आखर चौरासी - 16 Kamal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आखर चौरासी - 16

आखर चौरासी

सोलह

आगे को गयी उस भीड़ का जिधर को मुँह था, उधर थोड़ी दूर पर ही वहाँ का छोटा-सा गुरुद्वारा पड़ता था। वही गुरुद्वारा जहाँ हरनाम सिंह बिना नागा रोज ‘रहिरास’ का पाठ सुनने आते थे। भीड़ वहाँ पहुँच कर रुक गयी। गुरुद्वारे में उस वक्त केवल ग्रंथी था, जिसने कुछ देर पहले छत पर खड़े-खड़े जगीर सिंह के दवाखाने पर घट रही घटनाओं को अपनी आपनी भयभीत आँखों से देखा था। ग्रंथी ने तत्काल नीचे उतर कर सबसे पहला काम गुरुद्वारे का मुख्य द्वार बंद करने का किया था। फिर वह भीतर ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ के सामने मत्था टेक कर बैठ गया। उसका दिल घबरा रहा था। अकेला होने के कारण भी वह काफी भयभीत था। उसने अपनी आँखें बन्द कर लीं। उसके हिलते होंठ ‘वाहे गुरु, वाहे गुरु’ का जाप करने लगे। अभी-अभी देखा जगीर सिंह का हश्र चलचित्र की भाँति बार-बार उसके मस्तिष्क में उभर आता था।

लूट-पाट के तरीक़े से अपना शोक मनाती वह भीड़ गुरुद्वारे के दरवाजे पर पहुँच चुकी थी, ‘‘अरे ग्रंथी, दरवाजा खोल...!’’ बाहर मुख्य दरवाजे पर प्रहार करती भीड़ में से कोई चिल्लाया था। शायद चिल्लाने वाले को पता था कि उस वक्त गुरुद्वारे में अकेले ग्रंथी के अलावा कोई नहीं होता है। उसने और लोगों को भी वह बात बता दी थी ।

ग्रंथी अकेला है वह विचार भीड़ की उग्रता बढ़ाने के लिए उत्प्रेरक साबित हो रहा था। यदि उस भीड़ को भीतर और लोगों के होने का अंदेशा होता तो संभवतः भीड़ वैसा दुःसाहस ना करती ....।

बाहर की सारी आवाज़ें भीतर बैठे ग्रंथी के कानों पर हथौड़े की तरह प्रहार कर रहीं थीं। थोड़ी देर तो वह उसी तरह विचलित बैठा रहा। फिर मानों उसने कोई निश्चय कर लिया हो, वह बुदबुदाया, ‘‘हुक्में अंदर सब कोय, बाहर हुकम न कोय। अगर ऐसा ही होना है तो यही सही।’’

उसने अपनी आँखें खोलीं, मत्था टेका और ‘चँडी दी वार’ (युद्ध के समय की उपासना) का जप करता उठ खड़ा हुआ। निर्णय लेने के बाद उसके चेहरे पर एक अजीब-सी कठोरता व्याप्त गई थी। उसने अपना कमर बंद कसा, हाथ में नंगी कृपाण पकड़ कर, मन ही मन कमर शहीदी बाणा पहनता, मुख्य द्वार की ओर बढ़ गया।

‘जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल’ का उद्घोष करते ग्रंथी ने गुरुद्वारा का मुख्य द्वार खोल दिया। उसकी लाल-लाल आँखें और हाथ में पकड़ी नंगी कृपाण ग्रंथी का रुप बेहद भयानक बना रही थीं।

भीड़ अचानक ही सहम कर थोड़ा पीछे हट गई।

ग्रंथी गरजा, ‘‘किसे मेरा शीश चाहिए, वो आगे आये !’’

भीड़ एक पल को सकते में आ गई थी, मानों उसे साँप सूँघ गया हो। तभी भीड़ में से कोई चीखा, ‘‘मारो स्साले को !’’

लेकिन उसकी ललकार सुन कर भी नंगी तलवार के सामने कोई भी आगे न बढ़ा। अपनी जान का भय सबको होता है। ग्रंथी के हाथ में चमकती तलवार ने जैसे सभी के पाँव जकड़ दिये थे। लगा मानों अब-तब में वह भीड़ बिखर जाएगी... और संकट टल जाएगा। परन्तु वैसा नहीं हुआ, वह शांति तो तूफान से पहले की शांति थी।

‘धांय !’ गोली चलने की आवाज़ के साथ ही भीड़ से निकल कर एक शोला ग्रंथी की ओर लपका था।

‘झन्न’ की आवाज़ के साथ ही ग्रंथी के हांथों से कृपाण छूट कर फर्श पर गिर पड़ी। उसने दोनों हाथों से अपना सीना कस कर पकड़ लिया, वहाँ से लाल-लाल गढ़ा खून उबल कर गुरुद्वारे के मुख्यद्वार की सीढ़ियों पर बह रहा था। गोली निशाने पर लगी थी। नीचे गिरा ग्रंथी छटपटा रहा था और थोड़ी देर तड़पने के बाद उसका शरीर सदा-सदा के लिए शांत हो गया। गुरुद्वारे के मुख्य द्वार का फर्श उस खून से लाल हो चुका था। सुबह-शाम गुरुद्वारे के भीतर पाठ करने वाले उस ग्रंथी के खून से, जिसे न तो पंजाब समस्या का पता था, न ही इंदिरा की हत्या का।

भीड़ उस खून सने फर्श को अपने नापाक कदमों से रौंदती हुई गुरुद्वारे के भीतर चली गई। जहाँ पवित्र गुरुबाणी गूँजती थी, उस भीड़ के पैशाचिक कहकहे वहाँ गूँजने लगे। गुरुद्वारे के भीतर वहशीपन तांडव कर रहा था....।

***

हर रोज की रूटीन की तरह रात पल्ला (नाईट शिफ़्ट) की ड्यूटी करने के बाद बांसगढ़ा खदान से ऊपर आकर उन तीनों सिक्खों ने अपना गैंता (कोयला खोदने वाली कुदाल), बेलचा (कोयला उठा कर झोड़े में डालने वाला) और झोड़ा (कोयला ढोने वाली टोकरी) नियत जगहों पर रखे और अपनी-अपनी कैप-लैम्प जमा करने लैम्प-रुम की ओर बढ़ गए। वहाँ लैम्प जमा करने के बाद, वे तीनों मलकट्टा (कोयला खान में कोयला काट कर ट्राली पर लादने वाले मजदूर) लैम्प-रुम से निकल कर नीचे-घौड़ा स्थित अपने-अपने माइनर्स क्वार्टरों की ओर चल दिए।

आसपास फैले कोयले के विशाल टीलों के बीच फैली पगडंडियों पर चलते हुये अभी वे मुख्य सड़क पर आए ही थे कि वैसी ही एक भीड़ ने उन्हें घेर लिया। उस भीड़ को देख कोयले की कालिख से आबनूस हुए तीनों सिक्खों के चेहरों पर भय तांडव करने लगा।

‘‘मारों स्सालों को !’’ भीड़ चीखी।

‘‘हुजूर हम गरीबों को क्यों मारते हो ?’’ एक सिक्ख बोला।

‘‘बताएं तुम्हें क्यों मारते हैं ? गद्दारों, तुमने इंदिरा को मार दिया।’’ उन्हें घेरा कर खड़ी भीड़ चीखी।

‘‘कौन इंदिरा हुजूर ? हमने किसी को नहीं मारा। हम तो रात पल्ला खट कर आ रहे हैं। आप चाहो तो खदान के हाजिरी बाबू से पूछ लो।’’ दूसरा सिक्ख बोला।

‘‘हां, हां देख लो हमारा सारा शरीर अभी भी कोयले की कालिख से काला पड़ा है। हमलोग तो खदान से निकल कर आ रहे हैं।’’ तीसरे सिक्ख ने भी हां में हां मिलाई।

एक पल को वहाँ पर ख़ामोशी रही। फिर किसी ने भीड़ को समझाया, ‘‘अरे इन्हें मार डालने से कुछ नहीं मिलेगा। ये तीनों तो मलकट्टा हैं।’’

उस समझाने वाले की बात को अनसुना करते हुए भीड़ में से किसी ने ललकारा, ‘‘मलकट्टा हैं तो मलकट्टा की तरह रहें, सरदारों की तरह क्यों रहते हैं ?’’

उस ललकार पर एक और आवाज चीखी, ‘‘स्सालों की दाढ़ी-मूछें साफ कर दो, सरदार नहीं रहेंगे।’’

पलक झपकते ही न जाने कहाँ से निकल कर कैंची और उस्तरें उन तीनों सरदारों की ओर लपलपाते बढ़ने लगे। वे तीनों बुरी तरह घबराये, चीखे-चिल्लाये..... अपने धर्म का, अपनी इज्जत का, उनकी इन्सानियत का वास्ता दिया। परन्तु वहाँ तो अधर्म, बेइज्जती और हैवानियत ही पैशाचिक अट्टाहास कर रहे थे। देखते ही देखते वे तीन सिक्ख अपने केश-दाढ़ी गँवा कर गैर-सिखों में तब्दील हो चुके थे। उस भीड़ को इतने से ही सन्तोष नहीं हुआ। भीड़ उन तीनों को बुरी तरह पीटने और रौंदने लगी। अपमान, आँसू और खून से लथपथ उनके बेजान शरीर जमीन पर गिर पड़े। अपना जूनून पूरा कर वह भीड़ आगे को बढ़ गई।

सारी रात कोयला काटने वाले तीनों मजदूर-शरीर अपना अपमान और अत्याचार झेलने के बाद बुरी तरह टूट चुके थे। वे तीनों किसी तरह एक-दूसरे को संभालते, गिरते-पड़ते अपने घरों की ओर बढ़ने लगे।

***

कमल

Kamal8tata@gmail.com