डोर – रिश्तों का बंधन - 1 Ankita Bhargava द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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डोर – रिश्तों का बंधन - 1

डोर – रिश्तों का बंधन

(1)

साडा चिड़िया दा चंबा वे

बाबुल असां उड़ जाना

साडी लंबी उडारी वे

बाबुल मुड़ नहीं आना'

ढ़ोलकी की थाप पर जैसे ही गीत शुरु हुआ सुरेश की आंखों के कोर भीग गए। कैसा माहौल होता है बेटी की शादी में। घर में रौनक भी होती है और खुशियाँ भी पर दिल में बेटी की जुदाई का दर्द भी कम नहीं होता। अपने जिगर के टुकड़े को दूसरे घर भेजते समय एक पिता के दिल पर क्या गुज़रती है यह कोई सुरेश से पूछे, जो अपनी पांचवी बेटी की विदाई की तैयारी कर रहा था।

पहले से ही चार बेटियों के पिता सुरेश के कंधों पर जब भतीजी नयना की परवरिश का भार आया तो एक बार तो उसके हाथ पांव फूल गए कि अब क्या होगा। उसकी आर्थिक स्थिति तो पहले से ही डावांडोल थी। ऐसे में भाईसाहब का यूं आधे में ही चले जाना उसे तोड़ गया। भाईसाहब की सरपरस्ती में वह ख़ुदको सुरक्षित महसूस करता था, उनके असमय काल का ग्रास बनने से वह अकेला पड़ गया पर उस दुख के समय में 'होनी को कोई नहीं रोक सकता' बस यही सोच कर उसने सब्र कर लिया।

पर असली समस्या तो बेटियों की शादी की थी। लंबा चौड़ा दहेज देने की उसकी हैसियत नहीं थी फिर कैसे बेटियों को अच्छे घर वर मिलेंगे। वह रात दिन इसी चिंता में घुलता रहता था। पर शायद ऊपर वाले को भी उसकी थोड़ी फिक्र थी तभी तो सुरेश को बेटियों की शादी के लिए ज्यादा परेशान नहीं होना पड़ा। कोई राजकुमार तो नहीं पर हाँ लड़कियों के लिए गुज़ारे लायक घर तो उसने भी ढ़ूंढ़ ही लिए। बेटियां सुखी हैं उसे यह तसल्ली भी थी।

जब एक एक करके उसके आंगन की चिड़िया अपने अपने घोंसले की ओर चलीं तो उसका घर ही नहीं मन भी सूना करती चली गई। बस अब भाईसाहब की बिटिया नयना की डोली भी घर से विदा हो जाए तो वह गंगा नहा ले। उसी तैयारी चल रही थी। दो दिन बाद नयना भी चली जाएगी तो घर बिल्कुल सूना ही हो जाएगा।

नयना कमरे में बैठी अपने मेंहदी लगे हाथों को देख रही थी। दो दिन बाद उसकी शादी थी। बाहर आंगन में जो धूम मची थी उसकी आवाजें उसके कानों तक भी पहुंच रही थी। उसे खुश होना चाहिए। आखिर उसकी शादी हो रही थी। उसके जीवन की एक नई शुरुआत थी यह। पर वह खुश नहीं थी, उसकी आंखों में जो आंसू थे वो वैसे नहीं थे जैसे हर दुल्हन की आंखों में होते हैं। बल्कि उसकी आंखों से तो आज उसके दिल का दर्द आंसू बन कर टपक रहा था। इतना तो वह उस दिन भी नहीं रोई थी जिस दिन उसके पापा गए थे। रो ही नहीं पाई। मां की हालत ने जैसे नयना के आंसुओं पर बांध बना दिया।

मां भी क्या करती सुबह हंसते मुस्कुराते जिस पति को कॉलेज भेजा था वह तो वापस ही नहीं आया बस कुछ लोग उसका शरीर छोड़ गए, वह शरीर जो कुछ ही देर में राख बन गया। राख भी अपनी कहां हुई वह भी गंगाजी के पावन जल में जा समाई। कॉलेज में ही नयना के पापा को हार्ट अटैक आया और कोई कुछ करता उससे पहले ही वो दुनिया से कूच कर गए। खुद तो चले गए और अपनी पत्नी और बेटी को बेसहारा कर गए। अगर सुरेश चाचा का हाथ सर पर ना होता तो नयना का क्या होता। मां तो आज भी पापा की मौत के सदमे से नहीं उबर पाई। अर्धविक्षिप्त सी हालत में ही घर में इधर उधर डोलती रहती है।

आज नयना को पापा की बहुत याद आ रही थी। अगर आज पापा होते तो वह भी उनसे वैसे ही अपनी फरमाइशें पूरी करवाती जैसे विन्नी दीदी और रिन्नी दीदी ने अपनी शादी में चाचा से करवाई थी। वह जानती है पापा उसकी हर इच्छा पूरी भी करते। पापा अपनी नन्नी से बहुत प्यार करते थे, उसकी हर जिद पूरी करते, सारे नखरे उठाते थे। उसकी फरमाइशें पूरी करने की कोशिश तो चाचा भी करेंगे पर वह चाचा की आर्थिक स्थिति से अनजान तो नहीं है फिर नयना उनके सामने कैसे अपनी पसंद नापसंद कहे, कैसे जिद करे। वैसे भी बेचारी शब्द उसके लिए एक ऐसी लक्ष्मण रेखा की तरह था जिसे लांघने का उसे हक ही नहीं था।

"ओहो हम तो काम कर कर के थक गए और इसे देखो कैसे महारानी की तरह आराम से लेटी है।" यह तमन्ना थी, नयना इस आवाज को नींद में भी पहचान सकती थी। वह बिस्तर से नीचे पैर लटका कर बैठ गई। रिन्नी दीदी और विन्नी दीदी उसका शादी का जोड़ा लिए खड़ी थीं। उनके साथ तमन्ना और रश्मि भी थी।

"ओ हिरोइन किसके ख्यालों में खोई है?" हिना आंखें मटकाती हुई बोली।

"पापा के।" नयना की आवाज और नहीं आंखों में बस दर्द ही दर्द भरा था।

"नन्नी ऐसे नहीं रोते बच्चे, आ इधर आ मेरे पास।" विन्नी दीदी ने नयना को खींच कर अपने गले लगा लिया पर उसे तसल्ली दे सके वो शब्द तो उनके पास भी नहीं थे। बस नयना आंसुओं में उनके आंसू भी घुल गए।

"भई ये आंसू ना विदाई के लिए बचा कर रखो। अभी ब्यूटीशियन को अपना काम करने दो। क्योंकि शादी का सीज़न चल रहा है और हमारे पास बिल्कुल भी टाइम नहीं है, जल्दी करो।" हिना ने कहा।

"रश्मि, तमन्ना हमारी नन्नी को आज ऐसा तैयार करना कि सब देखते ही रह जाएं।" रिन्नी दीदी भी कहां पीछे रहने वाली थी।

"दीदी हम तैयार तो तब करें जब आपकी मिस वर्ल्ड हमें अपना टैलेंट दिखाने का मौका दे तब तो हम कुछ करें भी। इसके तो नखरे ही खत्म नहीं हो रहे।"

नयना को विन्नी दीदी ने इशारा किया तो वह एक उदास सी नज़र अपने जोड़े पर डाल उन लोगों के साथ चली गई। नयना को तैयार करते समय तमन्ना और हिना के हाथ ही नहीं ज़बान भी चलती रही। पूरा समय वे उसे विवेक का नाम लेकर छेड़ती रही।

"नयना एक बार देख तो सही खुदको आइने में, देख कैसी लग रही है!"

नयना ने आइने में खुदको निहारा, वह सच में बहुत खूबसूरत लग रही थी। उसकी सहेलियों ने उसे बहुत मेहनत से तैयार किया था।नयना मुस्कुरा दी। उसके चेहरे पर यह मुस्कान लाने के लिए भी उन बेचारी लड़कियों ने जाने क्या क्या जतन किए थे। अपनी मेहनत सफल होते देख उन्हें भी कुछ तसल्ली हुई।

लाल जोड़ा पहने, कलाई तक चूड़ियों भरे हाथों में कलीरे बांधे नयना को देख चाची की आंखें भर आईं। मंगल बेला में रोना अशुभ होता यह सोच उन्होंने आंसू आंचल में समेट लिए और नयना की बलैया लेली, "कैसी सुंदर लग रही है मेरी बिटिया, किसी की नज़र ना लगे।"

"सुंदर तो लगनी ही थी चाचीजी, आखिर तैयार किसने किया था।" हिना अपनी तारीफ़ का मौका क्यों जाने देती भला।

उस पल नयना ने मां की सूनी सूनी आंखों में भी खुशी के भाव देखे। वह मां के जोर से लिपट गई, आज उसे मां से दूर हो जाना था फिर जाने कब आना हो। कुछ देर में तो यह घर उसके लिए पराया हो जाने वाला था।

कैसी किस्मत होती है बेटियों की, जिस घर में पैदा होती हैं, जिस आंगन में खेलती हैं, एक दिन वही घर, वही आंगन उनके लिए एक दिन पराया हो जाता है। किसी और का घर संसार सजाने की जिम्मेदारी नाजुक कंधों पर डाल मां बाप उनकी डोली रुखसत कर देते हैं।

बचपन में जब वह अपनी गुड़िया की शादी रचाती थी तब उसे कैसा चाव होता था अपने ब्याह का। जब भी कोई दुल्हन देखती थी पापा से कह देती थी, 'पापा मेरी शादी में मुझे भी ऐसे कपड़े, गहने दिलाना।' पापा भी हमेशा हंस कर कह देते, 'हाँ मेरी रानी बिटिया मैं तेरी शादी में सारे अरमान पूरे करूंगा। तेरे ही नहीं मेरे भी।"

तब नयना को यह कहां पता था कि गुड़िया की शादी और एक लड़की की शादी में फर्क होता है। लड़की को अपने ब्याह में केवल गहने कपड़े ही नहीं बल्कि मां बाप से जुदाई भी मिलती है तोहफे में। विवाह का यह कड़वा सच तो नयना को अपनी मोसी के विवाह में पता चला। मोसी की विदाई में उनके साथ साथ नयना के कितने आंसू बहे उसे याद नहीं, बस इतना याद है कि वह रोते रोते पापा से लिपट गई थी। एक ही बात थी उसके होठों पर, 'पापा शादी गंदी होती है, मुझे नहीं करनी शादी, मुझे आपसे दूर नहीं जाना।'वह रोती रही और पापा उसे अपने सीने से लगाए उसके आंसू पौंछते रहे। कैसी नादान थी नयना, यह भी नहीं जानती थी कि यह सामाजिक रीत तो सबको निभानी ही होती है। कोई चाहे ना चाहे।

सुरेश चाचा ने नयना को सीने से लगा लिया, नयना भी चाचा में पिता को खोजती, आंखों में आंसू लिए चुपचाप उनके सीने से लगी खड़ी रही। उस पल अपनी भावनाओं को शब्दों में ढालना सुरेश चाचा के लिए भी आसान नहीं था। आंखों में आंसू लिए बस वह आसमान की ओर देखने लगे, वह खुदको गुनाहगार की तरह महसूस कर रहे थे, जैसे उनसे कोई बड़ी भूल हुई हो और मन ही मन अपने भाईसाहब से बातें कर रहे थए, कह रहे थे,'भाईसाहब आपने अपनी गुड़िया के खुशहाल जीवन और उसकी शादी के जो सपने देखे थे मैं उनमें से एक भी पूरा नहीं कर पाया। आप होते तो शायद नयना के लिए कोई अच्छा लड़का चुनते, ऐसा साधारण घर का कम पढ़ा लिखा लड़का नहीं, जैसा मैंने चुन लिया। देखिये हमारी सयानी बिटिया को, बिना एक भी सवाल किए मंडप में बैठने जा रही है। आप पिता हैं उसके और ईश्वर के करीब भी हैं आप, कहिए उस ऊपरवाले से हमारी बिटिया के इस नवजीवन में अब कोई दुख ना आए। इसकी झोली हमेशा खुशियों से भरी रहे।'

"नन्नी मैं नहीं जानता आज के दिन भाईसाहब तुम्हें क्या समझाते पर मैं बस तुमसे वह कहना चाहता हूं जो मैंने तुम्हारी सब बहनों से कहा था। शादी के रिश्ते में पति और पत्नी की बराबर की भागीदारी होती है। ना सिर्फ सुख में बल्कि दुख में भी। विवेक का परिवार उसकी जिम्मेदारी है बेटा, उसकी इस जिम्मेदारी को निभाने में उसका साथ दिल से देना। अगर कहीं वह चूकता लगे तो तू संभालना। जैसे तेरी मां और चाची ने भाईसाहब को और मुझे संभाला, हमारा साथ दिया। तू इनकी परछाई बनकर रहना अपने ससुराल में।"

"एक बात और मेरे बच्चे भाईसाहब भले दुनिया से चले गए पर तेरा बाप आज भी ज़िंदा है। तू कभी अपने ससुराल में खुद को अकेला ना समझना, मैं अपने जीवन की आखिरी सांस तक तेरे साथ हूं।" सुरेश चाचा का गला भर आया, वह आगे कुछ नहीं कह सके।

नयना के ससुरजी ने सुरेश चाचा से किया वादा बखूबी निभाया, वो लोग छोटी बरात ही लाए थे। यहाँ तक कि विवेक के दोस्त भी गिने चुने ही थे। पर जितने भी थे पूरे जोश में थे। ढ़ोल की थाप पर उन्होंने ऐसा डांस किया कि देखने वालों को भी मज़ा आ गया। विवेक का छोटा भाई रोहित भी पूरे जोश में था। एक बार तो उन लोगों ने विवेक को भी अपने साथ नाचने के लिए खींच लिया। उन लोगों का जोश देख कर ढ़ोल वालों का जोश भी आसमान पर पहुँच गया। फिर तो ऐसी जुगलबंदी हुई कि किसी को ना तो समय का होश रहा और ना ही महूर्त का। आखिर सुरेश चाचा को हाथ जोड़ कर सबको मंडप तक लाना पड़ा। सुरेश चाचा ने भी बरात के स्वागत में कोई कसर नहीं छोड़ी। अपनी हैसियत से बढ कर ही सब इंतज़ाम किया था।

विवाह की वेदी पर आरंभ में तो नयना विवेक के साथ यंत्रवत पंडितजी के निर्देशों का पालन करती रही किंतु जब कन्यादान की रस्म के लिए पंडितजी ने उसके चाचा चाची को बुलाया तो उसके दिल में जो टीस उठी उसका दर्द असहनीय था। उस दर्द ने ना सिर्फ नयना अपितु मंडप में मौजूद सारे कन्यापक्ष को रूला दिया।

विदाई की रस्म में अभी कुछ समय शेष था और विदाई की तैयारी के बहाने दुल्हा दुल्हन को कमरे में कुछ देर के लिए अकेला छोड़ दिया गया कि वे दोनों बातें कर सकें। पर दो अजनबी बातें करें भी तो क्या, एक बार ही तो मिले थे दोनों, और उनके बीच दूसरे जोड़ों की तरह फ़ोन पर भी बात नहीं हुई थी कभी। विवेक ने पहल की ही नहीं कभी, और ना ही नयना कर सकी। यहाँ भी विवेक ने उससे बात करने में ज्यादा रूचि नहीं दिखाई बस कुछ औपचारिक बातें हुईं बाकी समय वह फ़ोन में ही लगा रहा। उन दोनों के बीच पसरे इस मौन के कारण नयना का दिल घबराने लगा। वो तो कुछ देर में रिन्नी दीदी खाना ले कर आईं तो उसे चैन मिला।

रिन्नी दीदी उसके और विवेक के लिए एक ही प्लेट में खाना लेकर आईं थीं। "आज आप दोनों को एकसाथ एक ही प्लेट में खाना खाना पड़ेगा। ये आपकी परीक्षा है। हम देखना चाहते हैं आप हमारी नन्नी का ख्याल कैसे रखेंगे।" कहते हुए रिन्नी दीदी ने जब प्लेट विवेक के सामने रखी तो वह मुस्कुरा दिया।

"क्या बात है जीजाजी आपके होश उड़े उड़े उड़े से क्यों लग रहे हैं, कहीं हमारी नयना की खूबसूरती देख कर चक्कर तो नहीं आ रहे?" तमन्ना की बातें सुन कर विवेक की मुस्कान थोड़ी और बड़ी हो गई। अब वह कुछ सहज भी हो गया था।

बड़ी अजीब स्थिति थी नयना की विवाह की हर रस्म और हर फेरे के साथ नयना खुदको एक ओर विवेक के परिवार के थोड़ा नज़दीक महसूस कर रही थी, वहीं दूसरी ओर वह अपने परिवार से थोड़ा दूर और दूर हो रही थी। उसका अपना घर धीरे धीरे उसके मायके में तब्दील हो रहा था। नयना का दिल जैसे कोई मुट्ठी में लेकर मसल रहा था और यहां उसकी सहेलियां उसे हंसाने की असफ़ल कोशिश कर रही थीं।

विदाई के समय जब सुरेश चाचा का बेटा चिंटू नयना से लिपट कर फूट फूट कर रोया तो सभी आश्चर्यचकित रह गए। अब तक तो सबने उसके मुंह से यही सुना था,'जिस दिन नन्नी दीदी की शादी होगी, मैं माता रानी के मंदिर में नारियल चढ़ाऊंगा। इस मुसीबत से पीछा छूट जाए तो मेरी ज़िंदगी में चैन आ जाए।' और आज जब वह दिन आ गया था तो उसके दुख का कोई ठिकाना नहीं था।

आखिर आंसू भरी आंखों से सबको निहारती और आंगन में चावल के दाने बिखेर अपने घर परिवार के मंगलमय भविष्य की कामना करती नयना नया घर संसार सजाने विदा हो गई।

कार में भी नयना की आंखों से झरझर आंसू बह रहे थे पर उसकी बगल में बैठे विवेक को इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, वह अपने दोस्त के साथ गपशप में व्यस्त था। विवेक के इस व्यवहार से नयना को इतना अंदाज़ा तो हो ही गया कि विवेआ के साथ उसकी शादीशुदा ज़िंदगी आसान तो नहीं रहने वाली। सफर के दौरान हमेशा उसका जी मिचलाने लगता है, आज भी कुछ ऐसा ही हो रहा था पर वह अपनी समस्या किसे बताती, उसने गोद में रखा पर्स टटोला, पर्स में टॉफी रखी थी उसने धीरे से टॉफी निकाली और मुंह में रखली और फिर आंखें बंद करके बैठ गई। 'अरे भाभी तो सो गई,' रोहित ने कहा तो नयना ने आंखें खोली, रोहित और विवेक का दोस्त उसका मज़ाक उड़ा रहे थे। वह ना कुछ बोली और ना हिली डुली पूरे रास्ते बस चुपचाप सर नीचे किए बैठी रही। जब कार उसकी ससुराल के दरवाज़े पर पहुंची तो उसे लगा शायद अब कुछ आराम मिलेगा पर नहीं वहां भी रस्मों की एक लंबे फेहरिस्त उसका इंतज़ार कर रही थी।

नयना ससुराल में महिलाओं से घिरी बैठी थी। अभी कुछ देर पहले ही उसकी सासुमां ने पूरे रस्मो रिवाज के साथ उसका गृहप्रवेश करवाया था। बहुत भीड़ थी उस छोटे से घर में, महिलाएं बैठ भी नहीं पा रही थीं ठीक से। बस दो कमरे और उनके सामने छोटा सा बरामदा और कोने में एक छोटी सी रसोई। बस इतना सा ही नया घर संसार था नयना का।

"भाभी नई बहू की आंखें तो अभी से घूमने लगीं। जरा संभालना कहीं घर पर कब्जा ही ना कर बैठे।" विवेक की बुआजी ने कहा।

"ओ मीनू, जा भाभी को ऊपर ले जा। थोड़ा आराम कर लेगी, थक गई होगी।" नयना की आंखें अपना घर देखने का लोभ संवरण नहीं कर सकी मगर बुआजी की बात सुन उसे अपनी भूल का अहसास हुआ तो उसने अपनी नज़रें झुका लीं। पर तब तक गड़बड़ हो चुकी थी वरना कुछ देर पहले तक उस पर भरपूर प्यार बरसाती सासुमां के स्वर में तल्खी ना आई होती। उनका यह फ़रमान भी शायद उसी का परिणाम था। कारण चाहे कुछ भी हो पर शादी की रस्मों और सफ़र की थकान से हलकान नयना के लिए तो यह फ़रमान राहत बन कर आया था, उसे सच में आराम की सख्त जरूरत थी।

नयना की सासुमां ने तो बेटी को आवाज दी थी पर उसका देवर रोहित भी कूदता फांदता साथ हो लिया। भला नई नवेली भाभी के साथ रहने का मौका वह कैसे छोड़ देता। नयना मुस्कुरा दी उसे रोहित का भोला, नटखट स्वभाव बहुत पसंद था। उसे रोहित में चिंटू की छवि दिखाई देती थी। कभी कभी वह सोचती काश पापा ने अपना परिवार सीमित रखने का निर्णय ना किया होता। काश उसके भी कोई छोटा भाई होता तो वह भी अपने भाई के साथ हंसते-खेलते बचपन का आनंद उठाती। जीवन का हर दुख–सुख उसके साथ बांट लेती। तब शायद उसे अपनी शादी के बाद मां के अकेले रह जाने की फि्क्र भी ना होती और शायद मां भी पापा की असमय मौत के बाद यूं अवसाद का शिकार ना होती। बेटे के सहारे यह सदमा झेलना उनके लिए थोड़ा आसान होता क्योंकि चाहे कितना भी आधुनिकता का दम भर लें पर बेटियों को तो लोग आज भी पराया धन ही मानते हैं।

"भाभी आपके शयनकक्ष में आपका स्वागत है।" रोहित ने कुछ ऐसी अदा से नयना के लिए कमरे का दरवाज़ा खोला कि उसके होठों पर मुस्कान आ गई।

"भाभी, मां ने कहा है, आपका संदूक तो कल खुलेगा इसलिए नई चादर आप कल बिछा लेना। आज आप इसी चादर को ठीक से बिछा लो। अब आप आराम करो हम चलते हैं। घर मेहमानों से भरा हुआ है, उन्हें भी संभालना है।" मीनू ने किसी समझदार बुजुर्ग की तरह नयना को मां का संदेश सुनाया और रोहित के साथ नीचे चली गई

उन दोनों के जाने के बाद नयना ने उस कमरे को जी भर देखा जिसे रोहित उसका शयनकक्ष कह रहा था। कमरा छोटा भी था और थोड़ा अस्त व्यस्त भी। फर्नीचर के नाम पर बस एक पुराना बेड था जिस पर मैली सी चादर बिछी थी। बिछी क्या थी सलवटों से भरी थी। कमरे में एक अलमारी थी, वो भी पुरानी ही थी। अब तक फिल्मों में देखे और उसकी कल्पना में बसे दुल्हन के कमरे से यह बिल्कुल अलग था। उसने तो अब तक अपने लिए सभी आधुनिक सुख सुविधाओं से परिपूर्ण, फूलों से सजे, खूबसूरत व सुवासित कमरे की कल्पना की थी, ठीक वैसा ही जैसा शोभित का था।

अचानक नयना को एक झटका सा लगा यह क्या सोच गई वह। उसे ये सब अनर्गल बातें अब नहीं सोचनी चाहिए। अब तो जैसा भी था यही नयना का संसार था, और उसे, इसे ही संवारना था। उसने दरवाज़ा भिड़ाया और सबसे पहले अपने पर्स में से चिंटू के रखे बिस्किट और चिप्स के पैकेट निकाले और जल्दी जल्दी खाने लगी। भूख के मारे उसकी जान निकली जा रही थी। कल से उसने ठीक से खाना नहीं खाया था। दोपहर में भी लाज की गठरी बनी वह बस आधी पूरी भी नहीं खा पाई थी। चिप्स और बिस्किट खा कर उसे कुछ राहत मिली। फिर नयना ने बिस्तर की चादर ठीक की और लेट गई।

कई लोगों के एक साथ बोलने से नयना की नींद टूटी। वह चौंक कर उठ बैठी कुछ पल को तो उसे समझ ही नहीं आया वह कहां है। समझ आने पर उसे बाहर क्या हो रहा है जानने की उत्सुकता होने लगी। रात गहरा गई थी वह देर तक सोती रही। नयना कमरे का दरवाज़ा खोलने ही जा रही थी कि उसे खिड़की से विवेक और उसके दोस्त दिखाई दिए। सभी शराब के नशे में धुत्त अजीबोगरीब हरकतें कर रहे थे। यूं तो पंजाबियों के जश्न में शराब का प्रचलन कोई नई बात नहीं है पर वो लोग इतने करीब थे कि नयना को घबराहट सी होने लगी। उसने लपक कर दरवाज़े की कुंडी चढ़ा दी। अभी वह वापस पलंग पर बैठी ही थी कि दरवाज़े पर एक ज़ोर की थाप पड़ी।

"भाभी हम विवेक के दोस्त हैं। हमें आपसे मिलना है। आज आपकी शादी हुई है, पार्टी का दिन है आओ हमारे साथ पार्टी करो।" नशे में डूबी वो आवाज, उनकी बातें और वो हंसी नयना के दिल में दहशत पैदा कर रही थी। हालांकि कुछ देर दरवाज़ा खटखटाने के बाद दोबारा किसीने उसे परेशान नहीं किया पर नयना की पूरी रात इसी डर के साए में गुज़री कि कहीं कोई दरवाज़े को ही ना तोड़ दे। दरवाज़ा कमज़ोर था और एक ज़ोर का धक्का सहने लायक भी नहीं था।

नयना सोचने लगी यदि ऐसा हुआ, अगर विवेक के दोस्त उसके साथ कोई बत्तमीज़ी करने पर उतरे तो क्या विवेक उसे अपने दोस्तों से उसी तरह बचा पाएगा जैसे कभी शोभित ने उसे बचाया था। विवेक इस शराब में धुत्त हालत में अपने दोस्तों का विरोध कर पाएगा!

शोभित...शोभित उसका ख्वाब था और विवेक उसके जीवन का यथार्थ। यथार्थ कभी ख्वाब की तरह रुमानी नहीं होते अपितु खुरदरे होते हैं। इस चादर की तरह, कुछ-कुछ पलस्तर उतरे इस घर की तरह, यह नयना जानती थी पर फिर भी वह खुदको शोभित के ख्यालों में खोने से रोक नहीं सकी।

बहुत वक्त भी तो नहीं गुज़रा। कुछ साल पहले की ही तो बात है, नयना ने तब बारहवीं की परीक्षा अच्छे नंबरों से पास की थी। ख्वाब भी बहुत ऊंचे थे उसके, आई. आई. एम. से एम.बी. ए. करना चाहती थी वह। और इसीलिए दिल्ली से बी. कॉम. ऑनर्स करना चाहती थी ताकि ग्रेजुएशन के साथ साथ कैट की तैयारी भी कर सके। उसके सपनों को पापा का पूरा सहयोग था इसलिए उसके हौसले बुलंदियों पर थे। पर वक्त ने एकाएक पलटी मार दी। चाचा उसका दिल्ली में पढ़ाई का खर्च नहीं उठा सकते यह नयना अच्छे से जानती थी। इसीलिए उसने पापा के गुज़रने के बाद अपने शहर के ही कॉलेज में बी. कॉम. ऑनर्स में दाखिला ले लिया। लेकिन उस कॉलेज की फ़ीस और दूसरे खर्चे भी भारी पड़ रहे थे।

एक बार तो नयना को लगा शायद उसे अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी होगी। वह यह बात किसी के सामने कह कर चाचा की बेइज़ती नहीं करना चाहती थी फिर भी जाने कैसे उसकी समस्या उसकी सबसे अच्छी सहेली तमन्ना ने समझ ली और अपरोक्ष रूप से इसका हल भी सुझा दिया। वह कहने लगी,"नयना मुझे तेरी मदद चाहिए, मेरे भैया के बच्चों के लिए एक अच्छी ट्यूशन टीचर चाहिए। भैया ने यह जिम्मेदारी मुझे सौंपी है। अब मैं कहां ढ़ूंढ़ू, तू तो मेरी सबसे अच्छी दोस्त है तू ही पढ़ा दिया कर ना बच्चों को, प्लीज।"

अंधा क्या चाहे दो आंखे। पर फिर भी नयना ने खुद से हाँ भर देने की गलती नहीं की बल्कि कहा, 'चाचा से पूछ कर बताऊंगी।' चाचा-चाची दोनों ही मना कर रहे थे कि उसकी अपनी पढ़ाई पर असर पड़ेगा पर नयना ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कि वह मैनेज कर लेगी आखिर उसने उन दोनों को मना ही लिया। और फिर चल पड़ी जीवन संघर्ष के पथ पर कदम ताल करने।

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