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परिणीता - 7

परिणीता

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

(7)

ललिता अपने विषय की बात होते देखकर वहाँ से चली आर्इ, और सीधे शेखर के कमरे में पहुंची। उसने शेखर के बक्स को खींचकर रोशनी में किया, और सभी कपड़े तथा आवश्यक सामान उसमें रखना शुरु किया। उसी समय शेखर भी वहाँ आ गया। शेखर के आते ही ललिता की दृष्टि उस पर पड़ी और वह एकाएक चक्कर में पड़ गर्इ, कुछ बोल न सकी।

जिस प्रकार किसी मुकदमे का हारा मुवक्किल एकदम निर्जीव-सा हो जाता है, बोल नहीं पाता, उसकी सूरत बिगड़ जाती है, उसको पहचान सकना भी कठिन हो जाता है-ठीक वैसे ही हालत उस समय शेखर की थी। अभी एक घंटे में ही शेखर की मुखाकृति ऐसी बदल गर्इ थी कि ललिता उसे पहचान नहीं पा रही थी। न जाने कैसी उदासी और परेशानी शेखर के मुख पर छार्इ थी। मालूम होता था कि उसका सर्वस्व लुट चुका है। उसने कुछ भारी तथा सूखे स्वर में पूछा- ‘ललिता, क्या कर रही हो?’

शेखर की दशा देखकर ललिता हैरान थी। वह उसके पास आर्इ और पकड़कर बोली- ‘क्या हुआ भैया? इतना परेशान क्यों हो?’

ललिता को दिखाने के लिए शेखर थोड़ा मुस्करा दिया और बात बनाते हुए बोला- ‘कहाँ? हुआ तो कुछ भी नहीं।’ ललिता के स्नेह-भरे हाथों के छूने से उसमें कुछ जान आ रही थी। पास ही पड़ी हुर्इ कुर्सी पर बैठते हुए शेखर ने कहा- ‘क्या कर रही हो, ललिता?’

ललिता ने उत्तर दिया- ‘आपका ओवरकोट रखने को रह गया था, उसे ही बक्स में रखने आर्इ हूँ। बड़े ही चाव से शेखर उसकी बांते सुन रहा था। ललिता कहती गर्इ- ‘पिछले साल गाड़ी में तुम्हें सर्दी से बड़ा ही कष्ट हुआ था। कोट तो तुम्हारे पास थे, किंतु बड़ा और मोटा कोट कोर्इ भी नहीं था। इसी कारण वहाँ से लौटने पर, यह ओवरकोट तुम्हारे नाप का बनवा लिया था।’ यह कहकर ललिता ने स कोट को यथास्थान रख दिया और शेखर से कहा- ‘भैया, सर्दी के समय अवश्य पहन लेना।’

‘अच्छा- कहकर शेखर थोड़े समय तक ललिता की ओर एकटक देखता रहा-फिर उसने एकाएक कहा- ‘नहीं ऐसा कदापि नहीं हो सकता।’

ललिता ने कहा- ‘क्या नहीं हो सकता, भैया? क्या इस कोट को नहीं पहनोगे?’

शेखर ने बात बताते हुए कहा- ‘ऐसी बात नहीं, दूसरी बात है।’

नहाकर उसने ललिता से पूछा- ‘क्या माँ का भी सामान ठीक हो गया है?’

ललिता- ‘हां, मैनें ही तो दोपहर को बांधकर ठीक कर दिया है।’ यह कहते हुए, सब सामान देखकर ललिता ने बक्स बंद कर दिया।

थोड़ी देर पश्चात शेखर ने ललिता से पूछा- ‘अच्छा, अब मेरा अगले वर्ष से कैसे क्या होगा?’

‘क्यों?’

‘ललिता, इस क्यों का मुझे पूर्ण अनुभव हो रहा है!’- वास्तव में यह बात शेखर के मुंह से निकल तो गर्इ, किंतु उस बात को बदलते हुए, हंसी के साथ उसने कहना शुरू किया- ‘अच्छा ललिता, दूसरे घर जाने से पहले यह बतातो जाना कि कौन-सी चीज कहाँ पर है। क्या-क्या है और क्या नहीं है, कौन वस्तु कहाँ आवश्यक है-इस सबकी जानकारी मुझे अवश्य करा देना, ताकि कीसी प्रकार की दिक्कत न उठानी पड़े और समय पर सभी चीजें मिल भी सकें।

थोड़ा-सा चिढ़कर ललिता ने कहा- ‘अरे जाओ।’

शेखर को हंसी आ गर्इ। वह बोला- ‘केवल “जाओ” कहने से तो काम न बन सकेगा। लिलात यह सत्य है। आखिर तुम्हीं सोचो कि मेरा काम आगे कैसे चलेगा? मेरी इच्छाएं तुम्हें मालूम हैं कि बड़ी हैं, परंतु उसकी पूर्ति की सामर्थ्य मुझमें नहीं है। फिर सब काम नौकरों द्वारा नहीं कराए जा सकते। मुझे अब ऐसा लग रहा है कि तुम्हारे मामा की तरह सादा जीवन बिताना पड़ेगा। कुर्ता और धोती पर ही बसर होगी। खैर, कुछ भी हो, परमात्मा की जैसी इच्छा हो।’

ललिता शरमाकर चाभियां फेंककर चली गर्इ।

उसको जाते देखकर शेखर ने जोर से आवाज दी- ‘ललिता, सवेरे अवश्य आ जाना।’

परंतु ललिता ने सुनकर भी अनसुना कर दिया। वह तेजी से दूसरी मंजिल पर चली गर्इ। वहाँ उसने अन्नाकाली को चांदनी के प्रकाश में माला बनाते हुए देखा! उसके निकट आकर ललिता ने कहा-अन्नाकाली, ओस में बैठकर क्या बना रही है?

अन्नाकाली सिर झुकाए हुए बोली- ‘माला बना रही हूँ। आज रात मेरी लड़की का विवाह है न।’

‘मुझे तो तुमने इसके बारे में बताया भी नहीं।’

अन्नाकाली-पहले से कोर्इ तय न था, दीदी। अभी तो पिताजी ने पत्र देखकर बताया है कि आज के अलावा इस महीने में कोर्इ लग्न नहीं है। कन्या बड़ी हो गर्इ है, यदि ब्याह न हुआ, तो सब लोग चिढ़ाएंगे। आज ही शुभ मुहूर्त मं ब्याह हो जाएगा, दीदी! हां, दो रूपए दो, बरातियों के लिए मिठार्इ मंगवा लो।

ललिता ने हंसी में कहा- ‘वाह, केवल पैसौं की आवश्यकता पड़ने पर छोटी दीदी की याद आती है। जा, मेरे तकिए के नीचे से ले आ। किंतु यह तो बता अन्ना, कहीं गेंदे के फूलों से ब्याह हुआ करता है?’

गंभीरता के साथ अन्नाकाली ने उत्तर दिया- ‘दूसरे किसी फूल के न मिलने पर, गेंदे के फूलों की वरमाला बना लेने क्या हर्ज है? मैंने तो इसी तरह तमाम लड़कियो का ब्याह गेंदे के फूलों से किया है, दीदी। मुझे यह सब बातें ज्ञात हैं।’ यह कहकर वह मिठार्इ लेने चली गर्इ।

ललिता वहीं पर बैठ कर माला गूंथने लगी।

थोड़ी देर पश्चात् अन्नाकाली ने वापस आकर कहा- ‘सभी को तो न्योता दे चुकी हूँ, केवल शेखर भैया को देना बाकी है। उन्हें भी न्योता दे आऊं, नहीं तो बुरा न मान जाए।’ यह कहती हुर्इ वह तुरंत शेखर के कमरे की और चली गर्इ।

अन्नाकाली पूरी दादी है। सभी काम नियमनपूर्वक करती है। वह उम्र में तो छोटी है, किंतु बुद्धि उसकी बड़ी तीव्र है। शेखर को बुलावा देकर वह नीचे आर्इ और ललिता से बोली- ‘शेखऱ भैया ने एक हार मांगा है। जाओ, जल्दी से दे आओ। मैं यहाँ का सारा काम पूरा करती हूँ। अब मुहूर्त का समय आ गया है-देर करने की आवश्यकता नहीं है।’

ललिता ने गरदन हिलाकर कहा- ‘अन्नाकाली! मुझसे ऐसा न हो सकेगा, तू ही जाकर दे आ।’

‘बहुत अच्छा, मैं जाकर दे आती हूँ। वही बड़ी माला उठाकर लाओ।’

ललिता ने माला उठाकर अन्नाकाली को देते-देते न मालूम क्या सोचा और बोली- ‘अच्छा, मैं ही देर आती हूँ।’

अन्नाकाली ने बुडढों की भांति गंभीर स्वर में कहा- ‘ऐसा ही करो, जीजी! मुझे तो अबी सैकड़ों काम करने बाकी हैं, दम लेने तक का मौका नहीं मिलता।’

अन्नाकाली के कहने के ढ़ंग और बुडढों जैसी बातें सुनकर ललिता की हंसी न रुक सकी। वह माला लेकर, हंसती हुर्इ चली गर्इ। शेखर के घर पहुंचकर ललिता ने झरोखे से देखा कि शेखर कोर्इ पत्र लिखने में एकाग्रचित व्यस्त है। धीरे से उसने दरवाजा खोला, अंदर पहुंची और चुपके से शेखर के पीछे जा खड़ी हुर्इ। उसके वहाँ आने का आभास शेखर को नहीं हुआ। क्षणभर चुप रहने के पश्चात ललिता ने शेखर को चकित कर देने के लिए धीरे से वही माला पहना दी और तुरंत कुर्सी के पीछे हटकर बैठ गर्इ।

शेखर ने चौंककर बोला- ‘यह क्यो अन्ना?’ लेकिन गरदन घुमाते ही उसकी दृष्टि ललिता पर पड़ी, तो आश्चर्यचकित हो वह गंभीर भाव से बोला- ‘ललिता, यह तुमने क्या कर दिया?’

शेखर के शब्दों से शंकित ललिता ने उठकर कहा- ‘मैंने क्या कर दिया?’

शेखर-‘मुझसे क्या पूछ रही हो? तुम्हें नहीं पता, तो अन्नाकाली से जाकर पूछो कि आज रात को माला पहनाने से क्या होता है?’

ललिता अब समझी कि उसने क्या कर डाला। उसके मुख पर लज्जा छा गर्इ। वह बड़े ही संकोच से मुंह बनाते हुए बोली- ‘नहीं, ऐसा नहीं! मैं ऐसा कभी नहीं चाहती, मैंने तो माला... ।’ पूरी बात कहे बिना ही वह नवविवाहिता की भांति लजाकर कमरे से बाहर चली गर्इ।

शेखर ने उसे जाते देखकर जोर से पुकारा- ‘ललिता! जरा मेरी एक बात सुनती जाओ, एक बड़ा ही आवश्यक कार्य है।’

शेखर की पुकार सुनकर भी ललिता ने अनसुनी कर दी वह सीधे अपने कमरे में आर्इ और तकिए पर मुंह डालकर पड़ी रही।

बचपन से लेकर इस युवावस्था के पाँच-छः वर्षो तक का समय उसने शेखर के साथ की काटा था, परंतु एसी कोर्इ भी बात शेखर के मुंह से सुनी न थी। शेखर का स्वभाव तथा चरित्र वह भली प्रकार जानती थी। वह गंभीर प्रकृति वाला था। एक तो शेखर उससे परिहास करता ही न था, और यदि कर भी बैठता, तो ललिता परवाह न करती थी। उसने कभी इस प्रकार की कल्पना भी न की थी। उस माला के आशय को सोच-सोचकर उसे बड़ी शर्म आ रही थी कि वह अपने मुंह को किस बिल में छिपा दे।

वह पड़ी-पड़ी यह भी विचारती थि कि ‘उन्होंने आवश्यक कार्य कहकर बुलाया है।’ अभी वह जाने या न जाने की बात विचार ही रही थी कि शेखर की नौकरानी ने आकर कहा- ‘ललिता दीदी, कहाँ हो? तुमको छोटे भैया बुला रहे हैं।’

कमरे से निकलकर ललिता ने धीरे से कहा- ‘चलो, आ रही हूँ!’ ऊपर पहुंचकर दरवाजे से उसने देखा-अभी पत्र नहीं हुआ। उसी को पूरा करने में लगा हुआ है। कुछ समय तक वह चुपचाप खड़ी रही, फिर पूछा- ‘क्यों बुलाया है?’

शेखर ने पत्र लिखते-लिखते कहा- ‘आखिर तुमने आज क्या कर डाला? आओ बैठो।’

ललिता ने रुठकर कहा- ‘जाने दो फिर वही बात?’

‘आखिर उसमें मेरा क्या कसूर है, ललिता? तुम्हीं ने तो यह सब किया।’

ललिता- ‘मैंने कुछ नहीं किया, मेरी माला वापस कर दो।’

शेखर- ‘इसीलिए तो तुम्हें बुलाया है, ललिता। मेरे पास आओ, मैं तुम्हारी माला वापस किए देता हूँ। तुमने जो अधूरा काम किया है, उसको पूरा कर दूं।’

दरवाजे के पास खड़ी हुर्इ ललिता चुपचाप न जाने क्या सोचती रही। फिर बोली- ‘मैं सत्य कहती हूँ- यदि ऐसा हंसी-मजाक मुझसे करोगे, तो कभी न आऊंगी। मेरी माला लौटा दो।’

शेखर ने गले में पड़ी माला को उतारकर कहा- ‘आकर ले जाओ ना’

‘उसे मेरे पास फेंक दो, मैं वहाँ न आऊंगी।’

‘यदि पास न आओगी तो न दूंगा।’

‘न दो।’ यह कहकर ललिता चल पड़ी।

उसे जाते देखकर शेखर चिल्लाकर बोला- ‘यह अधूरा काम छोड़कर क्यों जा रही हो?’

वह जाते-जाते नाराज होकर कहती गर्इ- ‘अधूरा है, तो अधूरा ही सही।’

ललिता वहाँ से चली तो आर्इ, परंतु नीचे नहीं गर्इ। वह छज्जे के एक कोने पर खड़ी होकर, आकाश की ओर देखती हुर्इ न जाने क्या सोचती रही। ऊपर चांद मुस्कुरा रहा था और उसकी सुनहरी किरणें सारी दुनिया को रंगमय बना रही थीं। उन शीतल किरणों के रंग में ललिता भी विभोर थी। खड़े-खड़े उसके हृदय में न जाने क्या-क्या कल्पनाएं उठ रही थीं। अपने ऊपर क्रोध भी आ रहा था और शर्म भी। वहीं खड़े-खड़े एक बार शेखर के कमरे की तरफ देखा। पता नहीं क्यो, उसके चेहरे पर अभिमान की रेखा झलक आर्इ और नेत्र सजल हो गए। वह अबोध बालिका न थी कि उसे इन सब बातों का पता न था, फिर इस प्रकार हंसी करने का क्या मतलब हो सकता था। उसकी दशा कितनी गिरी हुर्इ है, वह एक अनाथ बालिका है-उसके मामा का ही एकमात्र सहारा है। फिर भी पराए लोग निरुपाय समझकर आदर करते हैं। शेखर का व्यवहार भी इसी प्रकार का है। वह मुझे निराश्रित समझकर ही स्नेह और आश्रय देता है, तथा शेखर की माँ भी अपार स्नेह करती हैं। दुनिया में सका है ही कौन? किसी पर ललिता का अधिकार नहीं है, इसीलिए तो गिरीन्द्र ने उसके उद्धार का पूरा भार उठाया है।

अपने नेत्र बंद किए हुए ललिता मन-ही-मन सोचने लगी। उसके मामा की अपेक्षा शेखर की दशा बहुत अच्छी है। उसके मामा का स्थान उसके सामने कुछ भी नहीं है। वह उसी मामा के आश्रय में है, उनके ही गले का जंजाल है। शेखर की शादी की बातचीत बराबरी में धनवान घर से चल रही है, चाहे वह अभी हो या दो-चार दिन बाद, पर तय करीब-करीब वहीं है। इस विवाह से नवीनराय को बहुत बड़ी सम्पदा मिलेगी-उसने ऐसा शेखर की माँ से सुना है।

शेखर भैया फिर क्यों स प्रकार उसकी हंसी उड़ा रहे है और तिरस्कार कर रहै हैं? यह सभी बातें ललिता सूने आकाश की और देखकर सोच रही थी। क्षणभर में ही उसने घूमकर देखा कि शेखर उसके पीछे खड़ा हंस रहा है, और वही माला उसने एकदम-से उसके गले में पहना दी। यह देखकर वह रोने लगी और बोली- ‘ऐसा तुमने क्यों किया?’

‘तुमने भी ऐसा क्यों किया था ललिता?’

‘मैंने तो कुछ भी नहीं किया’- यह कहकर वह माला तोड़ने ही जा रही थी कि उसकी दृष्टि शेखर की दृष्टि से जा मिली और रुक गर्इ। वह माला को फिर न तोड़ सकी, परंतु उसने रोते हुए कहा- ‘मैं परेशान, अभागिन तथा असहाय हूँ, इसलिए क्या मेरा उपहास कर रहे हो, शेखर भैया?’

शेखर अभी तक खड़ा-खड़ा हंस रहा था। ललिता की यह बात सुनकर वह सन्न रह गया। उसने कहा- ‘मैंने तुम्हारा उपहास किया है या तुमने मेरा किया है।’

ललिता ने अपने भीगे नेत्रों को पोंछकर कहा- ‘मैंने तुम्हारा उपहास कब किया?’

शेखर थोड़ी देर रुककर सजग हो गया और बोला- ‘थोड़ा-सा सोचने पर समज जाओगी। आजकल अपनी मनमानी कर रही हो, इसीलिए यात्रा पर जाने के लिए मना कर दिया है।’ शेखर यह कहकर चुप हो गया।

ललिता गूंगे की भांति खड़ी सुनती रही। चंद्र किरणों की रुपहली आभा में दोनों खड़े थे। लेकिन नीचे कमरे में अन्नाकाली अपनी गुड़िया की शादी कर रही थी। शंखध्वनि गूंज रही थी और खामोशी भंग हो रही थी।

थोड़ी देर के बाद शेखर ने कहा- ‘अधिक ठण्ड पड़ने लगी है, जाओ, नीचे चली जाओ।’

‘जाती हूँ’- कहकर उसने शेखर के पैर छुए और प्रणाम करके बोली- ‘मुझे यह तो बताते जाओ कि मैं अब क्या करूंगी?’

शेखर यह सुनकर हंस पड़ा। एक बार तो उसे भय-सा प्रतीत हुआ, पर उसने हाथ बढ़ाकर ललिता को पकड़कर हृदय से लगा लिया और उसके ओठों को अपने ओंठों से स्पर्श करते हुए कहा- ‘अब मुझे कुछ न बताना पड़ेगा, तुम स्वयं समझ जाओगी, ललिता!’

शेखर के इस प्रकार के स्नेह को देखकर ललिता को रोमांच हो आया। उसने दूर जाकर कहा- ‘तो क्या तुमने गले में माला पहना देने के कारण ही ऐसा किया।’

मुस्कुराते हुए शेखर ने कहा- ‘नहीं ललिता, ऐसी बात नहीं। मैं तो स्वयं काफी दिनों से ऐसा करने का विचार कर रहा था, परंतु किसी तरह का निश्चय न कर पाता था। आज अब यह अंतिम निश्चय हो ही गया। मुझे आज अनुभव हो रहा है कि तुम्हें त्यागकर मैं कहीं रह नहीं सकता।’

ललिता- ‘परंतु तुम्हारे पिताजी यह सुनकर अवश्य क्रोध करेंगे और माताजी को भी महान् कष्ट होगा। जो कुछ भी तुमने सोचा है, वह न हो पाएगा।’

शेखर ने कहा- ‘हां, पिताजी यह सुनकर अवश्य आग-बबूला हो जाएंगे, परंतु माताजी अवश्य हृदय से प्रसन्न होंगी। खैर अब तो कुछ होना ही नहीं हैं, जो होना था, हो गया। अब इसको खत्म कर ही कौन सकता है। जाओ, अब नीचे जाओ, माताजी को प्रणाम करो!’

ललिता वहाँ से नीचे चली गर्इ, पर जाते समय भी वह घूम-घूमकर अपने प्रियतम को देखती रही।

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