डोर – रिश्तों का बंधन - 3 Ankita Bhargava द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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डोर – रिश्तों का बंधन - 3

डोर – रिश्तों का बंधन

(3)

मोबाइल में बजे अलार्म से नयना की तंद्रा टूटी। सुबह हो गई थी। इस बीती रात में उसने अपने जीवन के पिछले कुछ साल फिर से जी लिए, और फिर उन सालों को शोभित की यादों के साथ अपने दिल के एक अंधेरे तहख़ाने में बंद कर दिया। अब वह अपने नये जीवन में आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार थी।

नयना धीरे से दरवाज़ा खोल कर बाहर आई, विवेक के दोस्त जा चुके थे, अब छत पर शांति थी, पर रात को उन लोगों ने जो हुड़दंग मचाया था उसके निशान अब भी यहां वहां बिखरे पड़े थे। पूरी छत पर गंद फैला दी थी इन लोगों ने। शराब की खाली बोतलें और नमकीन से फर्श अटा पड़ा था। इधर उधर लुढ़की पड़ी कुर्सियां भी बेचारी रात भर खुद पर हुए अत्याचार की कहानी सुनाती सी महसूस हुई नयना को। उन्हीं में से एक कुर्सी पर विवेक आधा लटका सा सोया पड़ा था।

पता नहीं नींद कैसे आई होगी इसे इस तरह कुर्सी पर। पर सोया कहां है, यह तो नशे में टुन्न होकर लुढका हुआ है। कोई ऐसे कुर्सी पर थोड़े ही सोता है, वो भी शेरवानी में ही, हज़रत ने कपड़े बदलने का कष्ट भी नहीं किया। नयना ने एक बार विवेक के चेहरे को देखा, वह बड़ा मासूम सा लग रहा था नींद में। उसे मुंह खोल कर सोते देख नयना को हंसी आ गई। नयना की हंसी की आवाज से विवेक की नींद भी टूट गई। नयना को खड़ा देख कर वह झेंप सा गया और सफ़ाई देता सा बोला, "वो...कल दोस्तों ने...।"

"कोई बात नहीं, अंदर जाकर आराम से सो जाओ, यहां ऐसे तो कमर दर्द करने लगेगी।" नयना ने मुस्कुराते हुए कहा और बाथरूम की ओर बढ़ गई।

नयना तैयार होकर नीचे आई, मां रसोई में सबके लिए चाय बना रही थी। नयना ने उनके पांव छुए और उनकी मदद करने लगी। घर में बहुत मेहमान थे और काम भी उसी अनुपात में था। मीनू तो अभी बच्ची ही थी वह कहां इतनी जल्दी उठने वाली थी। मां अकेली ही परेशान हो रही थी।नयना के हाथ बंटाने से उन्हें कुछ राहत मिली तो उनके थके चेहरे पर मुस्कान आ गई।

कुछ देर में विवेक भी नीचे आ गया पर उसकी हालत बहुत खराब थी। उसका सर दर्द से फटा जा रहा था। चक्कर भी आ रहे थे। कुछ ही देर में उल्टियां भी शुरू हो गई। मेहमान भी अब तक जाग गए थे। जितने मुंह उतनी बातें हो रही थी। सब अपनी अपनी सलाह दिए जा रहे थे। "दीदी लड़के को नज़र लग गई है। शादी में जाने कैसे कैसे लोगों ने देखा होगा। इसकी नज़र उतारो सबसे पहले।" विवेक की मामी ने कहा।

नयना के मन में तो आया कह दे यह किसी नज़र का नहीं बल्कि बोतल में भरे उस कड़वे रंगीन पानी का असर है जो आपका लाडला सारी रात मज़े से अपने दोस्तों के साथ पीता रहा। पर वह कह ना सकी एक तो सब इतने चिंतित थे कि ऐसे में ऐसी बात कहना 'आ बैल मुझे मार' जैसा ही होता, और फिर उसे ससुराल में मुंह संभाल कर बोलने की नसीहत भी तो मिली थी चाची से। विवेक की हालत भी सच में बहुत खराब थी। उसे संभालना उस समय सबसे ज्यादा जरूरी था। नयना ने अस्त व्यस्त रसोई में से किसी तरह सामान ढूँढ कर नींबू पानी बनाया। अपने बैग से सर दर्द की दवा भी निकाल कर दी। दवा ले कर और नींबू पानी पी कर विवेक लेट गया। थोड़ी देर बाद जब उसे कुछ आराम आया तो सबने चैन की सांस ली।

"उतनी ही पीनी चाहिए जितनी पचाई जा सके। वरना तो यही हाल होगा" नयना ने कहा तो बहुत धीमे स्वर में खुदसे ही था पर पास ही बैठे विवेक ने सुन लिया और वह उसे गुस्से से घूरने लगा पर उसकी आंखों में निहारने का वक्त नहीं था नयना के पास। वह अपनी सास के पीछे पीछे रसोई में चली आई और विवेक मुंह फुला कर वापस कमरे में जा लेटा।

विवाह की सारी रस्मों और मेहमानों से फारिग हो कर मां विवेक और नयना को मंदिर ले कर गईं। मीनू और रोहित भी साथ थे। इस मंदिर की बड़ी मान्यता थी, यहां दूर दूर से लोग मन्नत मांगने आते थे। बहुत भीड़ रहती थी मंदिर में। मंदिर बहुत ऊंचाई पर स्थित था और बहुत सारी सीढ़ियां चढ़कर जाना था। "आपको पता है विवेक, मैं एक बार पहले भी आ चुकी हूं यहां। अपने मां पापा के साथ। तब मैं छोटी बच्ची थी। मुझे लग रहा था मैं उछल उछल कर सारी सीढ़ियां जल्दी से चढ़ जाऊँगी और सबसे पहले मंदिर पहुंच जाऊँगी। पर मैं तो बहुत जल्दी थक गई फिर पापा ने मुझे गोद में उठा लिया और ऊपर तक ले कर गए।"नयना उत्साहित हो कर अपना संस्मरण सुनाने लगी।

"तो अब मुझसे क्या चाहती हो तुम मैं भी तुम्हें गोद में उठा कर मंदिर की सीढ़ियां चढ़ूं! अपने आपको दीपिका पादूकोण समझना बंद करो और चुपचाप सीढ़ी चढ़ो।" विवेक ने रूखे अंदाज़ में उसे झिड़क दिया। रोहित और मीनू दोनों हंसने लगे, मां के होठों पर भी व्यंगात्मक मुस्कान थी। नयना की आंखों में आंसू आ गए। उसने खुदको इतना अपमानित कभी महसूस नहीं किया था। 'क्या इन लोगों को मेरी भावनाओं से कोई मतलब नहीं,' मन ही मन सोचती नयना अपने आंसू छुपाती धीरे धीरे सीढ़ियां चढ़ने लगी। यह पहली बार था आखिरी बार नहीं यह भी वह समझ गई थी।

रोज़मर्रा की छोटी बड़ी समस्याओं से जुझते हुए नयना ने अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींचनी शुरू की। इस बीच उसकी छुट्टियां भी खत्म हो चली थी और उसने ऑफिस जाना भी शुरू कर दिया। उसने अपना तबादला ससुराल में ही करवा लिया था। अब वह सुबह जल्दी पांच बजे उठ कर ज्यादा से ज्यादा काम निपटाने की कोशिश करती ताकि मां को परेशानी ना हो। पर घर में इतना काम होता कि वह अकेली कर ही नहीं पाती। फिर उसे बैंक भी समय से पहुंचना होता था। शाम को थकी हारी आती और फिर रसोई में जुट जाती।

इतनी भागदौड़ करके भी कुछ ना कुछ रह ही जाता जो मां को करना पड़ता और इस कारण अकसर उन्हें शिकायत भी रहती थी कि बहु आ जाने के बावजूद उन्हें घर के कामों से मुक्ति नहीं मिली। मां की शिकायत कुछ हद तक जायज़ भी थी, घुटनों में दर्द के बावजूद भी घर का काम करना उनके लिए कितना मुश्किल होता है यह नयना भी समझती थी पर वह क्या करती उसे घर के काम में किसी और से सहयोग नहीं मिलता था, मीनू से भी नहीं, वह थोड़ी मनमोजी थी। मन आया तो बात सुनती वरना किताब खोल कर बैठ जाती। रोहित तो बेटा था और बेटों से तो घर के कामों में हाथ बंटाने की उम्मीद भी कौन करे।

विवेक की तो नयना क्या कहे और क्या नहीं, उसकी तो दुनिया ही अलग थी, जिसमें नयना की जगह सीमित थी, सिर्फ उतनी जितनी विवेक उसे देना चाहता था। नयना की इच्छाओं और भावनाओं का वहां कोई महत्व नहीं था। जब कभी विवेक खुश होता तो उससे दुनिया जहान की बातें कर डालता। उसे बात बात में जताता कि वह उसे और अपने सभी घर वालों को कितना सुख देना चाहता है, और कभी ख़ामोशी की ऐसी चादर ओढ़ लेता कि नयना का दम घुटने लगता।

विवेक कम पढ़ा हुआ था और काम भी कोई खास नहीं करता था। किसी भी नौकरी में वह ज्यादा दिन टिक ही नहीं पाता था। उसे कोई भी नौकरी अपने स्तर की लगती ही नहीं थी। वह जल्द से जल्द अमीर बनना चाहता था और वह भी बिना मेहनत किए। वह अपना व्यापार शुरू करना चाहता था क्योंकि उसकी नज़र में व्यापार ही अमीर बनने का एकमात्र रास्ता था। वह अधिकतर व्यापार की नई नई योजनाएं बनाता रहता। नयना उसे प्रोत्साहित तो करती किंतु साथ ही कोई भी काम शुरू करने से पहले अनुभव पाने के लिए कुछ समय उस व्यापार से संबंधित किसी कंपनी में काम करने की सलाह भी देती। उसकी यह सलाहविवेक को पसंद नहीं आई और नाराज़ हो कर उसने नयना से बात करना ही बंद कर दी।

विवेक को तो नयना ने फिर भी किसी तरह समझा बुझा कर मना ही लिया और शायद विवेक भी उसकी बात समझ गया था तभी तो उसने एक कंपनी में नौकरी कर ली थी। नयना की असली समस्या तो वे पड़ौसनें थीं जिन्हें अपना घर संभालने से ज्यादा रुचि दूसरों के घरों समय में ये औरतें अकसर मां के पास महफ़िल जमातीं और उनके कान भरती रहती। कभी कभी रविवार के दिन फुर्सत में होती तो नयना भी उनके बीच बैठ जाती और उनकी बातें सुन सुन कर हैरान होती। अधिकतर महिलाओं की बातें एक जैसी ही होती थीं।

मां की हम उम्र दर्शना चाची कहतीं, 'मेरी बहु मेरे सर में तेल लगाती है, मेरे पांव दबाती है।' साथ वाली नीता भाभी भी कहां पीछे रहती थीं, खुदको आज्ञाकारी बहु साबित करने के लिए जाने कैसे कैसे किस्से सुना देतीं। इनकी बातें सुन कर नयना सोचती रहती अगर दर्शना चाची और नीता भाभी के यहां सब इतने ही अच्छे हैं तो उनके घर से अकसर झगड़ने की आवाजें क्यों आती रहती हैं।

इन बातों से मां की नयना से नाराज़गी और बढ़ जाती कि सेवा करना तो दूर उनकी बहु तो नौकरी के रोब में उन्हीं से काम करवाती है। वे नयना को सुना भी देतीं,'करती होंगी तकदीर वालों की बहुएं उनकी सेवा, हमारी किस्मत में तो आज भी चूल्हे चौके में ही खटना लिखा है। क्या करें बेटा नौकरी वाली बहु जो लाया है।'

मां के रोज़ रोज़ के तानों से परेशान हो कर नयना ने एक कामवाली की तलाश शुरू की। उसकी यह तलाश गौरी पर जा कर खत्म हुई। शुरू शुरू में तो मां ने गौरी को काम पर रखने का विरोध किया। उन्हें यह पैसे की बर्बादी तो लग ही रहा था, अपनी रसोई में किसी बाहर की महिला का प्रवेश भी उन्हें स्वीकार नहीं था।

मां गुस्से से कहने लगीं, "मैं अपनी रसोई में किसी को नहीं घुसने दूंगी। पता नहीं कैसा गंदा काम करेगी वो औरत, मैंने तो विवेक की शादी में भी खुद ही काम किया था फिर अब कौनसी आफत आ गई जो कामवाली रखोगी। तुमसे नहीं होता तो मत करो, मैं खुद कर लूंगी। मेरे पास बेकार बर्बाद करने को पैसे नहीं हैं।"

मां के कड़े विरोध के बाद भी इस बार नयना झुकी नहीं। मां की बात ठीक है पहले कामवाली रखना शायद सच में ही पैसे की बर्बादी था क्योंकि पापाजी की कमाई अधिक नहीं थी। पर अब पापाजी अकेले नहीं थे कमाने वाले नयना भी थी और अब तो विवेक की भी अच्छी कंपनी में नौकरी लग गई थी। फिर अब क्यों मां को तकलीफ उठानी पड़े। उसने गौरी को काम पर रख लिया। धीरे धीरे जब आराम मिला तो वक्त के साथ मां का विरोध भी दम तोड़ गया।

गौरी बहुत हंसमुख स्वभाव की साफ सुथरी महिला थी और काम भी सफाई से करती थी गौरी का घर भी बहुत ज्यादा दूर नहीं था और वह समय की भी पाबंद थी। जल्दी ही उसकी पटरी मां के साथ बैठ गई।

नयना ने सोचा कि कम से कम मां को अब कोई शिकायत नहीं रहेगी पर शिकायत तो दूब की तरह होती है, कहीं ना कहीं से उसकी शाखा निकल ही आती है। दर्शना चाची की बहु मायके हो कर आई थी और साथ में बहुत सारी मिठाई भी लाई थी। वही देने दर्शना चाची नयना के घर आईं थीं। हमेशा की तरह अपनी बहु के मायके वालों की बड़ाई करते हुए कहने लगीं, "बहुत प्यार करते हैं मेरी बहु के मायके वाले उसे हर महीने ही या तो खुद मिलने आ जाते हैं या उसे बुला लेते हैं। और हर बार मेरा घर उनके यहां से आए तोहफों से भर जाता है। बहुत मना करती हूं पर मानते ही नहीं।"

"बेटियां तो सभी को प्यारी होती हैं दर्शना, हां उन लोगों की मैं क्या कहूं जो सीने में दिल नहीं पत्थर लिए बैठे हों।" मां ने नयना की ओर देख कहा। नयना उनका इशारा समझ गई थी। उससे वहां और खड़ा नहीं रहा गया, वह शाम के खाने की तैयारी का बहाना कर रसोई में आ गई।

मां के पास रहने का मन तो नयना का भी करता है पर क्या करे मजबूरी है नौकरी से छुट्टी ही मुश्किल से मिल पाती है। ऊपर से मां का बनाया नियम कि नई बहु को बिना बुलाए और अकेले मायके नहीं जाना चाहिए। इससे मायके में मान कम हो जाता है। उसे तो मायके तभी जाना चाहिए जब कोई वहां से लेने आए। चाचा उसे लेने आएं तो उन्हें उस दिन दुकान बंद रखनी पड़ती है और चिंटू अभी अपनी प्रतियोगिता परिक्षाओं की तैयारी में व्यस्त रहता है ऐसे में उसकी पढ़ाई में बाधा डालना नयना को सही नहीं लगता। मां को सब पता है फिर भी उसे सुनाने का एक मौका नहीं छोड़ती।

अम्मा मेरे बाबा को भेजो री

के सावन आया, के सावन आया

बेटी तेरा बाबा तो बूढ़ा री

के सावन आया के सावन आया

अम्मा मेरे भाई को भेजो री

कि सावन आया कि सावन आया

बेटी तेरा भाई तो बाला री

के सावन आया के सावन आया

गौरी बर्तन मांजते हुए धीमी आवाज में यह लोक गीत गुनगुना रही थी। नयना को लगा जैसे उस लोकगीत की नायिका वही है। उसकी मजबूरी भी कोई नहीं समझता, विवेक भी नहीं।

"क्या हुआ भाभी आप रो रही हैं?" नयना की आंखों में आंसू देख गौरी ने पूछा।

"अरे नहीं! रो नहीं रही प्याज काट रही हूं।" नयना ने कहा तो नयना के साथ वह भी मुस्कुरा दी। यह प्याज भी ना जाने कितनी बार नयना के आंसूओं को छुपाने में सहायक बना है। यह बात अलग थी कि उसके आंसू गिनने की यहां फुर्सत किसके पास थी।

अगले कई दिनों तक नयना मां की कही बात को याद करके आंसुओं से आंखें भिगोती रही। अचानक एक दिन कुछ ऐसा हो गया कि उसका सारा दुख एक झटके से भाप की तरह उड़ गया और वह खुशी से खिलखिला पड़ी। उस दिन शाम को नयना बैंक से आ कर बैठी ही थी। कुछ देर में पापाजी और विवेक भी अपने अपने काम से आ गए। नयना सबके लिए चाय बनाने जा रही थी कि एक होंडा सिटी कार उनके दरवाज़े पर आ कर रुकी। सबने चौंक कर बाहर देखा। इतनी बड़ी गाड़ी में कौन आया है। विवेक ने बाहर झांक कर देखा। जिस कंपनी में विवेक काम करता था उसके मैनेजर प्रकाश खारीवाल और उनकी पत्नी आए थे। उन दोनों को देख विवेक आश्चर्यचकित रह गया। पापाजी और विवेक उनके स्वागत के लिए बाहर की ओर लपके। वे दोनों तो अभी दरवाज़े तक भी पहुंच नहीं पाए थे कि पीछे से नयना दौड़ती हुई आई और गाड़ी से उतर रही प्रकाश खारीवाल की पत्नी जया के गले से लिपट गई।

जया नयना की मां की, बचपन की सहेली थीं और नयना उन्हें मोसी कहा करती थी। "नयना इन्हें घर के अंदर भी आने देगी या सारा प्यार यहीं लुटा देगी।" मां ने आगे बढ़ कर खारीवाल दंपति का स्वागत किया। नयना को तो यह ख्याल ही नहीं आया। वह तो इतने दिनों बाद किसी अपने से मिल कर बावली सी हो गई थी।

जया को देख कर मां के मन में विचार आया, 'कहां नयना की मां और कहां जया, जो इतने बड़े आदमी की पत्नी है वह बेटी भी अमीर आदमी की ही होगी। ज़मीन आसमान का फ़र्क है दोनों में फिर भी दोनों बचपन की सहेलियां हैं!'

'मित्रता कहां अमीर गरीब का फर्क देखती है, अगर देखती तो कृष्ण-सुदामा की मित्रता दुनिया भर में पूजी ना जाती।' मां के मन ने उन्हें ठपक दिया और वे अपने विचारों के जाले हटा जयाजी से बातें करने लगीं।

"बहनजी नयना की मां से मेरी बहुत पुरानी दोस्ती है। बचपन में तो हम एकसाथ ही खेलते और पढ़ते थे। शादी के बाद भी जब कभी पीहर जाते तो मुलाकात हो ही जाती थी। पर जबसे नयना के पापा...।" कहते कहते जया भावुक हो गईं और अपनी बात पूरी नहीं कर पाई। नयना की आंखें भी भीग गईं।

"हमें तो अभी कल ही विवेक से बातों बातों में पता चला कि नयना बिटिया की शादी विवेक से हुई है। हमसे तो रहा ही नहीं गया और हम मिलने चले आए। मैं तो कल ही चला आता दौड़ कर पर जया ने कहा बेटी के ससुराल जाने के लिए कुछ तैयारी करनी पड़ती है। इसीलिए नयना मैं कल तुमसे मिलने नहीं आ पाया। अब बताओ इसकी तुम्हारी मोसी को क्या सज़ा मिलनी चाहिए।" प्रकाशजी ने माहौल हल्का करने की गरज़ से मज़ाकिया लहज़े में कहा।

जवाब में नयना बस होले से मुस्कुरा दी। बचपन होता तो अब तक नयना अपने मोसाजी की गोद में बैठ चुकी होती और उनसे चॉकलेट की ज़िद करने लगती। पर अब बचपन बहुत पीछे छूट चुका था। अब नयना किसी की पत्नी थी, किसी की बहु थी और अपने घर आए मेहमानों का स्वागत सत्कार करने की ज़िम्मेदारी भी उसीकी बनती थी। वह चाय बनाने जाने लगी तो मां ने उसे रोक दिया,"तू रुक, अपनी मोसी से बातें कर चाय मैं बनाती हूं।" मां ने खारीवाल दंपति के आदर सत्कार में कोई कसर नहीं रखी। आज चाय के साथ सिर्फ बिस्कुट नहीं बल्कि नमकीन काजू और दाल का हलवा था। होता भी क्यों नहीं आखिर विवेक के अफसर पहली बार उनके घर मेहमान बन कर आए थे, वो कहते हैं ना 'जैसा देवता वैसी ही पूजा।'

"बहनजी आप सब कल हमारे यहां खाने पर आमंत्रित हैं। इसी बहाने नयना अपने भाई बहन से भी मिल लेगी। बहुत दिन हो गए हैं इन्हें मिले हुए। है ना नयना।"

"जी मोसी, अब तो सोनू बड़ा हो गया होगा।" नयना ने जया मोसी के बच्चों की शक्ल याद करते हुए पूछा।

"हाँ! कद में तो बड़ा हो गया है पर हरकतें अभी भी वही पहले जैसी ही हैं उसकी। बेचारी टीना की नाक में दम किए रखता है।"

"टीना भी तो कितना झगड़ती है उसके साथ।" प्रकाश मोसाजी को सोनू की शिकायत की तो जया मोसी हमेशा की तरह तुरंत बेटे की तरफ़दारी करने मैदान में आ गई। उन दोनों की नोक झोंक देख नयना मुस्कुरा दी, उसे अपने चाचा चाची की याद आ गई, वे दोनों भी यूं ही बच्चों की तरह झगड़ते रहते हैं।

आज घर में सब खुश थे, खारीवाल दंपति के जाने के बाद भी पूरा परिवार उन्हीं की बातें कर रहा था। नयना के दिमाग पर छाया तनाव का धुआं भी छंट गया था। मीनू और रोहित तो अलग ही उत्साह में थे। मीनू ने तो प्रकाश जी के घर जाने के लिए अपनी ड्रेस भी सलैक्ट कर ली थी। विवेक भी अच्छे मूड में था। शायद इसीलिए अपने दोस्तों के साथ तफरी करने जाने की बजाय वह घर पर ही रहा। वरना तो हर रोज़ वह अपने दोस्तों के साथ देर रात तक मज़े करता रहता था और नयना अपनी दिन भर की थकान और भूख के बावजूद खाने पर उसका इंतज़ार।

"नयना तुमने कभी बताया नहीं प्रकाश सर के परिवार के साथ तुम्हारे इतने नज़दीकी संबंध हैं?" विवेक ने पूछा।

"मुझे भी कहां पता था मोसाजी आप ही की कंपनी में मैनेजर हैं। और पहले तो वो लोग लुधियाना रहते थे।"

"हां अभी कुछ दिन पहले ही सर का तबादला यहां हमारी ब्रांच में हुआ है। कल जब मैं एक ज़रूरी फाइल पर साइन करवाने उनके घर गया था तब मैम से बातें हुईं और उन्होंने मेरे परिवार के बारे में पूछा, तुम्हारे और तुम्हारे परिवार के बारे में जान कर दोनों चौंक गए पर दोनों में से किसी ने भी उस वक्त मुझे कुछ नहीं बताया और आज देखो मिलने घर चले आए।"

"बहुत भली सी महिला लगीं मुझे तो जयाजी। इतने बड़े अफसर की पत्नी हो कर भी घमंड छू कर भी नहीं गया उन्हें। कितनी महंगी तो मिठाई ले कर आईं हैं। आज के ज़माने में कोई इतना मान तो अपने रिश्तेदारों को भी नहीं देता, जितना उन्होंने सहेली की बेटी को दिया है। नयना तुम भी उनका मान रखना कल उनके यहां ज़रूर जाना।" जया मोसी की लाई मिठाई का स्वाद मां की आवाज में भी मिठास घोल रहा था।

"मैं अकेली कहीं नहीं जाऊंगी मां, हम सब जाएंगे वहां। मोसी ने हम सबको खाने पर बुलाया है।" नयना ने कहा, अचानक उसे याद आया, "मां हम पहली बार उनके घर जा रहे हैं, हमें भी तो उनके लिए कुछ तोहफा ले कर जाना होगा ना। क्या लेकर जाएं?"

नयना के सवाल ने मां के मुंह का स्वाद बिगाड़ दिया, पता नहीं ये लड़की हर वक्त पैसे खर्च करने की बात ही क्यों करती रहती है, कभी पैसा बचाने के बारे में क्यों नहीं सोचती। "मेरे पास अपने और तेरे पापाजी के कुछ बिल्कुल नए सूट रखे हैं उन्हीं में से कुछ देख कर पसंद कर लेना।" उन्होंने थोड़े रूखे से अंदाज़ में कहा।

"नहीं मां खारीवाल सर के यहां ऐसे तोहफे नहीं दिए जा सकते। नयना तुम कल बाज़ार जा कर कोई अच्छा सा तोहफा खरीद लेना। ये ठीक रहेगा ना मां।" विवेक ने अपने सुझाव में मां को भी शामिल करना चाहा।

हामी तो मां को भरनी पड़ी पर उनका दिल बैठ गया। 'अब तो ये नयना किसी की नहीं सुनेगी पूरी तनख्वाह खर्च करके ही मानेगी। भला विवेक को भी क्या ज़रूरत थी इसको कहने की मैं दे तो रही थी तोहफे। हंह ये नए ज़माने के चोचले।'अब मां का बातों में मन नहीं लग रहा था, नींद का बहाना बना वे उठ गई। पापाजी तो पहले ही सोने जा चुके थे। मीनू और सोने को कह नयना और विवेक भी सोने चल दिए।

***