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वैश्या वृतांत - 17

कुंवारी कन्याओं का कुवांरा पर्व-साँझी--

यशवन्त कोठारी


राजस्थान, गुजरात, ब्रजप्रदेश, मालवा तथा अन्य कई क्षेत्रों में सांझे का त्यौहार कुंवारी कन्याएं अत्यन्त उत्साह और हर्ष से मनाती हैं। श्राद्धों के प्रारम्भ के साथ ही याने आश्विन मास के कृष्ण पक्ष से ही इन प्रदेशों की कुंवारी कन्यांए सांझा बनाता शुरू करती हैं जो सम्पूर्ण पितृपक्ष में चलता है।
घर के बाहर, दरवाजे पर दीवारों पर कुंवारी गाय का गोबर लेकर लड़कियां विभिन्न आकृतियां बनाती है। उन्हें फूल पत्तों, मालीपन्ना सिन्दूर आदि से सजाती है और संध्या समय उनका पूजन करती है।
संजा के समय निम्न गीत गाया जाता हैं।
संझा का पीर सांगानेर,
परण पधारया गढ़ अजमेर
राणाजी की चाकरी कल्याणजी को देश
छोड़ो म्हारी चाकरी, पधारो थारां देश।
संजा की पूजा पूरे सौलह दिनों तक की जाती है और सौलह का अंक कन्या के पूर्णत्वका ध्योतक है। पूर्णिमा को प्रारम्भ हुआ व्रत अमावस्या को पूरा होता है। अर्थात पूर्णिमा को कन्या की प्राप्ति और अमावस्या को विदा...।
संझा की आकृति का कोई तय नाम नहीं हैं। नाथद्वारा व आस-पास पहले सजा 1-2 मीटर तक की भी बनाई जाती थी। लेकिन अब यह आकार छोटा हो गया हैं। संझा अंगुलियों और अंगूठे की मदद से सुन्दर चित्ताकर्षक गोबर की बनाई जाती है। इसमें मुख्य रूप से फूल, पत्तियां, गुलाब कनेर आदि की पत्तियां चिपकाई जाती है। संजा की आकृति पर आंखे, दही, कुकुम, कौडियां, कांच के टुकडे, मोरपंख, कागज के हाथी, घोड़े मोर आदि चिपका कर एक कोलाज सा बना दिया जाता है।
भाद्रपक्ष की पूर्णिमा का पाटला मांडकर संजा की शुरूआत की जाती है। क्वारा मास के प्रारंभ के याने एकम को केल, दुज को बिजोला, तीज को तराजू, चौथ को चौपड़ पांचम को पांच कुआरे, छठ को छाबड़ी, सातम को स्वास्तिक, आठम को आख पंखुडियों का फूल, नवमी को डोकरा डोकरी (वृद्ध दम्पति) दशमी को पंखा और ग्यारस को किलाकोट। यह किलाकोट अमावस्या तक नित नये ढंग से नई साजसज्जा से बनाया जाता है। राजस्थान में कई स्थानों पर ढाल तलवार, मिर्च भिण्डी रामजारा आदि भी बनाये जाता हैं।
इस कोट की साज-सज्जा देखते ही बनती है। मोहल्ले में किस लड़की कर कोट सबसे सुन्दर बना है। इसकी चर्चा कई महिनों तक लगातार होती हैं।
सज्जा हेतु बैलगाड़ी, चांद, सूरज, चिड़िया मोर कंगन दरवाजे, कंघा, आभूषण, लडडू, पेडे, जलेबी आदि बनाये जाते हैं। कुवारी कन्याएं इस कार्य हेतु दोपहर से ही तैयारी शुरू कर देती है। क्योंकि संजा से उसके सुहाग की मंगल कामना जुड़ी हुई है। कुंवारा मन वैसे ही अगड़ाईया लेता है। और ऐसे में यह मन भावन-त्यौहार।
सामान्यतया संजा घर के मुख्य द्वार के दायी और साफ पुताई करके गोबर से बनाई जाती हैं। वास्तव में संजा कुवारी कन्याओं के मन को वाणी देती हैं। उनके भविष्य की मंगल कामनाओं का आकार देती है। इस लोक संस्कृति का आधार बहुत गहरा है।
संजा की आरती में मालवा में यह गीत प्रचलित हैं।
पहली जी आरती
रई रमझौर रई रमझौर
दूसरी जी आरती
फूल गणगौर, फूल गणगोर
स्ंाझा ऐ कै सेलीऐ
मैं थने पूजूं सौ सौ कलियां
राजस्थान में आरती निम्न प्रकार गाई जाती है।
आरती मारी संजा री आरती
रोलो ही रोलो भाभी भरो है कचौलो
बीले दास जी रा ऊंचा पाया
सुनार गढ दै मारी माला
माला में है हीरो
मारो हीरो नागर वीरा।
आरती के बाद सखी- -साथिने, प्रसाद बाटती हैं। जिसमें बून्दी, लड्डू, किशमिश, कसार, नारियल आदि होता है।
संजा के साथ साथ कई क्षेत्रों में गीत गाये जाते है। ऐसे ही एक गीत में कन्या के ससुराल जानेकी मनोरम और सुन्दर कल्पना की गयी है।
तुम तो जाओं संजा बेण सासरे
हाथी भी आया घोड़ा भी आया
पालकी भी आयी म्याना भी आया
तुम तो जाओ संजा बेण सासरे
तब कन्या कहती है,
हाथी सामांन उमाड़ी
घोड़ा घुडसाल बधाड़ी
पालकी छज्जा उतारों
म्याना घाबा
घराडों
हऊं तो नहीं जाऊं दादाजी सासरे।
लेकिन कुछ है चढ़ते क्वार के इस कुंवारे चित्र त्योंहार के साथ ही कन्या को सुसुराल जाने की तैयारी करनी पड़ती है।
सांझी के अध्ययन से पता चलता है कि कन्याएं ऐसी ही वस्तुएं बनाती है जो उनके दैनिक जीवन में बहुत काम आती है। तथा जो उनकी भांवि कल्पनाओं के अनुरूप होती है।
सांझी के व्रत पर गाये जाने वाले एक अन्य गीत में संझा गाडी में बैठकर ससुराल जा रही हैं।
छोटी सी गाड़ी लुढकती जाये
जीमें बैठी संजा बाई
घाघरो छमकाती जाये
चूडलो चमकाती जाये
बाईजी की नाथनी झौला खाये
बता बाई थारो पीयर कहां।
प्रति वर्ष शादी की पूर्व कन्या इस प्रकार संझा बनाकर मानो ससुराल जाने का पूर्वाभ्यास करती है।

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यशवन्त कोठारी
86, लक्ष्मीनगर, ब्रह्मपुरी बाहर
जयपुर - 302002

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