उंची दुकान फिका पकवान. ये कहावत 'लाल कप्तान' पर बराबर फिट बैठती है. निर्देशक के रुप में जब ‘मनोरमा सिक्स फिट अन्डर’ और ‘एनएच टॅन’ जैसी सफल थ्रिलर देनेवाले नवदीप सिंह हो, निर्माता जब बतौर निर्देशक ‘तनु वेड्स मनु’ और ‘रांझणा’ जैसी ब्लोकबस्टर देनेवाले आनंद एल राय हो, प्रोडक्शन कंपनी जब इरोस इन्टरनेशनल जैसी तगडी हो और फिल्म का मुख्य किरदार जब सैफ अली खान जैसे इन्टेन्स एक्टर निभा रहे हो तो उम्मीद तो सौ गुनी होनी ही थी, लेकिन अफसोस… 'लाल कप्तान' बुरी तरह से निराश करती है.
कहानी शुरु होती है आज से कुछ दो सौ साल पहेले 18वीं सदी के भारत में जब देश में अंग्रेज अपनी जडे जमा चुके थे और राजे-रजवाडे आपस में ही लड-मर रहे थे. सन 1789 के बुंदेलखंड में एक रहस्यमय नागा साधु (सैफ अली खान) अपने दुश्मन रहेमत खान (मानव विज) की खौज में लगा पडा है. गोसांई के नाम से जानेजानावाला ये साधु किसी पुराने बदले की आग में जल रहा है. किसी को उसकी असलियत के बारे में नहीं पता. एक दिन गोसांई को रहेमत खान का पता मिलता है और…
बाकी की कहानी बताने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकी जिस चीज में कोई दम ही ना हो उसके पीछे टाइम क्यों वेस्ट करना..? गोसांई के बदले की आग की ये कहानी काफी थकैली है. न तो इसमें कोई रोमांच है और न ही कोई हैरतंगेज ट्विस्ट. फिल्म के आखिरी आधे घंटे में एक-दो सस्पेन्स फूटते है लेकिन तब तक तो दर्शक के इंतेजार की इन्तेहा हो जाती है. ढाई घंटे की ढीलीढाली गतिवाली इस फिल्म को झेलते झेलते दर्शक पस्त हो जाता है.
निर्देशक नवदीप सिंहने (दीपक वेंकटेश के साथ मिलकर) क्या सोचकर ये कहानी लिखी होगी..? सोचा होगा के दर्शक खुश होगा..? शाबाशी देगा..? हाक, थू… और आनंद एल राय की कहानी की समज को भी क्या जंग लग गया है जो ‘जीरो’ जैसे हथौडे के बाद उन्होंने दर्शकों के सर पर ये ‘लाल कप्तान’ नाम का बम फोडा है..? हम सबको पता है की ‘सबका काल तय होता है’ लेकिन फिर भी जीवन-मरण का यह फिलोसोफिकल चक्र समझाने की कोशिश में इतनी बेकार फिल्म बना कर दर्शकों के मथ्थे मार दी गई है. ट्रेलर से काफी रोमांचक लगनेवाली ‘लाल कप्तान’ की गति बहोत ही सुस्त है. फिल्म में कोई थ्रिल नहीं है. एक्शन सीन भी काफी साधारण से है. कहानी में कई चीजें ऐसी है जो बेतुकी लगती है. कई बार कलाकार बचकाना हरकतें करते है. दर्शक तो जैसे उल्लु बनने को तैयार ही बैठे है ना, नवदीप सा’ब..!
अभिनय में सैफ अली खान ने नागा साधु के रोल को अच्छे से निभाया है, लेकिन फिर भी इस किरदार में इतनी गहेराई नहीं है की यादगार बन पाए. उनके हिस्से में आए संवाद कहीं कहीं धारदार है. उनकी बोडी लेंग्वेज भी अच्छी है. उनका गेटअप और मेकअप बढिया है, लेकिन कहेना पडेगा की वो ‘पाइरेट्स ऑफ द कैरेबियन’ के जैक स्पैरो के किरदार से कॉपी किया गया है. विलन के पात्र में मानव विज बस ठीक ही है. उनके पात्र का खौफ उभर के सामने नहीं आया. उनकी पत्नी बनी सिमोन सिंह ने एक्टिंग के नाम पे बस गुस्सा ही किया है. एक सीन में दिखी सोनाक्षी सिंहा अच्छी लगी. जोया हुसैन का अभिनय सराहनीय है. अतरंगी खबरी के रोल में दीपक डोबरियाल का काम उमदा है. आमिर बशीर और सौरभ सचदेव की टेलेन्ट यहां वेस्ट ही हुई है.
फिल्म के टेक्निकल पासें उत्तम है. शंकर रमन की सिनेमेटॉग्राफी अफलातून है. बुंदेलखंड की चट्टानें तथा धूल भरे लोकेशन्स को उन्होंने बडी ही खूबसूरती और बारीकी से कैमेरे में कैद किया है. फिल्म का कॉस्च्युम डिपार्टमेन्ट भी तगडा है. 18वीं सदी के समय के सेट तैयार करने में बहोत ही महेनत की गई है जो बडे पर्दे पर असरदार लगती है. ब्रिटिश संगीतकार (और राधिका आप्टे के पति) बेनेडिक्ट टेलर का बेकग्राउन्ड म्युजिक जबरजस्त है. समीरा कोपीकर के बनाए गाने उस कालखंड के और फिल्म के मूड के अनुरुप है. खास कर ‘काल काल…’ गाना अच्छा बना है.
कुल मिलाकर देखें तो ‘लाल कप्तान’ एक ऐसी फिल्म है जिसे देखकर दर्शक के मन में सवाल होता है की आखिर इस फिल्म को बनाया ही क्यों गया..? टीवी पर फ्री में देखने को मिले तो भी इस फिल्म को पूरी देख पाना आम दर्शक के लिए नामुमकिन होगा. इस ढीलेढाले रिवेंज ड्रामा को मैं दूंगा 5 में से केवल 2 स्टार्स, वो भी इसके मजबूत टेक्निकल पासों की वजह से. मंदी के माहोल में कोई जरूरत नहीं इस ‘लाल कप्तान’ पर पैसे बरबाद करने की क्योंकी फिल्म में एसा कुछ भी नहीं जो दर्शकों को एन्टरटेन करे. लेकिन हां, जिनको अनिंद्रा की बीमारी हो वो इस फिल्म को देखने जरूर जाएं. फिल्म देखते देखते नींद पक्का आ जाएगी. निर्देशक ने गैरंटी दी है.