आखर चौरासी
सत्ताईस
नवम्बर की उस ठंडी रात के अंधेरे में पेंसिल टॉर्च की रोशनी में हॉस्टल के पिछवाड़े की तरफ फूलों की क्यारियों से होकर अपना रास्ता बनाता जगदीश गुरनाम की खिड़की तक जा पहुंचा। उसने आहिस्ते-से खिड़की पर दस्तक दी। भीतर से गुरनाम ने बड़ी सावधानी से ज़रा-सी खिड़की खोली।
‘‘लाओ पॉलिथिन मुझे पकड़ाओ ।’’ जगदीश फुसफुसाया।
गुरनाम ने पॉलिथिन को पुराने अखबार में लपेट कर पैकेट-सा बना दिया था। वह पैकेट जगदीश को थमाते हुए उसकी हिचकी निकल गई। आँसुओ से उसकी आँखें डबडबायी हुई थीं।
‘‘जगदीश, तुम जो कुछ मेरे लिए कर रहे हो, इसे मैं पूरी जिंदगी नहीं भूल पाऊँगा।’’ कहते-कहते आँसुओं वाली नमी उसकी आवाज़ में उतर आयी थी।
‘‘अच्छा-अच्छा, अब बस करो। ये सब बातें बाद में होंगी। तुम्हारा पेट दर्द अब कैसा है ?’’ जगदीश ने पूछा।
‘‘दर्द तो अब काफी ठीक है।’’ उसने जवाब दिया।
‘‘ये टेबलेट खा लेना, सुबह तक दर्द बिल्कुल ठीक हो जाएगा।’’ जगदीश उसको दवा देते हुए बोला, ‘‘ठीक है अब मैं चलता हूँ। सुबह का नाश्ता भी इसी खिड़की से देने आऊँगा। दिन के समय सामने वाले दरवाजे से आना ठीक नहीं होगा।’’ जगदीश जाने को मुड़ा ही था कि उसकी बात सुन कर गुरनाम ने तुरन्त कहा, ‘‘नहीं जगदीश, सुबह नाश्ता लेकर मत आना।’’
गुरनाम की बात सुन कर वह चौंका। उसने मुड़ते हुए पूछा, ‘‘क्यों ? क्यों नहीं लाऊँ ?’’
‘‘हाँ, तुम कल दिन में मत ही आना। दरअसल यही खाना मैं आज रात पूरा नहीं खा पाऊँगा। कल शाम तक इसी खाने से मेरा काम चल जाएगा। वैसे भी मैं दुबारा पेट दर्द से परेशान नहीं होना चाहता। इस कारण भी मैं कम ही खाना चाहता हूँ।’’
संभवतः जगदीश को उसके भूखा रहने वाली बात पसंद नहीं आयी थी। वह बोला, ‘‘ऐसी क्या बात हुई कि तुम खाना ही नहीं खाओगे ? तुम भरपेट खाना खाओ। मैं हूँ न, मैं सब संभाल लूँगा। तुम....’’
‘‘नहीं जगदीश, प्लीज ! तुम कल दिन में खाने को कुछ भी मत लाना। खाने की बात अब कल रात को ही देखी जाएगी। वैसे भी ठण्ड का मौसम है। कल तक यह खाना खराब नहीं होने वाला।’’ गुरनाम ने उसकी बात काटते हुए कहा।
‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी मर्जी।’’ जगदीश ने हथियार डालते हुए कहा और मुड़ कर अंधेरे में गुम हो गया।
गुरनाम ने खिड़की अच्छी तरह बंद की और कुर्सी खींच कर बैठ गया। उसके अंतर्मन में कई-कई बातें आ जा रही थीं। विचारों का एक तूफान था जो थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। अब से पहले तक वह जगदीश को केवल राजकिशोर के एक बिगड़े हुए दोस्त के रुप में ही जानता था। शायद इसी कारण पहले कभी जगदीश से उसके संबंध अच्छे नहीं रहे थे। मगर वही जगदीश अभी उसका जीवन-रक्षक बना उसके आस-पास मंडरा रहा है। वह कौन-सी बात है, जो जगदीश में आये इस परिवर्तन की जिम्मेवार है ? आज वह क्यों उसकी सुरक्षा के लिए इतना चिन्तित है ? वह जितना ही सोचता जाता, उतना ही सवालों की भूल-भुलैया में उलझता जाता। परन्तु किसी भी सवाल का उसे संतोषजनक जवाब नहीं मिल पा रहा था।
विचारों की दिशा बदली तो उसे अपने घर वालों का ख्याल आया। कैसे होंगे वे सब ? पापा, बी’जी, वीरजी, भाभी, मनजीत दीदी और डिम्पल....? सुन्दर गुड़िया-सी डिम्पल ख्याल आने से वह और भी बेचैन हो गया। क्या वहाँ भी उनके लिए कोई जगदीश आ गया होगा...? उनके साथ कहीं कुछ अप्रिय तो नहीं घटा होगा...? वह विचार आते ही वो स्वयं से बोल उठा ....नहीं, नहीं ऐसा कुछ नहीं हुआ होगा ! किसी अनिष्ट की कल्पना मात्र से गुरनाम भीतर तक काँप गया।
‘‘हे वाहेगुरु, तूं ही पालनहार ...सब दी रखिया करीं ...एस आखर तों सब नूँ बचाईं...। (हे ईश्वर, तुम ही पालनहार हो, सबकी रक्षा करना ...इस आफत से आप ही सबको बचाना)।’’ इसके बाद वह धीमे स्वर में ‘जपुजी साहब’ की पहली पौड़ी का पाठ करने लगा-
‘इक औंकार सतनाम, कर्तापुरख,
निरभौ, निर्वैर, अकाल मूरत,
अजूनीं सैभं, गुर प्रसाद.....।’
इसके बाद का पाठ उसे नहीं आता था। वह बार-बार उसी ‘पहली पौड़ी’ का जप करने लगा। उसने सुन रखा था कि ‘पहली पौड़ी’ का जप पाँच बार कर लेना भी पूरे ‘जपुजी साहब’ के पाठ के बराबर माना जाता है।
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अब तक के जीवन में रातें तो उनकी जिन्दगी में कई आयीं थीं। मगर वैसी काली रात हरनाम सिंह ने पहले कभी न गुजारी थी। रात भर वे सो न सके। बगल के पलंग पर पड़ी सुरजीत कौर भी सारी रात बस करवटें ही बदलती पड़ी रही थी। यह अलग बात है कि बीच-बीच में कुछ भटकी हुई झपकियों ने उसकी थोड़ी नींद जरुर पूरी कर दी थी। मगर उन झपकियों का जीवन इतना छोटा रहा था कि उन्हें झपकियाँ कहना सही नहीं लग रहा था।
सतनाम, उसकी पत्नी और मनजीत कौर भी अपने-अपने कमरों में उसी बेचैनी की गिरफ्त में कैद छटपटाते रहे थे। अगर कहीं कोई ज़रा-सा भी खटका होता तो वे चौंक-चौंक जाते। उनकी सांसे रुक जातीं और वे अगली आहट की प्रतीक्षा करने लगते। ऐसा लग रहा था, उन सबों ने अपनी-अपनी श्रवण शक्तियाँ मकान के आस-पास बाहर गश्त पर लगा रखीं हैं। वह रात घड़ी-घड़ी, पल-पल करती बीत रही थी। मगर उन्हें ऐसा लग रहा था, मानों समय रुक गया है। वे सब वहाँ यूँ वर्षों से उसी हालत में डरे-सहमे बैठे हुए हैं और उन्हें यह भी नहीं पता कि वे वहाँ यूँ ही कब तक बैठे रहेंगे....? उन सब की वह रात वैसे ही आशंकाओं से डरे-सहमे बीतती रही...। उस रात अगर उस घर में कोई निश्चिंत हो कर सोया था तो वह थी नन्ही परी-सी, सबसे छोटी डिम्पल। जो उस रात भी रोज की तरह नींद में आने वाले पारियों और मजेदार खेल-खिलोंनों के सपनों वाली मीठी नींद सोयी थी। अगर उसे भी राजनीतिक स्वार्थों, अमानवीय लालचों और हैवानियत का पता होता तो वह भी वैसी नींद कहाँ सो पाती ?
दुखी हरनाम सिंह को बार-बार यह अहसास हो रहा था कि वर्षों का कमाया धन और अर्जित इज्जत, वे लुटेरे कैसे पिछली शाम पलक झपकते ही लूट ले गये....। धन तो फिर भी वापस आ जाएगा, मगर इज्जत .....? जिन अपनों के साथ रहो, जिन पर भरोसा करो, उन अपनों द्वारा लूटा जाना, बेइज्जत किया जाना ही तो होता है।
दिन निकलने के साथ ही परिवार के सारे सदस्य अपने-अपने बिस्तरों से निकलने लगे। मगर रोज की तरह शायद ही किसी ने आपस में खुल कर बात की हो। जो थोड़ी बहुत बातें हुईं भी तो बेहद धीमी और सहमी आवाज़ में हुई थीं। घर का हर शख्स परेशान और स्वयं में ही गुम था। कैसे एक घटना कई दिनों पर भरी पड़ जाती है ....न जाने उस घटना ने कितने दिनों पर भरी पड़ना था ? या कि कितने महीनों, बरसों तक ....?
घर के उस बेहद कठिन मौन को सबसे पहले डिम्पल की रुलाई ने ही तोड़ा था। हर रोज उसे आँख खुलते ही दूध पीने की आदत थी। वह अभी-अभी नींद से उठी थी और दूध न मिलने के कारण भूख से रो रही थी। हर दिन नियमानुसार भोर में ही आने वाला ग्वाला आज दिन चढ़े तक नहीं आया था। मनजीत कौर डिम्पल को किसी तरह बहलाने का प्रयास कर रही थी। मगर बिस्किट की प्लेट पहले ही एक तरफ को ठेल चुकी डिम्पल के सामने उसकी एक न चली रही थी। सुबह जागने के बाद उसे दूध ही चाहिए, वह दूध ही पीयेगी, इस जिद के साथ वह रोये जा रही थी।
डिम्पल की लगातार जिद और बढ़ती रुलाई देख सतनाम उठ खड़ा हुआ। सर पर पटका लपेटते हुए उसने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘ज़रा मुझे दूध वाला डोल देना, मैं ग्वाले के घर जा कर देखता हूँ, क्या बात है ? पहले तो उसने कभी इतनी देर नहीं की।’’
उसकी पत्नी की आँखों में भय की छाया, सतनाम को बाहर जाने को तैयार होते देख और भी गहरी हो गई। मगर डिम्पल की भूख के आगे वह सतनाम को कैसे रोकती ? उसके होंठ तो थिरके थे मगर बेआवाज़ ही फिर से स्थिर हो गए। उसने जी कड़ा कर किसी तरह स्वयं पर नियंत्रण किया। सुरजीत कौर ने अपने बेटे को डोल ले कर जाते हुए देखा तो वह भी कमरे से बाहर निकल आई।
‘‘बेटा, थोड़ी देर और इंतज़ार कर लेते । पता नहीं बाहर का माहौल अभी भी कैसा हो ? शायद इसी कारण ग्वाला भी न आ सका हो.....!’’ उसने बेटे को रोकना चाहा था।
‘‘बी’जी कब तक इसी तरह बैठे रहेंगे ?’’ सतनाम की आँखों में अजीब सी दृढ़ता थी, ‘‘दूध के लिए भूखी डिम्पल का रोना कब तक और देखते रहें ? अगर मेरे साथ कुछ अप्रिय होना तय है तो उसे कोई नहीं टाल सकता। वाहेगुरु का अगर ऐसा ही हुक्म है तो वह होकर रहेगा- हुक्में अंदर सब कोय, बाहर हुक्म न कोय।’’
उसकी बात सुन कर माँ को कुछ उत्तर न सूझा । सतनाम ने दरवाजा खोला और घर से बाहर निकल गया। हरनाम सिंह अपने कमरे में खड़े चुपचाप उसे बाहर जाता देख रहे थे। उसके निकलते ही न जाने क्या सोच कर वे भी तेजी से सतनाम के पीछे बाहर की ओर लपके।
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कमल
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