डॉमनिक की वापसी
(17)
विश्वमोहन ने शो की तैयारियों में कोई कसर नहीं उठा रखी थी. साथ ही फ़िल्म की स्क्रिप्ट और कास्ट भी फाइनल हो चुके थे, पर लोकेशन ढूँढने का काम अभी फिलहाल रोक दिया गया था. क्योंकि फ़िल्म का फ्लोर पर जाना नाटक के इस विशेष मंचन के हो जाने तक टल गया था. उधर इति और सेतिया के बीच का तनाव कम करने के लिए इति से रमाकांत ने और सेतिया से विश्वमोहन और शिमोर्ग ने बात की थी. किसी तरह दोनों को समझाकर, बात को ग्रुप के भीतर ही सुलझा लिया गया था. लगता था अब सब ठीक हो जाएगा. इति उसके बाद दो एक दिन में ही अपने काम में लग गई थी. सेतिया का व्यवहार भी पहले से कुछ सधा हुआ लग रहा था. इस समय सबका ध्यान शो की तैयारियों पर ही था, महीने भर पहले से ही बैनर- पोस्टर शहर में जगह-जगह लग चुके थे.
पेड़ों के झरते पत्तों से बदलते मौसम का आभास होने लगा था, पर दिन में धूप अभी भी तेज़ लगती थी. दिल्ली इन दिनों में तमाम भीड़-भाड़ के बाद भी उड़ते हुए सूखे पत्तों कि वजह से थोड़ी उजड़ी और उदास लगती थी. ये उदासी शाम होते होते और गहरा जाती. कितने दिनों के बाद दीपांश रिहर्शल ख़त्म होने पर अकेला ही चौराहे के पास उसी पीपल के नीचे बैठा था, जहाँ से थिएटर की दुनिया कि पहली थाप सुनी थी और उठके चल दिया था. इस बीच कितना कुछ बदल गया था. आते-जाते लोगों में से कोई अचानक ही दीपांश को पहचान लेता. कोई रुकता, मुस्कराता, हाथ मिलाता. कोई दूर से देख कर ही अपने साथ चलते किसी से कुछ कहता और वह उसे मुड़के देखता हुआ आगे बढ़ जाता. इन दिनों में दीपांश का चेहरा शहर में एक पहचान पा चुका था.
इस बीच उसके भीतर का रीता घड़ा भी जैसे बूँद-बूँद भरना शुरू हुआ था, लगता था कुछ फिर से जुड़ना, नया बनना शुरू हुआ है पर अब भी कभी-कभी एक अदृश्य खोल उसे ढक लेता और वह आस-पास की दुनिया से अलग हो, उस खोल में ख़ुद को बिलकुल अकेला पाता. आज भी वह खोल रह रहके उसे अपने भीतर समेट रहा था. लग रहा था इसी पीपल से शुरू हुई दिल्ली की इस यात्रा का एक चक्र पूरा हो गया है. अब कुछ दिनों अपने में सिमट कर ऊंघते हुए सुस्ता लेने का मन था. पर वह जानता था यह शहर सबको ऊंघने, सुस्ताने की मोहलत नहीं देता.
दीपांश आज भी पक्षियों का कलरव सुन, सर उठाकर पेड़ के विरल हो चले पत्तों के बीच कुछ ढूँढ़ रहा था. तभी ख्याल आया दो दिन से सुधीन्द्र से बात नहीं हुई. उसी के फोन से माँ की खबर मिला करती थी. वह हर दूसरे-तीसरे दिन बाजार करने उतरता तो बस अड्डे से फोन कर लिया करता. तब तक ‘आप जहाँ भी जाएं, नेटवर्क आपका साथ देगा’ वाले मोबाइल कंपनियों के नारे ने पहाड़ी गाँवों में अपना असर नहीं दिखाया था. इस बीच सिर्फ़ एक बार ही घर जा पाया था. इस बदलते मौसम में हर साल ही माँ की तबियत बिगड़ जाया करती थी. सोचा आज ही चिट्ठी लिखेगा. उन्हें आश्वस्त कर देगा कि शो के तुरंत बाद, उनके पास आएगा. इस बार उनकी एक नहीं सुनेगा. हर हाल में उन्हें अपने साथ लेकर आएगा. अब पैसे की तंगी नहीं. रहने कि जगह भी ठीक-ठाक है. सर्दी बढ़े उससे पहले ही उन्हें यहाँ लाकर किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाकर, उनकी सारी जांचें करा लेनी हैं. नहीं तो सर्दियों में पिछली बार की तरह खांसी फिर जकड़ लेगी. यहाँ इलाज भी सही हो सकेगा.
फिर अपने में गहरे कहीं डूबे शहर और गाँव के बीच खिचे अदृश्य तार को टटोलने लगा. हालांकि अब वह शहर के भूगोल से भी पहले जैसा अपरिचित नहीं था. पर अभी भी यहाँ उसकी बातें लोगों को उलझा दिया करती थीं. शायद इसीलिए लगता था कि शहर को उसने और उसे शहर ने जैसे पूरी तरह गले नहीं लगाया है. रह रहके दोनों एक दूसरे को छूते थे फिर छिटक जाते थे. ऐसे में वह कई बार शहर के किसी भी कोने में होते हुए भी शायद किसी पहाड़ की पगडंडी पर ही भटक रहा होता था और तब सामने का दृश्य उपस्थित होकर भी अनुपस्थित ही होता था...
....जैसे अभी सामने की टी-स्टॉल पर खड़ी दो लड़कियां जो उसे ही देख रहीं थीं और उसे इसका भान भी नहीं था. उन्होंने आपस में बातें करते हुए उसे देखना जारी रखा. उसके बाद बगल की दुकान से सिगरेट खरीदने के बाद वे बिलकुल उसके पास आकर खड़ी हो गईं.
उनमें से एक ने थोड़ा झुकते हुए पूछा, ‘आप डॉमनिक! मेरा मतलब दीपांश हैं न?’ साथ ही साथ उसने सामने लटकते बैनर की ओर उँगली से इशारा किया.
हवा में फड़फड़ाते बैनर पर अपनी तस्वीर देखकर एक हँसी चेहरे पर फैल गई. उसने अपने खोल से बाहर निकलते हुए ‘हाँ’ में सिर हिलाया.
लड़की ने पहले से ज्यादा उत्साह से कहा, ‘मैं रेबेका हूँ, इस प्ले के कई शो देखे हैं, बहुत अच्छे एक्टर हैं आप.’
दीपांश ने अबकी बार उसे ध्यान से देखा. वह अभी भी थोड़ी झुकी हुई खड़ी थी. उसकी भंगिमा से उसे वह किसी प्राचीन प्रतिमा सी लगी. उसने मुस्कराते हुए कहा ‘शुक्रिया’
लड़की ने थोड़ा झिझकते हुए पूछा, ‘आप बुरा ना माने तो एक बात पूछना चाहती हूँ.’
दीपांश ने खड़े होते हुए कहा, ‘जी पूछिए.’
‘क्या आप सचमुच इतनी अच्छी वॉयलिन बजाते हैं या वो किसी और की बजाई हुई, मेरा मतलब प्रीरिकार्डेड होती है?’
‘आपको क्या लगता है?’
‘मुझे लगता है आप ख़ुद बजाते हैं.’
‘तब उसी को सही मानिए, वैसे मुझे वॉयलिन बजाना पसंद है, मैं वैसे भी कभी-कभी अपने लिए बजाता हूँ, आप कभी रिहर्शल के समय आके सुन सकती हैं.’
‘सच!’
‘जी अभी तो लगभग रोज ही शाम के ‘एलटीजी’ के पीछे लॉन में रिहर्शल चल रही है.’
‘मैं ज़रूर आऊँगी, आप पहचान लेंगे न?’
‘जी बिलकुल.’
‘वैसे मैं जानती थी आप खुद ही बजाते हैं..., इस प्ले का ये शो हम जरूर देखने वाले हैं’ फिर जैसे उसे याद आया हो कि उसके साथ कोई और भी है, ‘मेरे साथ ये भी, ये बीनू है.’
दीपांश कंधे उचका कर मुस्करा दिया. वे लड़कियां विदा लेकर आँखों से ओझल हो गईं.
तभी फोन की घंटी बजी.
सुधीन्द्र का ही फोन था, ‘देबू दो दिन से माँ की तबियत कुछ ज्यादा ही बिगड़ गई है. बहुत तेज़ खांसी है, कल रात बुखार भी था.’
‘कहीं दिखाया?’
‘हाँ यहीं गाँव में दिखाया, दवा से कुछ आराम भी लगा पर लगातार उनकी आँखें कुछ ढूँढती सी लगती हैं. पूछो तो कुछ कहती ही नहीं, अभी भी तुम्हें फोन करने को मना कर रही थीं’ सुधीन्द्र ने बताया.
दीपांश के आगे दो टकटकी लगाए आँखें स्थिर हो गईं. सोचा सुधीन्द्र से कुछ कहे पर इतना ही कह सका, ‘मैं आता हूँ.’ हालांकि जानता था कि इस समय उसके जाने की बात सुनकर सब परेशान हो जाएंगे. ऐसे में उसे एक रमाकांत से ही उम्मीद थी कि वह हालात को समझ के सब को समझा सकते हैं. सुबह निकलने से पहले रमाकांत, विश्वमोहन और शिमोर्ग से फोन पर ही बात हो सकी.
अभी घाटी से पहाड़ की चढ़ाई शुरू भी नहीं हुई थी कि पहाड़ों की हवा तेज़ी से बदली हुई जान पड़ती थी. दूर बुग्यालों पर तैरती बादलों की परतें जैसे बीते समय में मिले घावों पर फाहे रखती हुई चोटियों की ओर बढ़ रही थीं. उसने बचपन में सुना था ‘पहाड़ों में एक बड़ा चुम्बक होता है, उसी की ताक़त से वे अपनी ओर खींचते हैं.’ सचमुच जैसे कुछ खींचे लिए जा रहा था. सुधीन्द्र उसे लेने बस अड्डे आया था. आते ही माँ की तबियत से लेके गाँव-जिले और नए राज्य की राजधानी तक की तमाम बातें लगभग बिना रुके ही सुना डालीं. साथ ही यह भी बताया कि सरकार ने आंदोलन के दौरान जनता पर कायम किए गए तमाम मुक़दमे वापस ले लिए हैं सो अब वह बेझिझक गाँव आ-जा सकता है. जिनके परिवार के लोगों की इस दौरान किसी दुर्घटना में मौत हुई है उन्हें मुआवज़ा दिलवाने की बात भी कुछ संस्थाओं ने कही है.
उसे आग की लपटों में झुलसते पिताजी के हाथ याद आए. उन्हीं हाथों से बाहर फेकी जाती वह डायरी आँखों के सामने घूम गई. ‘क्या मुआवज़े से किसी का मरा हुआ बाप वापस आ सकता है, क्या किसी के मुँह पे पैसे फ़ेंक देने से सत्ता के सारे गुनाह माफ़ हो जाते हैं. माँ के अकेलेपन और बीमारी का क्या मुआवज़ा होगा? उनकी हाड़ तोड़ मेहनत से टूटे शरीर को पिताजी की मौत ने एक ऐसी ढलान पर ठेल दिया था जिसका अंतिम सिरा किसी को नहीं दीखता था. उसी माँ ने जो सबको पहाड़ छोड़ने से रोका करती थी उसे जबरदस्ती पहाड़ों से दूर भगा दिया था. कहती थीं, ‘तुम्हें बचा के ख़ुद को बचा लेना चाहती हूँ, इस देहरी के मोह में पहले ही सब कुछ गंवा दिया है, तू नहीं बचा तो कुछ नहीं बचेगा.’’
....जानता था उसके जाने के बाद माँ की हालत और बिगड़ेगी फिर क्यों उनकी बात मानकर चला गया था. अतीत में झांक के देखता तो लगता ‘सब निरे मूरख थे. ठगे गए चालाकों के हाथों. उन दिनों जैसे आँखों के सामने एक धुंध सी छाई रहती थी जो इन पेड़ों, पहाड़ों, नदियों, झरनों को अपना समझ के इन्हें बचाने के लिए जूझते रहते थे. बाद में पता चला उनका सौदा तो पहले ही पहाड़ों से दूर बैठी अदृश्य सत्ताएं कबका कर चुकी थीं, वे तो कबके इनकी बोलियाँ लगा चुके थे, उन्हें नीलाम कर चुके थे. राज्य बना, राजधानी बनी पर हाशिए तो हाशिए ही रहे. संघर्ष चाहे कोई भी करे पर सत्ता अंतत: समर्थ के हाथ में ही पहुँचती है.’
अब वे धीरे-धीरे पैदल ही सीधी चढ़ाई चढ़ रहे थे. अभी लगभग डेढ़ मील पैदल की चढ़ाई और थी. थोड़ा चलने पर बैग सुधीन्द्र ने अपने हाथ में ले लिया. वह सामान लेके भी तेज़ी से चल पा रहा था सो जल्दी से आगे बढ़ गया. दीपांश आधा मील चढ़ के एक मोड़ पे ठिठक गया. दाहिने हाथ पर हिमानी का घर था. अहाते के फाटक पर बड़ा-सा ताला पड़ा था. उसके नीचे एक टीन के टुकड़े पर किसी प्रोपर्टी डीलर का फोन नंबर लिखा था. मन किया घर के दूसरी ओर ढलान पर जाकर कुछ देर बैठ जाए, पर नहीं बैठा, वहाँ अतीत की खाली हवाओं के सिवा कुछ भी न था, पाँव रुके नहीं, ख़ुद व ख़ुद आगे बढ़ गए. थोड़ी ऊंचाई पर पहुँचा तो लगा हाँफ गया है.
उसे पीछे आते हुए न देखकर, सुधीन्द्र वापस लौट आया. फिर दोनों साथ-साथ आगे बढ़ चले. एक फर्लांग और बढ़े होंगे कि बिमला मौसी का लगभग खंडहर हो चुका घर दिखाई दिया. आँखों में उनका चाँदी का सरौंता चमक गया. सुधीन्द्र ने बताया कि लोग कहते हैं कि जल्दी ही उनके पति को रिहा कर दिया जाएगा. पर गाँव आने पर अब न उन्हें मौसी मिलेंगी और न अपना घर. दीपांश कुछ कहता उससे पहले ही उनके घर के कच्चे अहाते की जगह पक्की दुकानें बनती दिखाई दीं. सुधीन्द्र ने इशारा किया ऊपर से नीचे तक कई घरों पर इसी तरह कब्ज़े कर लिए गए हैं.
दीपांश को लगा उसने आने में बहुत देर कर दी. उसे यहाँ से हिलना ही नहीं चाहिए था. सोचा, ‘दरअसल वह किसी सत्ता के अदृश्य खतरे से नहीं, ख़ुद अपने आप से, अपने दर्द, अपनी हताशा से ही भाग रहा था.’ यह ख्याल उसके भीतर पहले भी था पर हिमानी के घर से गुज़रते हुए यह और पुख्ता हुआ था.
तभी दूर से पहाड़ी पर अकेला खड़ा उसका अपना कमरा चमका. अभी भी सीधा तना खड़ा था सारी स्मृतियों को अपने में समेटे. नीचे के तीन कमरों में से बीच वाले कमरे में बैठी, खिड़की से पगडंडी को ताकती माँ दूर से ही दिख रही थीं. कमज़ोर हो चुकी नज़र के बाद भी जैसे छाया देखके ही भाँप लिया हो, दीपांश की उपस्थिति को, अपने आप उठके दरवाज़े पे आ गईं. इन चन्द महीनों में माँ बहुत बूढ़ी और कमज़ोर लगने लगीं थीं. जैसे-तैसे अपना काम कर पाती थीं. ढलान के दूसरी ओर नीचे हाट में सुधीन्द्र ने रोजमर्रा के सामान की अपनी छोटी से दुकान खोल ली थी. दुकान पर जाने से पहले वह माँ की घर के कामों में भी मदद कर दिया करता था.
सामने पहुँचा तो आँखें स्नेह की चमक के साथ छलछला के बह गईं. सुधीन्द्र ने चुटकी ली, ‘रात-दिन देखभाल हमारे जिम्मे पर चेहरा देबू को देख के ही खिलता है.’ दीपांश के आने की ख़ुशी में सचमुच ही जैसे अपने दुःख, बीमारी सब भूल गईं.
दीपांश माँ के कमरे में ही सामान रखके बैठ गया, अपना और पिताजी का कमरा खोलने का मन नहीं किया और न ही हिम्मत पड़ी. बचपन की स्मृतियों में बचे घर की हवा में साँस लेते ही जैसे मन किसी आश्वस्ति से भरके शिथिल होने लगता है. खाना खाके सोया तो सीधे शाम को आँख खुली. लगा ऐसी गहरी नींद कई दिनी से नहीं आई थी. शाम को उठते ही ऊपर वाले कमरे में जिसमें अब सुधीन्द्र का डेरा था, पहुँच गया. एक कोने में दीवार में ठुकी एक कील पर अब भी ढपली झूल रही थी. सुधीन्द्र ने उसके आते ही खिड़की खोल दी. लाल आसमान में सूरज की लौ लपलपा के बुझा ही चाहती थी. घाटी में उतरती पगडंडियों पर कुछ चहल-पहल दिखाई दे रही थी.
सुधीन्द्र गर्दन खिड़की से बाहर निकालते हुए बोला, ‘किसी फ़िल्म की शूटिंग चल रही है. बम्बई से कोई बड़ा एक्टर आया है. कोई कपूर है. कहते हैं उसके दादा-परदादा भी तुम्हारी तरह नाटक किया करते थे. उनके नाम से बम्बई में आज भी एक बड़ी नाटक कंपनी है.’
दीपांश ने अलमारी में पड़ी किताबों की तरफ देखते हुए कहा, ‘यहाँ कबसे शूटिंग होने लगी?’
‘अरे ये यहाँ की शूटिंग नहीं है. ये गाँव हमारा गाँव नहीं है, कश्मीर का गाँव है. डोलची, घड़ा, बाल्टी कुछ पुराने कपडे हमारे यहाँ से भी मांग के ले गए हैं’
‘किसलिए?’
‘क्योंकि कश्मीर में रहने वाले किसान का घर सजाना है, इनका एक एजेंट है जो हमेशा इनके साथ रहता है. वही सब इन्तजाम करता है. एक दिन बाज़ार में हमें मिल गया तो पूछ रहा था एक्टिंग करोगे?’ मैंने पूछा ‘मैं! मैं ही क्यूँ?’ तो उसने कहा, ‘तुम्हारी शक्ल कश्मीरियों जैसी लगती है और तुम दुखी भी लगते हो.’ सुधीन्द्र ने बहुत भोलेपन से कहा.
दीपांश को दिल्ली में चलती फ़िल्म निर्माण की उठा-पटक याद आ गई. कुछ देर में अकेला ही घाटी की ओर उतर चला. आगे चलकर जिस पत्थर पर बैठा था वहाँ से डूबते सूरज की रोशनी में अपने पीले और सूखे खेत दिखाई दिए. वे बाल उतरी भेड़ों की तरह नंगे और कमज़ोर लग रहे थे. उनके किनारों पे घास और घनी झाड़ियों ने कब्ज़ा कर लिया था. सोचा वहाँ तक चले पर तब तक अँधेरा हो चुका था.
सुबह कुछ पुराने संगी-साथी इकट्ठे हुए. आस-पास के घरों की कुछ औरतें माँ के पास आके बैठीं और दीपांश को अशीषती रहीं. सभी ने एक सुर से यही कहा कि दीपांश सही कह रहा है उन्हें उसके साथ दिल्ली चले जाना चाहिए,.. और सुधीन्द्र ने भी इसे उनकी स्वीकृति मान के उनकी दिल्ली जाने की तैयारी शुरू कर दी. दोनों ने रात के खाने से पहले ही उनका सामान बांध के रख दिया. माँ उस रात बहुत निश्चिन्त और ख़ुश लग रही थीं. दीपांश को लगा शायद वह पिताजी के जाने के बाद से यही चाहती रही होंगी. पर तब तक तो शहर में उसी का कोई ठिकाना नहीं था. उसे लगा जैसे माँ के साथ आ जाने से उसका भी गाँव और शहर के बीच दो फांक हुआ मन एक हो सकेगा. यह सोचके उसे भी उस रात बहुत गहरी नींद आई. माँ भी उस रात एक बार नहीं खाँसीं.
सुबह हुई, साफ़ आसमान में चटक धूप खिली, पर माँ सोई ही रह गईं.
उन्होंने पहाड़ से नीचे न उतरने की बात आखिर तक मन से बांधे रखी.
अपने ही खेत में दाह दिया. चिटचिटाती लपटें माँ को लेके पहाड़ों की हवा में फैल गईं. धुएँ से आकाश ऊँचा होकर किसी गुम्बद-सा तन गया. माँ की टेर कितनी ही बार इन पहाड़ों-घाटियों में, इस आसमान के नीचे उसे बुलाने के लिए गूँजी थी. आज वही आवाज़ धीरे-धीरे आसमान से झर रही थी. हवा माँ को उड़ाए लिए जा रही थी. गाल पर ढलक आई एक बूँद से लगा, वह रो रहा है. पर उसकी आँखें तो कबसे सूखी थीं. उनकी नमी लपटों में भाप बन गई थी.
दुःख बांटने के लिए छायाओं की तरह लोग आए, बैठे, चले गए. पर दुःख ढीठ था वहीं खड़ा रहा जस का तस.
चौथे दिन घर सुधीन्द्र को सौंप कर दिल्ली वापस चला आया.
गाँव से बंधी डोर कट गई.
***