परिणीता
शरतचंद्र चट्टोपाध्याय
(6)
नवीन ने भूल तथा सूध जोड़कर रूपये गुरुचरण बाबू से लिए। अब कुछ भी बाकी नहीं रहा गया। तमस्सुक वापस करते समय उन्होंने गुरुचरण बाबू से पूछा- ‘कहो गुरुचरण बाबू, यह इतने रूपए तुम्हें किसने दिए?’
नवीन राय अपने रुपए पाकर तनिक भी खुश नहीं हुए। रूपए वापस लेने की न तो इच्छा ही थी, और न ही वह गुरुचरण बाबू से ऐसी उम्मीद करते थे। उनके हृदय में तो एक दूसरी ही धारणा थी कि वह गुरुचरण बाबू का मकान गिराकर, उस पर अपना दूसरा महल खड़ा करेंगे। वह इच्छा पूरी न हुर्इ। इसी कारण वह आवेश में आकर व्यंग्यपूर्वक कहने लगे- ‘वह क्यों न मनाही की होगी, भैया गुरुचरण! इसमें तुम्हारा कोर्इ दोष नहीं है, सारा दोष और लगाव तो मेरा है, जो मैंने तुमसे रूपयों का तकाजा किया। यही कलियुग की उल्टी माया है।’
दुःखपूर्ण शब्दों में गुरुचरण बाबू ने कहा- ‘भैया! आप ऐसा क्यों कहते हैं? मैंने तो केवल आपका रूपया अदा किया है। आपकी दया का बोझ मेरे ऊपर सदैव रहेगा, मैं उससे कभी ऋणमुक्त न होऊंगा।’
नवीन बाबू यह सुनकर मुस्कराए। वे बड़े ही पक्के जो ठहरे! यदि वह ऐसे पक्के न होते, तो केवल गुड़ के ही व्यापार से इतनी अधिक धनराशि न इकटठा कर पाते। वे बोले- ‘भैया! तुम कुछ भी क्यों न कहो, परंतु ऐसे विचार होने पर, वास्तव में पूरा रूपया इस प्रकार न अदा करते। मैंने तो केवल रूपए मांगे थे, वही भी तुम्हारी मामी की बीमारी के लिए। अच्छा खैर, यह तो बताओ कि कितने रूपए सूद पर मकान को रेहन रखा है?’
‘न तो घर ही रेहन किया और न ब्याज ही कुछ तय हुआ है।’
नवीन राय को तनिक विश्वास न हुआ। उन्होंने पूछा- ‘अरे! क्या इतने रूपए बिना लिखा-पढ़ी?’
‘हां दादा, ऐसा ही है। बहुत ही सज्जन लड़का है! ऐसा जान पड़ता है कि दया मूर्ति है।’
‘लड़का? कौन सा लड़का?’
गुरुचरण बाबू ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। जो कुछ कह डाला, वह नहीं कहना चाहिए था।
गुरुचरण बाबू को चुप देखकर नवीनराय समझ गए कि वह कुछ भी बताना ठीक नहीं समझते। इस कारण मुस्कराते हुए बोले, ‘अच्छा, बताना मना है तो न बताओ, जाने दो! फिर भी सुनो, मैंने दुनिया के सभी रंग देखे हैं। कोर्इ भी बिना मतलब रूपए निकालकर नहीं देता। कहीं ऐसा न हो कि आगे किसी परेशानी का शिकार बन जाओ। इसीलिए तुमको अभी से चेतावनी दे रहा हूँ।’
गुरुचरण बाबू कूछ उत्तर न देकर तमस्सुक हाथ में लेकर चल दिए। चलते समय नवीनराय को उन्होंने नम्रतापूर्वक नमस्कार किया।
अपने स्वास्थ्य सुधार हेतु भुवनेश्वरी प्रायः पश्चिम के किसी शहर को चली जाया करती थीं। जलवायु बदल जाने से उनका अजीर्ण-रोग बहुत कुछ दब जाता था। उसी रोग के बहाने नवीनराय गुरुचरण बाबू से कड़ा तकाजा कर बैठे थे। अब भुवनेश्वरी की भी तैयारी पश्चिम जाने के लिए होने लगी।
अन्नाकाली शेखर के कमरे में पंहुची और बोली- ‘शेखर भैया! आप लोग कल ही बाहर जा रहे हैं?’ इस समय शेखऱ अपना सामान संभालकर रखने में लगा हुआ था। उसने ऊपर देखकर अन्नाकाली से कहा- ‘मेरी प्यारी बहिन! जाकर दीदी को तो बुला ला! उसे भी जाने के लिए जो कुछ ठीक करना हो, कर जाए! अभी तो मुझे सैकड़ो काम करने बाकी हैं। समय भी अधिक नहीं है!’ शेखर का ख्याल था कि हर साल की तरह ललिता भी जाएगी।
गरदन हिलाकर अन्नाकाली ने कहा- ‘इस बार दीदी साथ नहीं जाएंगी?’
‘क्यों नहीं जाएंगी?’
‘वाह! आपको यह भी पता नहीं? इसी माध-फागुन में शादी करने के लिए पिताजी उसके वर की तलाश कर रहे हैं।’
यह सुनते ही शेखऱ दुःखी हो गया। उसने कुछ भी उत्तर नहीं दिया, भौंचक्का-सा देखता रहा।
जो कुछ अन्नाकाली ने घर से सुना था, वह सब विवरण के साथ शेखर को सुनाया। ‘उसने कहा कि शादी में जो भी खर्च होगा गिरीन्द्र बाबू देंगे। लड़का भी हर प्रकार से योग्य होना चाहिए। योग्य वर की खोज में, पिताजी आज भी दफ्तर नहीं जाएंगे। वह गिरीन्द्र बाबू के साथ वर देखने जा रहे हैं।’
इन सभी बातों को शेखऱ ध्यानपूर्वक सुनता रहा। उसके हृदय में तरह-तरह की भावनांए उठने लगीं। उसने देखा है कि इधर ललिता उसके पास बहुत ही कम आती है।
अन्नाकाली फिर बोली- ‘भैया, गिरीन्द्र बाबू बहुत ही भले आदमी हैं। मझली दीदी के ब्याह में हमारा मकान ताऊजी ने रेहन रखा था।’ इस बात को सोचकर बाबूजी कहते थे कि दो माह बाद घर हाथ से निकल जाएगा। और सड़क की ठोंकरो का सामना करना होगा। इसी बात पर दया-सागर गिरीन्द्र बाबू ने बाबूजी को कर्ज का सारा रूपया दे दिया। छोटी दीदी कल कहती थी कि अब हम लोगों को घर छोड़ने का भय नहीं रहा। सच है न, शेखऱ दादा?
इन बातों को अन्नाकाली से सुनकर शेखर अवाक् हो गया और कुछ भी उत्तर न दे सका।
शेखर को चुप देखकर अन्नाकाली ने पूछा- ‘क्या सोच रहे हो, दादा?’
शेखर यह सुनकर चौंक पड़ा औऱ बोला- ‘जा, दीदी को जल्दी बुला तो ला! यह बता देना कि मैंने बुलाया है , जरूरी काम है। दौड़ती हुर्इ जा!’
तुरंत दौड़ती हुर्इ अन्नाकाली ललिता को बुलाने गर्इ। उसके जाने पर शेखर भावनाओं के सागर में उथल-पुथल मचाने लगा। सामने संदूक खोले वह ज्यों-का-त्यों बैठा रहा। उसकी समझ में नहीं आया कि क्या साथ ले जाए और क्या नहीं! उसे नेत्रो में चकाचौंध प्रतीत होने लगा।
शेखर के बुलावे को सुनकर ललिता तुरंत ऊपर आर्इ, परंतु कमरे में जाने के पूर्व उसने शेखर को बड़े गहरे विचारों में निमग्न-सा देखा। शेखर जमीन की और ताक रहा था। सामने संदूक खुला पड़ा था, चेहरे पर चिंता की रेखा झलक रही थी। शेखऱ की ऐसी दशा तथा उसकी ऐसी मुखाकृति ललिता ने पहले कभी न देखी थी। वह आश्चर्य में पड़ गर्इ। साथ-ही-साथ उसे भय भी हुआ। डरते हुए, धीरे-धीरे वह शेखऱ के पास आर्इ। उसको देखते हुए शेखर ने कहा- ‘आओ ललिता, बैठो!’ शेखर को मानो अब स्वप्न से कुछ छुटकारा मिला।
बड़े ही मंद स्वर में ललिता ने पूछा- ‘मुझे आपने बुलाया था?’
‘हां?’- फिर थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने कहा- ‘कल सवेरे की गाड़ी से, माँ के साथ मैं इलाहाबाद जा रहा हूँ। हो सकता है कि इस बार लौटने में देर हो जाए। यह चाभी लो, तुम्हारी आवश्यकता के रूपए दराज में है।’
प्रतिवर्ष ललिता बड़े उत्साह से भुवनेश्वरी के साथ जाया करती थी। उसको स्मरण हुआ कि कितने उत्साह के साथ वह सभी सामान संभालकर इसी बक्स में रखा करती थी। आज उसे खुले हुए संदूक को देखकर दुःख हो आया।
शेखर खांसकर गले को साफ करते हुए और उसकी और देखते हुए बोला- ‘ललिता, देखो-बहुत होशियारी से रहना! फिर भी यदि तुम्हें कोर्इ जरूरत लगे, तो भैया से मेरा पता लेकर, बिना संकोच मुझे लिखना।’
दोनों ही चुप रह गए। ललिता मन-ही-मन अनुमान करने लगी कि शायद शेखर को मालूम हो गया है कि इस बार वह उनके साथ न जाएगी। साथ ही मन-ही-मन यह भी साचो कि शायद उन्हों मेरे न जाने का कारण ज्ञात हो गया होगा! इस बात को सोचकर वह मानो शर्म से जमीन में धंस गर्इ।
एकाएक शेखर ने कहा- ‘ललिता, अब तुम जाओ! तुमको मालूम है कि मुझे बहुत से काम करने हैं। काफी समय हो आया है, ओफिस भी जाना है।’
ललिता उसी संदूक के सामने आकर बैठ गर्इ और कहने लगी- ‘जाओ, ओफिस जाने की तैयारी में लगो, मैं सब सामान ठीक से रख देती हूँ।’
‘अच्छा इससे भली और क्या बात हो सकती है।’ ललिता को चाभी का गुच्छा देकर शेखर बाहर जाने लगा। जाते समय कुछ ख्याल हो आया, अतः दरवाजे के पास खड़े होकर उसने कहा- ‘मुझे क्या-क्या आवश्यकता है, यह तुम्हें मालूम है न?’
ललिता संदूक के अंदर की वस्तुएं एक-एक करके देखने लगी। शेखर की बात का कोर्इ भी उत्तर नहीं दिया।
शेखर ने नीचे जाकर, माँ से पूछकर मालूम किया कि अन्नाकाली ने जो कुछ कहा, वह सब सत्य है। गुरुचरण बाबू ने पूरा कर्जा अदा कर दिया। ललिता के लिए योग्य वर की खोज है-यह भी सत्य है। तत्पश्चात् कुछ और पूछकर वह स्नान करने के लिए चला गया।
लगभग दो घंटे के पश्चात् नहा-खाकर शेखर अपने कमरे में कपड़े पहनने के लिए आया। कमरे में आते ही उसने जो देखा उसे देखकर वह एकाएक आश्चर्य में पड़ गया। इन दो घंटो में ललिता ने कुछ कार्य नहीं किया था। वह बक्स के पास, मन मारे, माथा टेके हुए खामोश बैठी थी। शेखर के आने की आहट से उसने झट सिर उठाया और फिर तुरंत गरदन नीची कर ली। रोते-रोते उसकी आँखें फूल आर्इ थीं। शेखर की नजर उसकी आँखों पर आवश्यक पड़ी, परंतु उसने न देखने का बहाना किया। वह चुपचाप अपने दफ्तर के कपड़े पहनने लगा। कपड़े पहनते हे, सहज भाव से उसने कहा- ‘अभी रहने दो ललिता। स समय तुमसे यह सब न हो सकेगा, दोपहर में आकर रख जाना।’ यह कहकर शेखर ओफिस चला गया। उसने ललिता के मनोभाव को पूर्ण रूप से समझ लिया था, फिर भी हर बात को बगैर सोचे-समझे कह डालना वह उचित नहीं समझता था, और न तो उसकी हिम्मत ही हुर्इ।
वह उसी दिन मामा को चाय देने के समय कमरे में आर्इ, तो वहाँ शेखर को भी उपस्थित देखकर दंग रह गर्इ। वह यात्रा पर जाने के पहले गुरुचरण बाबू से मिलने के लिए आया था।
ललिता ने चाय तैयार करके, गिरीन्द्र और मामा के सामने दो कपों में लाकर रख दी। गिरीन्द्र ने पूछा- ‘क्यों ललिता, शेखर बाबू को चाय न दोगी?’
मीठी स्वर में ललिता ने कहा- ‘ललिता ने एक दिन ऐसा कहा भी था कि शेखर दादा चाय नहीं पीते और अन्य को पीने भी नहीं देना चाहते। तत्काल गिरीन्द्र को वही बात याद आ गर्इ थी।
हाथ में चाय का कप लेकर गुरुचरण बाबू ललिता के लिए ढूंढे गए वर की वात कहने लगे- ‘लड़का अच्छा है, बी.ए. में पढ़ रहा है।’ यह सब कह चुकने के पश्चात् फिर बोले- ‘फिर भी तो वह लड़का गिरीन्द्र को न भाया। इतना जरूर है कि लड़का विशेष साफ और सुन्दरी नहीं है, फिर भी शादी के बाद कौन रूप-रंग और सुंदरता देखता है, और यह रंग-रूप काम ही क्या आता है? मर्द की अच्छार्इ तो उसके गुणों में होती है।’
गुरुचरण बाबू की एकमात्र इच्छा यह थी कि किसी तरह ललिता का पाणिग्रहण हो और उनके सिर से यह बोझ उतरे।
आज ही शेखर का परिचय गिरीन्द्र को, यहीं पर बैठे हुए हुआ था। गिरीन्द्र को देखकर शेखर को कुछ हंसी आर्इ और उसने कहा- ‘आखिर गिरीन्द्र बाबू को क्यों लड़का अच्छा नहीं लगा? लड़का अभी पढ़ता है, उम्र भी ठीक है, फिर तो कोर्इ कमी है ही नहीं। सुपात्र के यही सब गुण हैं।’
गिरीन्द्र को लड़का पसंद क्यों नहीं है- इस बात शेखर समझ चुका था। उसे भविष्यमें भी कोर्इ लड़का भला न मालूम होगा। गिरीन्द्र ने इस बात का कुछ उत्तर नहीं दिया, उसका मुंह आरक्त हो उठा। शेखर ने उस आरक्त मुखाकृति को भी देख लिया। वह उठकर खड़ा हो गया बोला- ‘काकाजी, कल मैं माँ को लेकर प्रयाग जा रहा हूँ, परंतु याद रखिएगा, ठीक समय पर शुभ कार्य की खबर अवश्य दीजिएगा।’
गुरुचरण बाबू ने उत्तर दिया- ‘क्या कहते हो, बेटा! तुम्ही तो मेरे सब कुछ हो, मेरा है की कौन। फिर ललिता की माँ की अनुपस्थिति में कोर्इ काम भी तो नहीं हो सकता। क्यों बेटी?’ इतना कहकर गुरुचरण बाबू मुस्कुराए और ललिता की और देखा।
मगर ललिता को वहाँ न देखकर बोले- ‘आखिर ललिता यहाँ से कब चली गर्इ?’
शेखर ने कहा- ‘ज्यों ही यह बात छिड़ी वह चली क्यों न जाए?’
अत्यंत गंभीर भाव से गुरुचरण बाबू ने कहा- ‘वह चली क्यों न जाए? आखिर वह भी सयानी हुर्इ, समझ भी उसकी कम नहीं है!’ उन्होंने एक गहरी सांस ली और कहने लगे- ‘मेरी पुत्री ललिता सरस्वती और लक्ष्मी का सम्मिलित स्वरूप है। ऐसी लड़की होना ही कठिन है। ऐसी औलाद बड़े पूजा-पाठ करने के बाद ही मिलती है, शेखर भैया!’
यह बात उनके मुख से निकलते ही, उनके दुबले मुख पर एक प्रकार की चमक दौड़ गर्इ। उनकी ऐसी अवस्था देखकर गिरीन्द्र तथा शेखर दोनों में श्रद्धा का बहाव उमड़ आया।
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