Aakhar Chaurasi - 31 books and stories free download online pdf in Hindi

आखर चौरासी - 31

आखर चौरासी

इकतीस

गुरनाम के तर्क का महादेव को कोई जवाब न सूझा। लेकिन यह भी सच था कि गुरनाम के केश कटवाने जरुरी थे। अगर चलते वक्त सतनाम ने उसे कुछ भी बताने से मना न किया होता तो सम्भवतः गुरनाम को वह सारी बातें बता देता कि सतनाम की दुकान और साथ में बने घर पर काफी लूट-पाट हुई है। मगर सतनाम ने उसे सख्त हिदायत दी थी, गुरनाम के इम्तिहान सर पर हैं। वे सब बातें सुन कर वह निश्चय ही परेशान हो जाएगा और फिर सम्भवतः उसके इम्तिहान खराब हो जाएँ।

महादेव ने बात संभालते हुए कहा, ‘‘मैं ने बताया न कि घर पर सारे लोग एक साथ हैं। किसी भी मुसीबत का सामना वे सब मिलकर कर लेंगे। तुम यहाँ बिल्कुल अकेले हो। केश नहीं कटवाओगे तो उन सबों को तुम्हारी फिक्र लगी रहेगी।’’

गुरनाम के ज़ेहन में पापा जी का चेहरा उभर आया। उन्हें कितना दर्द हुआ होगा जब उन्होंने केश कटवाने की बात कही होगी ? वह विचलित हो उठा। नहीं....नहीं, मुझसे नहीं होगा !

थोड़ा ठहर कर वह ठण्डे स्वर में बोला, ‘‘नहीं महादेव भैया, मैं केश नहीं कटवाऊँगा।’’

उसकी बात सुन कर महादेव चिन्तित हुआ। वह तो उसके घर पर कह आया था कि स्वयं ले जा कर गुरनाम के केश कटवा देगा और यहाँ गुरनाम है कि मना कर रहा है। गुरनाम अगर अड़ गया तो बड़ी मुश्किल होगी।

उसने समझाया, ‘‘देखो यह तो अंकल का निर्णय है और तुम्हें मानना चाहिए।’’

‘‘आप ही बताइए कि कैसे मान लूँ ? बहुत पहले जब एक बार मैंने यह करना चाहा था तो उनका जवाब था कि पहले मेरी गर्दन काट दो, फिर केश कटवाने की बात करना। मुझे तो आज तक उनकी वह बात याद है।’’ गुरनाम की गीली आवाज़ बता रही थी कि वह मन ही मन पापा के उस निर्णय से उपजे दर्द को महसूस कर रहा था।

उसकी वह बात सुन कर महादेव को अचानक ही रास्ता सूझ गया। वह बोला, ‘‘देखो गुरनाम, तब तुम अपनी मर्जी से केश कटवाना चाहते थे। इसलिए तुम्हारे पापा ने मना किया था। और अच्छी बात है कि तुम पापा का कहा मान गये थे। आज भी तुम्हें उन्ही की बात मानने को कहा जा रहा है। ऐसा करके तुम उनको बिल्कुल भी कष्ट नहीं पहुँचा रहे हो। हाँ, यह हो सकता है कि अब उनकी बात न मान कर तुम उन्हें कष्ट पहुँचाने का कारण बन जाओ।’’

महादेव की कही, पापा को कष्ट पहुँचाने वाली, बात ने सही निशाने पर चोट की थी। वह बात सुन कर गुरनाम स्वयं को रोक न सका। उसके भीतर से ढेर सारी तकलीफ, क्षोभ और उपजा गुस्सा बाँध तोड़ कर आँसुओं की शक्ल में बह निकला। वह महादेव के कँधे पर सर रख कर फफक पड़ा। महादेव उसके सर पर हाथ फेरते हुए सान्त्वना देने लगा।

***

गुरनाम जब महादेव के साथ केश कटवाने के लिए निकल रहा था, उसकी मुलाकात हॉस्टल के गेट पर जगदीश से हो गई।

उसका उतरा चेहरा देख कर जगदीश ने टोका, ‘‘किधर.....?’’

जवाब में जब गुरनाम ने महादेव भैया का उससे परिचय कराया और बताया कि वे उसके घर से आए हैं तो जगदीश यकायक संजीदा हो गया। उसने तुरंत पूछा, ‘‘वहाँ सब ठीक तो है ?’’

‘‘हाँ, हाँ सब ठीक है! चिन्ता की कोई बात नहीं है।’’ गुरनाम ने उसे आश्वस्त किया।

उसके उत्तर से जगदीश को तसल्ली तो हो गई थी। फिर भी उसने महादेव भैया की तरफ दुबारा मुड़ते हुए पूछा, ‘‘भैया आप बताइए। अगर चिन्ता की कोई बात है तो मैं अभी के अभी एक ट्रक लड़कों को सामान सहित तैयार कर सकता हूँ। फिर हमलोग गुरनाम के घर चलते हैं।’’

‘‘अरे नहीं ...नहीं ऐसी कोई बात नहीं है। वहाँ सब ठीक है। अब तो माहौल भी ठंढा हो गया है।’’ महादेव भैया ने गुरनाम की बात का समर्थन किया।

‘‘हाँ जगदीश, भैया ठीक कह रहे हैं।’’ गुरनाम जल्दी से बोला। उसे मालूम था, जगदीश का सामान सहित लड़कों को तैयार करने का अर्थ बम, पिस्तौल आदि लेकर चलना था।

फिर थोड़ा रुक कर वह बोला, ‘‘मैं इनके साथ, अपने केश कटवाने जा रहा हूँ। ...कटे केशों में मुझे पहचान लोगे न ?’’

न जाने गुरनाम की आवाज़ में क्या था, उसकी बात सुन कर जगदीश तेजी से उसकी तरफ पलटा। उसके मुँह से कोई बात न निकली लेकिन उसकी आँखों में कई प्रश्न धधक रहे थे। उसका अन्तर्मन चीख उठा कि वह गुरनाम को रोक ले ....मगर विगत कुछ दिनों में उसने सिक्खों के विरुद्ध जो कुछ देखा-सुना था ....सिक्खों का लुटना, सिक्खों का कत्लेआम, सिक्ख लड़कियों-स्त्रियों का सामूहिक बलात्कार... उन सारी बुरी घटनाओं की स्मृतियों ने उसे शक्तिहीन-सा कर दिया था। वह चाह कर भी गुरनाम से कुछ न कह सका, बस मौन उसे देखता रह गया। और उसके मौन में से एक राह बनाता गुरनाम अपने केश कटवाने चल पड़ा था।

‘‘अच्छा जगदीश, एक-दो घण्टे में लौट कर, अपने नये रुप में मिलता हूँ।’’

जगदीश वहीं मौन खड़ा उसे धीरे-धीरे दूर जाकर कॉलेज मोड़ पर ओझल होती उसकी छवि देखता रहा। गुरनाम के केश कटवाने की बात से उसका मन बहुत आहत हुआ था। परन्तु वह चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहा था।

वह भारी कदमों से धीरे-धीरे अपने कमरे में आकर बिस्तर पर बिखर गया। सिक्ख इतिहास में पढ़े गुरु तेगबहादुर जी रह-रह कर उसके मन में उभर आते। जिन्होंने ‘जनेऊ और हिन्दुओं’ की रक्षा के लिए हंसते-हंसते शहीद होना कुबूल किया था, लेकिन दिल्ली में बैठ कर राज करने वाले उस ज़ालिम बादशाह के अत्याचारों के सामने घुटने नहीं टेके थे। चाँदनी चौक पर स्थित ‘गुरुद्वारा शीशगंज साहिब’ आज भी उनके महान बलिदान की गाथा सुनाता है।

क्या हमारे ऐतिहासिक महापुरुषों ने ऐसे ही देश और समाज की कल्पना की होगी....? जगदीश के मन में विचारों का एक कठिन और अंतहीन संघर्ष चल रहा था।

***

गुरनाम को घर पर छोड़, महादेव जल्दी ही नाई ले आया। आँगन के पश्चिमी किनारे पर एक छोटा-सा चबूतरा था, गुरनाम को नाई के सामने वहीं बैठाया गया। सुबह के सूरज की किरणें उसका शरीर गरमाने लगी थीं। उसने सोच रखा था कि नाई पहले उसके केश काटेगा फिर उसके बाद दाढ़ी बनाएगा। परन्तु उस्तरा निकाल कर नाई उसे अपने पत्थर पर रगड़ते हुए उसकी धार तेज़ करने लगा। गुरनाम ने नाई से पूछना चाहा था कि पहले दाढ़ी बनाओगे या केश काटोगे ? लेकिन काफी प्रयास करने के बावजूद उसके मुँह से कोई आवाज़ न निकली। उसे लगा मानों उसकी सारी शक्ति निचुड़ गई हो।

नाई के घर में घुसते ही महादेव ने बाहर वाला दरवाजा बन्द कर दिया था ताकि बाहर से कोई केशों का कटना न देख सके। घर के बच्चे उसके आस-पास सिमट आए थे। उनके लिए किसी सिक्ख का वैसे केश कटवाना कौतूहल का विषय था। घर की महिलाओं की आँखों को भी गुरनाम ने खिड़की और दरवाजे की ओट से झाँकते महसूस किया था।

‘‘आ... आपका नाम क्या है ?’’नाई से एक छोटा-सा प्रश्न पूछने में ही उसे बड़ी मेहनत करने का अनुभव हुआ।

आमतौर पर नाई बातूनी होते हैं। लेकिन वहाँ उसे संक्षिप्त-सा उत्तर मिला, ‘‘शंकर !’’

उसके संक्षिप्त उत्तर से गुरनाम चौंका। क्या नाई उसके केश कटने पर उदास है ? नाई का नाम सुन कर सहसा ही उसके मन में एक विचार आया। शिव तो संहार के देवता माने जाते हैं! जबकि उस के पर्यायवाची नामधारी शंकर और महादेव दोनों मिल कर उसे बचाना चाह रहे हैं, उसकी जीवन रक्षा में लगे हुए हैं.....।

शंकर का उस्तरा चलने लगा, जिसके बाद कैंची का चलना तय था। एक सिक्ख के रुप में पहचाने जाने के उसके निशान मिटने लगे थे। उसके बाद गुरनाम और कुछ न सोच सका। उसका मस्तिष्क एक घने काले अंधकार में डूबता चला गया।

***

जिस समय गुरनाम अपने केशों को कटता महसूस कर रहा था, लगभग उसी समय विक्की बोकारो से वापसी की बस पर सवार हो रहा था। हालाँकि पूर्व-निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार उसे वहाँ से सीधे अपने इंजीनियरिंग कॉलेज के लिए सिन्दरी की बस पकड़नी चाहिए थी। लेकिन पिछले दो दिनों में उसने जो ख़ूनी मंजर बोकारो की सड़कों पर अपनी आँखों से देखे थे। जो कुछ भी और लोगों से सिक्खों के खिलाफ हुए अत्याचारों के बारे में सुना था। उन सबसे वह गुरनाम के घर वालों के लिए आशंकित हो गया था।

उस दिन का देखा हुआ दृश्य तो अभी तक उसके दिमाग पर दहशत बन कर छाया हुआ था। उस दिन वह दोपहर का खाना खा कर बाल्कनी में निकला ही था, जब सामने वाले चौक पर दिल को दहलाती चीख-पुकार शुरु हुई थी। भीड़ वहाँ एक नव-विवाहित सिक्ख जोड़े को घेरे खड़ी थी। ...और देखते ही देखते उस भीड़ ने रोते-कनपते, हाथ-पैर जोड़ते उस सिक्ख जोड़े को जिन्दा जला दिया था। मानों उस भीड़ के लिए वे दोनों इंसान न हो कर घास-फूस के बेजान पुतले हों। आग में जलते, चीखते-छटपटाते वह पति-पत्नी सड़क पर इधर से उधर भाग रहे थे। उन्हें घेरे भीड़ पागलों की तरह अट्टहास करती उछल-उछल कर खुशियाँ मना रही थी। उस भीड़ पर इन्दिरा गांधी के मरने का शोक तो नहीं दिख रहा था, हाँ नव-विवाहित सिक्ख जोड़े को जला मरने का अद्भुत जश्न जरूर था। साथ ही भीड़ अपना प्रिय नारा भी लगाती जा रही थी, ‘‘खून का बदला खून से लेंगे....!’’

उसके आगे विक्की सह न सका, वह तुरन्त भीतर चला गया था। पहली चिन्ता जो उसके मन में उभरी वह सतनाम भैया और नयी ब्याही भाभी के बारे में थी। उनकी शादी भी तो हाल में ही हुई है, न जाने वे लोग कैसे होंगे ? ढेर सारी आशंकाएँ उसके भीतर उमड़ने लगी थीं। ऐसी स्थिति में केवल बुरे-बुरे ख्याल ही मन में ज्यादा आते हैं। तीन घंटों के पूरे रास्ते विक्की का चित्त अस्थिर बना रहा था।

***

कमल

Kamal8tata@gmail.com

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