परिणीता
शरतचंद्र चट्टोपाध्याय
(5)
गुरुचरण बाबू बहुत ही मिलनसार व्यक्ति थे। किसी भी छोटे-ड़े व्यक्ति से वे निःसंकोच बातें कर सकते थे। अपनी मिलनसार आदत के कारण ही, गिरीन्द्र के साथ दो-तीन बातें हने पर ही उनकी गहरी मित्रता हो गई थी। वह बड़े ही र्दढ़ विश्वासी थे। सरल स्वभाव के कारण वे चुतराई को कम महत्त्व देते थे। वाद-वाद में तर्क-वितर्क होने पर यदि हार भी जते थे, तो भी किसी प्रकार के रोष की रेखा उनके चेहरे पर न झलकती थी।
कभी-कभी ललिता चुपचाप मामा की बगल में बैठकर सब कुछ सुनती रहती। जब वह आकर बैठ जाती, तो गिरीन्द्र के तर्क बहुत ही विद्वत्तापूर्ण होते। हृदय में आनन्द की लहरों के उज़ाव के साथ वह युक्तिययों को जुटाता चला जाता। मुख्य रूप से उनके वाद-विवाद का विषय, आजकल की समाज-व्यवस्था ही होता था। आधुनिक समाज की हीनता, जर्जरता, असमानता और अत्याचारों पर बड़े मार्मिक ढंग से विचार होता था और ऐसे दुराचारी समाज से घृणा व्यक्त की जाती थी। इन आरोपों में वास्तविकता थी। अतः और कुछ प्रमाण देने की आवश्यकता ही क्या थी। वह समाज द्वारा सताए हुए गुरुचरण बाबू के जीव से पूरी तरह मिलती थी। अंत में गुरुचरण बाबू पूर्णरूप से समर्थ करते हुए कहते- ‘गिरीन्द्र, तुम बिल्कुल सत्य कहते हो। इसमें असत्य है ही क्या? कौन भला आदमी यह नहीं चाहता कि अपनी पुत्री का शुभ-विवाह अच्छे व्यक्ति से ठीक अवसर पर करें! फिर भी क्या ऐसा सबके लिए मुमकिन है? इसके सिवा, समाज यह कहने से नहीं चूकता कि तुम्हारी लड़की सयानी हुई व्याह करो। मगर इतना कहने से ही तो लड़की का व्याह नहीं हो जाता। इस कार्य में मदद करने की कौन कहे, तरह-तरह की बातें सुननी पड़ती हैं। गिरीन्द्र अधिक क्या कहूँ, तुम मेरी ही बात देखो, लड़कियों के व्याह के कारण ही मेरा मकान तक बिका जा रहा है। इसका व्याज तक दे सकने में असमर्थ हूँ, इसको कर्ज से मुक्त करा सकना कठइन कार्य है। दो दिन यश्चात् शायद दर-दर का भिखारी हो जाना पड़े। मैं ठीक सकता हूँ या नहीं, गिरीन्द्र ऐसे समय में मुझे कोई भी सहारा न देगा, ब्लिक सारा समाज बहिष्कार करेगा।’
इस प्रकार का वाद-विवाद उठ आने पर गिरीन्द्र चुपचाप ही सुना करता गुरुचरण बाबू उसी बहाव में कहते- ‘भैयास, जो भी तुमने कहा’ बीलकुल सत्य है! ऐसे, समाज को त्यागकर जंगल में रहना लाख बार अच्छा है। ईन पातकी-ढोंगीयो बिलकुल दूर रहने में ही भलाई है। कुछ भी कठिनाई क्यों न हो, फिर भी शांति मिलेगी। गला दबोचने और मनुष्यता को भंग करने वाले समाज में रहना हमारे लिए ठीक नहीं। यह समाज धनवानों का ही है, मेरे जैसे गरीब का नहीं। अच्चा है यही लोग मौज से रहें, हमारी आवश्यकता ही यहाँ नहीं है।’ यह कहते-कहते वह एकदम मौन हो जाते थे।
ललिता प्रतिदिन इन उद्गारपूर्ण युक्तियों को ध्यानपूर्वक सुनती रहती थी। केवल इतना ही नहीं, बल्कि रात को निद्रा आने के पूर्व इन्हीं तकों पर विचार किया करती थी। गिरीन्द्र की सभी युक्तियां उसके हृदय में समा जाती थीं। मन-ही-मन वह सोचने लग जाती कि गिरीन्द्र बाबू का कहना अक्षरशः सत्य है।
अपने मामा से ललिता का अटूट प्रेम था। उसके मामा के प्रति गिरीन्द्र जो कुछ भी कहता उसे नितांत सत्य समझती थी। उसे यह भी पता था कि उसके ममा की परेशानी ततथा चिंतएं उसी के कारण बढ़ी हैं। अन्न-चल भी उन्होंने छोड़ दिया है। आज उसके मामा जो ये सब कष्ट झेल रहे हैं, यह सब क्यों? क्योंकि समाज उन्हें जाति से बाहर कर देना चाहता है। इस सबका कारण एकमात्र यही न कि वे मेरी शादी करने में असमर्थ हैं। विचार कर ललिता ने सोचा-यदि आज किसी प्रकार मेरी शादी हो जाए और दुर्भाग्यवश मैं यदि कल विधवा होकर फिर मामा के पास जाऊं तो मामा को जाति से अलग कर दिया जाएगा? न तर्कों में उसे कोई भी सार न दिखाई देता।
गिरीन्द्र जी कुछ भी ललिता के मामा के प्रति श्रद्धा और सहानुभूति दिखाता था और जो भी वह कहता थाष उस सबके प्रति श्रद्धा दिखाने और अपनी सहमति जताने से वह बाज न आती। ऐसा करने के सिवा उसके पास दूकरा मार्ग न था। गिरीन्द्र के प्रति उसकी श्रद्धा दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई। धीरे-धीरे उसने भी संध्या की बेला का इंतजार करना शुरू कर दिया। उसकी उत्कंठा और भी बढ़ गई थी।
शुरू में गिरीन्द्र बातं में ललिता को ‘आप’ शब्द से संबोधित करता था, परंतु एक दिन गुरुचरण बाबू ने मना कर दिया। कहा- ‘ललिता तुमसे छोटी है, इसलिए ‘आप’ न कहकर ‘तुम’ कहा करो।’ अब वह ललिता को ‘तुम’ शब्द से संबोधित करने लगा।
गिरीन्द्र ने ललिता से पूछा- ‘तुम चाय नहीं पीतीं?’
ललिता ने कुछ उत्तर न देकर सिर नीचा कर लिया। गुरुचरण बाबू ने उसकी ओर से उत्तर दिया- ‘शेखर ने उसको चाय पीने से मना कर दिया है। उसकी रा है कि स्त्रियों को चाय नहीं पीनी चाहिए।’
गिरीन्द्र को यह वाद अच्छी न लगी, इस बात को ललिता ने ताड़ लिया।
आज शनिवार है। आज के दिन काफी समय तरक यह मजेदार मजलिस लगी रहती है। चाय पीना हो चुका था, वार्तालाप जारी था। गुरुचरण बाबू आज कुछ अनमने थे। बीच-बीच में परेशानी का अनुभव कर वह चुप रह जाते थे। ऐसा लगता था कि बातचीत अच्छी नहीं लग रही थी। पुनरावत्ति।
गिरीन्द्र ने यह देखर पूछा- ‘ऐसा प्रतीत होता है कि आपको कुछ शारीरिक कष्ट है। चेहरे पर उदासी है। क्या दफ्तर में कुछ गड़बड़ है?’
हुक्के की निगाली मुंब से निकालते हुए उन्होंने कहा- ‘नहीं, ऐसी बात नहीं, शरीर भी गड़बड़ नहीं है।’ यह कहते हुए गुरुचरण बाबू ने मुंह ऊंचा करके गिरीन्द्र की ओर दृष्टि डाली। सरल स्वभाव वाले गुरुचरण बाबू की आंतरिक चिंताएं तथा हृदय के ज्वलित उद्गार उनके मुख पर झलक रहे थेःइसका वह खुद भी अनुभव न कर सके थे।
ललिता पहले उन लोगों के वार्तालाप को केवल सुना ही करती थी, परंतु अब वह तर्क-वितर्क में भाग लेने लगी है। मामा की परेशानी को वह भी पूर्णरूप से समझ गई। उसने पूछा- ‘हां मामा, ऐसा मुझे भी लग रहा है कि आपको कोई बात हृदय में कष्ट दे रही है।’
उसकी इस बात को सुनकर गुरुचरण बाबू को थोड़ी-सी हंसी आ गई, और सरल भाव से स्वीकार करते हुए बोले- ‘बेटी, सत्य है, आज मेरी दशा ठीक नहीं है।’
यह बात सुनकर गिरीन्द्र एवं ललिता दोनों ही टकटकी बांधकर कष्ट का कारण जान लेने के लिए उनके चेहरे की तरफ देखने लगे।
गुरुचरण बाबूने कहा- ‘नवीन दादा मेरे विषय में सब कुछ जानते हैं! फिर भी उन्होंने तमाम लोगों के सामने सड़क पर खड़े होकर बहुत सी भली-बुरी बातें सुना जालीं। खैर, उनका इसमें दोष ही क्या? छःसात माह बीत गए, पर उन्हें मूल की कौन कहे, एक पैसा सूद तक का नहीं दे पाया हूँ।’
ललिता सब कुछ तुरंत समझ गई। इस बात को खत्म करने के लिए व्ग्र हो गई। उसे यह भय होने लगा कि कहीं उसके भोले मामा, घरेलू बातों को दूसरों के सामने बिना सोचे-समझे ही गाने लगेंगे, क्यंकि उन्हें दुःख में यह भी स्मरण नहीं रहता कि किसके सामने कौन सी बात करनी चाहिए और किसके समने नहीं। गिरीन्द्र के सामने घरेलू बातें होना वह ठीक न समझती थी। अतः उसने कहा- ‘मामा, बेकार में इन सब बातों की चिंता में मत पड़ो। ये सब बातें तो बाद की हैं, बाद में होंगी।’
ललिता के इस इशारे की ओर गुरुचरण बाबू का ध्यान भी नहीं गया। वह बड़े ही विषादयुक्त भाव से कहने लगे- ‘बाद में क्या होगा, बेटी? हां, गिरीन्द्र भैया! तुम देखते हो कि मेरी बेटी इन सब चिंताओं में मुझे ग्रस्त नहीं देखना चाहती, परंतु, मेरी प्यारी बेटी! तेरे मामा के इन सभी कष्टों को तो बाहरी लोग नहीं देखते हैं।’
गिरीन्द्र ने पूछा- ‘नवीन बाबू ने क्या कहा?’
ललिता को जरा भी पता न था कि गिरीन्द्र उनकी घरेलू परिस्थितियों से परिचित है। इसी कारण गिरीन्द्र का यह प्रश्न सुनकर उसने लज्जा का अनुभव किया, और इस असंगत प्रश्न को सुनतर उसे मन-ही-मन उस पर गुस्सा भी आ गया।
गिरीन्द्र के प्रश्न के उत्तर में गुरुचरण बाबू ने सभी बातें खोलकर कह दीं। काफी दिनों से नवीन राय की पत्नी अजीर्ण रोग से ग्रसित हैं। इलाज में कोई कमी न थी। रोग तो था ही, पर इधर वह भयंकर हो चला है। पुराना रोग हो जाने के कारण डाक्टरों ने राय दी कि हवा-पानी बदलने के लिए कहीं बाहर, स्वास्थ्यवर्द्धक स्थान पर जाना चाहिए। इसी काम के लिए नवीन राय को पैसों की सख्त आवश्यकता थी, अतः बड़े ही जोरों से उन्होंने सब रूपया अदा कर देने का तकाजा किया है। गुरुचरण बाबू के सामने यह कठिन समस्या है- आखिर वह इतनी जल्दी रूपयों का प्रबंध कैसे करें?
गुरुचरण बाबू की इन सब बातों को सुनकर गिरीन्द्र थोड़े समय तक चुप रहा, और फिर बहुत ही नम्र भाव से उसने मधुर स्वर में कहा- ‘इधर कई दिनों से मैं आपसे कुछ कहना चाहता था, पर सोंकचवश कह न सका। आज आप की आज्ञा हो, तो कुछ कहूँ?’
गुरुचरण बाबू ने हंसते हुए कहा – यह क्या बात है, गिरीन्द्र! किसी को भी मुझसे बात करने में संकोच नहीं होता। तुमको आज्ञा क्या दूं, तुम बेरोक-टोक कहो।’
गिरीन्द्र ने कहा- ‘जीजी से एक दिन सुना था कि नवीन बाबू बहुत अधिक सूद पर रूपये उधार देते हैं। उनसे रूपये लेकर ही आप गहरी परेशानी के जाल में पड़ गए। मैंने यह सोचा कि आपकी मदद में अपनी धनराशि लगाउं, जो कि बैंकों में पड़ी हुई है। वह किसी काम में नहीं आती, साथ ही इस समय नवीन बाबू को आवश्यकता भी है। आपका भी कर्ज से छुटकारा मिल जाएगा।’
गिरीन्द्र की यह बात सुनकर, गुरुचरण बाबू और ललिता दोनों उसकगी ओर एकटक देखने लगे। संकोच भाव से गिरीन्द्र ने फिर कहना शुरू किया- ‘इस समय इन रूपयों की मुझे बिल्कुल कोई जरूरत नहीं है। यदि मेरे रूपए आपके काम में लग जाएं, तो मैं अपने आपको भाग्यशाली समझूंगा। इस धन को आप अपनी सुविधानुसार दे दीजिएगा। मुझे किसी प्रकार की जल्दी नहीं है। नवीन बाबू को आवश्यकता है, उन्हें समय पर रूपए मिल जाएंगे।’
गुरुचरण बाबू ने कहा- ‘सारा रूपया तुम दोंगे...।’
इस बात के उत्तर में गुरुचरण बाबू कुछ कहने जा रहे थे, कि अन्नाकाली तेजी से दौड़ती हुई वहाँ आई, और बोली- ‘शेखर दादा ने तुरंत कपड़े पहनकर, सज-धजकर तैयार होने को कहा है, दीदी! वह सब आज नाटक देखने जा रहे हैं।’ यह कहकर वह जिस प्रकार तेजी से आई थी, उसी प्रकार उल्टे पांव भाग गई। उस लड़की के उत्साह को देखर गुरुचरण बाबू मुस्कराए, परंतु ललिता उसी स्थान पर बैठी रही।
क्षण-भरं बाद ही अन्काली ने फिर आकर कहा- ‘अभी तक तुम बैठी हो, जीजी? उठो, तुरंत तैयार हो, सब लोग तुम्हारा रस्ता देख रहे हैं।
इस बार भी ललिता पूर्ववत् उसी स्थान पर बैठी रही। अन्नाकाली की प्रसन्नता को देखर गुरुचरण बाबू को हंसी आई और ललिता के सिर पर हाथ फेरते हुए वे बोले- ‘जाओ बेटी, जाओ! अब तनिक भी देरी न करो। वह सब लोग शायद खड़े-खड़ें तुम्हारा रास्ता देख रहे हैं।’
लाचारीवश उसे उठना ही पड़ा, परंतु जाते समय उसकी कृतज्ञ दृष्टि गिरीन्द्र पर पड़ रही थी। इस कृतज्ञता-भरी दृष्टि को गिरीन्द्र पूर्णरूप से समझ गया था।
थोड़ी देर में ही खूब बनाव-श्रृंगार के साथ, पान देने के बहाने फिर एक बाहर वह बाहर के कमरे में आई, परंतु उस समय गिरीन्द्र वहाँ से चला गया था, केवल गुरुचरण बाबू ताकिए के सहारे लेटे थे। उनकी बंध आँखों के कोनों पर आंसुओं की रेखा झलकती थी। ललिता तुरंत समझ गई कि यह खुशी के आँसू हैं! यह जानकर उनका ध्यान भंग करना ठीक न समझकर वह चुपचाप ज्यों-की-त्यों लौट गई।
कमरे से बाहर आकर ललिता सीधे शेखर के घर पहुंची। अपने मामा की दशा को सोचकर उसकी आँखों में आँसू उमड़ आए थे। अन्नाकाली उस समय वहाँ न थी, वह पहले ही जाकर गाड़ी में बैठ गई थी। कमरे के ठीक सामने शेखर खड़े-खड़े ललिता की ही बाट जोह रहा था। सिर उठाकर देखने पर उसे ललिता की भरी आँखें दिखाई दीं। इधर कई दिनों से ललिता को न देखा था, इसीलिए शेखर और अधिक परेशान था। ललिता के आंसुओं को देखर शेखर का हृदय भी द्रवित हो आया, और सने ललिता से पूछा- ‘यह क्या? ललिता, क्या तुम रो रही हो? क्यों, क्या बात है?’
ललिता ने सिर हिलाकर अपना मुंह नीचा कर लिया।
कई दिनों से ललिता को न देखने के कारण, तरह-तरह की भावनाओं का जागरण शेखर के हृदय में हो रहा था। वह बड़ें स्नेह के साथ ललिता का मुंह ऊपर उठाकर बोला- ‘अरे, सचमुच ही तुम रो रही हो! आखिर बताओ तो क्या हुआ, ललिता?’
शेखर की इस सहानुभूति तथा प्रेम-भाव को देखर, वह अपने को संभाल न पाई। वह जहाँ खड़ी थी, शेखर की ओर पीठ करके वहीं पर बैठ गई, और मुंङ ढांपकर जोर-जोर से रोने लगी। शेखर सहानुभूति का प्रदर्शन करता रहा।
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