आखर चौरासी
चौदह
रामप्रसाद ने गुरनाम को आते देखा तो बुरी तरह चौंका, मगर तभी साथ आते जगदीश को देख कर वह कुछ आश्वस्त हुआ। जगदीश को वह अच्छी तरह जानता था। अधेड़ उम्र रामप्रसाद के सर के सारे बाल भले ही सफेद हो चुके थे, मगर शरीर से अभी भी वह बड़ा फुर्तीला था। उसने मुस्करा कर दोनों का स्वागत किया।
‘‘प्रसाद जी चाय पिलाइए।’’ जगदीश होटल के अंदर जाने की जगह वहीं भट्ठी के पास खड़ा हो गया। गुरनाम भी होटल के भीतर न जा कर वहीं आ गया। चाय पीते जगदीश ने चौक पर चारों ओर नजरें दौड़ाईं।
‘‘ज़रा देखना तो गुरनाम, वे लड़के कहीं नजर आ रहे हैं क्या ?’’ उसने फुसफुसाते हुए गुरनाम से पूछा।
गुरनाम ने ध्यान से चारों ओर देखा, परन्तु उसे उन लड़कों में से कोई भी नजर नहीं आया। उसने जगदीश की ओर देख कर इंकार में सर हिलाया।
जगदीश ने रामप्रसाद को संबोधित करते हुए पूछा, ‘‘प्रसाद जी, वे कौन लड़के थे, जिन्होंने गुरनाम को आज सुबह धमकाया था ?’’
‘‘पता नहीं सर, हम उन लोगों को नहीं जानते हैं।’’ रामप्रसाद ने जवाब दिया। न जाने क्यों गुरनाम को लगा, रामप्रसाद झूठ बोल रहा है। शायद उसे डर हो कि उन लड़कों का नाम बता देने से, अगर झगड़ा बढ़ा तो वे लड़के रामप्रसाद का भी कोई अहित कर देंगे। ....खैर ठीक ही है। गुरनाम भी नहीं चाहता था, किसी किस्म का झगड़ा होने की नौबत आये।
चाय खत्म कर जगदीश ने रामप्रसाद से कहा, ‘‘यदि वे लड़के नजर आएँ तो बता दीजिएगा, हॉस्टल के लड़कों से पंगा न लें। वर्ना उन्हें इसका सामना करना पड़ेगा।’’ कहते हुए उसने अपना शॉल जरा-सा ऊपर उठाया। उसकी कमर में रिवॉल्वर खुंसा हुआ था।
गुरनाम चौंका, तो जगदीश रिवॉल्वर ले कर आया था।
‘‘चलो गुरनाम।’’ जगदीश ने उससे कहा और वापस मुड़ा। अपना खाली गिलास टेबल पर रख कर गुरनाम भी उसके पीछे-पीछे होटल से बाहर निकल गया। कुछ दूर साथ-साथ मौन चलने के बाद गुरनाम ने पूछा, ‘‘अगर वे लड़के मिल जाते तो क्या तुम अपना रिवॉल्वर निकाल लेते?’’
‘‘हा...हा...हा... इस मामले में अभी तुम बच्चे हो, रिवॉल्वर देख कर ही घबरा गये। वैसे यह बात सच है कि रिवॉल्वर मैं जरुर निकालता। वे लड़के इसे देख कर ही भाग जाते।’’ जगदीश ने हंसते हुए कहा, फिर गंभीर होते हुए बोला,‘‘अगर ना भागते तो मुझे फायर करने में भी कोई झिझक न होती। उसके बाद भले जो होता देख लेते।’’
वे दोनों बातें करते हॉस्टल लौट आये। गुरनाम के मन में बार-बार यही ख्याल आ रहे थे कि आज तक जगदीश के बारे में वह कितना गलत सोचता आया था, कि जगदीश मन का बुरा नहीं है, कि आज जगदीश ने उसे बहुत सहारा दिया... आदि....आदि।
दूसरी तरफ जगदीश को भी उस दिन एक विशेष प्रकार की अनुभूति हो रही थी। आज से पहले भी वह कई बार रिवॉल्वर लेकर निकला था। कभी-कभी गोलियाँ चलाने की भी नौबत आयी थी। व्यर्थ के लड़ाई-झगड़ों में कई बार उसने अपनी शक्ति का प्रयोग किया था। मगर आज जिस उद्देष्य से वह निकला था, उसने एक अजीब-सी शांति और संतुष्टि के भाव से उसे भर दिया था। वह स्वयं में बहुत हल्कापन, एक उत्साहित करता स्पन्दन महसूस कर रहा था। हॉस्टल में अपने कमरे की ओर मुड़ने से पहले वह बोला, ‘‘अब तुम आराम से जा कर पढ़ो। जब हॉस्टल से बाहर जाना हो, मुझसे कहना या फिर किसी और को साथ लेकर जाना। अभी अकेले बाहर मत निकलना, माहौल कुछ ठीक नहीं लगता।’’
गुरनाम ने स्वीकारोक्ति में सर हिलाया और अपने कमरे की ओर मुड़ गया। आज उसे विक्की बड़ा याद आ रहा था। वह उदास हो गया। विक्की उसके पास होता तो उसे कभी उदास नहीं होने देता। वह उससे ढेर सारी बातें करता, उसे समझाता, सान्त्वना देता और संभालता। बचपन से आज तक साथ-साथ खेले, पढ़े और बड़े हुए वे दोनों लंगोटिया यार हैं। वह तो पिछले साल विक्की का दाखिला इंजीनियरिंग कॉलेज में हो जाने के कारण उन दोनों का साथ ज़रा छूट-सा गया है। अब उनका ज्यादा संवाद पत्रों के माध्यम से ही हो पाता है।
गुरनाम को विक्की का पिछला पत्र याद आया। उस पत्र के अनुसार विक्की आज बोकारो में होगा। वहाँ दो दिन अपनी फूआ के घर रह कर, वह अपने कॉलेज बी.आई.टी. सिन्दरी जाने वाला है। गुरनाम को विक्की के उस पत्र का उत्तर बी.आई.टी. सिन्दरी के पते पर ही भेजना है। एक बार विक्की की याद आने के बाद वह उसी के बारे में सोचता जा रहा था। ऐसी ही थी उनकी दोस्ती। उसने बिस्तर पर लेट कर आपनी आँखें मूँद लीं।
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‘‘वैसे तो इस छोटी-जगह पर कोई फसाद नहीं होने की सम्भावना नहीं है। फिर भी तुम अपनी दुकान के आस-पास ही रहना।’’ हरनाम सिंह ने सुबह-सुबह ही सतनाम को हिदायत दी थी।
जिसके बाद सतनाम ने महादेव को बुलवा लिया था। सुबह से ही महादेव अपने दो दोस्तों के साथ सतनाम की दुकान पर आ बैठा था। दुकान का शटर गिरा कर वे चारो बाहर दुकान के सामने वाली शेड के नीचे बैठे ताश खेल रहे थे। किसी गड़बड़ की आशंका उन्हें भी नहीं थी। दोपहर होने पर महादेव ने बाजी समेटते हुए कहा, ‘‘यार सतनाम, अब लंच ब्रेक किया जाए।’’
ताश की बाजी कुछ ऐसी जमी हुई थी कि अगर उन्हें भूख ना लगी होती तो वे सारा दिन वहीं बैठे ताश खेलते रहते। तब तक सताम को भी भूख महसूस होने लगी थी। उसने उठते हुए महादेव की बात का समर्थन किया और दुकान तथा पीछे वाले रिहायशी कमरों पर अच्छी तरह ताले लगा कर उनके साथ घर की ओर बढ़ गया।
अगले मोड़ पर अपने-अपने घरों की ओर मुड़ने से पहले महादेव ने सतनाम से कहा, ‘‘खाना खा कर मेरे घर आ जाना, वहीं से इकट्ठा हो कर फिर दुकान पर आएंगे।’’
घर आ कर नहाने के दौरान सतनाम ने अपने केश भी धो लिए थे। इसलिए खाना खाने के बाद केश सुखाने के लिए उसने छत पर खाट निकाली और लेट गया। तकिये पर सर रखने से पहले उसने अपने केश खोल कर फैला लिये थे ताकि जल्द सूख जाएँ। नवंबर की धूप उस सर्दी के मौसम में बेहद भली लग रही थी। उसने सोचा थोड़ी देर में केश सूख जाएंगे, तब ही महादेव के घर जाऊँगा। मगर लेटे-लेटे उसकी आँख लग गई और वह गहरी नींद में सो गया।
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वह एक पागल भीड़ थी, जो धीरे-धीरे उस इलाके के शराब विक्रेता सरदार कलवन्त सिंह की दुकान के पास जमा हो गई। दुकान का शटर तोड़ने में उस भीड़ को ज्यादा देर न लगी। देखते ही देखते वह भीड़ दुकान के भीतर घुस गई। थोड़ी ही देर में दुकान की सारी बोतलें उस भीड़ के कब्जे में थीं। जो पहले भीतर घुस पाये थे, उनमें से कुछ के हाथों में तो बोतलों से भरी पूरी की पूरी पेटियाँ ही थीं। कई तो इतने बेसब्रे निकले कि उन्होंने वहीं बोतलें खोल कर अपने होठों से लगा लीं। वहाँ का पैशाचिक वातावरण नशीला हो चुका था। अभी वह लूट-पाट चल ही रही थी कि सायरन बजाती पुलिस जीप उधर आ निकली। पुलिस देख भीड़ एक पल को सहम गई। लगा जैसे पुलिस के डर से वह भीड़ बिखरने लगी हो। तभी भीड़ में से एक नेता टाईप आदमी आगे आया, ‘‘हुजूर लीजिए, आप भी जरा होंठ गीले कर लीजिए।’’
जीप के भीतर से होंठ जरा मुस्कराये, ‘‘अभी हम लोग ड्यूटी पर हैं। दो-चार पेटी पीछे रख दो, ड्यूटी के बाद हम भी जरा अपनी थकान मिटा लेंगे।’’
जीप में पीछे शराब की पेटियाँ रख दी गईं। जीप सर्र...र से आगे निकल गई। पुलिस के देख डर कर बिखरने को तैयार भीड़, फिर से जम गई थीं। नेता टाईप उसी व्यक्ति ने जोर से नारा लगाया, ‘‘ख़ून का बदला...।’’
उस भीड़ ने खुशी से उछलते हुए जवाब दिया, ‘‘....खून से लेंगे !’’
धीरे-धीरे नारों के लगने की तीव्रता बढ़ने लगी। पूरी भीड़ पागलों की तरह चीख रही थी, उछल-कूद रही थी और नारे लगा रही थी, ‘‘ख़ून का बदला, खून से लेंगे! ...ख़ून का बदला, खून से लेंगे! ...ख़ून का बदला, खून से लेंगे !’’
उस नेता-टाईप आदमी की आँखें नशे से लाल हो रही थीं। उसने जेब से माचिस निकाली। पहले उसने अपनी सिगरेट जलाई फिर पेट्रोल से भीगी मशालनुमा लकड़ी और उसे दुकान के भीतर उछाल दिया। देखते ही देखते शराब की दुकान धू-धू कर जलने लगी....। वैसे भी सारी शराब निकाल लिये जाने के बाद वह दुकान अब उनके काम की नहीं रह गई थी। उस दुकान के भीतर केवल फर्नीचर बचा था, जिसे आग पकड़ने में ज़रा भी देर न लगी। जल्द ही पूरी दुकान आग की चपेट में थी।
अगल-बगल की दुकाने गैर सिक्खों की थीं। जब शराब दुकान जलाई जा रही थी, तब उन लोगों ने विरोध किया था। परन्तु विफल रहे थे। वे ही दुकानदार तब चुपचाप खड़े कुलवन्त सिंह की शराब दुकान लुटने का तमाशा देखते रहे थे, अब अपनी दुकानों की फिक्र में आग बुझाने के लिए भाग-दौड़ कर रहे थे। पानी का इंतजाम करने में जुटे थे, ताकि कुलवन्त सिंह की दुकान में लगी आग उनकी दुकान तक न पहुँच जाए। अगर उन लोगों ने मिल कर पहले ही कुलवन्त सिंह की दुकान लुटने का विरोध किया होता तो अभी अपनी-अपनी दुकानों की चिन्ता से मुक्त होते।
वह पागल भीड़ उसी प्रकार चीखती-चिल्लाती, शराब से अपने गले तर करती, बदला लेने के नारे लगाती आगे बढ़ गई थीं। रास्ते में जहां भी सिक्खों की दुकानें मिलतीं, हर दुकान का वही हश्र होता। पहले लूट-पाट और अंत में अग्निकांड।
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मजे की बात यह कि सिक्खों की दुकानें पहचानने के लिए उस भीड़ के पास बाकायदा दुकानों की लिस्ट थी। भीड़ द्वारा बड़े आराम से दुकान लूट कर पहले सारा सामान निकाला जाता, फिर उसमें आग लगा दी जाती। सारा कुछ बड़े ही सुनियोजित ढंग से हो रहा था। पुलिस के उदासीन रवैये के कारण भीड़ का मनोबल बढ़ता जा रहा था। अब तक भीड़ को न तो कोई रोकने वाला मिला था, न ही उसे कहीं प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था। दूसरी तरफ लूट-पाट के माल से भीड़ की कई स्थगित इच्छाएं पूरी हो रही थीं], इसलिए भी भीड़ का मनोबल बढ़ने के साथ-साथ उसकी हवस भी बढ़ती जा रही थी।
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कमल
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