Aakhar Chaurasi - 19 books and stories free download online pdf in Hindi

आखर चौरासी - 19

आखर चौरासी

उन्नीस

फैक्ट्री कैंटीन से जिन्दा बच निकले उन 28 सिक्खों जितने खुशकिस्मत, वे तीन सरदार फैक्ट्री कर्मचारी नहीं थे, जो एक नवंबर की उस काली सुबह अपनी ड्यूटी पर पहुँचे थे। वे तीनों तो इस भरोसे फैक्ट्री आ गये थे कि बाहर की अपेक्षा फैक्ट्री ही उनके लिए सबसे महफूज जगह होगी। उन्हें कहाँ पता था कि उनका दुर्भाग्य फैक्ट्री के गेट पर ही उन तीनों की प्रतीक्षा कर रहा है।

वे तीनों जब भीतर जाने के लिए गेट पर पहुँचे, ठीक उसी समय पिछली रात को भेड़ियों-सी आँखें चमकाने वाले लोग, भीतर से बाहर निकल रहे थे। बीती रात फौज आ जाने के कारण अपना शिकार खो चुके उन लोगों की आँखों में एक साथ तीन सरदार देख, फिर से खूनी चमक कौंध गई। आनन-फानन ही सब कुछ तय हो गया था।

‘‘पकड़ लो इन सरदारों को ! बचने ना पाएँ !’’ रात को कैंटीन में आया व्यक्ति जोर से चीखा।

भीड़ ने उन तीनों सरदारों को घेर लिया। वे तीनों अचकचा कर रुक गए।

‘‘क्या बात है भइया ?’’ एक सरदार ने डरते-डरते पूछा।

‘‘हमें क्यों रोकते हो भाई ?’’ दूसरा सरदार बोला।

‘‘हम मजदूर तो भाई-भाई होते हैं....’’ तीसरे की आवाज काँप रही थी।

मगर उन तीनों सरदारों का भरोसा ....उनकी प्रार्थनाएं ...उनका विश्वास ....सब कुछ उस भीड़ के पैशाचिक अट्टहासों में दब कर खो गए।

एक तीखा वाक्य उन तीनों पर हावी होता चला गया, ‘‘तुम सब सिक्ख हो.... केवल सिक्ख....!’’

देखते ही देखते उस भीड़ ने उन अभागे सरदारों को दहकती आग में झोंक दिया। कुछ ही देर पूर्व के वे जिन्दा मजदूर चीखते-चिल्लाते, तड़पते-कराहते राख में तब्दील हो कर फैक्ट्री के गेट के सामने बिखर गये। उसी फैक्ट्री के सामने, जहाँ उन्होंने दूसरे मजदूरों के साथ वर्षों तक अपना खून-पसीना बहाया था।

वह भीड़ उन तीनों को जिन्दा जलाने के बाद उछलती-कूदती शहर की बाहरी बस्तियों में फैल गई। पूरे ही देश में सिकखों की लूट-पाट करना और जिन्दा जलाया जाना जारी था। आजाद भारत के इतिहास का एक ऐसा काला अध्याय लिखा जा रहा था, जिसकी भयावहता से शैतान भी नज़रें चुरा ले।

उस शहर के विजय नगर और पाण्डु नगर में सिक्ख जिन्दा जलाये जा रहे थे। बर्रा, दबौली, पनकी, आवास विकास आदि आबादियों में लूट-पाट पूरे चरम पर थी।

वे सारी खबरें जल्द ही सिक्खों की पीली कॉलोनी तक भी जा पहुँचीं। भय, आतंक और सारी आशंकाओं ने वहाँ मौजूद सिक्खों के लिए चरम विन्दु पार कर लिया था। इसलिए जल्द ही उन सिक्खों ने प्रतिरक्षा हेतु मोर्चाबंदी शुरू कर दी। जिसके हाथ जो भी हथियार लगा, वह ले आया। ईंट-पत्थर जो भी मिले इकट्ठा कर लिया गया। नौजवानों ने स्कूटरों और कारों से पेट्रोल निकाल कर पेट्रोल बम बना लिए थे। मकानों की छतों और उपयुक्त जगहों पर मोर्चाबन्दी कर ली गई।

पहली नवंबर की तीखी ठण्ढी, काली रात सहम कर चुपचाप एक तरफ खड़ी थी। इंसानों की बस्तियों को जबरदस्ती अपनी पहचान खोने के लिए मजबूर कर दिया गया था ....अब वे जंगल बन गयी थी।

***

सतनाम की दुकान तथा पिछले कमरे जल कर धुँए से काले पड़ गए थे। कोई सामान नहीं बचा था। वहाँ केवल जला हुआ स्कूटर पड़ा रह गया था, जिसे भीड़ अपने साथ नहीं ले जा सकी। रमण शंडिल्य ने जब वह दृष्य देखा तो उनका दिल रो पड़ा। उनका बेटा विक्की ओर हरनाम सिंह का बेटा गुरनाम, बचपन के दोस्त हैं। उन दोनों की गाढ़ी दोस्ती के कारण उनके परिवारों में भी आपसी सम्बन्ध बड़े अच्छे बन गए थे। रमण शंडिल्य वह दृष्य देख कर बड़ा आहत महसूस कर रहे थे।

तभी सामने से हरीष बाबू आते दिखे। वे भी रमण शंडिल्य की तरह शाम की बैठकी में शामिल होने वे भी नेता जी के घर जा रहे थे। उन्होंने बाखूबी यह अनुमान लगा लिया कि रमण बाबू के मन में हरनाम सिंह के लिए सहानुभूति उमड़ रही है।

उन्होंने बनावटी अफसोस प्रकट करते हुए कहा, ‘‘बड़ा बुरा हुआ, रमण बाबू ....पता नहीं वे कौन लोग थे। वैसे उड़ती-उड़ती खबर मिली है कि वे सब दूसरी कोलियरियों के लोग थे, जिन्होंने यहाँ लूट-पाट और आगजनी की।’’ फिर अपने स्वर को रहस्यमय बनाते हुए उन्होंने जोड़ा, ‘‘रमण बाबू जानते हैं, लूट-पाट में यहाँ से एक ए.के. सैंतालिस भी मिली है। हरनाम सिंह तो बड़े खतरनाक आदमी निकले। लगता है उनके सम्बन्ध सीधे पंजाब के उग्रवादियों से हैं। वर्ना उन्हें ए.के. सैंतालिस कहाँ से मिलती?’’

हरीष बाबू के मुँह से ए.के. सैंतालिस रायफल की बात सुन कर रमण बाबू बुरी तरह चौंके । थोड़ी देर के लिए वे भी सकते में आ गये। परन्तु तुरन्त ही सारा माजरा उनकी समझ में आ गया। तब तक उस तरह की कुछ अफवाहें उनके कानों तक भी पहुँच चुकी थीं कि लूट-पाट की अगुवाई में हरीष बाबू तथा गोपाल चौधरी सक्रिय रुप से शामिल थे। कुछ ने तो यह भी बताया था कि सारे काँड को वे ही दोनों निर्देशित कर रहे थे। चूँकि वह बात देर-सवेर सबकी जानकारी में आ ही जाएगी और तब उन्हें विकट स्थिति का सामना करना पड़ सकता है। सम्भवतः इसीलिए वे ए.के. सैंतालिस वाली अफवाह फैला रहे हैं ताकि जिसे भी उनके लूट-पाट में शामिल होने की बात का पता चले, वो यही कहे कि उन्होंने ठीक किया। इस कांड से सब बच गये वर्ना न जाने हरनाम सिंह की ए.के. सैंतालिस किस-किस पर चलती ?

रमण शंडिल्य ने संयत स्वर में पूछा, ‘‘तब तो आपने भी वह ए.के. सैंतालिस देखी होगी, कैसी थी ?’’

‘‘वो...मैं.... मुझे क्या पता कैसी थी।’’ उनके प्रश्न ने हरीष बाबू को हड़बड़ा दिया।

‘‘क्यों आप तो वहां मौजूद थे !’’ रमण शंडिल्य ने एक और प्रश्न दागा।

रमण बाबू के प्रश्नों से हरीष बाबू को लगा, वे तो बुरे फँसे। लेकिन जल्द ही उन्होंने स्वयं को संभाल लिया।

‘‘हाँ, मैं वहाँ मौजूद था। जब मैंने लूट-पाट की खबर सुनी तो गोपाल चौधरी को लेकर तत्काल वहाँ आया था। हमने उन लोगों को मना करने का प्रयत्न किया कि वे लूट-पाट बन्द कर दें। मगर दंगाई किसी की कहाँ सुनते हैं ? फिर ए.के. सैंतालिस निकली तो हम भी चुप हो गए। लोग बता रहे थे, वह बन्दूक इतनी लम्बी थी....’’ हरीष बाबू ने अपने दोनों हाथ फैलाते हुए लम्बाई बतानी चाही।

उन्हें बीच में ही रोकते हुए रमण षांडिल्य ने पूछा, ‘‘तब तो आप जानते होंगे कि अभी वह बन्दूक कहाँ है ?’’

‘‘वह तो पता नहीं, शायद दंगाई अपने साथ ही ले गए।’’ हरीष बाबू फिर गड़बड़ा गए।

‘‘अगर वह ए.के. सैंतालिस अब उन लोगों के पास है, जिन्होंने यहाँ लूट-पाट की है, तब तो वे सब भी अब हरनाम सिंह जितने ही खतरनाक हो गए न!’’ रमण शंडिल्य ने कड़वे स्वर में कहा, ‘‘चलिए, उन लोगों के खिलाफ थाने में रपट लिखवाई जाए। आपने तो सब कुछ अपनी आँखों से देखा है, इसलिए रपट के लिए आपका थाने चलना आवश्यक है।’’

उनकी बात सुन कर हरीष बाबू बुरी तरह चौंके। अपने जाल में वे स्वयं ही फँसते लगे। थाना-पुलिस का चक्कर हो जाएगा, इस बात की तो उन्होंने कल्पना भी न की थी।

उन्हें खामोश देख कर रमण शंडिल्य ने कहा, ‘‘देखिए हरीष बाबू, हरनाम सिंह को मैं बड़ी अच्छी तरह जानता हूँ। मेरे बेटे विक्की का उनके घर आना-जाना है। उनका परिवार विक्की और गुरनाम में कोई फर्क नहीं करता। आज इतना कुछ हो जाने के बावजूद आप हरनाम सिंह के बारे में इस ढंग से सोच रहे हैं ? जो इंसान सारी उम्र हमारे साथ रहा, जिसका उठना-बैठना हमेशा हमारे साथ होता रहा है। जिसकी हर खुशी में हम लोग भी शरीक़ हुए हैं और जो हमेशा बढ़-चढ़ कर हमारी खुशियों में भी शामिल हुआ है। उसने होली, दिवाली, दशहरा हमारे साथ मनाया है तो बैशाखी, लोहड़ी में हम भी उसके साथ रहे हैं। आज उस शख्स की उम्र भर की कमाई लूट ली गई और हम कुछ भी न कर सके। ऐसी स्थिति में अगर हम उनके घावों पर मरहम नहीं लगा सकते तो उन्हें और घाव तो न ही दें... उन घावों पर नमक तो न छिड़कें....।’’ धारा प्रवाह बोलते रहने से उनकी साँस फूल गई थी।

हरीष बाबू ने कुछ बोलने का उपक्रम किया परन्तु दम लेने को ज़रा रुके रमण शंडिल्य उन्हें अब कोई और अवसर देने को तैयार नहीं दिखे, ‘‘आप कहते हैं कि वे सब दूसरी कोलियरियों से आए दंगाई थे। तब उन्हें कैसे पता चला कि यह हरनाम सिंह की दुकान है ? आप यह भी कह रहे हैं कि यहाँ से ए.के. सैंतालिस मिली है। अगर यहाँ ए.के. सैंतालिस होती तो हरनाम सिंह चुपचाप अपने घर में बैठे नहीं रहते ! तब आपको यह दुकान लुटने के बाद की जली हालत में नज़र नहीं आती, बल्कि सुरक्षित नज़र आती। क्योंकि ए.के. सैंतालिस के सामने किसी भी दंगाई की हिम्मत नहीं होती कि वह लूट-पाट करता। ...इसलिए कह रहा हूँ हरीष बाबू, मेरी बातें जरा ध्यान से सुनिए। अगर हम अपना दायित्व नहीं निभा सके तो कम से कम हरनाम सिंह के खिलाफ अफवाहें तो ना ही फैलाएं !’’ बोलते-बोलते रमण शंडिल्य का चेहरा लाल हो गया था।

हरीष बाबू का चेहरा उतर गया। रमण बाबू ने जितने भी अकाट्य तर्क प्रस्तुत किए थे, उनमें से एक का भी उत्तर उनके पास नहीं था। वे खिसियाए स्वर में बोले, ‘‘आप मेरी बातों पर विश्वास कीजिए। मैं सच बोल रहा हूँ। आप चाहें तो नेतोजी से भी पूछ लें....’’ परन्तु उनके मरियल-से स्वर का खोखलापन साफ झलक रहा था।

वह सब देख-सुन कर रमण शंडिल्य बड़े विचलित हो गये थे। वे चाहते थे कि नेताजी के घर जाना टाल कर अपने घर जा कर चुप-चाप लेट जाएँ। किसी से कोई बात न करें। परन्तु नेताजी के घर जाना टाला नहीं जा सकता था। साथ ही उनके दिल में यह ख्याल भी आया, न जाने नेताजी के घर पर क्या-क्या बातें हों ? इसलिए वहाँ रहना जरुरी है। वे धीमे-धीमे कदमों से हरीष बाबू के साथ नेताजी के घर की ओर चल दिए।

नेताजी के घर पर हर रोज की तरह काफी भीड़ थी। एक तरफ टी.वी. फुल वाल्युम में चल रहा था।

...स्क्रीन पर उभरते नेता का चेहरा ....लोगों से संयम की अपील ...सारे निचले स्तर के नेताओं को अपने-अपने क्षेत्र में रह कर व्यव्स्था कायम करने की सलाह ...यानि कि घुमा-फिरा कर स्पष्ट निर्देष। ...देश भर के विभिन्न हिस्सों से दिल दहलाने देने वाली खबरें ...खून का बदला खून से लेने के नारे लगाती भीड़ ...रमण बाबू को सारे चेहरे एक दूसरे में गडमड होते लग रहे थे। वे उन सब के अलावा टी.वी. पर कुछ और देखना, कुछ और सुनना चाह रहे थे। मगर उनके चाहने से क्या होता? उस पर तो वहाँ वही दिखाया जा रहा था, जो दिखाने वाले चाहते थे। उन्हें भी वही सब देखना पड़ रहा था जो कुछ दिखलाया जा रहा था। उसकी कोई काट नहीं थी ....कोई नहीं!

गुरुद्वारे वाले ग्रंथी की हत्या की ख़बर पास के थाने को हो चुकी थी। पुलिस ने घटना स्थल पर नाके-बंदी कर दी थी। वैसे भी अब वहाँ कोई जाने वाला न था। लाश को पोस्टमार्टम के लिए भिजवाया जा चुका था। जिस समय हरीष बाबू के साथ रमण शंडिल्य नेताजी के घर पहुँचे, पुलिस इंस्पेक्टर वहीं बैठा था।

‘‘नेताजी, गुरुद्वारा पर दो सिपाही तैनात कर दिये गये हैं ताकि वहाँ पर कोई उत्पात न हो। अगर कहीं और सिपाही तैनात करने की जरुरत है तो आप बता दीजिए।’’ इंस्पेक्टर ने अपने सामने रखी प्लेट से एक रसगुल्ला उठा कर अपने मुँह में डालते हुए कहा।

‘‘अरे सर, आपने अब तक जितना सहयोग किया है, वही काफी है। कहीं और सिपाही तैनात किए जाने की जरुरत नहीं है।’’ नेताजी ने तपाक से कहा।

रमण शंडिल्य को लगा मानों नेताजी कह रहे हैं, अब इस इलाके में लूट-मार करने की कोई भी जगह बाकी नहीं है। अब आप जहाँ मर्जी हो वहां सिपाही तैनात कर दें, कोई फर्क नहीं पड़ता। इंस्पेक्टर अपने दल-बल सहित नाश्ता-पानी कर वहाँ से चला गया।

नेताजी की नज़र रमण बाबू पर पड़ी तो चहकते हुए बोले, ‘‘आइए ...आइए रमण जी मैं आपका ही इंतज़ार कर रहा था। आज हरनाम सिंह के साथ बड़ा बुरा हुआ है। वे वर्षों से हमारे साथ रहे हैं। मैं चाहता हूँ, उनके घर जाकर उन्हें सांत्वना दी जाए। आप तो उनके पारिवारिक मित्र भी हैं, इसलिए आपका हमारे साथ चलना ज़रुरी है।’’

हालाँकि रमण बाबू उनके साथ नहीं जाना चाहते थे। परन्तु पार्टी का सवाल था, उन्हें अपनी इच्छा के विरुद्ध सहमति व्यक्त करनी पड़ी, ‘‘ठीक है, चलिए!’’

***

कमल

Kamal8tata@gmail.co

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