डॉमनिक की वापसी - 14 Vivek Mishra द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • Revenge by Cruel Husband - 4

    इस वक्त अमीषा के होंठ एक दम लाल हो गए थे उन्होंने रोते रोते...

  • Comfirt Zone

    *!! बूढ़े गिद्ध की सलाह !!**एक बार गिद्धों (Vultures) का झुण्...

  • स्वयंवधू - 26

    उस रात सभी लोग भूखे पेट सोये, लेकिन उनके पास हज़म करने के लि...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 35

    पिछले भाग में हम ने देखा कि अब्राहम और मोमल फीलिक्स को लेकर...

  • दरिंदा - भाग - 10

    प्रिया के घर जाने के कुछ घंटे बाद शाम को जब राज आया तो आज उस...

श्रेणी
शेयर करे

डॉमनिक की वापसी - 14

डॉमनिक की वापसी

(14)

अगले हफ्ते ग्रुप मंडी पहुंचा. शिमोर्ग को छोड़कर बाकी सभी लोग पुराने बस अड्डे के सामने ही किसी होटल में रुके थे. पहले ही दिन शाम को शिमोर्ग दीपांश को माँ से मिलाने ले गई। उसकी माँ उसी की तरह बहुत सुंदर थीं, वह अपने गोरे रंग की वजह से भारतीय परिधान में भी विदेशी लग रहीं थीं. दीपांश को उनके चलने, उठने-बैठने के तरीके और तनी हुई गरदन को देखकर नाटक में शिमोर्ग द्वारा अभिनीत किए जा रहे किरदार ‘एलिना’ की याद आ रही थी. उसे लगा उस किरदार को निभाते हुए वह बहुत कुछ अपनी माँ की तरह ही रिएक्ट करती है. जब शिमोर्ग उसके लिए चाय बनाने में व्यस्त थी तब उसने उसे ध्यान से देखा. उस समय वह अपने किरदार से बाहर केवल शिमोर्ग ही लगी, उसके चहरे में घुली हल्की-सी भारतीयता ने उसे अपनी माँ से कुछ अलग और थोड़ा ज्यादा आकर्षक बना दिया था. हालांकि जब वे दोनों किसी बात पर मुस्कराईं तो उसे लगा कि उन दोनों की मुस्कान बिलकुल एक जैसी ही थी. उसे उनका घर किसी पुराने संग्रहालय जैसा लगा. उसमें रखी हर चीज़ उसे बहुत ऐतिहासिक और किसी वैभवगाथा से जुडी जान पड़ी. उस रोज़ उसकी माँ लगातार थिएटर में आगे ज्यादा कुछ संभावनाएं न होने और शिमोर्ग के दिल्ली में अकेले रहने पर चिन्ता जताती रहीं। शिमोर्ग लगातार यह ध्यान रखती रही कि माँ कोई अप्रिय बात दीपांश से न कहें।

दूसरे दिन रिहर्शल खत्म होने के बाद शिमोर्ग दीपांश को कम्युनिटी सेन्टर के हॉल से बाहर ले आई। वह उसे अपने साथ शहर घुमाना चाहती थी। बाहर पर्यटकों की खासी चहल-पहल थी, दो-एक दिन में मनाली में बर्फ़ गिरने के आसार थे। वह अपनी माँ की एन्टीक-सी दिखने वाली गाड़ी से वहाँ पहुँची थी। यह कार शिमोर्ग के नाना का उसकी माँ को दिया गया तोहफ़ा थी, जिसे शिमोर्ग के लाख कहने पर भी माँ बदलने को तैयार नहीं होती थीं. दीपांश को यह बात उसकी माँ से ही पता चली थी. बाहर बहुत ठण्ड थी और यह गाड़ी ऐसे मौसम में स्टार्ट होने में समय लेती थी, पर उस दिन वह एक ही बार में स्टार्ट हो गई।

वे शहर के बीच से गुज़रते हुए, व्यास नदी पर बने पुल को पार करते, मनाली रोड पर आ गए थे। चारों ओर हरे-भरे पहाड़ अपने विराट विस्तार के साथ सदियों से जस के तस खड़े थे, पर इन सालों में शहर कितना बदल गया था, कितने हॉटेल-दुकानें अचानक ही नदी के किनारे उग आए थे। शिमोर्ग ने गाड़ी की रफ़्तार बढ़ाते हुए दीपांश को बताया था, ‘अब यहाँ भी सड़कों पर कितनी गाड़ियाँ दिखने लगी हैं। मुझे अभी भी याद है, जब यह गाड़ी नई थी और मैं माँ के साथ सैर पर निकलती, तो एक-दो सरकारी बसों और कभी-कभी डाक खाने की एक लाल गाड़ी के अलावा केवल हमारी ही गाड़ी सड़क पर दौड़ती दिखाई देती थी।’

दीपांश चुपचाप सड़क के दाईं ओर तेज़ी से बहती नदी को एकटक देख रहा था। जल्दी ही शहर की चहल-पहल पीछे छूट गई थी। अब वे मंडी से मनाली जाने वाली चौड़ी सड़क पर आ गए थे। दूर से देखने पर नदी के पार शहर ऊपर से उतरते कोहरे में डूबता हुआ लग रहा था। शिमोर्ग बीच-बीच में सड़क से नज़रें हटाकर दीपांश को देख लेती थी। कुछ देर बाद उसने गाड़ी सड़क के बाईं ओर एक पुराने रेस्त्रां ‘मैन्डी हिल्स’ के सामने पार्क कर दी और दोनो उसके फूलों की मुड़ेर वाले दरवाज़े से सीढ़ियाँ चढ़ते हुए, टेरेस पर लगी टेबलों तक आ गए। उन्होंने रोड साइड से उलट, पहाड़ों की तरफ़ पड़े टेबल को चुना। दोनों कुछ देर ख़ामोश बैठे रहे फिर दीपांश उठकर छत के उस कोने में आ गया जहाँ से आसमान में सिर घुसाए पहाड़ों की लम्बी कतार खड़ी थी।

पहाड़ों के ऊपर आसमान की सीधी, तनी चादर का एक सिरा ढीला पड़ गया था और ठीक वहीं से कुहरा उतरा चला आ रहा था, जो बादल ऊँचे, तिकोने देवदारों की नोक पर टिके थे, वे धीरे-धीरे तेज़ होती हवा से नीचे घाटी में उतरने लगे थे। हिमाचल के पहाड़ों की दूर तक फैली हरियाली, जिसका रंग इतना गहरा था कि उन्हें देखके लगता था प्रकृति की बिलकुल ताज़ा दम तस्वीर, किसी ने बड़े करीने से अभी-अभी कैनवास पर उकेरी है, और उसके रंगों का अभी सूखना बाकी है।

शिमोर्ग भी उठकर दीपांश के पास आ गई थी।

‘कितना गहरा रंग है यहाँ की हरियाली का। कितने दिनों बाद एक लम्बी साँस लेने का सुख मिल पा रहा है’ दीपांश ने छत की रेलिंग पर झुकते हुए कहा। फिर जैसे ख़ुद को ही सुनाते हुए कहा, ‘पिताजी कहते थे, ‘पहाड़ों को, नदियों को, वादियों को सिर्फ़ देखो नहीं, इन्हें सुनो भी। वे इन्हें घंटों सुना करते थे। जैसे इनके संगीत को आत्मसात कर रहे हों। कभी मैं भी सुनता था।’

‘अब नहीं सुनते?’ शिमोर्ग ने दीपांश की ओर घूमते हुए पूछा।

‘मेरे भीतर सिर्फ़ चीखें रह गईं। एक कभी न थमने वाला शोर। अब भी पहाड़ों को देखता हूँ तो वो संगीत कानों में गूँजता है पर अब ठीक से सुन नहीं पाता। कोशिश करता हूँ तो साँसों की लय बिगड़ जाती है।’ बोलते-बोलते दीपांश यकायक चुप हो गया।

तभी शिमोर्ग को जैसे कोई बहुत पुरानी बात याद आ गई। वह आसमान की ओर देखते हुए बोली, ‘जानते हो मेरे पापा को भी इन पहाडों से, इस ज़मीन से बेहद लगाव था। कहते थे इन पहाड़ों का रंग एक बार चढ़ जाए, तो फिर आसानी से नहीं उतरता, गहरे तक मन-साँस में बैठ जाता है। उनकी साँसों में हिमाचल अन्त तक बसा रहा, वह भी तुम्हारी तरह एक डायरी हमेशा अपने साथ रखा करते थे। कभी-कभी मुझे भी उसमें से अपना लिखा हुआ कुछ पढ़के सुनाया करते थे। उनकी फेवरिट लाइन्स पहाड़ों की आबो-हवा, यहाँ की हरियाली पर ही थीं। दिल्ली के एक अस्पताल में अपनी आखिरी साँस लेते समय भी, वह वही पँक्तियाँ, दोहरा रहे थे, जो मैंने उनके मुँह से पहले भी कई बार सुनी थीं- ‘बस साँस/ एक गहरी साँस/ अपने मन की/ एक पूरी साँस/ हरियाली की हरी साँस/ अपनी माटी में सनी साँस।’

फिर जैसे वह पहाड़ों की हरियाली। उसको छूती हवा से बातें करती हुई बोलने लगी थी, ‘उनकी यह साँस कई साल पहले, यहीं मण्डी में ही रह गई थी। मैं तब नौ साल की थी, जब वह घर छोड़कर चले गए। आज तो उन्हें इस दुनिया से गए भी तीन साल से ऊपर हो गए।’

‘माँ और तुम उनके साथ शहर नहीं गए?’ दीपांश ने ऐसे पूछा जैसे प्रश्न के उत्तर में उसे अपने ख़ुद के जीवन के किसी प्रश्न का उत्तर मिलने की संभावना हो।

शिमोर्ग ने अपने दोनो हाथ सामने बांधते हुए कहा, ‘चलो अंदर चलते हैं। यहाँ बहुत सर्दी हो रही है।’

दोनों छत से उठकर हॉल में आ गए। खिड़की के पास कोने की टेबल खाली थी।

बैठते हुए शिमोर्ग ने कहा, ‘मुझे वो लोग अच्छे लगते हैं जो किसी की ज़िन्दगी के बारे में ज्यादा सवाल नहीं पूछते। पर ऐसे लोग बहुत बुरे लगते हैं जो कभी किसी के बारे में कोई सवाल नहीं पूछते, मैंने तुमसे तुम्हारे बारे में कितना कुछ पूछा, पर तुम कभी कुछ नहीं पूछते। जानते हो आज तुमने पहली बार कुछ पूछा है मेरे बारे में। …अच्छा लगा।’

वेटर पहले से ऑर्डर की हुई कॉफी टेबल पर रख गया।

शिमोर्ग ने दोनो के कपों में चीनी घोलते हुए कहा, ‘पापा की माँ से कभी नहीं बनी। माँ आधी ब्रिटिश थीं और आधी हिन्दुस्तानी, यानी मेरे नाना अंग्रेज थे और नानी हिमाचल की, पर माँ हमेशा हिमाचल से निकलना चाहती थीं, वह कभी अपने को इस ज़मीन से नहीं जोड़ सकीं, हमेशा हिमाचल से निकल जाने के बारे में सोचती रहीं, जिन पहाड़ों को उनके पिता और पति बेहद प्यार करते थे। वह उनसे दूर चली जाना चाहती थीं। पापा के सामने वह हमेशा कहतीं, ‘पता नहीं मेरे पिता ने क्या देखा इन पहाड़ों में, जो यहाँ बस गए और मैंने क्या देखा, यहाँ, इस आदमी में, जो इससे शादी कर ली।’

कॉफी के दोनों कपों से उठती भाप एकमेक होने लगी। शिमोर्ग खिड़की से बाहर देखती हुई बोली, ‘पापा और नाना दोनो को पहाड़ों को छोड़कर जाना पड़ा। एक को जीते जी और एक को मरने के बाद। पापा, माँ से होने वाले रोज़ के झगड़ों की वजह से घर छोड़कर दिल्ली चले गए और नाना की डेड बॉडी को उनकी पहली पत्नी के आग्रह पर इंगलैंण्ड ले जाया गया।’ दीपांश नहीं जान पाया था कि आज शिमोर्ग क्यूँ इस तरह बीते समय के पन्ने खोलती चली जा रही है पर वह उसे बड़े ध्यान से सुन भी रहा था। और अब तक उसके बारे में बहुत कुछ जान गया था। उस शाम अंधेरा होने तक वे उस रेस्त्रां में बैठे रहे थे।

मंडी में प्ले देखने का बहुत पुराना कल्चर है। सारी टिकटें एक दिन पहले ही बिक चुकी थीं। शिमोर्ग को अपने ही शहर में परफोर्म करना था। इस बात से वह खासी उत्साहित थी। उसने अपनी माँ और बचपन की सहेलियों सहित अपने पापा के सबसे अच्छे दोस्त अनल जी को भी बुलाया था। शिमोर्ग को एक्टिंग का चस्का उन्हीं से लगा था। हालाँकि अब वह एक्टिंग छोड़ चुके थे पर शिमोर्ग ने मंच पर सबसे पहले अनल जी को ही अभिनय करते देखा था। वह चाहती थी कि आज वह उसे मंच पर देखें और अपनी राय दें। उसके हिसाब से पिछले दो ढाई साल में वह अभिनय में बहुत परिपक्व हुई थी। वह आज अपना बेहतरीन देना चाहती थी। अच्छा। सबसे अच्छा। पर उसकी सहेलियों की बार-बार दीपांश से मिलने की फरमाइश से वह कुछ झुंझला गई थी। वह उन्हें बड़ी देर से टाले जा रही थी। जानती थी कि स्टेज पर जाने से पहले अक्सर सभी अपने-अपने कोनों में सिमट जाते हैं। खास तौर से दीपांश मंच पर जाने के कई घंटे पहले से बिलकुल चुप और उदास हो जाया करता था। उस समय नाटक से बाहर की कोई बात जैसे उस तक पहुँचती ही नहीं थी। उसका काला ढीला चोगा। हल्की बड़ी हुई दाड़ी। बिखरे बाल। सब पहले जैसे होकर भी पहले जैसे न होते। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों पर एक पानी की पर्त चढ़ जाती जो धीरे धीरे जैसे उसके वज़ूद को दीपांश से बदलकर कोई और बना देती। देखने वालों को यक़ीन ही नहीं होता कि हर बात पर धीरे से मुस्कराकर हाँ में सिर हिलाने वाला लड़का ही, मंच पर खड़ा डॉमनिक है। सब बार-बार पूँछते ये वही लड़का है? ख़ुद शिमोर्ग को भी डॉमनिक के गेटअप में दीपांश को ढूँढना मुश्किल लगता। वह उस समय किसी से बात नहीं करता। पर आज शिमोर्ग ख़ुद मंच पर जाने से पहले उससे बात करना चाहती थी। आज अपने शहर में वह दर्शकों का दिल जीत लेना चाहती थी। चाहती थी यहाँ उसका ऐसा यादगार अभिनय हो कि माँ, अनल जी, उसकी दोस्त और सभी जानने वाले दंग रह जाएं। वह चाहती थी कि ऐसे में दीपांश उससे कुछ कहे। उसके लिए कुछ करे। कुछ ऐसा कि मंच पर उसकी उपस्थिति डॉमनिक के किरदार से दब न जाए। पर हम जो चाहते हैं उसे कहने के लिए हमेशा हमारे पास सही शब्द हों, या सही शब्दों में हम उसे कहने की हिम्मत जुटा सकें जरूरी नहीं।

कुछ ही देर में शिमोर्ग दीपांश के सामने खड़ी थी। उसे नहीं पता था कि जो वह चाहती है, उसे कैसे कहेगी। फिर भी शिमोर्ग ने कुछ कहा, ‘आज तुम्हारा चोगा कुछ ज्यादा ही ढीला नहीं लग रहा है?’

‘हम्म, मैंने कहा था इति से। उसने बताया- ये नया है।’

‘उसे पुराना वाला भी रखवा लेना चाहिए था। ये तो बहुत बुरा लग रहा है।’

‘कोई बात नहीं। मुझे ठीक लग रहा है।’

‘नहीं यार ऐसे कैसे? कॉस्ट्यूम्स एकदम परफेक्ट होने चाहिए। मैं तो ऐसे में बहुत अनकम्फर्टेबल फील करती हूँ। तुम देखना ये तुम्हें डिस्टर्ब करेगा।’

दीपांश धीरे से मुस्करा दिया। फिर कुछ सोचते हुए बोला, ‘मेरी माँ मेरे कपड़े अपने हाथ से सिलती थीं। वे अक्सर मुझे ढीले होते। मैं कहता भी कि माँ ये बहुत ढीले हैं। जानती हो माँ क्या कहतीं? कहतीं, ‘ढीले कपड़ों में नज़र नहीं लगती।’ मैं भी माँ की बात मानकर उन्हें पहन लेता। थोड़ा बड़ा हुआ तो जाना कि पेट भर खाना और तन ढकने के लिए कपड़ा भी सबको नहीं मिलता। थोड़ा और बड़ा हुआ तो जाना कि हम भी उन्हीं लोगों में से थे। हमारी खुशहाली हमारे माँ-बाप ने बड़े जतन से हमारे चारों तरफ़ रची थी।’

शिमोर्ग आज दीपांश को शो से पहले इस तरह बोलते हुए देखके हैरान थी।

दीपांश जैसे बहुत दूर धीरे-धीरे डूबती जाती किसी दुनिया की आवाज़े सुनकर बोल रहा था, ‘गाँव में मैं और मेरे साथ के और बच्चे अपनी उम्र से पहले ही बड़े होने लगे थे। हम सब जान गए थे कि हमारी ख़ुशियाँ बहुत जल्दी पहाड़ से गिरकर टूटने वाली हैं। हमें पता चलने लगा था कि जो कुछ थोड़ा बहुत ख़ुशनुमा-सा हमारे चारों तरफ़ था उसे बनाए रखने के लिए हमारे माँ-बाप रात-दिन कितना जतन करते हैं।’

उसने चोगे की आस्तीनों को उठा कर उन्हें सूँघते हुए कहा, ‘माँ पिताजी के पुराने पैन्ट जो पुट्ठों और घुटनों से घिस जाते थे उनके पाए काटकर मेरे निक्कर सिल दिया करती थीं। माँ बहुत अच्छी माँ थीं, पर दर्जी नहीं थीं। आड़ी-टेड़ी-ढीली जैसी बन पड़ती, सिल देतीं फिर अपने तर्कों से उसे सही ठहराती रहतीं। पर जब मैं उन्हें ख़ुश करने के लिए कहता कि ये उन्होंने बहुत अच्छी सिली है, मैं इसी को पहन के स्कूल जाऊँगा, तो वे रुआँसी हो जातीं। सिर पे हाथ फेर कर कहने लगतीं ‘अबकी बार शहर से तेरे नाप के कपड़े मंगा दूंगी। फिर हमारे पास जो था हमें उसी में रहने की आदत पड़ गई क्योंकि हमारे आसपास लोगों के पास उतना भी नहीं था।’ दीपांश अपने में खोया, दीवार की ओर देखते हुए बोलता जा रहा था।

वह आगे भी कुछ कहता कि तभी घंटी बजी।

फिर पर्दा उठा। पर्दा गिरा।

इसके बीच का समय कब और कैसे व्यतीत हुआ ये शायद हॉल में बैठे किसी आदमी को पता भी नहीं चला। दृश्य उभरे और अंधेरे में विलीन हो गए। रह गई तो बस तालियों कि गड़गड़ाहट और वह भी ऐसी कि लंबे समय तक उसने थमने का नाम नहीं लिया। कुछ लोग दीपांश को देखने के लिए कॉरीडोर में जमा हो गए।

सभो के लिए आज के शो का अनुभव कुछ अलग ही रहा था। ग्रीनरूम में दीपांश अपना चोगा उतारकर, आँखें मूँदे बैठा था। शो से पहले उसे शिमोर्ग से बात करके अपने भीतर भी कहीं कुछ खुलता हुआ-सा लगा था। उसे याद आया था कि उसे हँसे हुए कई महीने हो गए थे। पर अभी कुछ ही दिनों से वह भी यदा-कदा बिना कोशिश के मुस्कराने लगा था। पुराने घाव जैसे अपने आप ही भरने लगे थे। आजकल सुधीन्द्र की कही बातें उसे बार बार याद आतीं। वह अक्सर कहा करता था, ‘प्यार आदमी को दुनियादार बना देता है। राजा, औलिया, पीर, फ़कीर सब के सब जब इश्क़ में होते हैं तो बस एक अदना से आदमी होकर ही रह जाते हैं जिसकी दुनिया बस उसके माशूक तक सिमट जाती है। माशूक़ की ख़ुशी, उसके दुख, उसके सपने।’ उस दिन उसकी कही ऐसी ही एक बात सोच के वह आँखें मूँदे हँस रहा था, ‘जो इश्क़ में हो, ख़ुदा न करे कोई उसके इश्क़ में पड़े’ उस समय शायद दीपांश ने यही सोच के ख़ुद अपने से भी एक दूरी बना ली थी। जहाँ सब अपने आपसे, अपने काम से आत्ममुग्धता की हद प्रेम में करते थे, वहीं वह जैसे अपने काम से विरक्त हो, उसे कहीं दूर खड़ा होके किसी और की तरह देखता था।

अभी वह सोच में डूबा मुस्करा ही रहा था कि शिमोर्ग ने अचानाक पीछे से आकर जैसे उसे चौंका ही दिया। वह आते ही हल्के से शिक़ायत भरे लहज़े में बोली, ‘मैं इतना सीखकर भी कुछ नहीं सीखी। यू डोन्ट नो, यू आर ब्लेस्ड विद टेलेन्ट।’ फिर थोड़ा और पास आते हुए कहा, ‘तुम कैसे मैनेज करते हो?’

दीपांश हल्के से मुस्कराते हुए बोला, ‘तुम बहुत अच्छी आर्टिस्ट हो, सीन से कनेक्ट करती हो पर जिसे तुम मैजिक कह रही हो उसमें मेनेज करने जैसा कुछ नहीं। मैं भी कुछ मैनेज नहीं करता। बस रिस्पोन्ड करता हूँ।’

‘तुममें जादू है। मैं तुम्हारे इस जादू को बांटना चाहती हूँ। इसका हिस्सा बनना चाहती हूँ, पर तुम्हारे चारों ओर एक लकीर है जिसे मैं लांघ नहीं पाती।’ कहते-कहते जैसे अपने काम से उपजी हताशा से उसका स्वर भारी हो गया।

दीपांश ने जवाब में जो कहा वह बाहर से आते शोर में दब गया। शिमोर्ग ने कुछ सुना, कुछ नहीं सुना। वह दीपांश को देखती रही। बाहर से आते शोर से लग रहा था लोग अभी भी दीपांश को देखने के लिए कॉरीडोर में भीड़ लगाए खड़े हैं। तभी रमाकान्त कमरे में आए और दीपांश को अपने साथ लेकर कमरे से बाहर चले गए। दीपांश को बहुत देर तक लोगों ने घेरे रखा।

उस रात थिएटर से निकलते हुए बहुत देर हो गई थी।

दीपांश को होटल तक छोड़ने के लिए, शिमोर्ग लगभग सबसे जिद्द करके उसे अपने साथ ले आई थी। पर उनकी गाड़ी बीच में ही कहीं रुक गई। वे अंधेरे में अंदाजे से आगे बढ़ते हुए किसी गोल सी चट्टान पर जाकर बैठ गए थे। वे जहाँ बैठे थे वहाँ से अंधेरे के सिवा कुछ नहीं दिख रहा था। हाँ, वहाँ से कुछ ध्वनियाँ सुनी जा सकती थीं जिससे कुछ दृश्य ज़ेहन में अपने आप ही बनने-बिगड़ने लगते थे। एक परिचित-सी ध्वनि थी। हवा की नहीं, पानी की। नदी का पानी पत्थरों पर धीरे-धीरे थाप दे रहा था। न जाने पत्थरों को जगा रहा था, या सुला रहा था, या शायद पूछ रहा था कि उन्हें पत्थर हुए कितना समय हुआ। दीपांश ने सैन्डिल उतार कर पैर आगे सरका दिया। पानी में डूबा पत्थर इतना नर्म और चिकना लगा कि पाँव रखो तो धारा के बीच खिसकता जान पड़े। अंधेरे के नीलेपन में आँखें स्थिर हुईं, तो थोड़ी दूर हल्की सी रोशनी दिखाई दी। ठीक वहीं कट के हँसुली हुआ चाँद सतह पर झिलमिला रहा था। हवा उसी रोशनी की तरफ़ से आती जान पड़ रही थी, बेहद नर्म और ठंडी, हल्के से सहलाती हुई, जैसे फुसला के कोई राज पूछना चाहती हो। ऐसे में शिमोर्ग ने बर्फ़ से ठंडे और हवा से नर्म हाथ दीपांश के गालों पे रख दिए। उसके गाल न जाने क्यूँ गर्म थे। जैसे भीतर कुछ तमतमा के सुलग रहा हो। नाटक से बाहर उसके लिए शिमोर्ग का ये पहला स्पर्श था, इतना कोमल, इतना स्नेहिल। लगा किसी नदी में उतरने का आग्रह है। थोड़ा डर लगा। उसने नज़र घुमाके देखा तो शिमोर्ग उसी को देख रही थी। नीम अंधेरे में भी उसके चेहरे की चाँदी चमक रही थी। आँखों में चाँद की हँसुली झिलमिला रही थी। चेहरे पर आँखों से निकलती रोशनी ही फैली थी। इसके अलावा कभी-कभी दूर पुल पर से गुजरती गाड़ियाँ लम्बे शंकुआकार पेड़ों पर रोशनी डालती हुई घाटी को नीले रंग से भर जाती थीं। ऐसी ही नीली रोशनी में दीपांश ने शिमोर्ग के चेहरे को एक बार ध्यान से देखा। एलिना की तरह नहीं शिमोर्ग की तरह, नाटक से बाहर। डॉमनिक के लिए नहीं, अपने लिए।

उसी समय शिमोर्ग ने कुछ कहना भी चाहा, नाटक के किसी संवाद की तरह नहीं, भीतर से अनायास फूटी किसी बात की तरह, पर शब्द जैसे गले से निकलकर होठों पे एक हल्के से कंप के साथ ठिठक गए। ऐसे शब्द जिन्हें बिना कहे भी सुना जा सकता था। पर दीपांश अभी भी उसे किसी गहरे कुएं से देख रहा था। शिमोर्ग ने अपनी उँगलियों से उसके बाएं कान को छुआ, वह गालों से भी ज्यादा गर्म था। शिमोर्ग ने अपना सिर दीपांश के कंधे पर रख दिया।

दीपांश अपनी स्मृति में जमे स्पर्शों को टटोलने लगा। वे पिघल रहे थे। उसने शिमोर्ग से नाटक में प्रेम किया था पर उससे प्रेम में नाटक नहीं किया जा रहा था।

शिमोर्ग ने अनकही बात के साथ ही होंठ उसकी गर्दन पर सटा दिए।

तभी दीपांश के मुँह से निकला, ‘मुझे कुछ कहना है।’

‘जो कहना है वो मैं जानती हूँ। जानती हूँ तुम्हारे और हिमानी के बारे में। सुधीन्द्र ने सब बताया था।’

दीपांश ने उसकी ओर आश्चर्य से देखा।

‘उसको कुछ मत कहना, मैंने ही पूछा था।’ उसने दीपांश के माथे पर गिरे बालों को पीछे किया और उसके गालों पे चूम लिया फिर कंधे से धकेलते हुए बोली, ‘क्या हुआ, यू आर नॉट वेल।’

‘नहीं ऐसा नहीं है। मैं भीतर से बहुत टूटा हुआ हूँ। इसलिए जब भी भीतर कुछ जुड़ने लगता है, उसके फिर टूटने का डर लगने लगता है।’

‘क्यों?’

‘शायद अब उसी तरह रहने की आदत हो गई है। मेरे लिए कुछ भी भूलना बहुत मुश्किल होता है।’

शिमोर्ग ने उसके बालों में उंगलियाँ फिराते हुए सिर अपनी ओर खींचा और सीने से लगा लिया। दीपांश का सिर शिमोर्ग के बिखरे बालों में कहीं छुप गया था। वह फुसफुसाते हुए बोली, ‘अब ऐसा नहीं होगा, मैं उसे हमेशा संजो के रखूँगी।’ फिर जैसे दोनो के शब्द चुक गए। शिमोर्ग दीपांश का हाथ अपने हाथ में लिए उसकी उँगलियों का एक-एक पोर ऐसे दबाती रही जैसे असके दिल में पड़ी गाँठें खोल रही हो।

तन की टूटन, थकन मिट जाती है पर मन की टूटन मिटने में वक़्त लगता है। वह जाते जाते ही जाती है। बहता पानी जैसे रुकने की ठौर ढूँढता है, वैसे ही टूटा मन भी जुड़ने के बहाने तलशता है। मन जुड़ रहा था। शिमोर्ग के रूप की चमक और दीपांश के प्रति उसके स्वभाव की नमी मन बांध रही थी। मन्डी से मंडली दिल्ली लौटी तो न दीपांश और शिमोर्ग पहले से रहे, न उनके बीच का रिश्ता और न ही ‘डॉमनिक की वापसी’ का मंचन।

रिहर्शल्स के बाद शिमोर्ग दीपांश से वॉयलिन सीखने के लिए रुकने लगी थी। दोनो के बीच टूटती-बंधती लय अब सम पर आने लगी थी। बिना कहे बहुत-सी बातें आँखों के आर-पार होने लगी थीं। इसका असर नाटक पर भी पड़ रहा था। नाटक का मंच अतिरिक्त राग से भरने लगा था। प्रेम के नाटक में प्रेम का जादू गाढ़ा, और गाढ़ा होता जा रहा था। लौ लपटों में बदलने लगी थीं। कुछ लोग कहते दीपांश के साथ शिमोर्ग का अभिनय और निखर गया है, कुछ कहते दीपांश के अपने दुख और अतीत से निजात पा जाने से, उसके मन की गाँठें खुल गईं हैं। वह बदल गया है। पर नया समय पुराने पर एक झीनी सी पर्त भर चढ़ा देता है। शायद भीतर बदलता, या मिटता कुछ भी नहीं। यहाँ भी बस उदासी, अकेलापन और दुख पर हल्की-सी सुख और सुकून की पर्त चढ़ने लगी थी।

वर्षों का थका राही छाँव पाके सुसताने क्या बैठा, नींद और थकान ऐसे घिरने लगी कि उसी ठौर छाँव में रह जाने, वहीं बस जाने का मन करने लगा। बिना कुछ कहे ही वादों जैसी बातें दोनों के बीच उगने लगीं। वहीं कहीं एक अदृश्य-सा कोटर बनने लगा जिसमें बैठकर दोनों भीड़ में भी अकेले रहने लगे, उस कोटर को कभी न उजड़ने देने के वादे के साथ दोनों ने एक दूसरे का हाथ कसकर पकड़ लिया।

मन का प्रेम से, और प्रेम का इच्छाओं से जैसे बिलकुल सीधा रिश्ता है। प्रेम में हैं तो चाहना होगी ही होगी। रोज़ नई ख़्वाहिशें सिर उठाएंगी। कभी तो जैसे उनकी बाढ़-सी आ जाएगी। यहाँ भी तमाम अनकही ख़्वाहिशें पनपने लगीं। दीपांश इस राह पर कभी चलते-चलते ठिठकता भी तो शिमोर्ग उसे वहाँ से हाथ पकड़कर आगे खींच ले जाती, जहाँ कुछ रुकता या सूखता सा लगता, वहाँ वह भर-भर अंजुरि नेह उसपर उलीच देती, दीपांश से कहती तुम प्रेम और सिर्फ़ प्रेम के लिए बने हो। दीपांश ऐसे पलों की खुशबू को साँसों में खींच लेता।

भीतर भी और बाहर भी, रोज़ ज़िन्दगी धीरे-धीरे बदलती जान पड़ती। दीपांश और शिमोर्ग ही नहीं ग्रुप के सभी लोग इस बदलाव को आते देख रहे थे।

***