परिणीता - 1 Sarat Chandra Chattopadhyay द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

परिणीता - 1

परिणीता

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

(1)

विचारों में डूबे हुए गुरूचरण बापु एकांत कमरे में बेठें थे। उनकी छोटी पुत्री ने आकर कहा-‘बाबू! बाबू। माँ ने एक नन्हीं सी बच्ची को जन्म दिया है।’ यह शुभ समाचार गुरूचरण बाबू के हृदय में तीर की भाति समा गया. उसका चेहरा, ऐसे सूख गया मानो कोर्इ बड़ा भारी अनिष्ट हो गया हो! यहा पाँचवीं कन्या थी, जो बिना किसी बाधा के उतपन्न हुर्इ थी।

गुरूचरण बाबू एक साधारण आदमी थे। वह केवल साठ रूपए मासिक वेतन के नौकर थे। उनकी दशा शोचनीय थी, जीवन शुष्क तथा नेत्रो में निराशा की झलक थी। शरीर दुर्लब, मरियल, टट्टू की भांति था। देखने में ऐसा लगता था कि जान होते हुए भी बेजान हो। फिर ऐसी दशा में यह असुभ समाचार सुनते ही उनका खून ही सूख गया और हाथ में हुक्का लिए हुए निर्जीव की भांति, फटे-पुराने तकिए के सहारे लेटे रहे। जान पडंता है कि सांस लेने में भी उन्हें कष्ट हो रहा था।

अन्नाकाली से यह शुभ समाचार सुनकर भी गुरुचरण बाबू कुछ नहीं बोले, तो थोडी देर बाद वह उन्हें हिलाकर फिर कहने लगी-‘बाबूजी, मून्नी को देखने न चलोगे?

गुरूचरण बाबू ने उसकी ओर देखकर धीमे स्वर में कहा-‘बेटी, कंठ सूख रहा है-जा, पहले एक गिलास जल तो ला।’

अन्नाकाली जल लाने चली गर्इ। उसी समय उन्हें सौर के खर्चो का स्मरण हुआ। गुरुचरण बाबू के मस्तिष्क में भांति-भांति की बुरी चिंताएं बिना बुलाए ही आ-आकर अपना स्था जमाने लगीं, जैसे किसी गाडी के प्लेटफार्म पर पहुंचते ही थर्ड क्लास के यात्री, एक के ऊपर एक चढकर अपना स्थान जमाने की कोशिश करते हैं। गुरुचरण बाबू का मस्तिष्क अब और भी चक्करदार झूले की भांति झूलने लगा।

दुर्गा-पूजा के दिन आ गए हैं, इसका स्मरण उन्हें था। फिर अभी पिछल ही साल अपनी दूसरी पुत्री के विवाह में, अपने बऊ-वाजार वाले पैतृक दुमंजिले मकान को रेहन रखा था, उसका भी लगभग छः माह का ब्याज देना बाकी है। दुर्गा-पूजा के पुनीत पर्व के अवसर पर मझली बिटिया के यहाँ फल, मिठार्इ, कपडे आदि भेजन है। कल दफ्तर का हिसाब आठ बजे रात तक मिलाते रहने पर भी न मिला, और आज दोपहर के पहले ही हिसाब मिलाकर विलायत भेजना है। यह तो है ही, फिर बडे साहब ने गंदे कपडे पहनकर न आने के लिए आर्डर पास कर दिया है। इस आझोल्लंधन से जुर्माना होगा और माहवारी वेतन में कटौती होगी, लेकिन मुसीबत तो यह है कि एक सप्ताह से तलाश करने पर भी, कोर्इ अच्छे कपडें धोने वाला सस्ता धोबी न मिला। इन सभी दुर्दिन की चिंताओ से ग्रस्त गुरूचरण बाबू हुक्का गुडगुडांते हुए अपना हाथ ऊपर करके तकिए के सहारे पड़ गए, भगवान को स्मरण करके कहने लगे- ‘हे भगवान! कलकत्ते में कितने ही आदमी गाड़ी, धोड़े और मोटरों के नीचे दबकर मौत के शिकार होते हैं, क्या वे तुम्हारी दृष्टि में हमसे भी अधिक पापी हैं? हे दयानिधि! हे पतितपावन! यदि कोर्इ र्लारी मेरे ऊपर से चढ़कर निकल जाती, तो मैं अपने को भाग्यवान समझाता! हे भगवान! मुझे यही वरदान दो!’

इसी समय अन्नाकाली पानी लेकर आर्इ और कहा- ‘पिताजी, लो उठकर पानी पी लो।’

बड़े कष्ट के साथ गुरुचरण बाबू ने पानी पीकर कहा- ‘बेटी जाओ, गिलास ले जाओ!’

गुरुचरण बाबू उसके चले जाने पर फिर लेट गए और पहले के समान विचार-सागर में चक्कर काटने लगे।

ललिता बैठने के कमरे में आकर कहने लगी- ‘मामा! चाय लार्इ हूँ, उठिए!’

गुरुचरण बाबू चाय का नाम सुनते ही फिर एक बार उठे। ललिता की ओर, निश्चिंत भाव से एक लंबी सांस छोड़ी और मानो उनका आधा दुःख खत्म हो गया। उन्होंने कहा ‘आ बेटी, आकर थोड़ी देर मेरे पास बैठ! तूने सारी रात जागते ही बितार्इ है।’

ललिता मृदु मुस्कान के साथ मामा के पास बैठ गर्इ। उनके हृदय में मामा के प्रति बड़ी सहानुभूति थी। वह बोली- ‘मुझे रात में अधिक समय नहीं जागना पड़ा।’ ललिता ही अपने मामा की शारीरिक तथा मानसिक व्यथाओं को पूर्णरूप से समझती थी, परंतु वह भगवान से प्रार्थना करने के अतिरिक्त कर ही क्या सकती थी!

ललिता चुप थी और सब कुछ सुन रही थी।

गुरुचरण बाबू फिर कहने लगे- ‘ललिता, तुझे इस बेचारे दीन मामा के घर दिन-रात कठिन परिकश्रम करना पड़ता है।’

सिर हिलाकर ललिता ने कहा- ‘दिन-रात क्यों कठिन परिश्रम करना होता है, मामा? सब लोगों की भांति मैं भी करती हूँ।’

गुरुचरण बाबू चाय पीते-पीते इस बार कुछ मुस्कुराकर बोले- ‘ललिता, फिर आज खाने-पीने का क्या प्रबंध है?’

ललिता ने मामा की ओर देखकर कहा- ‘आज खाना मैं बनाऊंगी मामा!’

आश्चर्य के साथ गुरूचरण बाबू ने कहा- ‘तू क्या बनाएगी? तुझको क्या खाना बनाना आता है, बेटी?’

‘जानती हूँ! मुझे मामी ने सिखा दिया है।’

गुरुचरण बाबू चाय का प्याला जमीन पर रखते हुए बोले- ‘सच?’

‘हाँ मामा! बिल्कुल सच। कितनी बार मामी के सामने मैंने खाना बनाया है।’

यह सुनकर गुरुचरण बाबू ने ललिता के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया। आज उन्हें एक कार्य से मुक्ति मिली।

गुरुचरण बाबू का मकान रास्ते के एक किनारे ही था। सड़क पर जाने वाले साफ दिखार्इ पड़ते थे। चाय पीते हुए वे बाहर सड़क की ओर देखकर बोले- ‘शेखर, तुम हो क्या भार्इ? सुनो! यहाँ आओ।’

एक बड़े डील-डौल वाला युवक कमरे के भीतर आया। गुरुचरण बाबू शेखरनाथ को बैठाकर कहने लगे- ‘तुम आज सवेरे अपनी चाची का समाचार सुन ही चुके होंगे?’

मुस्कुराते हुए शेखर ने कहा- ‘पुत्री पैदा हुर्इ है, यही न? या और कुछ?’

लंबा निःश्वास छोड़ते हुए गुरुचरण बाबू ने कहा- ‘हां, तुमने तो कह दिया-यही न? परन्तु जो कुछ मुझ पर बीत रही है, उसे मैं ही जान सकता हूँ।’

शेखर ने उत्तर दिया- ‘ऐसी बात मुंह से न निकालिए, चाचाजी! नहीं तो चाचीजी सुनेंगी, तो उन्हें दुःख होगा। फिर भगवान के दिए हुए को ग्रहण करके संतोष करना चाहिए।’

तनिक देर तक चुप रहने के पश्चात् गुरुचरण बाबू ने कहा- ‘यह बात तो मैं ठीक समझता हूँ कि भगवान के दिए हुए को ग्रहण करके संतोष करना चाहिए। फिर भी भार्इ, भगवान भी तो भले-बुरे पर विचार नहीं करते! उन्हें यह मालूम है कि मैं बिल्कुल ही गरीब आदमी हूँ! फिर इस प्रकार की कृपा भगवान मुझ गरीब पर क्यों कर रहे हैं? इतनी कन्यांओ की भरमार क्यों कर रहे हैं? यह घर भी तुम्हारे पिता के पास रेहन रखा है। घर के रेहन जाने का मुझे तनिक भी सोच नही है, किंतु सोच तो इसका है कि एक बोझ सिर से उतरता नहीं, और दूसरा फिर आ जाता है। देखो न शेखर, यह स्वर्ण-सी सुंदर गुणवती ललिता भी किसी-न-किसी राजघराने की शोभा बढ़ाने के योग्य है-यह अमूल्य रत्न किसी गरीब के घर में शोभित न होगा। स्वंय तुम्हीं सोचो, अपने जीते-जी किसी ऐसे-वैसे घर में कैसे भेज दूं! इसकी सुंदरता के सामने शहंशाहो के छत्रों की मणियां भी फीकी हैं। यह एक अनमोल रत्न के समान है। परन्तु दुःख है कि इस अनमोल हीरे का पारखी यहाँ कौन है? आज के युग में लोग धन-दौलत के ही चक्कर में अधिक रहते हैं। इसी कारण दरिद्रता के वश होकर, किसी-न-किसी गंवार के हाथ में इसे दे देना पड़ेगा। बेटा, जरा तुम्हीं विचारो कि ऐसी अवस्था में मेरी मानसिक दशा कैसी होगी? कैसी कड़ी ठेस मेरे हृदय में लगेगी? ललिता अब तेरह वर्ष की हो गर्इ है, परंतु मेरे पास कानी कौड़ी भी नहीं है कि उसके ब्याह की कहीं चर्चा करें।’

यह कहते-कहते गुरुचरण बाबू की आँखों में आँसू भर आए। शेखर भी चुपचाप सभी बातें सुन रहा था। गुरुचरण बाबू ने थोड़ी देर बाद फिर कहना शूरु किया- ‘भैया शेखर, तुम्हीं इसका कोर्इ उपाय सोचो! तुम्हारे बहुत से साथी नौजवान होंगे। शायद कोर्इ तुम्हारी बात मानकर ललिता को ग्रहण करने के लिए तैयार हो जाए और श्रद्धा के साथ इस कन्या का उद्धार हो जाए! मैंने यह सुना है कि आजकल के गरीब नौजवान पैसे की बात नहीं उठाते। वह केवल यह चाहते हैं कि स्त्री सुशील, सुन्दर और गुणवती हो। इस कारण संभव है कि परमात्मा की अनुकम्पा और तुम्हारे प्रयास से कोर्इ तैयार हो जाए औऱ मेरी तकलीफ दूर हो जाए! में हृदय से तुमको आशीर्वाद देता हूँ-भैया, तुम सुखी हो और राजभोगी होओ! इससे अधिक और कौन-सा वरदान दे सकता हूँ! केवल तुम सबके सहारे ही मैं यहाँ पड़ा हूँ। तुम्हारे पिता भी मुझे अपने छोटे भार्इ के सदृश मानते हैं और अच्छा व्यवहार करते है।

शेखर ने सिर झुकाकर कहा- ‘अच्छा, मैं इसके लिए कठिन परिश्रम करूंगा तथा कोर्इ कमी न रखूंगा!’

गुरुचरण बाबू ने फिर कहा- ‘भूल न जाना, भैया! ललिता के बारे में तुम्हें सब पता है, आठ वर्ष की उम्र से तुम्हीं ने इसको पढ़ना-लिखना सिखाया है। इसकी बुद्धिमानी, सुशीलता तथा शिष्टता तुमसे छिपी नहीं है। तुमसे अधिक किसी को ज्ञात नहीं है। यह छोटी-सी लड़की आज ही से गृहस्थी का पूरा कार्य संभालेगी, इसी पर सारा बोझ आ पड़ा है।’

ललिता चुपचाप बैठी है, पर इस बार उसने सिर उठाकर शेखर की ओर दृष्टि फेंकी, और उसकी निगाह पढ़ते ही ओठों में कुछ मुस्करार्इ और सिर नीचे कर लिया।

गुरुचरण बाबू ने फिर गहरी सांस लेकर कहना आरंभ किया- ‘ललिता के पिता ने कोर्इ कम पैसा पैदा नहीं किया, लेकिन अपनी दानशीलता के कारण सब दान कर गए, और अपनी इकलौती पुत्री के लिए एक कौड़ी भी न बचार्इ।’

इस बार भी शेखर मौन था।

आप-ही-आप गुरुचरण बाबू फिर कहने लगे- ‘लेकिन यह भी कैसे कहूँ कि कुछ भी नहीं छोड़ गए! उन्होंने जिन दुःखियों का दुःख दूर किया है, उसका फल मेरी इस बच्ची को अवश्य मिला है! उसी कारण से मेरी यह छोटी-सी बच्ची अन्नपूर्णा है। अन्यथा कैसे वह इतनी गुणवती होती-तुम स्वयं ही विचार करो, शेखर!’

शेखर चुपचाप मुस्कराता रहा।

कुछ देर बाद शेखर ज्यों ही जाने को तैयार हुआ, तो गुरुचरण बाबू फिर एक बार याद दिलाकर कहने लगे- ‘जो कुछ मैंने कहा है भैया, उसका ख्याल अवश्य रखना! देखने में उसका रंग अवश्य सांवला है, परंतु इसकी एसी सुंदरता, मधुरता, ममता, दया और योग्यता संसार में ढूंढ़ने पर भी मिलना कठिन है।’

सिर हिलाता हुआ शेखर बाहर निकल गया। उसकी उम्र लगभग पच्चीस या छब्बीस वर्ष होगी। एम.ए. कर चुकने के बाद वह कुछ दिन कानून पढ़ता रहा, फिर पिछले वर्ष इम्तिहान पास करके एटर्नी हो गया। इसके पिता गुड़ के व्यापारी हैं। वे इसी व्यापार से लखपति बन गये हैं और अब घर बैठे ही व्यापार करते हैं। उनके बड़े लड़के का नाम अविनाश है, जो वकालत् करते हैं। छोटे पुत्र का नाम शेखर है। राय महोदय का आलीशान तिमंजिला मकान, सभी मकानों से ऊंचा है। यह गुरुचरण बाबू के मकान से सटा था। उस मकान की लंबी-चौड़ी छत, गुरुचरण बाबू के मकान की छत से मिली हुर्इ थी। इसी कारण दोनों में घनिष्ठता थी और पारस्परिक प्रेम भी अधिक था। दोनों घरों की स्त्रियों के एक –दूसरे के घर आने-जाने का वही एकमात्र रास्ता था।

***