने बैठ गया था. उसकी आँखें लाल हो रही थीं.

दीपांश ने बिना घुमाए-फिराए सीधे पूछा, ‘इति का सुबह से कुछ पता नहीं, सुना है कल आपसे कोई बात हुई थी.’

‘बहुत स्टुपिड और शोर्ट टेम्पर्ड लड़की है’ सेतिया ने बहुत लापरवाही से पाँव पसारते हुए कहा, ‘मुझे लगता है वो कंटीन्यू नहीं करना चाहती होगी इसलिए नहीं आई.’

‘वो कमरे पर भी नहीं है, और उसका फोन भी नहीं लग रहा है, क्या आपकी कोई बात हुई?’

सेतिया सीधा होके बैठते हुए बोला, ‘मुझसे क्यूँ बात होगी उसकी? वो है कौन? मैं तो पहले ही उसे वहाँ देखना नहीं चाहता था लेकिन ये रमाकांत जी पता नहीं क्यूँ उसे इतना भाव देते हैं.’

‘आपकी उससे आखिरी बार बात हुई थी. इसलिए सोचा शायद आपको कुछ पता हो, कुछ पता चले तो बाईएगा.’ दीपांश ने बात को समेटते हुए कहा.

सेतिया सोफे से उठते हुए बोला, ‘तुम्हारे लिए ये बड़ा मौका है, अपने काम पे ध्यान दो.’ इस बार उसकी आवाज़ में धमकी जैसा कुछ मिला था.

दीपांश ने हल्के से सिर हिलाया, एक बार फिर चारों तरफ नज़र दौड़ाई और बाहर निकल आया.

वह ऐसा घर था जिसके पेट में कई तलघर थे. घर की दीवारें बाहर की आवाज़ को बाहर और भीतर की आवाज़ को भीतर ही रोक देने की ताक़त के साथ बनाई गई थीं.

बाहार निकलते हुए भूपेन्द्र भुनभुना रहा था, ‘ये साला सेतिया जानता है इति कहाँ है.’

‘कोई बात नहीं मैं रमाकांत जी से बात करता हूँ, हमें पुलिस को खबर कर देनी चाहिए.’

रात के नौ बजते-बजते इति के न मिलने की सूचना पुलिस को दे दी गई थी.

सारी रात अजीब सी बेचैनी में कटी. लगा बाहर से चमकता चौड़ी सडकों वाला शहर भीतर से एक घना काला दलदल है और यह दलदल कभी भी, किसी को भी इतनी सफाई से निगल सकता है कि किसी को कानोंकान खबर न हो.

दो दिन बीत गए इति का कुछ पता नहीं चला. उसकी माँ रमाकांत के साथ और दीपांश कभी भूपेन्द्र तो कभी अशोक को लेके सुबह से शाम तक हर उस ठिकाने पर भटकते रहे थे जहाँ उसके बारे में कुछ भी पता चल सकता था, पर कहीं से कोई ख़बर नहीं मिली.

इति के यूँ गायब हो जाने के बाद से ग्रुप दो धड़ों में बट गया था. एक धड़ा चाहता था कि आगे से सेतिया से शो को प्रायोजित न कराया जाए, उनका मानना था कि उसके आने से चीज़े बिगड़ी हैं. दूसरे धड़े का मानता था कि इतने बड़े शो के लिए सेतिया के बिना प्रायोजक जुटाना बहुत मुश्किल है उसके अलग होने से ग्रुप लगभग फिर उसी हालत में पहुंच जाएगा जहाँ शुरूआती दिनों में था. हालांकि सेतिया इस सबसे अप्रभावित दिखाई देता था. इति के यूँ अचानक गायब हो जाने से भी जैसे उसे कोई लेना-देना ना था.

पर चालीस पार कर चुके विश्वमोहन जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी के पिछले बीस साल नाटकों को दे दिए और आज जब उनके सबसे सफल नाटक का पचासवाँ शो बस होने ही वाला था तब तमाम सवाल उनका रास्ता रोके खड़े थे. इन बातों ने जैसे आगे की सभी योजनाओं को स्थगित कर दिया था. उन्हें इस शो में दीपांश, शिमोर्ग और रमाकांत के अभिनय से बहुत उम्मीदें थीं. उनके लिए आने वाला कल एक बड़ी उम्मीद से था.

ऐसे में विश्वमोहन जब सेतिया से मिलती मदद और भविष्य में खुलते सफलता के रास्तों की तरफ़ झुकते. तो दूसरी तरफ सालों की मेहनत से खड़ा किया ग्रुप दिखाई देता जो आज उन्हें टूटता-बिखरता हुआ लगता. बीस-बाईस लोगों का कई सालों में एक-एक को जोड़कर बनाया गया परिवार. ग्रुप को बचाने की सोचते तो चारों ओर वही अँधेरे नाचने लगते, ज़िन्दगी फिर उसी गर्त में जाती दिखाई देती जहाँ से निकाल के लाए थे.

कोई निर्णय लेने में जिनसे मदद ली जा सकती थी वह रमाकांत ही थे पर वह अपने सरोकारों और जरूरतों के बीच झूल रहे थे. दोनों तरफ मन कच्चा-पक्का था. उन्हें जैसे उनकी जिम्मेदारियों ने बांध के निर्णय लेने से रोक दिया था. इसलिए वह इसमें विश्वमोहन की कोई मदद नहीं कर पा रहे थे.

दो फांक हुए इन हालात में शिमोर्ग और दीपांश भी दो अलग-अलग दिशाओं में खड़े थे. दोस्ती और प्रेम की चासनी में भी असहमतियाँ घुल नहीं पा रही थीं. नाटक में प्रेम लोगों को लुभा रहा था, प्रेम का नाटक सफल हो रहा था। पर जीवन में छीज रहा था, प्रेम। एक ही समय में जीत और हार एक साथ दिखाई दे रही थी। बनना और बिगड़ना एक ही समय में चल रहा था. दीपांश जैसे पहले ही मन बना चुका था. पहले हमेशा चुप रहने वाला, ‘हाँ’ या ‘न’ में जवाब देने वाला दीपांश इस बार गाँव से लौट के आने पर यकायक बहुत मुखर हो उठा था. लगता था उसके भीतर कुछ है जो अभी उबल पड़ने को है.

इस समय अंतिम निर्णय विश्वमोहन को अकेले ही लेना था. पर सबकी सहमति के बिना आगे बढ़ पाना मुश्किल था. इसलिए जब उन्होंने दीपांश को समझाने की कोशिश की थी तो अचानक ही जैसे फट पड़ा था, ‘इति आपके लिए क्या है? हम में से कोई भी आपके लिए क्या है? एक टूल? इशारों पर नाचने वाली एक मशीन? किसी बंद दरवाज़े की चाबी?’ उसके बाद उन्होंने जैसे खुद को ही बार-बार आश्वस्त किया था कि ऐसा नहीं है. वह ग्रुप में सभी का भला चाहते हैं.

जैसे-जैसे समय बीत रहा था बेचैनी बढती जा रही थी. रोशनी के बीच सब अपने-अपने अँधेरों में क़ैद अकेले बैठे थे.

दीपांश को गाँव से लौट के माँ की मौत पे अकेले बैठ के रो सकने की मोहलत भी नहीं मिली थी. आँसू जैसे सीने में कहीं जम गए थे. दुःख बांटने के लिए दुःख को छूना पड़ता है. पर यहाँ सभी के हाथों में हालात के दस्ताने चढ़े थे.

इस बीच एक ही बार शिमोर्ग दीपांश के कमरे पर आई.

जब वह आई तो दोनों बड़ी देर तक ख़ामोश बैठे रहे. लगा बात फूटेगी, स्पर्श जगेगा, आँसू ढलक पड़ेंगे, पर ऐसा नहीं हुआ. कभी लगता है कि शब्द बोलते हैं पर भाव के बिना वे गूँज के बिखर जाते हैं. मन में टिकते नहीं. उस दिन दीपांश और शिमोर्ग ने ऐसे ही बिना भावों के दुःख बांटा, कुछ शब्द साझा किए, पर असहमति की दीवार बीच में खड़ी रही.

शिमोर्ग को लगता रहा कि इस समय इति के मामले को भूलकर दीपांश को, अपने दुःख पे काबू पाते हुए भविष्य के बारे में सोचना चाहिए. उसके कहने पर उसने सोचना चाहा पर मन ठिठक के लौट आया.

वह चली गई.

उसके बाद कहीं रुके हुए आँसू बह निकले- माँ के जाने के, इति को न ढूँढ़ पाने की बेबसी के, शिमोर्ग के उस पार से इस पार के दुःख को न देख पाने की सीमा के, पीछे छूटे पहाड़ के, बेबस होती कला और कलाकार के, न जाने किस किस चीज के आँसू जो अब तक रुके थे. सब बह निकले.

अगले दिन दीपांश सुबह बिना खाए-पिए ही कमरे से निकल गया था. दोपहर होते-होते एक बार फिर हर उस ठिकाने पे हो आया था जहाँ इति की कोई खबर मिल सकती थी. सीधे-सीधे उसकी कोई खबर नहीं मिली थी पर एक ऐसे रिकॉर्डिंग स्टूडियो के बारे में पता चला था जहाँ बैक ग्राउंड म्युसिक की रिकॉर्डिंग और मिक्सिंग के लिए उसे जाना पड़ता था. यह साकेत के ‘एम’ ब्लॉक की एक कोठी के थर्ड फ्लोर पर था.

लगा शायद यहीं कुछ पता चले.

दीपांश ने साकेत ‘एम’ ब्लॉक पहुँचकर ऑटो बाहर सड़क पर ही छोड़ दिया और पैदल ही लेन में बढ़ गया. नंबर क्रम से घट रहा था. दो-चार प्लाट छोड़ कर वह नंबर भी सामने आ गया. बाहर का दरवाज़ा खुला हुआ था. दाहिने हाथ पर सीढियां थीं जो ऊपर जाती थीं. उन्हीं पर एक तीर के निशान के साथ स्टूडियो का नाम लिखा था ‘ऑडियो एटिक’. वह तेज़ी से सीढ़ियाँ चढ़ गया. तीसरे माले पर पहुँचते ही सामने एक रिसेप्शन जैसी व्यवस्था दिखाई दे रही थी पर वहाँ कोई नहीं था. तभी उसे ध्यान आया उस दिन रविवार था, शायद स्टाफ़ छुट्टी पर रहता हो. पर तभी लगा भीतर से किसी के बात करने की आवाज़ आ रही थी. जिसे सुनकर वह ठिठक गया था. वह उस आवाज़ को अच्छे से पहचानता था. यह सेतिया की आवाज़ थी. दूसरा स्वर किसी स्त्री का था. जो थोड़ा धीमा था. वह कुछ परिचित होते हुए भी इति की आवाज़ नहीं लग रही थी. सेतिया की आवाज़ सुनके उसे थोड़ा आश्चर्य हुआ था क्योंकि उसे विश्वमोहन ने बताया था कि वह सुबह की फ्लाईट से मुंबई जा रहा था.

‘फिर ये यहाँ क्या कर रहा है?’

तभी ध्यान आया रमाकांत ने सेतिया और भसीन की पार्टनरशिप में खुले किसी रिकॉर्डिंग स्टूडियो का जिक्र किया था. तो क्या ये वही स्टूडियो था. यही सोचते हुए उसने जहाँ से आवाज़ आ रही थी वही दरवाज़ा खटखटाया. दरवाज़ा नहीं खुला. वह दोबारा खटखटाकर इत्मीनान से रिसेप्शन पर पड़े सोफे पर बैठ गया.

कुछ देर बाद दरवाज़ा खुला. सेतिया कमरे से बाहर निकला. दीपांश को वहाँ देखकर उसके चहरे पर गुस्सा और आश्चर्य दोनों एक साथ प्रकट हुए. पर यकायक वह कुछ बोल नहीं सका. उसके चेहरे से लग रहा था कि अभी सोके उठा है.

अगले ही पल उसने अपनी बौखलाहट दबाते हुए कहा, ‘तुम मेरा पीछा कर रहे हो?’

दीपांश ने सपाट और सीधा उत्तर दिया, ‘मैं इति को ढूँढ़ रहा हूँ.’

‘पर वह यहाँ इस तरह मेरे इर्द-गिर्द ही मिलेगी, तुम्हें ऐसा क्यूँ लगता है?’ इस बार वह गुस्से में कुछ हकला गया था.

‘मुझे किसी ने बताया कि वह रिकॉर्डिंग के काम से यहाँ आया करती थी.’

‘हाँ जब काम करती थी तब आती थी. और वैसे भी आज स्टूडियो बंद है.’ सेतिया ने इस बार आवाज़ को सामान्य करते हुए कहा.

‘फिर भी में एक बार अंदर देखना चाहता हूँ.’ दीपांश ने आवाज़ को सख्त और थोड़ा ऊँचा करते हुए कहा. वह जैसे दीवारों के आर-पार देख लेना चाहता था.

‘अब तुम अपनी हद पार कर रहे हो, तुम ऐसे कभी भी, कहीं भी घुस जाओगे, उसे ढूँढने के लिए’ इस बार सेतिया की आवाज़ में एक कंपन था.

दीपांश बिना कुछ कहे कॉरीडोर में आगे रिकॉर्डिंग रूम की तरफ बढ़ा. सेतिया ने उसकी बाँह पकड़ के रोकते हुए कहा, ‘मैं तुम्हारा कैरियर ख़त्म कर सकता हूँ.’

दीपांश ने हाथ झटककर आगे बढ़ते हुए कहा, ‘मुझे परवाह नहीं.’

सेतिया ने इस बार आवाज़ इतनी ऊँची की कि नीचे-ऊपर वाले भी सुन सकें, ‘तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है.’ शायद उसे लग गया था कि वह ऐसे यहाँ से जाएगा नहीं.

तभी सामने के जिस कमरे से सेतिया बाहर आया था उसका दरवाज़ा खुला. दीपांश को लगा इति ठीक वहीं उसी कमरे में हो सकती है.

पर आँखे जो देखना चाहती हैं समय कई बार उसके उलट ही दिखा देता है.

जो देखा, वो अप्रत्याशित था. जो सहसा प्रकट हो गया, सेतिया उसी को छुपाने के लिए उलझ रहा था- सामने शिमोर्ग खड़ी थी. जबड़े कस गए, गला सूख गया, मुँह से कुछ भी नहीं निकला. फिर भी वह अपनी तसल्ली के लिए कमरे में घुसा, चारों तरफ नज़र दौड़ाई और फिर उन्हें वहीं खड़ा छोड़ के बिना उनकी तरफ देखे सीढ़ियाँ उतर गया. न सेतिया ने कुछ कहा, न शिमोर्ग ने. कमरे में तो क्या पूरे फ्लोर पर सेतिया और शिमोर्ग के अलावा कोई नहीं था. सेतिया जो सुबह की फ्लाईट से मुंबई जाने वाला था. शिमोर्ग जिसे तबियत खराब होने के कारण आज रिहर्शल पर नहीं पहुँचना था.

लेन से बाहर आते-आते लगा किसी ने सीने पर कई मन बोझ रख दिया है. साँस फूल रही है. वाहनों की आवाज़ कानों के पर्दे फाड़ रही है. शरीर का पानी भाप बनके उड़ रहा है. जीभ तालू से चिपक गई है. भीषण प्यास लगी है. सुबह से खाली आँतें ऐंठी जा रही हैं. आँखों के आगे धुंधलका छा रहा है. पैर सीधे नहीं पड़ रहे हैं. मेन रोड की बजाय वह ‘एम’ ब्लॉक के मार्केट में आ गया है. चारों तरफ दुकानें ही दुकानें हैं. दुकानों के बहार पुतले ही पुतले हैं. रंग-बिरंगे कीमती सामानों से लदे पुतले. दुकानों से बाहर चलते हुए वह कभी पुतलों से तो कभी इंसानों से टकरा रहा है. वह उनमें भेद नहीं कर पा रहा है. सामने अनगिनत रंगों वाली रोशनी से जगमाते साइन बोर्ड चमक रहे हैं. इतनी रोशनी है कि ठीक-ठीक कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है. चलते-चलते फुटपाथ ख़त्म हो गया. सामने रंगीन दीवार आ गई. दीवार पर एक बड़ी बोतल और छलकते प्याले बने हैं. दीवार में एक दरवाज़ा है जिसमें लाल छोटे-छोटे टिमटिमाते बल्बों से ‘हैप्पी आवर्स’ लिखा है.

भीतर नीले रंग की रोशनी है. ठंडी हवा है. शोर की जगह संगीत है. इशारों पर हुक्म बजाते, पुतलों से मुस्कराते वेटर हैं. उससे भी ऑर्डर लिया जा रहा है. बोलने की कोशिश करते हुए लगा सिर को टेबल पर दे मारे. कहीं, किसी के मोबाइल की घंटी बज रही है. उसी के मोबाइल की घंटी बज रही है. वेटर सामने विह्स्की, सोडा, पानी, बर्फ करीने से सजा रहा है. उसके हाथों में सफ़ेद दस्ताने हैं. वह हर चीज़ को छूकर भी किसी चीज़ को कभी नहीं छूता. वेटर मुस्करा रहा है. वह भी मुस्करा रहा है. वह प्यासा है, पानी पी रहा है. नहीं विह्स्की पी रहा है. नहीं बिना पानी के विह्स्की पी रहा है. नहीं पानी की तरह विह्स्की पी रहा है. हर घूँट आग की तरह भीतर उतर रहा है. भीतर धीरे-धीरे कुछ खदबदा रहा है.

फोन फिर बज रहा है. शिमोर्ग का नाम चमक रहा है.

न चाहते हुए भी उसने फोन उठा लिया. शिमोर्ग की आवाज़ बहुत दूर से आती लग रही थी- ‘देखो तुम गलत समझ रहे हो. जो तुम समझ रहे हो वो पूरा सच नहीं है.’

इस तरफ गहरा सन्नाटा है.

‘....ठीक है मैं सेतिया के साथ थी, पर उससे हमारे बीच कुछ नहीं बदलेगा. हम पहले की तरह रहेंगे. सब पहले की तरह रहेगा.’

अब भी यहाँ कोई आवाज़ नहीं है.

‘दीपांश तुम सुन रहे हो न? हमारे सामने इतना बड़ा शो है. जिंदगी की पहली फ़िल्म है. हम वैसे ही काम कर सकेंगे....’

संगीत शोर में बदल गया. संपर्क विरल होते-होते टूट गया. फोन कट गया.

पलकें भारी हो रही हैं. आँखें बंद हो रही हैं.

वह पूर्वाभास या नियति जैसी किसी चीज को नहीं मानता. माँ कहती थीं, ‘जीवन गुण, कर्म और संजोग से मिलके बनता है.’ किसी का, किसी समय, किसी स्थान पर होना महज संजोग ही है! अनिश्चितताओं और संजोगों से भरी पड़ी है दुनिया. क्या इन्हीं संजोगों का खेल है ज़िन्दगी. यही सब सोचते हुए दीपांश अतीत के किसी बेहद निजी क्षण में पहुँचकर, स्पर्श के किसी अदृश्य सुख को जिससे तृष्णा नहीं संतोष उपजता है, टटोलने की कोशिश करने लगा पर हाथ बड़े से शून्य में घूमकर वापस लौट आए.

लगा जैसे अब तक जिया जीवन एक फ़िल्म थी जिसके सारे दृश्य आभासीय थे. सब बार-बार बनते, बिगड़ते, टूटते, छार-छार होते, उसके सामने एक दूसरे में मिले जा रहे थे. स्मृतियाँ धुनी हुई रुई के मानिंद हवा में उड़ रही थीं। किसी अंजाम तक पहुँचना उसके जीवन में मानो था ही नहीं। जो नहीं है क्यों रह रह के उसी की चाहना होती है? क्यों जो सबसे निकट होता है, अन्तस में वही कील-सा गड़ जाता है? नाटक में प्रेम के हाज़ारों बार दोहराए गए आत्मीय संवाद कानों में गूँज रहे थे. सैकड़ों प्रेम में रंगे मुखौटे उसके चारों ओर घूम घूमकर अट्ठाहास कर रहे थे। उनकी मासूमियत उतर रही थी। उन पर हज़ारों एषणाएं उभर रही थीं। वे क्रूर हो रहे थे। वे उसकी छाती पर पाँव रखकर आगे बढ़ रहे थे...

दीपांश ने ज़ोर से सिर झटका।

वह इस सब को दिमाग से निकाल देना चाहता था। अब दुनिया के फ़रेब उसके लिए नए नहीं थे। मन कहता भूल जाओ पर एक ही प्रश्न रह रहके झिंझोड़ रहा था-‘अगर यही सब करना था तो कहा होता। वह तो पहले भी इस्तेमाल होता रहा, सब कभी न कभी, कहीं न कहीं इस्तेमाल होते हैं, किसी की दुर्दान्त इच्छाओं के शिकार होते हैं। पर इस सबके लिए छ्द्म, छल, झूठ. कोई अपना बहुत करीबी कुछ मांग ले, अपने मन की कहके चोट पहुंचा ले, तब शायद इतना बुरा न लगे। अपनो की महत्वाकांक्षाओं के लिए, उनकी इच्छाओं के लिए, उनकी सफलताओं के लिए वह तो ख़ुद राह बना देता पर जो हुआ, जिस तरह हुआ उसने भीतर बनते-बनते फिर कुछ तोड़ दिया जिसकी किरचें रह-रह के सीने में चुभ रही थीं. वह फिर से उसी खोल में सिमट रहा था. डूब रहा था. बाहर से आती आवाजें सुनाई देनी बंद हो गई थीं...

तभी लगा किसी ने उससे कुछ कहा. बोझिल पलकें उठा के देखा तो सामने कोई नहीं दिखा. किसी ने बाँई ओर से पास आते हुए कहा, ‘आप यहाँ! यहाँ तो आपको पहली बार देख रही हूँ.’

‘............’

‘मैं रेबेका.., पहचाना नहीं? दो बार रिहर्शल देखने गई पर आप वहाँ मिले ही नहीं.’

‘जी वो मैं गया नहीं, इन दिनों..’ दीपांश ने अपनी याददाश्त पर जोर डालते हुए फिर से देखा. वह उसकी तरफ हल्की सी झुकी हुई खड़ी थी. नीली रोशनी में उसका चेहरा साफ़ नहीं दिखा पर भंगिमा याद आई, किसी प्राचीन प्रतिमा-सी. एक लम्बी साँस खींचते हुए बोला, ‘जी याद आया, अभी कुछ दिन पहले आप रिहर्शल के बाद मिली थीं. वो क्या..’

‘जी वॉयलिन बजाते हुए देखना चाहती थी.’

‘जी...’

‘क्या मैं बैठ सकती हूँ?’

‘हाँ.., बैठिए..’ दीपांश ने इस बार उसके गेहूँए रंग पर बड़ी-बड़ी काली आँखों वाले गोल चेहरे को ध्यान से देखा.

‘देखिए मैं आपको डिस्टर्ब नहीं करना चाहती पर आप कुछ परेशान लग रहे थे इसलिए सोचा पूँछू आप ठीक तो हैं न?’ उसने टेबल पर कोहनियाँ टिकाते हुए कहा.

‘हाँ.., मैं अब ठीक हूँ.’ दीपांश ने माथे पर हाथ फिराके बालों को कुछ ऐसे पीछे किया जैसे किसी सुरंग से बाहर निकला हो.

‘मैं जानती हूँ आप मुझे नहीं बताएंगे पर मैं बहुत देर से आपको देख रही थी. किसी का इंतज़ार कर रहे हैं?’ उसने हल्की-सी मुस्कान बिखेरते हुए कहा.

‘नहीं, मैं किसी के बारे में कुछ पता करते हुए यहाँ तक आ गया.’ दीपांश ने अपनी बोझिल पलकों को पूरी ताक़त से ऊपर उठाते हुए कहा.

‘आपके चेहरे से लगता है आपका कुछ खो गया है.’ उसने दीपांश की आँखों में देखते हुए कहा.

इस बार दीपांश के चेहरे पर ऐसी मुस्कान तैर गई जिसमें हँसने की कोशिश में कोई चीरता हुआ दुख छलक पड़ता है, खालिस दुख.

उसने अपने कंधे आगे की ओर झुकाते हुए पूछा, ‘आप इति को ढूँढ़ रहे हैं?’

इस सीधे सवाल से दीपांश का आधा नशा उतर गया. उसने गहरे आश्चर्य से उसे देखा.

लड़की ने चेहरे पर आश्वस्ति के भाव लाते हुए कहा, ‘चौंकिए मत. मैं जब दूसरी बार आपके प्ले की रिहर्शल देखने गई तो आपके ग्रुप के सभी लोग बहुत परेशान थे. तभी मुझे पता चला. मैं उसकी माँ जो उस समय आपके ग्रुप के किसी सीनियर आर्टिस्ट के साथ वहाँ आई थीं, से भी मिली.’ उसके बाद उसने बहुत दृढ़ता से कहा, ‘मैं सचमुच आपकी मदद कर सकती हूँ.’

‘कैसे?’ लड़की का आत्मविश्वास देखके दीपांश के चेहरे का आश्चर्य और बढ़ गया था.

‘आप इति का कोई हाल का फोटो, वह इस समय किस मॉडल का मोबाइल इस्तेमाल कर रही थी और किस इलाके में रहती थी बस इतनी जानकारी मुझे दे दीजिए’ उसके बाद मैं बताती हूँ.

दीपांश ने अपनी शर्ट की जेब से इति की फोटो और एक पर्ची पर लिखे उसके पते को निकाल के उसके सामने रखते हुए कहा, ‘उसका मोबाइल नंबर तो है मेरे पास, पर मॉडल किस लिए?’

उसका चेहरा कठोर हो गया और आवाज़ भी पहले जैसी सुरीली नहीं रही, ‘जवान और सुंदर लड़की और नया और महंगा मोबाइल मिसिंग होने के बाद बहुत जल्दी ही अपने-अपने तरह के चोर बाज़ारों में सजा दिए जाते हैं...., और हाँ, लड़की का असली नाम और मोबाइल का सिम इनके खो जाने के तुरंत बाद ही बदल दिया जाता है. इसलिए उनकी अब कोई ज़रूरत नहीं.’

दीपांश ने दिमाग पर जोर डाला तो याद आया अभी दो महीने पहले इति के जन्मदिन पर सबने मिलकर उसे नया मोबाइल गिफ्ट किया था. थोड़ा सोचने पर मॉडल भी याद आ गया. पर उसने अपनी याददाश्त पर हलके से संदेह के साथ उसे यह जानकारी दी.

जवाब में वह हल्के से मुस्कराई और उसने टेबिल से इति की फोटो उठा ली.

दीपांश को लगा जैसे वह लड़की कोई और है और वह किसी और का अभिनय कर रही है और वह उसके सामने एक अबोध दर्शक-सा हतप्रभ बैठा है.

उसने टेबिल से उठते हुए कहा, ‘अभी आप जाइए, यहाँ बहुत देर आपका बैठना ठीक नहीं.’

दीपांश ने बिल चुकाने के लिए काउंटर की तरफ देखा जिसपर उसने हल्का-सा उसकी ओर झुकते हुए कहा ‘रहने दीजिए, आज आप हमारे मेहमान हैं.’

दीपांश ने थोड़े संकोच के साथ पूछा, ‘आपके मेहमान, आप यहीं काम करती हैं क्या?’

‘जी ऐसा ही समझ लीजिए.’ वह मुस्कराती हुई टेबल से दूर चली गई.

***

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