आखर चौरासी
छत्तीस
विक्की के चले जाने से उस शाम गुरनाम अकेला था। वह अपने घर के गेट पर खड़ा यूँ ही सड़क पर आने-जाने वालों को देख रहा था। तभी उसने देखा बाजार से लौट रहे अम्बिका पाण्डे के हाथ में सब्जी से भरा थैला था। न जाने क्यों उन्हें देख कर गुरनाम को खुशी सी अनुभव हुई। गेट खोल कर उसने उनका अभिवादन किया और बोला, ‘‘लाइये अंकल, मैं पहुँचा देता हूँ।’’
‘‘अरे, अरे कोई बात नहीं। अब तो घर आ गया।’’ अम्बिका पाण्डे ने मुस्करा कर कहा।
परन्तु फिर भी जिद करके गुरनाम ने उनके हाथों से थैला ले लिया। आगे-आगे अम्बिका पाण्डे और पीछे-पीछे थैला पकड़े गुरनाम ने उनके घर में प्रवेश किया।
बैठते हुए उन्होने अपनी पत्नी को आवाज दी, ‘‘अरे सुनती हो ! बाहर आना देखो गुरनाम आया है।’’
थैला रख कर गुरनाम भी वहीं बैठ गया। अंदर से अम्बिका बाबू की पत्नी भी आ गईं।
‘‘नमस्ते आंटी जी !’’ गुरनाम ने उठ कर उनका अभिवादन किया।
‘‘नमस्ते बेटे।’’ उन्होंने सस्नेह उत्तर दिया। थोड़ी देर की औपचारिक बातों के बाद थैला उठाते हुए बोलीं, ‘‘आप लोग बैठिए, मैं चाय लेकर आती हूँ।’’
अम्बिका पाण्डे गुरनाम से उसकी पढ़ाई और कॉलेज की बातें करने लगे। कुछ देर यूँ ही बातें करने के बाद गुरनाम ने बात-चीत का रुख मोड़ते हुए कहा, ‘‘अंकल, उस तनाव भरे माहौल में आपने जो हमारी मदद की या यूँ कहें कि रक्षा की, उसके लिए धन्यवाद देना उसके महत्व को कम करना होगा। फिर भी इतना तो जरुर कहूँगा कि वैसे समय में आपकी मदद की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है।’’
‘‘तुम्हारी भावना की मैं कद्र करता हूँ, गुरनाम ! लेकिन इसमें अहसान वाली कोई बात नहीं है। और फिर वह सब मेरे अकेले के बस का कहाँ था ? वो तो हम सब साथियों का मिल-बैठ कर लिया गया निर्णय था। हमारा एक ही उद्देश्य था, उन गलत ताकतों का विरोध किया जाए। अंशतः ही सही मगर हम इसमें कामयाब जरुर हुए। हमारे प्रयासों में केवल तुम्हारा परिवार ही नहीं था। कुछ साथियों पर पंजाबी कॉलोनी की सुरक्षा का जिम्मा था। वे लोग तो सारी रात वहीं पहरा देते रहे थे। इसलिए भी तुम्हें धन्यवाद देने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैंने वह सब केवल इसलिए नहीं किया कि तुम्हारा पड़ोसी हूँ। यह सब तो एक लम्बी लड़ाई का हिस्सा है। दो सम्प्रदायों के बीच के झगड़े मानवता के लिए केवल घृणित होते हैं, इसे किसी भी रुप में परिभाषित कर स्वीकार्य नहीं किया जा सकता। मानवता के सर पर बलपूर्वक मढ़े गये इन झगड़ों का पूरी ताकत से प्रतिकार होना ही चाहिए।’’ अम्बिका पाण्डे के मुँह से निकला एक-एक शब्द गुरनाम के अन्दर अमृत की तरह उतरता जा रहा था।
भीतर से चाय के साथ आँटी जी गर्मा-गर्म पकौड़ियाँ भी ले आयीं थीं। वे दोनों चाय पीने लगे।
‘‘लेकिन एक बात तो है, यहाँ इतने लोग थे। फिर उन सबों के मन में आपकी तरह ये विचार क्यों नहीं आए ? उनकी सोच आप लोगों की तरह क्यों नहीं बनी ?’’ गुरनाम ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की।
‘‘संभवतः जिन मान्यताओं अथवा पार्टियों में उनकी निष्ठा है, ऐसे विचार उनकी नीतियों में नहीं होंगे ।’’
अम्बिका पाण्डे का उत्तर पूरी तरह गुरनाम की समझ में नहीं आया। ‘विचार’ , ‘सोच’ , ‘निष्ठा’ , ‘पार्टियाँ’ वे सारे शब्द उसके लिए बिल्कुल नये थे। उसने पुनः जिज्ञासा प्रकट की।
‘‘कैसी नीतियाँ ?’’
‘‘सब कुछ आज ही जान लेना चाहते हो क्या ?’’ पाण्डे अंकल के चेहरे पर आभायुक्त मुस्कान थी, ‘‘सारी बातों के लिए तो बहुत सारा वक्त लगाना पड़ेगा। संक्षेप में तुम इतना ही जान लो कि हमारी सोच मनुष्यों के जीने की समानता में है। उनके अधिकारों की समानता में है। हम जानते हैं कि हर मनुष्य को जीने का समान अधिकार है। बस यही है हमारे संघर्षों का मूल तत्व, यही है हमारी निष्ठा का सार !’’
अगर गुरनाम को वे बातें समझ नहीं आ रही थीं तो इसमें कोई आश्चर्य न था। जिसका पूरा समय अपनी पढ़ाई-लिखाई और खेल-कूद में ही बीता हो। उसे जीवन की गहरी बातों की समझ इतनी जल्दी कैसे हो जाती ? परन्तु एक बात तो थी, भले ही वे बातें गुरनाम की समझ में न आ रही हों, मगर वे बातें उसे बहुत अच्छी लग रही थीं।
उसने अपने मनोभाव प्रकट किये, ‘‘शायद आप ठीक कह रहे हैं, अंकल ! मुझे सारी बाते जानने में बहुत वक्त लगेगा। लेकिन इतना तो मैं जान ही चुका हूँ, आप लोग न होते तो हमारे परिवार का अहित जरुर हो जाता।’’
उसकी बात सुन कर अम्बिका पाण्डे थोड़ी देर चुप रहे फिर बोले, ‘‘मुझे लगता है, तुम इसे हम लोगों की सामूहिक कार्रवाई कम और मेरी व्यक्तिगत मदद ज्यादा मान रहे हो। जब तक तुम सारी बातें समझ न लो, चलो ऐसा ही सही। तब तो तुम्हारे मन में यह भावना भी उठ रही होगी कि बदले में तुम भी कुछ ऐसा करो ?’’
‘‘जी...जी..’’
‘‘अगर ऐसा है तो मैं तुम्हें उसका एक उपाय बता सकता हूँ।’’
गुरनाम बड़े ध्यान से उनकी बातें सुन रहा था। उसे हैरानी हो रही थी कि उसके मन की बातें पाण्डे अंकल कैसे जान ले रहे हैं ? सच में उसके मन में वही इच्छा हो रही थी कि वह उनके कहने से कुछ करे। वैसा करके उसे खुशी होती। उसका पूरा ध्यान अंकल द्वारा बताये जाने वाले उपाय की ओर था।
अम्बिका पाण्डे ने अपनी बात जारी रखी, ‘‘... हो सकता है भविष्य में तुम भी ऐसी ही किसी स्थिति का सामना करो। जब तुम्हारे प्रयास से किसी की मदद हो रही हो, कोई गलत काम रुक रहा हो। तब तुम भी इसी तरह मदद करने को आगे आ जाना।’’
गुरनाम की आत्मा तो आज उनके मुँह से निकलने वाले हर एक वाक्य को अपने अंतर में समो लेने को तत्पर थी। पाण्डे अंकल के चुप हो जाने के बाद भी उनका अंतिम वाक्य, ‘‘तब तुम भी इसी तरह मदद करने को आगे आ जाना।’’ देर तक उसके भीतर प्रतिध्वनि बन कर गूँजता रहा। उसे लगा एक प्रकाश आहिस्ते से उसके भीतर उतर आया है। जब वह अपने घर वापस लौटा तो उसे अपने भीतर एक अजीब-सी शक्ति का संचार होता अनुभव हो रहा था।
उस दिन के बाद जितने दिन गुरनाम अपने घर पर रुका रहा, लगभग हर दिन ही वह नियमित रुप से अम्बिका पाण्डे से मिलता रहा। वह उनसे खूब बातें करता.... अपनी जिज्ञासाओं को शान्त करने के लिए ढेर सारे प्रश्न पूछता। ....न जाने क्यों वह ज्यादा से ज्यादा चीजें जान लेना चाहता था.... सभी जानकारियाँ अपने भीतर समेट लेना चाहता था।
***
चार-पाँच दिन घर पर रुक कर गुरनाम अपने हॉस्टल लौट आया था। जिस दिन वह घर से चला, उसका मन हॉस्टल आने को बिल्कुल नहीं था। परन्तु पढ़ाई और सर पर आयी परीक्षाओं के कारण उसे लौटना पड़ा। उस दिन घर से हॉस्टल को निकलने से थोड़ी देर पहले ही बड़ा भाई सतनाम ब्लॉक आफिस से हो कर लौटा था। अपने कमरे से ही गुरनाम ने उसे पापा जी से बातें करते सुना था।
सतनाम गुस्से में उबल रहा था, ‘‘...हाँ, हाँ मैंने लिस्ट देखी है। सरकार की तरफ से घर का मुआवजा पाँच हजार तथा दुकान का दस हजार दिया जाएगा। परसों जिले के उपायुक्त ब्लॉक ऑफिस में आकर अपने हाथों से चेक देंगे। हमें कुल पन्द्रह हजार .....।’’
‘‘शान्त हो जाओ सतनाम ! शान्त हो जाओ। परेशान होने से कोई हल नहीं निकलता और लोगों को भी तो इसी तरह मुआवजा मिल रहा होगा। तुम भी मत घबराओ। हम लोग सब कुछ फिर से नये सिरे से शुरु करेंगे। खूब मेहनत करेंगे। देखना, सब कुछ फिर से पहले जैसा हो जाएगा।’’ उसके पिता ने उसे समझाया।
‘‘ऐसी बात नहीं है पापा जी कि सबको ही कम मुआवजा मिल रहा है। कम मुआवजा तो केवल मेरे जैसों के लिए है। जिन लोगों ने ब्लॉक वालों को खिला-पिला कर चढ़ावा चढ़ा दिया है, उनका नुकसान ज्यादा दिखला कर ब्लॉक वाले उन्हें पचास-पचास हजार तक मुआवजा दिलवा रहे हैं। मैं तो पहले ही लुट चुका हूँ, अब घूस देने के लिए पैसे कहाँ से लाऊँ ? ...नहीं, नहीं... अब मुझसे नहीं होगा। मैं यहाँ नहीं रह सकूँगा। मैं तो अब पंजाब चला जाऊँगा। अगर नहीं गया तो मैं भी उसी की तरह पागल हो जाऊँगा जो आज ब्लॉक में मिला था।’’
‘‘क्या हुआ, ब्लॉक में कौन मिला था ?’’ सुरजीत कौर ने जानना चाहा।
‘‘था एक बुजुर्ग हिन्दू, जिनका जवान बेटा मार दिया गया। वह चीख-चीख कर कह रहा था, मुआवजे में उसे उसका बेटा दे दो ....। कभी रोने लगता था, कभी हँसने लगता था कि सरकार ने मुआवजे में उसका बेटा दे दिया।’’ कहते-कहते सतनाम उठा और घर के भीतर चला गया।
तभी गुरनाम ने वहाँ प्रवेश किया। हरनाम सिंह रोकते हुए सतनाम को कुछ समझाना चाहते थे, लेकिन गुरनाम को देख कर चुप हो गए।
‘‘क्या बात है पापा जी, भैया क्या कह रहे थे ?’’ गुरनाम ने झुक कर उनके पाँव छूये। कंधे पर एयर-बैग लटकाए, वह हॉस्टल जाने को पूरी तरह तैयार था।
उसके सर पर हाथ फेरते हुए हरनाम सिंह बोले, ‘‘अरे उसकी बात छोड़ो, वह तो झल्ला (नासमझ) है। तुम उसकी बातों पर ध्यान मत दो। उसे मैं समझा दूँगा। तुम कॉलेज जा रहे हो न, वहाँ खूब ध्यान लगा कर पढ़ना। तुम्हारे इम्तहान सर पर हैं। सारा ध्यान अपनी पढ़ाई में लगाना। यहाँ की कोई फिक्र मत करना, समझे।’’
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परेशान हाल सतनाम बड़बड़ाता हुआ अपने कमरे में जा घुसा। उसकी बातें सुन कर सुरजीत कौर भी उसके पीछे-पीछे वहाँ जा पहुँची थी। उन्होंने उसे समझाया, ‘‘बेटा हौसला रखो। सब ठीक हो जाएगा। आज गुरनाम वापस अपने हॉस्टल जा रहा है, इसका भी ध्यान रखो। तुम्हें इस हाल में देख कर वह कैसे जा सकेगा ?’’
उनकी बात सतनाम को समझ में आ गई। उसने जल्द ही स्वयं को नियंत्रित किया। तभी वहाँ गुरनाम आ गया। उसने अपनी माँ और भाई से विदा लेते हुए कहा, ‘‘अच्छा बी’जी ! अच्छा वीर जी ! मैं चलता हूँ।’’
‘‘ठीक है, मन लगा कर पढ़ना ।’’ दोनों ने उसे विदा किया।
गुरनाम निकल गया ।
उसके जाते ही सुरजीत कौर ने सतनाम से पूछा, ‘‘वो पागल वाली क्या बात बता रहे थे ? वहाँ ब्लॉक में कौन मिला था ?’’
सतनाम के चेहरे पर फिर पहले जैसी मायूसी आ गई। कुछ पलों की चुप्पी के बाद उसने बताया, ‘‘उसके जानने वाले कह रहे थे कि उसका एक ही बेटा था। जवान और सुन्दर, उम्र यही कोई छब्बीस-सत्ताईस के आसपास। उनके पड़ोस में एक सिक्ख परिवार रहता था। ऊपर उस सिक्ख परिवार की रिहाइश और नीचे उनकी जनरल स्टोर की दुकान थी। जिस तरह वह लड़का अपने परिवार में अकेला था, वैसे ही उस सिक्ख की भी इकलौती बेटी थी। बहुत खूबसूरत और जवान। जब उस लड़की का पिता किसी काम से कहीं जाता, तब वही लड़की दुकान का काम संभालती। उस दिन लड़की का पिता काम के सिलसिले में बाहर गया था। जब एक नवंबर की दोपहर सिक्खों के खिलाफ नारे लगाती भीड़ उस दुकान को लूटने जा पहुँची। देखते ही देखते उस भीड़ ने दुकान का शटर तोड़ डाला और भीतर घुस कर अपनी-अपनी पसन्द की चीजें उठाने लगी। किसी के हाथ में चाय के पैकेट आए तो किसी के हाथ में कॉफी के। किसी के हाथ में बिस्कुट, मिक्सचर तो किसी के हाथ में होरलिक्स, चोकलेट, शैम्पू .....। नीचे दुकान में सभी अपने-अपने मन की कर रहे थे और ऊपर अपने घर से वह सब देख कर सिक्ख की पत्नी और बेटी रो रहे थे।’’
‘‘वाहे गुरु.... वाहे गुरु...’’ सुरजीत कौर के मुँह से निकला।
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कमल
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