डॉमनिक की वापसी
(12)
चारो तरफ़ गहरा सन्नाटा था।
रेल की पटरियों के ऊपर से गुज़रता हुआ पुल थककर गहरी नींद में सो रहा था। दीपांश ने सिर को झटकते हुए आसमान की ओर देखा तो एक बूँद माथे पर आकर गिरी। आसमान साफ़ था पर हल्की-सी चाँदनी में एक छोटी बदली उसके सिर पर तैर रही थी। वह बस उतनी-सी थी जितनी चादर किसी को भी ओढ़ने-बिछाने को चाहिए होती है। उसने पुल की रेलिंग पर पैर रखा और आसमान की अलगनी पर टंगी चादर को दोनो हाथों से खींच लिया। वह बदली! नहीं वह सफ़ेद चादर! उसके ओढ़ने-बिछाने के लिए, इस दुनिया से छुपकर सो जाने के लिए बहुत थी। ठीक उसी क्षण में उसने बहुत शिद्दत से महसूस किया कि उसकी कई रातों की बची हुई नींद की कई परतें उसकी पलकों पे अटी पड़ी हैं। सो जाने के लिए उसके हाथों में बादल की सफ़ेद चादर थी और पैर पुल की रेलिंग को छोड़ चुके थे। वह अपने पैरों तले घूमती पृथ्वी से ऊपर उठ गया था। वह बस सो ही जाता, उसकी पलकों पर अटी नींद की परतें नीचे गिरकर आँखों को बंद कर ही देतीं कि सामने से आती रेलगाड़ी की जान छोड़कर चीखती सीटी ने उसे फिर सोने से रोक दिया था। उसने देखा कि उसके हाथों से आसमान में तैरती सफ़ेद बदली छूट गई है। सामने पटरी पर रेलगाड़ी धड़धड़ाती चली आ रही है।
उसके पैरों के नीचे ज़मीन नहीं है। वह पुल से नीचे गिर रहा है।
रेल की छत पर बनते-बिगड़ते चेहरेवाला, अट्टाहास करता समय है जिसके कई हाथ हैं, जिनमें से कुछ में पुलिस की लाठियाँ हैं जो ज़ोर ज़ोर से घूम रही हैं, कुछ हाथ हवा में उड़ते नोटों को पकड़ने के लिए लंबे और लंबे हुए जा रहे हैं। उस क्रूर हँसी का स्वर कभी अखिलेश कुमार श्रीवास्तव के जैसा हो जाता है तो कभी बस में आग लगाते पुलिसवालों के जैसा। हँसी से कान फटे जा रहे हैं। रेलगाड़ी उसकी तरफ़ बड़ी आ रही है और ज़मीन आसमान दोनो उसके नहीं हैं। कुचला जाना ही उसकी नियति है कि तभी किसी ने उसकी बांह पकड़कर खींचा।
सामने भूपेन्द्र बिना दूध की काली चाय लिए खड़ा था। दीपांश के चेहरे पर पसीने की बूँदे चमक रही थीं।
भूपेन्द्र ने चाय स्टूल पर रखते हुए कहा, ‘शायद कल बहुत देर से सोए।’
दीपांश ने हाँ में सिर हिलाया और चाय का कप उठा लिया। भूपेन्द्र वहीं पलंग पर बैठकर उसे आसपास के इलाक़े के बारे में तमाम जानकारियाँ देने लगा।
दीपांश ने सुबह होने पर ही जाना कि चिराग दिल्ली की उस गली में ज्यादातर थियेटर से जुड़े लोग ही रहते हैं। पचास गज के भूखण्ड की दूसरी मंज़िल पर रमाकान्त के इस कमरे के दोनों ओर एक-एक और कमरा है जिसमें से एक अशोक और भूपेन्द्र का है और दूसरा सन्जू का। तीनों कमरे एक गैलरी में खुलते हैं जिससे सँकरी सीढ़ियाँ नीचे उतर जाती हैं। किचिन और बाथरूम एक ही है जो तीनों कमरों में रहने वालों के बीच कॉमन है। गली की ओर, गैलरी से जुड़ी एक छोटी-सी बालकॉनी भी है। भूपेन्द्र उसी में खड़ा, हाथ के इशारे से दीपांश को बता रहा था कि किस कमरे में अपने संघर्ष के दिनों में कौन-सा नामी एक्टर रहा करता था और कैसे उसे बड़ा ब्रेक मिलने के बाद मकान मालिक ने उस कमरे का किराया कई गुना बढ़ा दिया था। उसे यह जानकर थोड़ा आश्चर्य भी हुआ था कि वहाँ कमरे की लम्बाई-चौड़ाई के अलावा उसके लकी-अनलकी होने से भी उनका किराया घटता-बढ़ता था।
भूपेन्द्र ने उसे गली के बाहर खुलते ही सामने बने पार्क की वह जगह भी दिखाई जहाँ जाकर वे कभी-कभी रिहर्शल किया करते थे। दीपांश कुछ अन्यमनस्क-सा गली के बाहर के उस पार्क को देखने लगा। कुछ लड़के उस समय भी वहाँ किसी प्ले की रिहर्शल कर रहे थे। उनके संवाद यहाँ से साफ़-साफ़ नहीं सुने जा सकते थे। दीपांश को लगा जैसे उनके पास संवाद थे ही नहीं। वे मानवीय किरदार निभाते हुए भी एक दूसरे की बात का जवाब कुत्तों की तरह भौंकते हुए दे रहे थे। वे बता रहे थे कि कैसे आने वाले समय में भाषाओं का लोप हो जाएगा और लोग मात्र स्वरों और ध्वनियों में बात करने को विवश होंगे। पर इस सबके बीच भी मनुष्य की मूल प्रवृत्तियाँ और कलाएं कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में बची रहेंगी।
दीपांश को अपनी ढपली, अभ्यास करते अपने साथी याद हो आए। सोचा ‘क्या ये अभ्यास करते लड़के जानते हैं- इस प्रतिरोध से, इनके इस अभ्यास से कुछ नहीं बदलेगा।’ तभी जैसे पिता जी सामने आकर खड़े हो गए। बिलकुल वैसे ही जैसे कभी रात में उसके कमरे पर चलती बहसों के बीच दरवाज़े पर आकर खड़े हो जाया करते थे। वह बहुत शांत लग रहे थे, बड़े संयत स्वर में, दीपांश की आँखों में देखते हुए बोले ‘कुछ न बदले पर यह स्वर उनके भीतर और उनके माध्यम से अन्य तमाम लोगों के भीतर रहा आएगा। कला में बुरे से बुरे समय में अपनी बात कहने और अन्याय का प्रतिरोध करने की शक्ति होती है।’
दीपांश ने जैसे उन्हें सामने खड़े पाकर सीधा प्रश्न किया, ‘ऐसे समय में कला!’
उन्होंने स्पष्ट उत्तर दिया, ‘हाँ, कला। अच्छे समय में कलाएं हममें और बुरे समय में हम कलाओं में जीते हैं।’
वह उनसे आगे कुछ और प्रश्न करता, पर उसका उत्तर देने के लिए वह वहाँ नहीं थे। वह अभी अपना सुबह का सपना भूला नहीं था। ढपली, घर, माँ, बुग्याल, पहाड़, घाटियाँ, जलती हुई लाल डायरी, आग की लपटों में घिरे उसे बचाने की कोशिश करते कई सारे हाथ- तेज़ी से दौड़ती सपने वाली रेल, सब एक स्वर में चीखने लगे। किसी की आवाज़ भी साफ़ सुनाई नहीं दी। पर उसने पहचान लिया! प्रतिरोध का ही स्वर था। दीपांश के होठ भी हिल रहे थे। लगा कोई संकल्प उसके भीतर धीरे-धीरे पाँव जमा रहा है।
भूपेन्द्र उसे यूँ अपने आपसे बातें करते, बुदबुदाते देखकर, बिना कुछ कहे भीतर चला गया।
……और इस तरह रमाकान्त का वह कमरा दीपांश का दिल्ली में पहला ठिकाना बन गया। उस दिन संजू सुबह जल्दी ही निकल गया था। अशोक और भूपेन्द्र को भी एक ऑडिशन के लिए, हाल ही में शुरु हुए ‘आसरा’ चैनल की प्रोडक्शन कम्पनी जो सिर्फ़ उसी के लिए सीरियल बनाती थी, के ऑफिस जाना था।
अशोक के कहने पर दीपांश भी उनके साथ चलने के लिए तैयार होने लगा। उसके पास न दाड़ी बनाने का सामान था और न बाल कटाने के पैसे सो उन्हें वैसा ही छोड़ दिया। हाँ, चार-पाँच दिन के बाद नहाना जरूर नसीब हुआ। भूपेन्द्र के कपड़े दीपांश को बिलकुल सही आ गए।
तीनों लगभग ग्यारह बजे, दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के एक तेज़ी से फैलते शहर नोएडा में ‘फिल्म सिटी’ के नाम से घोषित कर दिए गए इलाक़े में एक बहुमंजिला इमारत में बने उस प्रोडक्शन कम्पनी के ऑफ़िस पहुँचे गए थे।
रिसेप्शन पर ‘आसरा’ चैनल के मालिक की मूँछों पर ताव देती एक बहुत बड़ी तस्वीर लगी थी। उनके बारे में कहा जाता था कि उन्होने यू.पी. के एक छोटे से शहर से अपना चिटफण्ड कम्पनी का धन्धा शुरू करके, देखते ही देखते टी.वी., सिनेमा, क्रिकेट से लेकर मकान, पुल, सड़क, हवाई जहाज तक के बिजनेस में अपना झंडा गाड़ दिया था। लगता था देश में आर्थिक उदारीकरण के सही मायने उन्हीं के जैसे कुछ उद्योगपति ही ठीक से समझ पाए थे। आज उन्ही के चैनल की प्रोडक्शन कम्पनी के एक नए धारावहिक में भूमिका पाने के लिए यहाँ लड़के-लड़कियों की लाइन लगी हुई थी।
इस ऑडिशन का बहुत बड़ा विज्ञापन इसी ग्रुप के दैनिक समाचार पत्र ‘आसरा समय’ में कई दिनो से आ रहा था। पर जो एक बात उसमें नहीं थी, वह भूपेन्द्र और अशोक की तरह और भी कईयों को यहाँ पहुँचने पर ही पता चली थी, कि अभी सिर्फ़ यहाँ आने वालों से एक फ़ार्म भरवाकर, एक हज़ार रुपए प्रति व्यक्ति, ऑडिशन की फीस जमा करवाई जाएगी। उसके बाद सिलेक्टेड केन्डिडेट्स को दोपहर के बाद इसी शहर के एक बिलकुल नए पाँच सितारा होटल में ले जाया जाएगा, जहाँ हाल ही में दूरदर्शन के लिए एक बहुत ही चर्चित ‘घर-बार’ नाम का सीरियल बना चुके निर्माता-निर्देशक अधीर कुमार उनका ऑडिशन लेंगे।
रूपयों की बात सामने आते ही अशोक का मूड उखड़ गया था। शायद इसका एक कारण यह भी था कि वह भी उसी शहर से दिल्ली आया था जिससे ‘आसरा’ चैनल के मालिक की यह महान विजय यात्रा शुरु हुई थी और उसने उनकी यह तस्वीर बहुत पहले अपने शहर के आसपास के कई गाँव, कसबों में नए खुले, छोटे-छोटे चिटफंड कम्पनियों के ऑफ़िसों में भी देखी थी। वहां वह ग़रीबों की छोटी-छोटी बचत को जमा करके भविष्य के बड़े-बड़े सपने बेचा करता था. आज फिर यहाँ अशोक उसी शख़्स को बड़ी सफ़ाई से लोगों के सपनो से खेलते हुए देख रहा था। उधर भूपेन्द्र अभी भी किसी दुविधा में फंसा खाली फॉर्म हाथ में लिए उससे अपने चेहरे पर हवा कर रहा था।
रिसेप्श्निस्ट काउन्टर से उठकर एक हाथ में रशीद बुक जैसी कोई चीज़ लिए आगुन्तुकों के पास आकर पूछने लगी थी कि उन्होंने पैसे जमा करा दिए हैं या नहीं। वह साथ ही साथ यह भी बता रही थी कि आज लिमिटिड लोगों का ऑडिशन ही हो पाएगा, इसलिए जो इंटेरेस्टिड हों वे जल्दी फ़ॉर्मेलिटीस पूरी करवा दें।
दीपांश हॉल के एक कोने में लगी मिनरल वाटर की टंकी से दो-तीन गिलास पानी पी चुकने के बाद, यह सब कुछ बड़े ही निर्लिप्त भाव से देख रहा।
तभी भूपेन्द्र की दुविधा भाँपते हुए, रिसेप्शनिस्ट ने जो अब तक आगन्तुकों के साथ थोड़ी दोस्ताना हो चुकी थी, उसके पास आकर बड़ी आत्मीयता से पूछा, ‘सर आपका फॉर्म हो गया?’
भूपेन्द्र को जैसे यकायक कुछ समझ नहीं आया और जो मन में था वही मुँह से निकल गया, ‘अगर ऑडिशन के लिए सिलेक्ट नहीं हुआ तो हज़ार रुपए का क्या होगा?’
रिशेप्शनिस्ट ने बहुत ध्यान से भूपेन्द्र को देखा।
भूपेन्द्र जैसे अपने सवाल पर ख़ुद शर्मिन्दा हुआ ही चाहता था कि रिसेप्शनिस्ट ने बड़ी सौम्यता से मुस्कराते हुए भूपेन्द्र के हाथ से उसका फॉर्म ले लिया और बोली, ‘सर, अगर अभी फॉर्म के लेबेल पर ही कोई रिजेक्ट हो जाता है, तो मनी वापस हो जाएगी, पर वह अभी नहीं मिलेगी, केन्डीडेट नेक्स्ट वीक में कभी भी दो बजे के बाद आके ले जा सकता है। बट सर, अगर डायरेक्टर सर के ऑडिशन लेने के बाद, वह किसी को रिजेक्ट करते हैं, सर…, तो फिर मनी रिफण्ड नहीं होगी।’
‘ऐसा क्यों?’ भूपेन्द्र न चाहते हुए भी पूछ बैठा। हालाँकि किसी लड़की के मुँह से पहली बार अपने लिए इतनी बार ‘सर’ सुनकर उसे बहुत अज़ीब लग रहा था और शायद इसी वजह से अपने ही किए इस सवाल से उसे अपनी बेइज़्ज़ती होती मेहसूस हो रही थी।
रिसेप्शनिस्ट जो अब एक भोली-भाली अबोध जान पड़ती लड़की में बदल चुकी थी, ने बड़ी मुलायमियत से कहा ‘क्योंकि सर, उसके बाद आप कम से कम इतने बड़े डायरेक्टर से तो मिल ही चुके होंगे न, …सर।’ फिर वह हॉल से भीतर की ओर जाती कॉरीडोर की ओर इशारा करके बताने लगी कि देश की कितनी बड़ी-बड़ी हस्तियाँ उनके प्रोडक्शन हाउस से जुड़ी हैं। भूपेन्द्र मन्त्रमुग्ध सहारा चैनल के मालिक की बड़ी-बड़ी हस्तियों के साथ लगी- नाचती, गाती, मुस्कराती तस्वीरें देखने लगा। हर तस्वीर में उनके चेहरे पर दुनिया को अपने सामने झुका लेने का दंभ था। सचमुच ही आज देश में उनकी प्रतिष्ठा ऐसी बन गई थी कि प्रदेश के ही नहीं, देश के बड़े से बड़े नेता, हिन्दी सिनेमा के महानायक, दशक के सबसे बड़े गायक, तमाम देशों की कई विश्व सुंदरियां, नई से नई अभिनेत्रियाँ और कई विश्व कीर्तिमान तोड़ने वाले बड़े-बड़े खिलाड़ी उनके घर के बच्चों के मुंडन, जन्मदिन, सगाई और शादी जैसे उत्सवों में खुशी-खुशी नाचने जाया करते थे। कहा जाता था कि देश का कोई भी उद्योग हो, आज उसे बस उनका ही ‘आसरा’ है। और इस बात के कई प्रमाण ऑफ़िस में जगह-जगह चस्पा किए गए थे।
भूपेन्द्र कभी स्वप्न लोक जैसी उन अविश्वस्नीय तस्वीरों को, तो कभी रिसेप्शनिस्ट को देख रहा था। वह अपनी बात खत्म कर चुकी थी पर संवाद ज़ारी था। अन्त में भूपेन्द्र की नज़रें उसके चेहरे पर टिक गईं और हाथ अपनी जेब में बचे हुए रुपए टटोलने लगे। रुपयों की गिनती करके हिसाब लगाया। सारे मिलाकर भी डेढ-दो सौ से ज्यादा नहीं होंगे। यहाँ आने से पहले वह इस ऑडिशन के बारे में कितना कुछ सोच चुका था। अब यूँ बिना ऑडिशन दिए लौटना उसे जैसे बिना लड़े ही हार जाना लग रहा था। ऊपर से ‘सर-सर’ करती रिसेप्श्निस्ट उसे यकायक बहुत अपनी-सी लगने लगी थी।
तभी उसने फॉर्म पर लिखे होने के बाबज़ूद भी भूपेन्द्र से उसका नाम पूछा।
उसकी आवाज़ भूपेन्द्र को किसी अदृश्य तीर-सी लगी।
उसने लगभग तरन्नुम में अपना नाम बताते हुए, हिम्मत जुटाई और उसका नाम भी पूछ लिया।
लड़की ने किसी गहरे रहस्य की तरह अपना नाम बताया। लगभग ऐसे जैसे भूपेन्द्र उसे सुनने वाला धरती पर पहला आदमी हो। फिर अपने लिपिस्टिक लगे होठों की मुस्कान को और गहरा करते हुए कहा, ‘सर, आपके पास कैश न हो तो अपने किसी फ्रैन्ड से ले लीजिए।’
भूपेन्द्र को लगा, उसने लाख रुपए की सलाह दी है जिससे उसका दिमाग बहुत तेज़ी से चलने लगा है। उसे आशोक के घर से आए मनी ऑर्डर में से बचे कुछ पैसों का ख्याल आया तो वह यहाँ-वहाँ गर्दन घुमाकर अशोक को ढूंढने लगा.
अशोक उचाट मन से चारों तरफ लगी तस्वीरों में दंभ से मुस्कराते शख़्स के अतीत के बारे में सोच रहा था. वह जानता था की कैसे इस आदमी ने गाँव, कसबों और छोटे शहरों में ऐसे गरीब लोगों के, जिनका कोई स्थाई पता नहीं था और न ही उनके वोटर आइ कार्ड तथा राशन कार्ड बन पाए थे, अपनी कम्पनी में बचत खाते खोल दिए थे। कैसे वे लोग उसकी बड़ी-बड़ी योजनाओं में अपनी ख़ून-पसीने की कमाई लगाकर, अपने पैसों के दुगुने-तिगुने होने के सपने देखते हुए, जीने लगे थे। उन योजनाओं में इन बेघर लोगों के सपनों के साकार होने की एक ही शर्त थी कि उन्हें बेहिसाब बढ़ती मंहगाई के समय में भी लगातार निवेश करते हुए, योजनाओं के पूरे होने तक ज़िन्दा बचे रहना था। अशोक ने ऐसे कई लोगों को एक अदृश्य आस की डोरी पकड़े क़ाग़ज़ों पर अंगूठा लगाते देखा था जिनकी आँखें उस समय यह नहीं देख पाती थीं कि इन योजनाओं के पूरा होने तक उनकी ज़िन्दगियाँ, उनके वज़ूद इस दुनिया में नहीं रहे आएंगे और अगर वे तब तक जीते बचते भी रहे तो आने वाला समय उनका ठौर-ठिकाना बदलकर उन्हें कहीं, किसी नामालूम से हाशिए पर धकेल देगा। भविष्य में उन मामूली लोगों का अपनी जगह पर न होना ही ‘आसरा’ की सभी जगहों पर होने वाली सफलताओं का राज़ था और इस बात को इस कम्पनी के मालिक ने बहुत पहले से ही भाँप लिया था। शायद इसीलिए उसने कई शहरों में कम्पनी के दान खाते से फुटपाथ पर मरने वालों की लावरिस लाशों के पूरे विधि विधान से दाह संस्कार की मुफ़्त व्यवस्था करवा दी थी। यह गरीबों के लिए बड़ी राहत की बात थी कि वे बिना अपने अंतिम संस्कार की चिन्ता किए मर सकते थे और इसका दूसरा फ़ायदा यह था कि ‘आसरा’ कम्पनी के मालिक का एकॉन्ट देश-दुनिया की ही नहीं, परलोक की बैंक में भी चक्रवृद्धि ब्याज की दर से फल-फूल रहा था। यह सब सोचते हुए जब अशोक को बहुत बेचैनी होने लगी, तो उसने अपना आधा भरा हुआ फॉर्म फाड़कर डस्टबिन में फेंक दिया और भूपेन्द्र से बिना कुछ कहे हॉल से बाहर आ गया।
उसे हॉल में न पाकर भूपेन्द्र भी उसे खोजता हुआ बाहर आ गया. जिस तरह का मुँह बनाए हुए वह बाहर आया था, आशोक को यह समझने में ज्यादा मुश्किल नहीं हुई की वह उससे क्या चाहता है। उसने बचे हुए रुपए भूपेन्द्र को दिए और दीपांश के साथ वहाँ से चला आया।
रात जब खाने के समय तक भूपेन्द्र कमरे पर नहीं लौटा तो अशोक ने ही खाना बनाने की कमान संभाली। अभी वे कुकर खोलकर दाल-चावल निकाल ही रहे थे कि सीढ़ियों पर किसी के आने की आहट हुई।
अशोक ने बिना देखे ही घोषणां की, ‘हो गया ऑडिशन, लगता है आज फिर पीके आया है।’
तभी दरवाज़े पर भूपेन्द्र ऐसे प्रकट हुआ जैसे वह वहाँ अपने आप न आया हो बल्कि उसे कहीं से उठाकर फेंक दिया गया हो। शायद वह अंधेरे में पड़ी किसी चीज़ से टकरा गया था। सचमुच ही वह अच्छे-खासे नशे में था। अशोक ने उसे पकड़कर पलंग पर बैठा दिया और ख़ुद खाना खाने के लिए नीचे फर्श पर बैठ गया।
भूपेन्द्र धीरे से पलंग से खिसक कर नीचे आ गया।
अशोक ने सपाट लहज़े में पूछा, ‘खाना खाओगे?’
‘नहीं भाई! पेट भर गया, धोखा खाके आया हूँ। यार पागल हूँ, तुम्हारा पैसा भी दे दिया। जानते हो अशोक भाई क्या हुआ वहाँ पे?’
‘मैं पहले ही जानता था वहाँ क्या होने वाला है। पैसे की चिन्ता छोड़ो, अभी तुम आराम से सो जाओ।’ अशोक ने बात खत्म करने के लिए कहा।
जब भूपेन्द्र को लगा कि वहाँ कोई उसका दुखड़ा सुनने के मूड में नहीं है तो उसने ख़ुद को ढीला छोड़ दिया। वह ख़ुद से बड़बड़ाने लगा, ‘हम यहाँ साले नाटक कर रहे हैं और दुनिया हमारे साथ उससे भी बड़ा नाटक कर रही है। हम लोग यहाँ डुगडुगी बजाकर सबको ख़तरों से आगाह कर रहे हैं। वे वही डुगडुगी बजाके लोगों को ठग लेना चाहते हैं। हम कहते हैं बाहर बहुत ख़तरा है…। वे कहते हैं हम तुम्हें पहचान गए हैं। तुम और तुम्हारी डुगडुगी ही सबसे बड़ा ख़तरा है।’
उसकी भारी होती जाती पलकें बंद होने को ही थीं कि उसने सिर झटककर, जैसे अपने आप से ही सवाल किया, ‘समझ नहीं आता, इन्हें क्या चाहिए? रुपया, शोहरत सब तो है इनके पास, पर फिर भी जहाँ देखों वहाँ लार टपकाते घूम रहे हैं! सालों ने हर जगह गंद फैला रखी है। कुत्ते! …साले! भ्रष्टाचार पर सीरियल बनाएंगे! उसमें घोटालों की बात करेंगे! जनता को जगाएंगे! ख़ुद साले ख़ून चूसते हैं आर्टिस्ट लोग का। क्या मैं नहीं जानता, ये अधीर कुमार कैसे कमीशन दे देकर, सीरियल पास कराके डॉयरेक्टर बना है!’
फिर बात के छूटते सिरे को पकड़ने की कोशिश करते हुए, उसका स्वर ऐसा हो गया जैसे वह किसी दलदल में जा गिरा हो और उसमें धंसते हुए दूसरों को आगाह कर रहा हो, ‘ये जो मीडिया रात दिन भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार चिल्लाता है न, इसमें साला सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार है।…और केवल पइसे का नईं, चमड़ी का, ज़िस्म का, इज़्ज़त का, शोहरत का। कई तरह का भ्रष्टाचार है। साला सब चीज़ का रेट तय है, हर चीज़ बिकने और ख़रीदने के लिए रखी है, यहाँ पे…’
वह बोलते-बोलते जैसे सचमुच ही किसी दलदल में डूब रहा था। उसकी आँखें बंद हो रही थीं। दीपांश को उसकी आवाज़ में कई और आवाज़े भी डूबती हुई लग रही थीं।
अशोक उसकी बात सुनते हुए चुपचाप खाना खाता रहा। उसके चुप हो जाने पर इतना ही कहा ‘बहुत सेन्टी है साला। हर दूसरे दिन इसका यही नाटक है। अच्छा हुआ आज रमाकान्त भैया कमरे पे नहीं आए।’ फिर उसने भूपेन्द्र के पैर सीधे करके उसको फर्श पर सीधा लिटा दिया और दीपांश को पलंग पर लेटने के लिए कहकर ख़ुद बगल के कमरे में सोने चला गया। भूपेन्द्र बड़ी देर तक नींद में कुछ न कुछ बड़बड़ाता रहा।
दीपांश ने कमरे में चारों तरफ़ नज़र घुमाई। वहाँ उस दीवार पर लगे बहते हुए पानी के चित्र के अलावा कुछ भी ऐसा नहीं था जिससे समय के आगे बढ़ने का भान हो। पर उस चित्र में भी उछाह मारती लहरें स्थिर थीं। बहता पानी, दरसल रुक गया था।
दूसरे दिन भी रमाकान्त कमरे पर नहीं आए, पर दीपांश के लिए किसी प्ले की स्क्रिप्ट का एक हिस्सा भेजा और कहलवाया कि वह संवादों को अच्छे से देख ले। एक-दो दिन में एक ऑडिशन होने वाला है। भूपेन्द्र सुबह उठा तो बड़ी देर तक सिर पकड़े बैठा रहा फिर बिना कुछ कहे गली के सामने वाले पार्क में जाकर बैठ गया। दीपांश दिनभर रमाकान्त के भेजे क़ाग़ज़ हाथ में लिए किसी अदृश्य कारा को तोड़ने को व्यग्र क़ैदी-सा इधर-उधर टहलता रहा। चलते हुए कहीं दूर तक चले जाना चाहता था। क्षितिज के छोर तक। पर कमरे में चार डग के बाद पाँचवाँ उठाता तो सामने दीवार आ जाती। यहाँ सब कुछ सीमाओं से बंधा था।
टिक गया दीवार से। लगा पहाड़ की ढलान पे वही पुरानी चर्च की दीवार है।
बिलकुल निर्जीव। बिना किसी स्पंदन की।
फिर वह खोए हुए स्पर्श को रमाकान्त की दी पंक्तियों में टलोलता हुआ उनमें उतर गया।
***