डोर – रिश्तों का बंधन
(4)
नयना का फ़ोन बहुत देर से बज रहा था। दो बार तो बेचारा थक कर चुप भी हो गया। नयना आटा लगा रही थी,'आज किसे मेरी इतनी याद आ रही है,' उसने देखा फ़ोन की स्क्रीन पर उसकी कलीग रेंवती का नंबर फ्लैश हो रहा था। "हैलो, ऐसी कौनसी आफत आ गई की तुम कॉल पर कॉल किए जा रही हो, अभी थोड़ी देर पहले ही तो बिछड़े थे। थोड़ा सब्र भी रख लिया करो," आटा सने हाथों से नयना ने इस बार फ़ोन उठा ही लिया।
"बात ही ऐसी है। मुझे पता था ना तो तुम्हारे पास फ़ुर्सत है और ना ही तुम्हारी याददाश्त ही इतनी अच्छी है कि जरूरी बातें तुम्हें याद रहे इसलिए सोचा मैं ही बता दूं।"
"जल्दी बको, सच में बिज़ी हूं। खाना बना रही हूं अगर तुम्हारी बातों में उलझ गई तो सब्जी जल जाएगी।"
"ऐसे नहीं मैडम, इतनी बड़ी ख़बर मैं यूं ही नहीं सुनाने वाली। पहले ये बताओ बदले में मुझे क्या मिलेगा। जानती हूं तुम परले दर्जे की कंजूस हो। पर इस बार तुम्हारा पाला रेंवती से पड़ा है, बिना पार्टी लिए मैं तो तुम्हें नहीं छोड़ने वाली।"
"अच्छा बाबा ठीक है तेरी पार्टी पक्की अब तो बोल किसलिए कॉल किया|" अब नयना को रेवती की बातों से थोड़ी चिढ़ होने लगी थी।
"तो सुन ख़बर ये है कि अब हम दोनों बैंक क्लर्क नहीं रहे बल्कि बैंक पी. ओ. हो गए हैं।"
"क्या! सच!" नयना एकदम चिल्ला कर बोली। एक बार तो उसे समझ ही नहीं आया कि रेंवती क्या कह रही है। पर फिर उसे याद आया कि उसने और रेंवती ने बैंक पी. ओ. की प्रतियोगिता परीक्षा दी थी और आज उसका रिजल्ट आने वाला था। "मैं तुझे थोड़ी देर में फ़ोन करती हूं।" कह कर उसने रेंवती का कॉल कट किया और जल्दी से इंटरनेट ऑन कर बैंक की वेबसाइट पर रिजल्ट चैक करने लगी। रेंवती सही कह रही थी। नयना और रेंवती दोनों का ही नाम सफल प्रतिभागियों की सूची में था।
"मां......!" नयना खुशी से उझलती हुई रसोई से बाहर की ओर भागी और मां के गले से लिपट गई। मां ने उसे खुद से दूर किया और पापाजी की ओर इशारा करते हुए घूर कर देखा तो उसे याद आया कि वह अपना दुपट्टा रसोई में ही छोड़ आई है। मां को ऐसे इशारे से नयना को समझाते देख मीनू और रोहित मुंह दबा कर हंसने लगे। पापाजी के सामने बिना सर पर पल्लू लिए आना भी मां पापाजी को पसंद नहीं था और नयना तो आज बिना दुपट्टे ही चली आई थी। अपनी भूल का अहसास होते ही वह दौड़ कर वापस रसोई में चली गई और वापस आ कर मां पापाजी के पैर छूते हुए खुशखबरी सुनाई। मां पापाजी ने नयना को आशीर्वाद तो दिया पर उतने खुश दिखाई नहीं दिए जितनी उम्मीद नयना ने की थी।
नयना ने बड़ी उम्मीदों से विवेक की ओर देखा। उसे लगा शायद मां पापाजी पुराने ज़माने के होने के कारण उसकी उपलब्धि नहीं समझ पा रहे, उनके लिए तो यही बहुत बड़ी बात है कि उनकी बहु नौकरी करती है, क्लर्क से अफ़सर बनने के फ़र्क को शायद वे दोनों नहीं समझ पा रहे थे। किंतु वह तो समझ ही लेगा। पर विवेक की प्रतिक्रिया भी ठंडी ही रही। वह कुछ देर चेहरे पर निर्विकार भाव लिए बैठा रहा फिर उठ कर बाहर चला गया। नयना समझ गई आज फिर विवेक रात को देर से घर आएगा, आज फिर नयना को खाने पर उसका देर रात तक इंतज़ार करना होगा।
नयना की इस नई नियुक्ति ने जहां एक ओर बैंक में उसकी ज़िम्मेदारीयां बढ़ा दी थी वहीं घर में भी उसकी मुश्किलें थोड़ी और बढ़ गई थीं। विवेक भी उससे थोड़ा और दूर हो गया था। उन दोनों के बीच बहुत अधिक निकटता तो पहले भी नहीं थी, बस एक औपचारिक सा रिश्ता था जिसे दोनों ही निभाए जा रहे थे। पर अब विवेक पहले की अपेक्षा और भी मौन रहने लगा था। नयना का अफ़सर बन जाना विवेक को रास नहीं आ रहा था। पहले की बात अलग थी। विवेक खुद भी अपनी कंपनी में कोई बड़ा अफसर नहीं बल्कि एक कर्मचारी ही था, और यदि उसकी पत्नी भी क्लर्क थी तो यहां तक उसे स्वीकार था किंतु उसकी पत्नी उससे ऊंचे और प्रतिष्ठित औहदे पर काम करती हो यह उसे स्वीकार नहीं था।
उसकी समस्या यह थी कि वह नयना को नौकरी छोड़ने के लिए भी नहीं कह सकता था क्योंकि अपने माता पिता के समक्ष विवाह से पूर्व कामकाजी लड़की ढ़ूंढ़ने की शर्त उसी ने रखी थी। विवेक यह भी अच्छे से जानता था कि नयना ने बहुत मेहनत से यह मुकाम पाया है और अब वह किसी भी कीमत पर इसे नहीं छोड़ेगी। वह अपने मन की व्यथा ना किसी से कह पा रहा था और ना ही नयना की तरक्की ही बर्दाश्त ही कर पा रहा था। अपनी हीनभावना के बंधन में जकड़ा बस वह घुटे जा रहा था। नयना और उसके बीच पसरा यह मौन उसकी इसी घुटन का परिणाम था।
नयना और रेंवती के पी. ओ. बनने की खुशी में नयना के बैंक के मित्रों ने पार्टी का आयोजन किया था। इस पार्टी में नयना और रेंवती के परिवारजन भी आमंत्रित थे। नयना ने घर पर जब इस पार्टी के बारे में बताया तो मां और पापाजी ने जाने से साफ़ मना कर दिया। रोहित और मीनू का बहुत मन था जाने का पर मां ने उन्हें भी साथ ले जाने के लिए नयना को सख्ती से मना कर दिया। विवेक नयना के साथ चला तो गया पर बेमन से। ना तो वह वहां किसी से ठीक से मिला और ना ही किसी के साथ ढंग से बात ही की, बस पूरा समय अनमना सा एक कोने में बैठा रहा। रेंवती की तरक्की के बारे में बात करते हुए रेंवती के पति का चेहरा गर्व से दमक रहा था। उस समय नयना के दिल ने भी चाहा था कि विवेक उसके बारे में कुछ कहे और वह भी रेंवती की तरह अपनी इस कामयाबी का श्रेय विवेक को दे। किंतु विवेक से कोई क्या पूछता और क्या वह कहती जब विवेक तो वहां हो कर भी नहीं था।
नयना को आश्चर्य होता था इन पुरुषों की सोच पर। पत्नी की हर बात इन्हें अपने मनोनुकूल ही चाहिए। किसी को खुद से नीची हैसियत की लड़की पत्नी के रूप में पसंद नहीं आती तो कोई खुद से ऊंचे औहदे पर नौकरी करने वाली पत्नी के कारण शर्मिंदा हो जाता है। इनके लिए बस अपनी इच्छाओं का महत्व है। अपनी पत्नी की इच्छाओं, उसके सपनों की इनकी नज़र में कोई महत्व नहीं होता। पति और परिवार का महत्व तो नयना के जीवन में भी कम नहीं था किंतु हर बार अपनी खुशियों का बलिदान नयना के वश में नहीं था, जब हर बार उसे ही झुकना पड़ता तो उसे इन रिश्तों से चिड़ सी होने लगती। हमेशा यही होता था और इस बार भी कुछ ऐसा ही होने जा रहा था।
उसने जी तोड़ मेहनत की थी यह मुकाम हासिल करने के लिए किंतु उसे अपनी सफलता का जश्न मनाने का हक नहीं था। क्यों? क्योंकि उसके पति को उसकी यह तरक्की पसंद नहीं। नयना का मन रोने का कर रहा था। रेवंती पार्टी का खूब आनंद ले रही थी, अपने पति के साथ खूब डांस कर रही थी, खा-पी रही थी और वह बस पूरा समय विवेक को ही मनाती रही। पार्टी में ही नहीं, घर वापस आ कर भी विवेक पूरी तरह खामोश रहा, नयना की किसी भी बात का उसने हाँ-हूं के रूप में भी जवाब नहीं दिया।
"नयना!" कई दिनों के अबोले के बाद विवेक ने आज नयना को पुकारा था। हिसाब से उसे खुश होना चाहिए था पर वह परेशान हो उठी। आज बैंक में एक जरूरी मीटिंग थी और उसे जाने में देर हो रही थी। एक तो गौरी के छुट्टी पर होने के कारण पहले ही घर से निकलने मे देर हो गई ऊपर से उसकी स्कूटी भी खराब पड़ी है, ऑटो से ही जाना होगा। जाने ऑटो भी कब मिले। कल कहा भी था रोहित से स्कूटी ठीक करवाने को पर वह सुने तब ना। अब विवेक को भी इसी वक्त काम आना था। वह ठिठक कर रूक गई।
"चलो आज मैं तुम्हें बैंक छोड़ देता हूं। तुम्हारी स्कूटी भी खराब है, ऑटो में परेशान हो जाओगी।"विवेक ने बाइक स्टार्ट करते हुए कहा। नयना को बहुत आश्चर्य तो हुआ पर उस समय उसके पास सोच विचार करने को समय नहीं था अतः वह चुपचाप बाइक की पिछली सीट पर बैठ गई। "शाम को यहीं मेरा इंतज़ार करना मैं तुम्हें लेने आ जाऊंगा।" विवेक ने नयना को ड्रॉप करके कहा। यह सुन कर नयना के आश्चर्य की सीमा नहीं रही, विवेक आज तक कभी उसे बैंक छोड़ने नहीं गया था। यहां तक कि शादी के बाद के शुरूआती दिनों में जब वह शहर में नई थी तब भी नहीं। उसने पहले दिन ही कह दिया था,'नौकरी करनी है तो अपने दम पर करो, मुझसे मदद की उम्मीद मत रखना। मैं तुम्हारा ड्राइवर नहीं हूं।'
और आज वही विवेक ना सिर्फ खुद चला कर नयना को बैंक तक छोड़ने आया बल्कि शाम को लेने आने की बात भी कर रहा था। शाम को भी नयना को विवेक का ज्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ा। ऑफिस का टाइम खत्म होने के बाद वह जैसे ही बाहर निकली उसे विवेक बाहर खड़ा मिला।
"क्या हुआ घर नहीं जाना है क्या?" विवेक ने बाइक घर की बजाए बाज़ार की तरफ मोड़ी तो नयना से पूछे बिना नहीं रहा गया।
"चलते हैं ना पर पहले आइसक्रीम खाते हैं।"
"नहीं बहुत भीड़ है वहां, देर होगी तो मां डांटेंगी।"
"अरे कुछ नहीं होगा! आइसक्रीम खाने में कितनी देर लगती है।" विवेक ने ज़ोर दिया तो नयना मना नहीं कर सकी, पर वह परेशान हो रही थी उसकी नज़र बार बार घड़ी की ओर जा रही थी, एक तो सच में आइसक्रीम पार्लर पर बहुत भीड़ थी तो उनका नंबर पहले ही बहुत देर से आया ऊपर से आज विवेक पूरी तरह मस्ति के मूड में था, नयना उसे जितना जल्दी करने को कहती वह उतनी ही देर कर रहा था। उसे नयना को चिढ़ाने में मज़ा आ रहा था। उसने पहले खुद आराम से आइसक्रीम खाई फिर घर के लिए पैक करवाई तब कहीं जाकर घर जाने को तैयार हुआ।
घर पहुंचते ही विवेक तो रोहित और मीनू के साथ हंसी मज़ाक में व्यस्त हो गया। वो लोग तो नयना को भी अपने साथ उलझाना चाहते थे पर नयना ने यह ग़लती नहीं की वह वॉशरूम का बहाना बना वहां से भाग छूटी और फिर बाद में सीधे रसोईघर की ओर भागी। मां पहले से ही रसोई में मौजूद थीं और रात के खाने की तैयारी कर रही थीं।
"सॉरी मां आज थोड़ी देर हो गई। अब आप आराम करो मैं देख लूंगी।"
"कोई बात नहीं, थोड़ी देर और घूम फिर लेती घर पर तो मैं हूं ही।" मां ने कुछ इस तरह कहा कि नयना को समझ ही नहीं आया कि उन्होंने नाराज़गी में उसे ताना दिया है या बस यूं ही कह दिया।
"नयना आज खाना मत बनाना।" विवेक ने घर में घुसते ही कहा।
"क्यों? कहीं बाहर जाने का प्लान है।" रसोई में जाते जाते नयना के पैर ठिठक गए।
"हम कहां जा रहे हैं भैया?" नयना को अपने सवाल का कोई जवाब मिलता उससे पहले ही मीनू बीच में टपक पड़ी।
"हम सब नहीं सिर्फ मैं और तेरी भाभी। मां आज हम दोनों फिल्म देखने जा रहे हैं, खाना भी खाकर ही आएंगे आप हमारी खाने पर वेट मत करना।"
"सिर्फ आप दोनों ही क्यों हम सब क्यों नहीं?" मीनू ने मुंह फुला लिया।
"हर बार तो लेकर जाता ही हूं ना। अगर इस बार नहीं जाएगी तो तेरा क्या बिगड़ जाएगा।"
"आप तो बाहर अच्छा अच्छा खाना खाओगे और हम वही बोरिंग दाल रोटी।" मीनू मुंह बना कर बोली।
"अच्छा तो यह समस्या है तेरी। ठीक है तुझे भी बोरिंग खाना नहीं खाना पड़ेगा, मैं पहले ही रेस्टोरेंट में होम डिलीवरी पर फ़ोन करके खाना ऑर्डर कर चुका हूं तभी तो नयना से कह रहा था खाना मत बनाना। अब खुश।"
"पर हम आपके साथ क्यों नहीं जा रहे।" मीनू अब भी संतुष्ट नहीं हुई थी।
"जाने दे! कभी कभी भैया भाभी को अकेले भी जाने दिया कर। लड़कियों के लिए ऐसे हर बार जिद करना अच्छी बात नहीं होती।" मां ने थोड़े सख्त लहजे में कहा तो वह मान गई पर उदास हो गई।
मीनू को उदास देख कर विवेक ने कहा,"मैं क्या करता दो ही टिकट मिली, तू तो मेरी अच्छी बहन है ना आज हमें जाने दे, अच्छा ठीक मैं प्रोमिस करता हूं इस संडे को तुझे और रोहित को ले चलूंगा फिल्म दिखाने।" यह सुन कर मीनू उछल पड़ी और विवेक ने उसके सर पर एक हल्की चपत लगा दी, "देखा मां अपनी लाडली को डबल रिश्वत लेकर मानी है।" फिर नयना की ओर मुड़ कर बोला,"अब तक यहां क्यों खड़ी हो, तुम्हारा खाना बनाने का जो समय मैंने बचाया है उसका सदुपयोग करो, जाओ जाकर तैयार हो जाओ। कुछ सुंदर सा पहनना, राजीव और संदीप भी जा रहे हैं अपनी अपनी पत्नियों के साथ, उनके सामने मेरी नाक नहीं कटनी चाहिए, पहले ही कह रहा हूं। हां!"
नयना तैयार होती रही और हैरान सी विवेक के आज के व्यवहार के बारे में सोचती रही। ऐसा नहीं था कि आज से पहले वे लोग कहीं घूमने नहीं गए पर विवेक की हमेशा यही कोशिश रही कि उसे नयना के साथ अकेले ना जाना पड़े। चाहे फिल्म देखने या बाहर खाना खाने, वो लोग जब भी कहीं बाहर गए मीनू और रोहित हर बार उनके साथ गए फिर इस बार ऐसा क्या अलग है कि विवेक ने मीनू को साथ ले जाने से मना कर दिया। और मां ने भी विवेक का ही साथ दिया। वरना तो ऐसे मामलों में अधिकतर नयना ने मां को मीनू की तरफ़दारी करते ही देखा है। वैसे भी यदि नयना की कोई चीज़ मीनू को पसंद आ जाए तो वह मीनू की हो जाती थी या नयना को अपने लिए कोई ड्रेस या कुछ और खरीदना होता था तो उसे अपने साथ मीनू के लिए भी उसकी पसंद का सूट, पर्स आदि खरीदना होता था यह एक अघोषित नियम था।
चूंकि मीनू अब बड़ी और विवाह योग्य हो गई थी अतः उसकी छोटी छोटी इच्छाएं पूरी करने में मां कोई कंजूसी नहीं करती थीं। उनका मानना था जाने उसे आगे चल कर कैसा ससुराल मिले अतः जितना अधिक संभव हो उतना सुख उसे मिलना चाहिए। और मीनू की भाभी होने के नाते यह ज़िम्मेदारी मां ने नयना को दे रखी थी। फिर आज ऐसा क्या हुआ कि मां ने मीनू की बात भी काट दी।
और विवेक उसके तो क्या ही कहने। कभी तो ऐसी चुप्पी साध लेता है मानो नयना का उसके जीवन में कोई वजूद ही ना हो और कभी इतना प्यार बरसाने लगता है कि नयना से संभाले नहीं संभलता।
"कहां खोई हो मैडम चलना नहीं है क्या?" विवेक की आवाज सुन नयना अपने ख्यालों से बाहर आई।
"विवेक आपने मीनू को साथ ले जाने से मना क्यों कर दिया, बेचारी कितना उदास हो गई थी।"
"तुमने सुना नहीं था मां ने क्या कहा था, 'कभी कभी पति पत्नी को अकेले भी जाना चाहिए घूमने।' तुम मीनू की फिक्र मत करो उसे मां संभाल लेंगी। वैसे! जच रही हो आज।" विवेक की बात सुन कर नयना मुस्कुरा दी। अपनी प्रशंसा किसे अच्छी नहीं लगती, विवेक के मुंह से प्रशंसा के चंद बोल सुनने के लिए ही तो उसने इतनी मेहनत की थी। वैसे तो वह हर रोज़ ही सुंदर लगती है, ऑफिस या घर कोई ना कोई कह भी देता है पर यह बात अलग है कि हर दिन विवेक का मूड एक जैसा नहीं होता।
विवेक और नयना अभी सिनेमा हॉल पहुंचे ही थे कि विवेक के दोनों दोस्त संदीप और राजीव भी अपनी पत्नियों के साथ आ गए। 'हाय नयना कितनी प्यारी लग रही हो।' कहते हुए वो दोनों नयना के गले लग गई।
"तैयार होने का सलीका आता है इन्हीं इसलिए प्यारी लग रही हैं।" संदीप ने कहा।
"और नहीं तो क्या, तुम्हारी तरह नहीं हैं कि होठों पर उल्टी सीधी लिपस्टिक मली और बस हो गए तैयार।" राजीव भी कहां पीछे रहने वाले थे।
"ऐसा है जी के तैयार होने का सलीका तो सबको आता है। पर एक यही काम थोड़े ही है, हमें बच्चे भी तो संभालने होते हैं। अभी ये लोग इन चक्करों में फंसे नहीं हैं। चार पांच साल बाद बात करना तब मैं दिखा दूंगी तैयार होने के सलीके। हां नहीं तो।" राजीव की पत्नी का यह करारा जवाब उन दोनों की बोलती बंद करने के लिए काफी था। नयना के होठों पर राजीव की पत्नी का तकिया कलाम 'हां नहीं तो' सुन कर मुस्कान आ गई।
"अगर आज का हो गया हो तो अंदर चलें, यहीं खड़े खड़े झगड़ते रहे तो कहीं फिल्म ही ना खत्म हो जाऊ" संदीप ने बात संभालने की कोशिश की।
"अरे नहीं भई यह खतरा मैं नहीं उठा सकता, नयना मेरी जान ले लेगी। सलमान इसका फेवरेट हीरो है।" विवेक ने कहा।
"मेरी बीवी का भी।"
"और मेरी बीवी का भी।" तीनों दोस्तों ने एक दूसरे को हाई फाइव देते हुए कहा। तीनों ही मस्ती के मूड में थे और अपनी अपनी पत्नियों का मज़ाक उड़ाने का एक भी मौका नहीं छोड़ रहे थे।
"हां और कैटरीना आप लोगों की फेवरेट हिरोइन। हमें क्या पता नहीं है।" बहुत देर से चुपचाप खड़ी संदीप की पत्नी का मुंह भी आखिर खुल ही गया। उसका जवाब सुन तीनों पुरूष तिलमिलाए तो बहुत पर अब आपस में और उलझने का मतलब था सच में फिल्म का निकल जाना और यह खतरा उठाने को कोई तैयार नहीं था अतः सबने हॉल में जाकर अपनी सीट संभालना ही उचित समझा।
फिल्म देखते हुए नयना बहुत खुश थी, कई दिन बाद उसे विवेक के साथ इतनी खूबसूरत शाम बिताने का मौका मिला था। पिछली बार वो लोग ऐसे बाहर तब आए थे जब विवेक ने नई बाइक ली थी। अचानक नयना को झटका सा लगा। जब विवेक को नई बाइक खरीदने के लिए पैसे चाहिए थे तब भी तो वह नयना के साथ ऐसे ही प्यार से पेश आने लगा था। तो क्या इस बार भी उसका यह बदला बदला सा रूप, उसका नयना के साथ यह प्यार जताना, इस बार भी इस सबके पीछे उसका कोई मकसद है। शायद हां! अन्यथा तो उसने नयना को कोई खास तवज्जो कभी दी ही नहीं। नयना आगे कुछ सोचती और उसकी खुशी को ग्रहण लगता इससे पहले ही उसके दिल ने उसे चेताया कि जो होगा देखा जाएगा वह अभी यह सब सोच कर मुश्किल से मिली अपनी इस खूबसूरत शाम का मज़ा खराब क्यों कर रही है? और नयना ने इस बार भी अपने दिल की सुनी और सब कुछ भूल कर फिल्म का मज़ा लेने लगी।
नयना की शाम सच में बहुत खूबसूरत रही। विवेक के दोस्तों को तो अपने बच्चों की फिक्र सता रही थी अतः वो सब तो फिल्म खत्म होते ही घर रवाना हो गए पर विवेक और नयना डिनर के बाद ही घर आए। आज नयना कुछ ज्यादा ही थक गई थी पर खुश भी बहुत थी। उसकी यह खुशी उसके चेहरे से झलक रही थी। वह गुनगुनाते हुए बिस्तर लगाने लगी। इस बीच विवेक भी सोने आ गया। उसके चेहरे से साफ पता चल रहा था कि वह कुछ कहना चाहता है। नयना ने कुछ नहीं पूछा बल्कि वह विवेक के बोलने का इंतज़ार करने लगी।
"नयना!" विवेक ने हाथ पकड़ कर नयना को अपने पास ही बैठा लिया। "तुम मुझसे नाराज़ तो नहीं हो ना?" नयना ने आश्चर्य से भरी सवालिया आंखों से विवेक की ओर देखा। "पिछले दिनों मैंने तुम्हें बहुत परेशान किया। एक लड़की को ससुराल में सबसे अधिक सहयोग की अपेक्षा अपने पति से ही होती है, तुम्हें भी मुझसे ऐसी अपेक्षा जरूर रहती होगी। पर मुझसे बदले में अधिकतर तुम्हें निराशा ही मिलती है। अब देखो उस दिन जब तुम्हारा बैंक अफसर की प्रतियोगिता परीक्षा में चयन हुआ था तब भी तो अपनी खुशी तुमने मेरे साथ बांटनी चाही थी। पर तुम्हारी खुशी में मैं तुम्हारे चाहे तरीके से साथ नहीं दे पाया। ऐसा नहीं है नयना कि मुझे तुम्हारी इस तरक्की से खुशी नहीं हुई। शायद तुम यकीन ना कर सको पर मुझे सच में उस दिन बहुत खुश था बस मैं अपनी खुशी का इज़हार नहीं कर पाया क्योंकि मैं डर गया था कि अब तुम मुझसे थोड़ी और ऊंची थोड़ी सी और दूर हो गई हो। मुझे तुम पर गर्व नहीं है नयना कि तुमने अपनी मेहनत से इतनी कम उम्र में ही इतना ऊंचा मुकाम हासिल किया है पर साथ हि मैं खुदको तुम्हारे सामने बौना महसूस करता हूं। मैं भी अब खुदको तुम्हारे काबिल बनाना चाहता हूं। मैं भी जीवन में एक ऐसा मुकाम पाना चाहता हूं कि तुम भी गर्व से अपने दोस्तों को मेरा परिचय दे सको।"
इतना कह कर विवेक कुछ पलों के लिए चुप हो गया और नयना की ओर देखते हुए उसकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार करने लगा। पर नयना ने कुछ नहीं कहा बस वह खामोशी से विवेक की ओर देखते हुए उसके आगे बोलने का इंतज़ार करती रही। उसका अंदाज़ा बिल्कुल ठीक था, विवेक के बदले व्यवहार के पीछे उसका स्वार्थ था प्यार नहीं। जब नयना ने काफी देर तक कुछ नहीं कहा तो विवेक कुछ झिझकता सा बोला, "नयना हमारी कंपनी की ओर से एक ग्रुप एक तकनीकी डिप्लोमा करवाने हेतु कनाडा भेजा जा रहा है। मैं भी यह डिप्लोमा करना चाहता हूं क्योंकि आज के समय में तकनीकी शिक्षा प्राप्त व्यक्ति के तरक्की पाने के अवसर ज्यादा होते हैं, यह तो तुम भी जानती हो। पर इसके लिए या तो पैसा चाहिए या फिर सिफारिश, पैसा तो मेरे पास नहीं है पर अगर प्रकाश खारीवाल सर एक बार मेरे लिए
सिफारिश कर दें तो बात बन सकती है। सर और मैम दोनों ही तुम्हें बहुत मान देते हैं अगर तुम उनसे इस बारे में बात करोगी तो वो जरूर कुछ ना कुछ करेंगे। तुम मेरे लिए यह छोटा सा काम कर दो प्लीज़। करोगी ना?" विवेक ने नयना की मिन्नत सी की।
विवेक ने कुछ इस तरह अपनी बात नयना से कही कि वह मना नहीं कर सकी पर वह एक बार फिर खुद को ठगा हुआ महसूस कर रही थी। विवेक उसका पति है वह उससे यह बात सीधे सीधे भी कह सकता था। इसके लिए उसे इस तरह जाल बुनने की जरूरत नहीं थी। बल्कि यदि वह हक से कहता तो नयना को ज्यादा खुशी होती। विवेक की समृद्धि और उन्नति से बढ़ कर नयना के लिए कुछ और नहीं है पर विवेक यह बात समझे तब ना। 'एक बार फिर विवेक के मन की करके देख लें, शायद इसके बाद विवेक हमारे रिश्ते की कद्र करना सीख ले। कल मोसी मोसाजी से मिलकर आती हूं। वहीं विवेक के लिए भी बात कर लूंगी।' मन में जया मोसी के घर जाने का विचार आते ही नयना को अपने लिए रखा उनका डिनर याद आ गया।
उस दिन नयना ने लंच टाइम में बाजार जाकर जया मोसी और उनके परिवार के लिए कुछ तोहफे खरीदे। अपने बुक लवर मोसाजी के लिए उसने उनके पसंदीदा लेखक की नई किताब खरीदी जबकि मोसी के लिए मोर्डन आर्ट की एक खूबसूरत सी पेंटिंग। लड़कियों को सजने संवरने का शौक होता है यही सोच कर उसने टीना के लिए कॉस्मैटिक का सामान ले लिया। पर बहुत सोचने के बाद भी उसे समझ नहीं आया कि वह सोनू के लिए क्या खरीदे, काफी देर तक वह दुकानों पर कुछ अच्छा सा पर सस्ता सा ढूंढ़ती रही जब कुछ मनपसंद नहीं मिला तो आखिर उसने सोनू के लिए दो टीशर्टस इस उम्मीद के साथ खरीदी कि ये उसे पसंद आएंगी।
कोई भी सामान महंगा नहीं था खरीददारी करते समय नयना ने बजट का पूरा ध्यान रखा था। फिर भी मां और मीनू दोनों उससे नाराज़ हो गई, ऊपर से इस बार तो रोहित भी कुछ उखड़ा उखड़ा सा लग रहा था। मां को यह सारी खरीददारी पैसे की बर्बादी लग रही थी जबकि मीनू और रोहित की हमेशा की तरह शिकायत थी कि भाभी हमारे लिए कुछ नहीं लाई। सोनू और टीना के लिए लाए तोहफों में से एक टीशर्ट और थोड़ा कॉस्मैटिक का सामान देकर नयना ने उन दोनों को तो मना लिया पर मां काफी देर तक बड़बड़ाती रहीं।
यह सब नयना विवेक के लिए ही तो कर रही थी। प्रकाश मोसाजी सिर्फ़ उसके मायके की तरफ के परिचित ही नहीं विवेक के बॉस भी हैं उन्हें कुछ भी चलताऊ उपहार नहीं दिए जा सकते, पर मां यह बात समझे तब ना। वे तो सबको चिंटू की तरह ही समझती हैं जिसे वे उपहार के नाम पर कुछ भी पकड़ा देती हैं और वह चुपचाप स्वीकार कर लेता है। एक बार तो मां ने चिंटू को ऐसी शर्ट दे दी थी जिसे लेने से गौरी ने भी मना कर दिया था। पसंद तो वह शर्ट चिंटू को भी नहीं आई थी पर वह बेचारा कुछ नहीं बोला।
जया मोसी के घर नयना और उसके घरवालों की बहुत अच्छी खातिरदारी हुई। प्रकाश मोसाजी ने भी विवेक के साथ अपने अधीन काम करने वाले कर्मचारी जैसा व्यवहार ना करते हुए उसे दामाद की तरह मान दिया। यूं तो खारीवाल परिवार ने सबका बहुत अच्छे से ख्याल रखा पर नयना पर तो उन्होंने अपना सारा प्यार उडेल कर रख दिया। टीना और सोनू भी उससे खूब खुल कर मिले, उन्होंने नयना से ढेर सारी बातें कीं। अगर कहा जाए कि वे लोग कई वर्षों बाद नयना को मिल कर फूले नहीं समा रहे थे और भरपूर प्यार और अपनापन देकर उन पिछले वर्षों की भरपाई कर रहे थे तो गलत नहीं होगा।
जया मोसी ने खाने में भी सारी चीजें नयना की पसंद की ही बनाई थीं। नयना के प्रति मोसी का प्यार देख मां आश्चर्यचकित थीं पर वे कुछ बोली नहीं। घर में नौकर होने के बावजूद भी मोसी ने सबको अपने हाथों से भोजन परोसा। मां और पापाजी कहते रहे, 'बस बस पेट भर गया, अब और नहीं खाया जाएगा,' फिर भी मोसी ने मनुहार कर कर के सबको खिलाया। भोजन था भी इतना स्वादिष्ट कि पेट तो भर जाए पर मन ना भरे। भोजन के बाद बातों की महफिल जम गई। मोसी मोसाजी नयना और टीना-सोनू के बचपन के किस्से सुनाने लगे जो कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। हंस हंस कर सबके पेट में दर्द हो गया।
"अच्छा प्रकाशजी अब हम चलते हैं।" पापाजी ने इजाजत मांगी।
"खातिरदारी में हमारी ओर से कोई कमी रह गई हो तो माफ कीजिएगा भाईसाहब।" प्रकाश मोसाजी ने विवेक के पापाजी के आगे हाथ जोड़ते हुए कहा।
"अरे नहीं नहीं प्रकाशजी आपने हमें जितना सम्मान दिया है उतना तो हमें विवेक के विवाह में भी नहीं मिला था।" पापाजी ने गदगद स्वर में कहा तो नयना उदास हो गई। जाने अनजाने या फिर जानबूझकर वे एक बार फिर नयना के चाचा की बेइजती कर बैठे थे। यूं तो नयना ऐसी बातें सुनने की आदी थी पर आज खारीवाल परिवार के समक्ष पापाजी का इस तरह बोलना उसे खल गया।
ऐसी बात नहीं है भाईसाहब, सुरेशजी को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं। उन्होंने अपनी बेटियों को बहुत नाज़ों से पाला है। पैसों की तंगी जरूर रही पर उन्होंने इसे अपने बच्चों की परवरिश के आड़े नहीं आने दिया। शिक्षा और संस्कारों की दौलत से उनकी सभी बेटियां सम्पन्न हैं। नयना का उदाहरण तो आपके सामने ही है कैसे नौकरी के साथ साथ घर भी निपुणता से संभाल रही है हमारी बिटिया।" प्रकाशजी को विवेक के पिता की बात ठीक नहीं लगी तभी शायद उनके स्वर में भी तल्खी आ गई थी।
"अच्छा बहनजी अब हम चलते हैं। सुबह बच्चों ने ऑफिस भी जाना है, उन्हें सुबह जल्दी उठने में दिक्कत होगी।" माहौल में उतर आई गर्मी को देखते हुए मां को अब घर जाने की जल्दी हो रही थी क्योंकि यह गर्मी उनके अपने बेटे का नुकसान कर सकती थी यह वे अच्छी तरह से जानती थीं।
"कुछ देर रुकिए बहनजी मैं अभी आती हूं।" कहते हुए जयाजी कमरे की ओर बढ़ गईं। जितनी तेजी से वे कमरे में गई थीं उतनी ही तेजी से वापस भी आ गई। जब वेे लौटी तो उनके हाथों में कुछ पैकेट थे। बाकी सब तो उन्होंने विवेक की मां को दे दिए जबकि दो तिलक करके विवेक और नयना की गोद में दिए।
"नयना मैं तेरी मोसी हूं और मोसी मां जैसी होती है बिटिया। इस लिहाज से यह घर भी तेरा मायका ही है। अब से जब भी तेरा अपनी इस मां से मिलने का मन करे तो बेझिझक मेरे पास चली आना बच्चे।" जया मोसी ने कहा तो नयना की आंखें भर आईं, यह देख मोसी ने उसे गले से लगा लिया। जया मोसी के घर से निकलते हुए नयना को महसूस हो रहा था जैसे वह अपने ही घर से विदा हो रही है।
घर आते ही मीनू जया मोसी के दिए उपहार खोलने लगी। मां और पापाजी उपहारों की कीमत में उलझ कर रह गए जबकि नयना अब भी जया मोसी के दिए प्यार और मनुहार में खोई थी। नयना के लिए तो वो नारियल और मुट्ठी भर मेवे सबसे अनमोल थे जो मोसी ने तिलक करके उसकी गोद में रखे थे और जो नयना ने अभी भी अपने आंचल में बांध रखे थे। नयना को याद आया मां और चाची भी तो रिन्नी दीदी और विन्नी दीदी की विदाई ऐसे ही किया करती थी। चाची ने भी तो उसकी विदाई के समय यही किया था जब वह पिछली बार उनसे मिलने गई थी। जया मोसी ने भी आज ऐसे ही उसकी छोटी सी झोली अपने प्यार से भर दी थी। यह एक अलग ही खुशी की फुहार थी जिसमें नयना अगले कई दिनों तक भीगती रही। उसने अपना वह दुपट्टा जिसे वह जया मोसी के घर पहन कर गई थी कई दिनों तक नहीं धोया क्योंकि उस दुपट्टे में जया मोसी के प्रेम की खुशबू बसी हुई थी।
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