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परिणीता - 8

परिणीता

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

(8)

लगभग तीन माह बाद, गुरुचरण बाबू मलिन मुख नवीन बाबू के यहाँ आकर फर्श पर बैठने ही वाले थे कि नवीन बाबू ने बड़े जोर से डांटकर कहा- ‘न न,न, यहाँ पर नहीं, उघर उस चौकी पर जाकर बैठो। मैं इस कुसमय में नहीं नहा धो सकता-तुमने जाति बदली है-यह सत्य है न?’

क्षुब्ध होकर गुरुचरण बाबू एक दूर की चौकी पर जाकर बैठे। कुछ देर वे मस्तक झुकाए बैठे रहे। अभी चार दिन पहले की बात है, उन्होंने विधिवत् ब्रह्मसमाज को ग्रहण कर लिया है। अब वह ब्रह्मसमाजी हो गए हैं- यह खबर आज ही नवीन राय को मिली है। अब उन्हें बंगाली समाज मैं बैठने का कोर्इ अधिकार नहीं है। सामने गुरुचरण बाबू को बैठे हुए देखकर नवीन राय की आँखों से गरम लपटें निकलने लगीं, परंतु गुरुचरण बाबू एक अपराधी की तरह मौन बैठे रहे। किसी सलाह-सूत के बिना ही वे ब्रह्मसमाजी हो गण थे, परंतु उसी समय से घरेलू परेशानियां बढ़ं गर्इ तथा रोना-चिल्लाना मचा रहता था। घर का कोना-कोना अशांत था। इस अशांति के कारण वह बड़े ही दुःखी थे।

नवीनराय ने फिर उद्दण्ड भाव से पूछा- ‘कहो यह सत्य है न कि तुम ब्रह्मसमाजी हो गए हो?’

‘यह घृणित कार्य तुमने किया क्यों? तुम तो केवल साठ रूपए तनख्वाह पाते हो, फिर क्यों?’ – गुस्से के मारे नवीनराय की जबान से बोल न निकला।

रोते हुए बड़े नम्रं स्वर में गुरुचरण बाबू ने जवाब दिया- ‘दादा, क्या कहें, बुद्धि भ्रष्ट हो गर्इ थी। दुःख में कुछ न दिखार्इ दिया। मैं यह न सोच सका कि गले में फांसी लगा लूं या फिर ब्रह्मसमाज में मिल जाऊं। अंत में ब्रह्मसमाजी हो जाना ही ठीक समझ में आया। इसीलिए मैंने यह ब्रह्मसमाज स्वीकार कर लिया।’

नवीनराय ने बड़े जोर से चिल्लाकर कहा- ‘बहुत अच्छा किया। अपने गले में फांसी न लगाकर सारे धर्म ओर समाज को फांसी लगा दी। वाह रे वाह! अच्छा, अब तुम यहाँ से चले जाओ और यह काला मुंह कभी भी यहाँ न दिखाना। जो तुम्हारे सलाहकार हैं, उन्हीं के पास जाकर उठो बैठो। यह सब सुनकर गुरुचरण बाबू वहाँ से चले गए, परंतु नवीनराय मारे क्रोध के कुछ भी नहीं सोच सके कि क्या करें और क्या न करें। गुरुचरण बाबू के भी अब वहाँ आने की कोर्इ सम्भावना न थी।

गुरुचरण बाबू पर नाराज होने, झुंझलाने तथा बकने के सिवा नवीनराय कर ही क्या सकते थे। झट उन्होंने राज को बुलाया और घर में आने-जाने वाले ऊपर के रास्ते बंद करा दिये। उस रास्ते को बंद करके उन्होंने अपने क्रोध की शांति की।

बहुत दूर परदेश में बैठी हुर्इ भुवनेश्वरी को यह हाल मालूम हुआ तो वह फूट-फूटकर रोने लगीं- ‘शेखर, भला ऐसा करने को किसने उन्हों समझाया?’

अनुमान से शेखर समझ लिया कि यह राय किसने दी है, परंतु वह बात न कहकर उसने कहा- ‘माँ, हो सकता था कि तुम लोग स्वयं ही उन्हें थोड़े दिन बाद अलग कर देते। समाज में उनकी छाया ही न पड़ने देते। कर्इ कन्याओं की शादी कैसे कर सकते वह, समय पर? आखिर इसका तो कोर्इ रास्ता मेरी समझ नहीं आता?’

गर्दन हिलाते हुए भुवनेश्वरी ने कहा- ‘बेटा, कुछ भी काम रुका न रह जाता। ऐसी हालात में गुरुचरण बाबू का पहले ही से ही धर्म छोड़ बैठना नादानी है या अक्लमंदी? यदि घबड़ाकर लोग अपने धर्म को छोड़ने पर तुल जाएं, तो हजारों लोग अपना समाज, धर्म छोड़ बैठें। भगवान ने पैदा किया है तो वही पालते हैं और सब कार्य पूरा करते हैं। वही भगवान गुरुचरण बाबू की भी रक्षा करते, काम बनाते!’

शेखर चुप रहा। गीली आँखें पोंछकर भुवनेश्वरी ने कहा- ‘यदि ललिता बिटिया को ही साथ ले आती, तो किसी-न-किसी प्रकार से उसका उपकार कर देती। हो सकता है कि इसी इरादे से गुरुचरण बाबू ने उसे मेरे साथ नहीं भेजा। मुझे तो यही पता था कि उसकी शादी की सचमुच तैयारी है।’

शेखर ने लज्जापूर्वक भुवनेश्वरी की तरफ देखकर कहा- ‘अच्छा है माँ, घर वापस चलकर इस कार्य को ऐसा ही करो न। ललिता तो अभी ब्रह्मसमाजी नहीं हुर्इ है, केवल उसके मामा ही तो हुए हैं। उसके सगे मामा भी नहीं हैं। ललिता का कोर्इ सगा नहीं है, इसी कारण वह उनकी शरण में पड़ी है।’

खूब सोच-सझकर भुवनेश्वरी बोलीं- ‘यह तो ठीक है; पर तुम्हारे पिताजी अजीब ढंग के व्यक्ति हैं, वे बड़े ही हठी आदमी हैं। किसी तरह से भी ऐसा करने को तैयार न होंगे। शायद उन लोगों से मिलने भी न देंगे।’

यही विचार शेखर के मन में भी बार-बार उठ रहे थे। वह माँ की बातों का कोई उतर न देकर, चुपचाप बैठा सुनता रहा और मन-ही-मन सोचता रहा।

शेखर अब परदेश में एक मिनट भी नहीं रहना चाहता था। बड़ी बेचैनी और परेशानी में वह दो-तीन दिन इधर-उधर घूमता रहा। फिर उसने मां से कहा- ‘यहाँ पर जी नहीं लगता माँ! चलो, घर चलें।’

उसी दिन वह घर लौटने को तैयार हो गई और कहने लगीं- ‘मुझे भी अछा नहीं लगता।’ कलकत्ता वापस आने पर दोनों ने देखा कि छत से आने-जाने वाला रास्ता बंध कर दिया गाय है। गुरूचरण बाबू से कोई भी नाता-रिश्ता करना नवीनराय को भला न लगेगा, यहाँ तक कि बोलना भी बुरा लगेगा, यह बात वे दोनों तुरंत ताड़ गए।

रात के समय जब शेखर खाने बैठा, तब माँ भी आकर उसके पास बैठ गई। कुछ देर बाद वह बोलीं - ‘गिरीन्द्र के साथ ही ललिता की शादी तय हो रही है, यह मैं पहले ही समझ गई थी।’

सिर नीचा किए हुए ही शेखर ने पूछा - ‘किसने कहा?’

भुवनेश्वरी- ‘उसकी मामी ही कह रही थी, और कौन कहता। दोपहर के समय जब वह सो गए थे, तो मैं स्वयं मिलने गई थी। मारे दुःख के उसकी मामी ने अपनी आँखें लाल कर लीं। थोड़ी देर बाद अपने आँसू पोंछकर सब कुछ कह गई।’ उन्होंने ही कहा- ‘यही तकदीर का खेल है, शेखर! किसको दोषी ठहराया जाए। कुछ बी सही, पर गिरीन्द्र भी एक भला लड़का है, नम्र स्वभाव वाला है। उसके यहाँ ललिता को किसी प्रकार का कष्ट न होगा। वह धनवान भी है।’ यह कहकर वह चुप हो गई।

उत्तर में न तो शेखर कुछ कह ही सका और न सामने रखी हुई थाली से उठाकर खा ही सका। थोड़ी देर बाद माँ वहाँ से उठकर चली गई और शेखर भी बिना खाए-पीए उठ गया। हाथ-मुंह धोखर वह अपने बिछौने पर जा पड़ा।

दूसरे दिन संध्या-समय शेखर टहलने निकला। उस वक्त गुरुचरण बाबू के यहाँ पहले की तरह चाय उड़ रही थी, हंसी-मजाक, हो रहा था। वहाँ की बातें सुनकर शेखर कुछ देर रुक गया, फिर न जाने क्या सोचकर, वह धीरे-धीरे गुरुचरण बाबू के कमरे में आकर खड़ा हो गया। उसके आते ही वहाँ सन्नाटा छा गया शेखर के मुख के भाव देखर सभी लोगों के भाव बदल गए।

शेखर के परदेश से आने की खबर ललिता के सिवा और किसी को न थी। आज पड़कर वह शेखर की और दखने लगे। गिरीन्द्र का चेहरा गंभीरता में और भी परिणत हो गया, वह दीवार की तरफ देखने लगा। गुरुचरण बाबू ही उस समय ज्यादा जोर से बातें कर रहे थे। शेखर को देखर उनका चहेरा पीला हो गया। उसके निकट बैठी ललिता चाय तैयार कर रही थी। उसने मुंह उठाकर देखा और नीचा कर लिया।

आगे बढ़कर शेखर ने चौकी पर सिर झुककर नमस्कार किया और वहीं पर एक ओर बैठकर हंसते-हंसते कहने लगा- ‘एकाए सभी लोग चुप क्यों हो गए?’

गुरुचरण बाबू ने धीमे स्वर में आशीर्वाद दिया, आशीर्वाद में उन्होंने क्या कहा – सुनाई नहीं पड़ा ।

शेखर गुरुचरण बाबू के विचारों को ताड़ गया। इसी कारण उसने बीच में ही अपनी बात छेड़ दी। वह सारी कथा-परदेश से वापस आने की, माँ के स्वास्थ्य की तथा अन्य तमाम बातें कहने लगा। फिर अपरिचित व्यक्ति की ओर देखा।

गुरुचरण बाबू इस बीच काफी सतर्क हो चुके थे। उन्होंने उस लड़के के परिचय में कहा - ‘यह गिरीन्द्र बाबू के मित्र हैं। इन लोगों के घर एक ही स्थान पर हैं। बड़े ही भले आदमी हैं, और श्याम बाजार में रहते हैं। हमारी इनसे जब से मुलाकात हुई है, बेचारे आकर मिल जाते हैं।’

शेखर ने गुरुचरण बाबू की बातों में अपनी सम्मति, दी परंतु मन ही मन विचार किया - ‘हां, देखने में नम्र आदमी लगते हैं।’ थोड़ी देर रुककर फिर वह गुरूचरण बाबू से बोला, ‘काका, और सब ठीक-ठाक है न?’

गुरुचरण बाबू ने कुछ भी नहीं कहा और सिर झुकाए चुप सुनते रहे।

‘अच्छा, काकाजी अब चलता हूँ।’ – यह कहकर शेखर जाने को तैयार हो गया। उसे जाता देखर, रुआंसे होकर गुरुचरण बाबू ने कहा- ‘बेटा! तुमने सब बातें सुन ही ली होगीं, फिर भी कभी-कभी आते रहना एकाएक हम दुःखियों का त्याग न कर देना।’

शेखर - ‘अच्छा काकाजी!’ कहता हुआ वह भीतर ललिता की मामी से मिलने चला गया। थोड़ी देर बाद ललिता को मामी की रोने की आवाज बैठक में सुनाई दी। उनकी रोने की आवाज सुनकर गुरुचरण बाबू के आँसू आ गए और उन्होंने अपनी धोती से उन्हें पोंछ लिया। गिरीन्द्र की मुखाकृति एक अपराधी की-सी हो रही थी। वह नीरस-सा बाहर की ओर देखने लगा। शेखर के जाने के पहले ही ललिता वहाँ से चली गई थी।

कुछ समय के बाद शेखर उसकी मामी से बातें करके बाहर की ओर आया। सीढियों से उतरते समय, अंधेर कमरे में दरवाजे के निकट उसने ललिता को खड़े हुए देखा। उसको देखते ही वह भी खड़ा हो गया। ललिता ने शेखर को प्रणाम किया और उसके पास आ गई। कुछ समय तक शेखर से कुछ उत्तर पाने की लालसा से खड़ी रही; फिर थोड़ा पीछे हटकर मंद स्वर में उसने कहा- ‘आपने मेरे पत्र का उत्तर क्यों नहीं दिया?’

‘कौन सा पत्र?’

‘उसमें बहुत सी बातें थी। अच्छा, उन बातं को छोड़ो! यहाँ की सभी बातें आपने सुन ही ली हैं। मेरे लिए क्या हुकम देते हो?’

शेखर ने आश्चर्य में पड़कर कहा- ‘मेरा हुक्म? मेरा हुक्म किसलिए? म्रे हुक्म से लाभ ही क्या?’

ललिता ने शंक्ति होकर कहा- ‘क्यों?’

शेखर - ‘और नहीं तो क्या?’ मैं किसे हुक्म दूं?

ललिता - ‘मुझको हुक्म दो, और किसका दोगे?’

शेखर- ‘तुम्हें क्यों हुक्म दूंगा? फिर हुक्म देने पर तुम उसको मानोगी ही क्यों? शेखर के इस कथन में करूणा मिश्रित थी।’

ललिता यह सुनकर मन ही मन घबरा उठी।

उसने शेखर की छाती के समीप सिरकते हुए कहा - ‘जाने दो इन बातों को। इस समय यह मजाक अच्छा नहीं लगता। तुम्हारे पांव पड़ती हूँ, मुझे अब तंग मत करो। बताओ-कैसे क्या होगा? मुझे डर के मारे रात को नींद नहीं आती हैं।’

‘आखिर भय किसलिए?’

ललिता- ‘क्या कह रहे हो? भय न लगेगा, तो फिर क्या लगेगा? न तो तुम्हीं यहाँ थे और न माताजी ही थीं। फिर मामा ने क्या कर डाला, वह भी तुमसे छिपा नहीं है। अब यदि माँ मुझे न स्वीकार करें तो?’

थोड़े समय बाद शेखर ने कहा - ‘वह तो ठीक ही है, अब माँ कैसे स्वीकार कर सकती हैं? उन्हें यह भी पता चला कि तुम्हारे मामा ने अन्य लोगों से काफी पैसे लिए हैं। साथ ही अब वह ब्रह्मसमाजी भी हो गए हैं। हम लोग हिंदू हैं।’

अन्नाकील ने उसी वक्त आकर ललिता से कहा - ‘मामी बुला रही हैं। ललिता ने जोर से कहा- ‘अच्छा तू जा, मैं अभी आती हूं।’ फिर नम्रतापूर्वक शेखर से कहने लगी- ‘यह कुछ भी क्यों न हो, फिर भी जो धर्म तुम्हारा है- वही मेरा भी। यदि वह तुमको नहीं अलग कर सकतीं, तो मुझे भी नहीं अलग कर सकतीं। इसके सिवा गिरीन्द्र बाबू के लिए हुए रूपए मैं उन्हें लौटा दूंगी। यह तो मेरे ऊपर कर्जा है, दो दिन आगे-पीछे लौटाना ही होगा।’

शेखर- ‘इतना अधिक रूपया देने के लिए कहाँ से मिलेगा?’

ललिता इस बात के उत्तर में काफी समय तक चुप रही, फिर हंस कर बोली - ‘क्या आपको ज्ञात नहीं कि स्त्रियों को रूपए कौन देता है? मैं भी उनहें से ले आऊंगी।’

शेखर के हृदय में उथल-पुथर मची हुई थी। वह फिर कहे लगा- ‘परंतु मामा ने उस रूपयों के लिए तुम्हें तो बेच ही डाला है।’

ललिता अंधेरे में शेखर के चेहरे को न देख सकी, परंतु गले के स्वर को तुरंत ताड़ गई और बोली, यह सब झूठी, व्यर्थ की बातें हैं। मेरे मामा के सदृश भला मनुष्य दुनिया में होना कठिन है। तुम व्यर्थ ही उनकी हंशी उड़ाते हो। उनके कष्टों तथा दुःखों की कोई बात भी दूसरों से छिपी नहीं है, तुम भले ही न जानते हो।’ आवश में ललिता ने इतनी बातें कह डालीं, और फिर तनिक देर रूककर कहने लगी- ‘फिर वह रूपया मामा ने लिया है मेरे व्याह के बाद; इस कारण मुझे बेचने का कोई धिकार उन्हें कहाँ था? यदि मुझे बेचने का कोई अधिकार उन्हें कहाँ था?यदि मुझे बेनचे का कोई अधिकार है, तो केवल तुम हो, और कोई नहीं।’ इतना कहते हुए, उत्तर की कोई प्रतीक्षा न करके ललिता अंदर चली गई।

कुछ देर तक अवाक्-सा शेखर वहीं खड़ा रहा, फिर धीरेःधीरे गुरुचरण बाबू के घर से बाहर चला आया।

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