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वैश्या वृतांत - 16

हिरोइन पर लिखने के फायदे

यशवन्त कोठारी

वे वर्षों से साहित्य के जंगल में अरण्यरोदन कर रहे थे, किसी ने घास नहीं डाली। यदा-कदा किसी लघु पत्रिका में उनकी कोई कहानी-कविता छप जाती, जिसे कोई नहीं पढता । वे पाठकों की तलाश में काफी समय तक मारे-मारे फिरते रहे । कुछ समझ नहीं पा रहे थे कि पाठक क्या पढ़ते हैं या पाठक उन्हें क्यों नहीं पढ़ते । आखिर पाठक चाहता क्या है ? वे अक्सर पूछते ।

जब सब तरफ से फ्री हो जाते तो वे अक्सर मेरे पास आ बैठते और कहते-

‘यार आजकल पाठकों को क्या हो गया है । कोई कुछ पढ़ता ही नहीं है । मेरी श्रेष्ठतम कहानी छप कर चर्चित नहीं हो पाती क्या करूं ?

मैं उन्हें समझाने की कोशिश करता ।

-भाई जान आजकल सर्वत्र साहित्य में सन्नाटा है और सन्नाटे में पाठकों की तलाश करना बेमानी है, और वैसे भी टीवी व् सोशल मीडिया -संस्कृति ने साहित्य को गंभीर पाठकों से भी दूर कर दिया है ।

-तो मैं क्या करूं ?

वे इस वाक्य के बाद शून्य में ताकते । बीड़ी सुलगाते । चाय का दूसरा कप पीते और चले जाते । मगर आज वे कुछ ज्यादा ही उदास थे। मैं समझ गया, आज फिर उन्हें पाठकों की तलाश का दौरा पड़ा है । ऐसा दौरा पड़ने पर उनके चेहरे पर एक विशेष प्रकार के कुंठित भाव आ जाते और मैं उन्हें नोट करके सब समझ जाता । मैं बोल पड़ा-

-आप फिल्मों पर लिखने लग जाओ । पाठक भी मिलेंगे और साहित्य का भी भला हो जायेगा । वे तुनक पडे़, बड़े नाराज हुए और कहने लगे ।

तुम समझते क्या हो ? मैं साहित्यकार हूं । साहित्यकार । मुझे साहित्य का उद्धार करना है और तुम मुझसे फिल्मों पर लिखने को कह रहे हो ? तुम्हें शरम आनी चाहिए।

लेकिन मुझे शरम नहीं आई । मैंने फिर कहा नाराज मत होइये साहित्यकारजी । आजकल साहित्य-वाहित्य कौन पढ़ता है । हिरोइन की कूल्हे की हड्डी पर शास्त्र सम्मत लेखन कीजिये । तुरन्त छपेगा । रंगीन चित्रों के साथ । पैसा और पाठक दोनों मिलेंगे । आपके जीवन की अधूरी आस पूरी होगी ।

अब बात उनके कुछ कुछ समझ में आने लगी । बोले-

कहते तो तुम ठीक हो । पर..... ।

मैं समझ गया लोहा गरम है, बस एक चोट मात्र से सब ठीक हो जायेगा । मैंने एक अंतिम प्रहार किया ।

अब देखो वे पच्चीस वर्षों से कलम घसीटूमलजी केवल फिल्मों पर लिख रहे हैं । खूब छप रहे हैं और साहित्य शब्द को ही भूल गये हैं ।

-वो तो ठीक है मगर -

मैंने कहा- अगर-मगर कुछ नहीं बस आप तो कलम उठाओं और फिल्मी लेखन में लग जाओ । वैसे भी सभी बड़े साहित्यकारों ने फिल्मों में लिखा है ।

वे अब सन्तुष्ट होने लगे थे । मैंने फिर कुरेदा-फिल्मों पर लिखना घटिया नहीं है। चिकने ग्लासी रंगीन पत्र पर छपने का मजा ही कुछ और है यार । बस शुरू हो जाओ।

वे इस बार स्वीकृति में सिर हिलाने लगे । कुछ दिनों बाद मैंने देखा कि उनके फिल्मों पर लेख रंगीन पृष्ठों पर छपने लग गये थे । वे गंभीर कहानियों, कविताओं और लघु पत्रिकाओं के जंगल में से निकल कर रंगीन पत्रों की रोशनी में रमने लगे थे।

पेड़, चिड़िया और नाचती लड़की के बजाय अब वे हिरोइन के सामाजिक सरोकार, हीरो का सांस्कृतिक परिदृश्य तथा फिल्मों के संगीत, नृत्य, संवाद आदि पर लिखने लग गये थे । एक दिन मिले बोले-

यार तुमने सही राय दी, क्या रखा है साहित्य-वाहित्य में ,हीरोइनों पर लिखो फायदे ही फायदे हैं । पाठक भी मिलते हैं और पैसा भी । तो वे आजकल फायदे का लेखन कर रहे हैं । वैसे मैं जानता हूं उनकी साहित्यिक आत्मा राजनीति की मौत मर चुकी है। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे । आमीन ।

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यशवन्त कोठारी

86, लक्ष्मीनगर ब्रह्मपुरी बाहर

जयपुर 302002

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