परिणीता
शरतचंद्र चट्टोपाध्याय
(3)
चारूबाला की माँ का नाम मनोरमा था। ताश खेलने से बढ़कर उन्हें और कोर्इ शौक न था। परंतु जितनी वह खेलने की शौकीन थीं, उतनी उनमें खेलने की दक्षता न थी। ललिता उनकी तरफ से खेलती थीं, तो उनकी यह कमी पूरी होती थी। मनोरमा के ममेरे भार्इ गिरीन्द्र के इधर आने पर, मनोरमा के घर ताश की बाजियां कर्इ दिन से बराबर दोपहर को जमती हैं। गिरीनद्र अच्छा ताश खेल लेता है। वह सदैव मनोरमा के विपरीत खेलता था। इस कारण उसे ललिता का सहयोग बहुत ही आवश्यक था। उसके खेलने पर ही जोड़-तोड़ की बाजी होती थी।
थियेटर से लौटने के बाद, दूसरे दिन ललिता मनोरमा के घर ठीक समय पर जब न आर्इ, तो मनोरमा ने अपनी नौकरानी को उसे बुला लाने के लिए भेजा। उस समय अंग्रेजी की किसी किताब का बंगला में अनुवाद कर रही थी। इसलिए वह नहीं गर्इ। फिर उसकी सखी चारूबाला उसे बुलाने के लिए आर्इ, परंतु उसके कहने पर भी ललिता नहीं आर्इ।
जब मनोरमा स्वयं ही बुलाने के लिए आ उपस्थित हुर्इ। उसकी कापी औऱ किताब को एक रखते हुर्इ बोली- ‘चल ललिता, तुझे बड़ी हो जाने पर जज नहीं बनना है। आज ताश खेलना ही पड़ेगा। चल, जल्दी चल।’
ललिता परेशानी में पड़ गर्इ। रुआंसी होकर उसने अपनी कठिनार्इ बतानी शुरू की। उसने कहा- ‘आज मेरा पहुंच सकना कठिन है, कल अवश्य आऊंगी।’ और भी तरह-तरह की अनुनय विनय की, परंतु उसने जरा भी नहीं सुना। ललिता की मामी के कहने पर मनोरमा उसका हाथ पकड़कर लिवा लार्इ। आज भी वह गिरीन्द्र के विपक्ष में खेली, परंतु दिल न लगने के कारण खेल में तनिक भी मजा न आया। खेल के प्रारंभ से अंत तक वह उदभ्रान्त तथा मलिन बनी रही। हृदय में एक धुकधुकी-सी उठती रही। किसी तरह उसने जल्दी ही खेल खत्म किया और वहाँ से चली गर्इ। जाते समय गिरीन्द्र ने कहा- ‘कल तो आप टाल गर्इ, केवल रूपया भेजकर ही रह गर्इ। चलिए, कल फिर देखने चलेंगे।’
मीठे स्वर में ललिता ने कहा- ‘नहीं, कल मेरी तबियत बहुत खराब हो गर्इ थी।’
मुस्कराते हुए गिरीन्द्र ने फिर कहा- ‘मगर अब तो आप ठीक है न? चलिए, कल तो आपको जरूर चलना होगा।’
मैं तो कल बिल्कुल ही नहीं पहुंच सकूंगी! नहीं-नहीं, मुझे तो कल बहुत काम है। यह कहकर वह तेजी से वहाँ से निकल गर्इ। आज उसका मन केवल शेखर के भय से ही नहीं लग रहा था, यह बात न थी। पर न मालूम क्यों आज उसे लज्जा लगती थी।
शेखर के ही घर की तरह, पास के घरमें भी ललिता का छोटेपन से आना-जाना तथा खेलना-कूदना था। उससे किसी भी तरह का कोर्इ पर्दा न था। यही कारण था कि उसने चारू के मामा से भी परदा न किया। बात करने में भी उसे किसी तरह की हिचक मालूम न हुर्इ, परंतु जाने क्यों, बार-बार उसके हृदय में यह बात उटने लगी कि इस थोड़े से समय के परिचय में ही, गिरीन्द्र ने उसे इस प्रकार प्यार-भरी दृष्टि से क्यों देखना शुरू कर दिया। आज के पहले उसने कभी ख्याल भी न किया था कि पुरुषों की प्रेमपूर्ण निगाहें भी इतनी गहरी लज्जा का सृजन कर सकती हैं।
क्षणभर की झिझक के पश्चात् ही वह अपने घर से शेखऱ के घर चली गर्इ। शेखर के कमरे में सीधे पहुंचकर वह अपने काम में व्यस्त हो गर्इ। बचपन से ही ललिता शेखर के तमाम काम करती आ रही है। शेखर की पुस्तके सजाने तथा अस्त-वयस्त चीजों को कायदे से सजा देने में उसको आनन्द मिलता था। अब तो ऐसा था कि शेखर के कमरे में कोर्इ जाता ही न था, यदि किसी दिन ललिता न आ पाती, तो शेखर के कमरे में कबाड़ी की दुकान का-सा सामान फैला रहता था। कहीं कपड़े पड़े होते, तो कहीं दवात गिरी होती और कहीं किताबें इधर-उधर पड़ी होतीं। पाँच-सात दिन से, ताश के चक्कर में पड़कर ललिता न आ सकी। इससे कमरे का और भी बुरा हाल था। सारी चीजें इधर-उधर फैली थीं। मालूम होता था कि सभी चीजों को किसी ने जान-बूझकर इधर-उधर फैलाया है। ललिता अपने काम में लग गर्इ और सभी चीजों को यथास्थान रखना शुरू कर दिया। वह शेखर के आने से पूर्व ही सब काम समाप्त करके चले जाने की धारणा में थी और जल्दी-जल्दी कार्य करने लगी।
भुवनेश्वरी के घर ललिता फुर्सत पाने पर आती और उसके पास बैठती। इस घर के सभी लोगों से उसका घर का-सा व्यवहार था। इस घर के सभी लोग भी उसको घर का ही सदस्य समझते थे। माता-पिता के देहांत के समय उसकी उम्र आठ वर्ष थी। अत: विवशतावश मामा के यहाँ आना पड़ा था। उसी समय से वह शेखर को छोटे भार्इ की भांति घेरे रहती है तथा उससे ही इतनी शिक्षा प्राप्त की है। सभी को यह मालूम है कि ललिता पर शेखर का बहुत प्रेम है। वह प्रेम बदलकर कहाँ-से-कहाँ जा पहुंचा है, इसका किसी को पता न था। ललिता स्वयं भी न जानती थी। सब केवल इतना ही जानते हैं कि वह बचपन से ही शेखर के निकट रहती है और उससे असीम आदर पाती है। अब तक उनमें से किसी को भी यह अनुचित नहीं लगा था। फिर शेखऱ ने ललिता के साथ कोर्इ ऐसा व्यवहार भी नहीं किया कि उस पर किसी का ध्यान विशेष रूप से पड़ता। किसी ने यह भी स्वप्न में ख्याल न किया था कि इस घर की बहू ललिता बनेगी या बन सकती है। इस बात की कल्पना दोनों के परिवारों में से किसी को न थी। भुवनेश्वरी ने भी कभी ऐसा न सोचा था।
ललिता ने सोचा था कि वह काम समाप्त करके, शेखऱ के आने से पूर्व ही कमरे में चली जाएगी, लेकिन उसकी मनोभावनाओं के चंचल होने के कारण, घड़ी की और दृष्टि ही न गर्इ। समय काफी हो गया। कमरे के सामने जूतों की चरमराहट से उसे होश आया और सिटपिटाकर वह एक ओर खड़ी हो गर्इ।
कमरे के अंदर पहुंचते ही शेखर ने कहा- ‘ओह! अहो-भाग्य! तुम आर्इ तो! कहो, कल कितनी रात बीते लौटीं?’
ललिता चुपचाप खड़ी रही।
शेखर एक आरामकुर्सी पर बैठकर कहने लगा- ‘कहो, कल तुम कितने वक्त लौटीं? आखिर दो बजे या तीन बजे? क्या मुंह से बोल नहीं फूटता?’
ललिता फिर भी चुपचाप ही खड़ी रही।
उसे चुप देखकर शेखऱ ने गुस्से से कहा- ‘यदि बोलना ही नहीं है, तो खड़ी क्यों हो? नीचे चली जाओ, माता जी बुलाती हैं।’
ललिता मुंह फीका किए हुए नीचे चली आर्इ। भुवनेश्वरी रसोर्इघर में बैठी, जलपान का सामान थाली में सजा रही थीं। उनके समीप आकर ललिता ने पूछा- ‘माताजी, आपने मुझे बुलाया है?’
‘नहीं, मैंने तो तुम्हें नहीं बुलाया!’ यह कहते हुए उन्होंने ललिता की तरफ देखा और कहने लगीं- ‘तुम इतनी सूखी सी क्यों हो, ललिता? मुझे लगता है कि तुमने कुछ खाया-पिया भी नहीं है?’
ललिता ने उत्तर में गर्दन हिला दी।
भुवनेश्वरी ने कहा- ‘अच्छा ले, नाश्ते की थाली अपने दादा को दे आ।’
थोड़ी देर पश्चात ललिता थाली लिए हुए कमरे में आर्इ। उसने देखा कि शेखर पहले की तरह आराम कुर्सी पर आँखे बंद किए हुए लेटा है। अभी तक उसने दफ्तर वाले कपड़े नहीं उतारे थे। हाथ-मुंह भी नहीं धोया। उसके नजदीक आकर ललिता ने कहा- ‘नाश्ता लेकर आर्इ हूँ।’
आँखे बंद किए शेखर ने कहा- ‘कहीं रख दो!’
परंतु ललिता नाश्ते की थाली लिए वहीं पर चुपचाप खड़ी रही।
शेखर ने वैसे आँखे तो नहीं खोली थीं, फिर भी उसे ज्ञात हो रहा था कि ललिता गर्इ नहीं, वह मूर्तिवत् खड़ी है। दो तीन मिनट चुप रहने के बाद शेखऱ ने फिर कहा- ‘कब तक इस प्रकार खड़ी रहोगी? अभी मुझे देर है। नाश्ते को रख दो और जाओ।’
यह सुनकर ललिता मन ही मन कुछ बिगड़ रही थी, फिर भी अपने मंद स्वर में ही उसने कहा- ‘देरी है तो कोर्इ बात नहीं, इस समय मुझको भी कोर्इ काम नहीं है।’
इस बार शेखर ने उसकी ओर देखा और हंसते हुए बोला- ‘बड़े भाग्य, जुबान का ताला तो टूटा! अगर नीचे काम नहीं है, तो पड़ोसी के घर में तो बहुत काम होगा। यदि वहाँ भी काम नहीं है, तो और आगे वाले घर में कोर्इ-न-कोर्इ काम अवश्य होगा! एक ही घर तो तुम्हारा नहीं है, कर्इ हैं न?’
‘हां, हैं तो, मेरे कर्इ घर हैं।’ यह कहती हुर्इ नाराजगी से भरकर नाश्ते की थाली को वहीं मेज पर रखकर तेजी से कमरे के बाहर चली गर्इ।
उसको जाते देखकर शेखर ने जोर से कहा- ‘ललिता, जरा संध्या समय कुछ सुन जाना!’
‘नीचे-ऊपर हजारों बार जाने की मुझमें शक्ति नहीं है।’ ललिता यह कहकर नीचे चली गर्इ।
माँ ने उसे देखते ही कहा- ‘बेटी, भैया को नाश्ता दे आर्इ, पर यह पान ले जाना भूल ही गर्इ।’
ललिता ने कहा- ‘माँ मुझको तो बड़ी भूख लगी है। इस समय पर ऊपर न चढ़ सकूंगी। किसी दूसरे के हाथ से पान भिजवा दो?’
ललिता के सुंदर मुख की झल्लाहट और परेशानी की लालिमा के चिन्हों को देखकर, भुवनेश्वरी ने उसे अपने पास बैठाते हुए कहा- ‘अच्छा! अच्छा! ले, तू खा-पी ले! पान किसी नौकरानी के हाथ भेज देती हूँ।’
ललिता ने कुछ भी नहीं कहा और भोजन करने के लिए जा बैठी।
शेखर पर उसको गुस्सा आया। थियेटर देखने भी नहीं गर्इ, फिर भी शेखर ने उसे बहुत भला-बुरा सुनाया। ताश खेलने के लिए चारू की माँ उसे जबरदस्ती ले जाती है। उसकी मजबूरी को शेखर ने नहीं देखा औऱ तमाम कहा-सुना! इसी के कारण वह शेखऱ के पास चार-परंतु जब शेखर दफ्तर चला जाता, तो वह दोपहर को आती और सभी चीजें साफ करके यथास्थान रख जाती थी। शेखर के आने के पहले ही वह चली जाती थी।
शेखर को बाद में अपनी भूल मालूम हुर्इ। उसे पता चला कि ललिता उस दिन थियेटर देखने नहीं गर्इ थी। अपनी भूल मालूम होने पर उसे बड़ा दुख हुआ, इसलिए दो दिन उसने ललिता को बुलाने के लिए आदमी भेजा, फिर भी ललिता नहीं आर्इ।
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