आसपास से गुजरते हुए
(28)
नदी मिल रही है सागर से
मुझे लगा था कि अप्पा अब मेरी शादी की बात नहीं उठाएंगे। पर दो दिन बाद बहरीन से त्रिवेन्द्रम आया, नगेन्द्रन अपनी बड़ी बहन के साथ मुझे देखने चला अया। बड़ी बहन मेरे रूप-रंग को लेकर काफी प्रसन्न थीं। दो-तीन बार उन्होंने कहा कि मलयाली परिवारों में ये रंग कम देखने को मिलता है। वे दोनों भाई-बहन खासे काले थे। अप्पा खुद लड़के में खास रुचि नहीं ले रहे थे। उनके जाने के बाद अमम्मा ने आक्रोश से कहा, ‘गोपालन, तुम लड़के में इतना मीन-मेख निकालोगे, तो कैसे चलेगा? क्या बुराई है लड़के में? रंग काला है तो क्या हुआ? वो गोरे परिवार को तो तुम्हारी लड़की नहीं पसंद आई ना...’
मैं चुपचाप उठकर घर के बाहर आ गई। इन दिनों मैं तनाव से बचने के लिए लम्बे वॉक पर निकल जाती थी। इस बार रास्ते-भर चिंतन-मनन करने के लए गंभीर विषय था-अनु, तुम्हारा क्या होगा?
क्या तुम इस तरह से जिंदगी बिताना चाहती थीं? अगर नहीं, तो यहां कर क्या रही हो?
मैं चलते-चलते रुक गई।
फिर क्या करूं? डर लगता है कोई भी नया कदम उठाते हुए।
शादी करना चाहती हो?
शायद हां, शायद नहीं, पर इस तरह से तो कतई नहीं।
फिर किस तरह से?
पता नहीं!
तुम खुदकुशी क्यों नहीं कर लेती? वैसे भी तुम्हारी लाइफ स्टाइल को देखते हुए यह सही लगता है। तुम्हारी स्थिति से गुजरने के बाद कुछ लड़कियां यह कदम भी उठाती हैं।
मैं आम लड़की नहीं हूं।
खास भी नहीं हो।
पुलिया पर बैठकर मैं हांफने लगी। अपने बारे में कितनी भ्रांतियां हम रोज पालते हैं, रोज टूटती भी हैं भ्रांतियां।
क्या करोगी? फिर भटकोगी? मुंबई, पुणे, चेन्नई, दिल्ली वगैर-वगैरह?
क्या हर्ज है भटकने में? यह भी तो जीने का एक तरीका है।
मैं घर लौटी तो अप्पा बरामदे में खड़े थे। कुछ नहीं कहा। हम दोनों साथ खाने बैठे। अप्पा ने शांति से खाना खत्म किया, उठते-उठते उन्होंने कहा, ‘मोले, तुमसे कुछ कहना है। मैंने सोचकर देखा...तुम्हें जो कहना हो करो। मैं तुम्हें शादी के लिए नहीं कहूंगा।’
मैंने आश्चर्य से उनका चेहरा देखा। अप्पा मरी पीठ थपथपाकर अपने कमरे में चल गए।
अगले दिन सुबह-सुबह आंख खुल गई। फोन की तीखी घंटी लगातार बज रही थी। मैं उठकर बाहर के कमरे में पहुंची, जहां फोन रखा था। मैंने फोन उठाया और रूखे स्वर में हैलो कहा। मुझे क्या मतलब? मेरे लिए तो यहां कोई फोन नहीं आते।
‘अनु?’
‘हूं?’ मेरे लिए फोन? मैं आवाज नहीं पहचान पाई।
‘अनु? तुम ही हो ना? मैं आदित्य।’
‘कैसी हो? ना फोन, ना कोई खबर? कितने ई-मेल किए तुम्हें। किसी का जवाब ही नहीं देतीं तुम?’
मैंने धीरे-से कहा, ‘यहां घर में कंप्यूटर नहीं है, मेरे पास...साइबर कैफे जाने का मन नहीं होता।’
‘तुम कैसी हो?’
‘पता नहीं आदित्य, शायद अच्छी हूं। हां, ठीक ही हूं।’
आदित्य धीरे-से बोले, ‘मुझे पता नहीं था अनु कि तुम्हारा...पिछले हफ्ते तुम्हारे अप्पा पुणे आए थे, तब पता चला!’
‘अप्पा पुणे आए थे? मुझे तो पता ही नहीं।’
‘बिजनस के काम से आए थे।...तुमने मुझे बताया क्यों नहीं?’
मैं चुप रही। कितनी बार चाहा आदित्य, कि बता दूं, पर मन नहीं हुआ। किस हक से बताती?
‘चुप क्यों हो? अप्पा ने बताया कि तुम कुछ नहीं कर रही। आई मीन, अपने-आप में गुम रहती हो। ऐसा क्यों अनु? तुम तो बोल्ड हो, नए सिरे से जिंदगी शुरू क्यों नहीं करतीं?’
‘अब कुछ करने का मन नहीं होता।’ मैंने स्पष्ट कह दिया।
‘ऐसा नहीं कहते।’
‘सच आदित्य, पहले जैसा कुछ भी नहीं रहा।’
‘अच्छा, पहले जैसा जब लगने लगे, तो याद रखना। मैंने अभी तक कंप्यूटर सेंटर में किसी को नहीं रखा।’
‘अच्छा।’
आदित्य कुछ क्षण रुके, फिर बॉय कहकर फोन रख दिया।
मुझे लगा, कितना कुछ कह सकती थी मैं आदित्य से, पर कहने का मन नहीं हुआ।
फोन रखने के बाद मैं फिर से सो नहीं पाई। बाहर निकल आई। अमम्मा खुले आंगन में नीचे बैठकर कच्चा नारियल कस रही थीं। मैंने अलसाई आंखों से कच्ची सड़क पर जाते भैंस के झुंड को देखा। रात काफी बारिश हुई थ्ज्ञी। सब कुछ धुला-पुंछा लग रहा था।
मैं कुछ देर यूं ही दालान में बैठी रही। घर में काम करनेवाली बाई शिवमणि फुर्ती से कुएं से पानी भरकर पेड़-पौधों में डाल रही थी। यूं अमम्मा ने अपने चार कमरे के घर में फ्रिज, टीवी, गैस, वॉशिंग मशीन से लेकर माइक्रोवेव तक रखा था, लेकिन घर की नौकरानी अभी भी पुराने पारम्परिक ढंग से काम करती थी।
शिवमणि मुझे देखकर मुस्कुराई और मलयालम में बोली, ‘एन्न परियन्ना चेची? आज इतनी जल्दी कैसे उठ गई?’
अमम्मा ने मेरी ओर नजर उठाए बिना उससे कहा, ‘अनु चेची कब सोती है, कब उठती है, किसी को नहीं पता। ये आम लड़कियों की तरह थोड़ी ही है। इसका जीने का ढंग हम-तुम से अलग है।’
मैंने चौककर अमम्मा की तरफ देखा। वे निर्बाध कहे जा रही थीं, ‘तुम कितने साल की थी जब तुम्हारी शादी हुई थी? सत्रह की थी ना तुम? अनु सत्ताईस साल की हो गई है। पर इसे शादी नहीं करनी। जो औरतें शादी करती हैं, मूर्ख होती हैं।’
बस, मैंने सोचा, अब यहां से दाना-पानी उठ गया है। मैं यहां की नहीं हूं, इन लोगों की तरह नहीं सोच पाती। मेरी अपनी सीमाएं हैं, मेरी अपनी शंकाएं हैं। अब मुझे अपनी गलतियों का भार उठाकर खुद जीना सीखना होगा।
मैं जब घर से निकली, तब जोरों की बारिश हो रही थी। मुझे लग रहा था कि मुझे कुछ देर रुक जाना चाहिए। मन नहीं माना। रुकने की कोई वजह नहीं है। अब तो अप्पा भी वो वजह नहीं हैं, जो मुझे यहां बांधकर रख सकें।
मैं जाते समय अप्पा से मिलकर जाना चाहती थी। मैंने जब उनसे कहा कि मैं यहां से जाना चाहती हूं, अप्पा ने अप्रत्याशित तौर पर ठंडी आवाज में पूछा, ‘कहां जाओगी?’
‘पता नहीं अप्पा। शायद पुणे जाऊं! पता नहीं, शायद नहीं भी जाऊं...’ मैं धीरे-से मुस्कुराई, ‘इतना तो यकीन है कि कोई ना कोई काम मिल ही जाएगा।’
‘तुम सुरेश के पास कलकत्ता चली जाओ।’ अप्पा ने सलाह दी।
‘देख लूंगी।...’
अप्पा कुछ रुककर बोले, ‘अनु, मोले, तुम अपनी पसंद से ही सही, किसी अच्छे आदमी से शादी कर लो। मुझे फिर तुम्हारी चिंता नहीं रहेगी।’ अप्पा के अंदर का अभिभावक बोल रहा था।
‘अप्पा, मैं शादी कर लूंगी। आप भी कर लीजिए।’
अप्पा की आंखों में एक हल्की-सी चमक आई, ‘मैं साठ साल का बूढ़ा हूं।’
‘हम सभी जवान और बूढ़े होते हैं अप्पा। आप बहुत अकेले पड़ गए हैं।’
‘सोचूंगा...’
‘अप्पा, कहानी आपकी शादी से ही शुरू हुई थी। उसी से खत्म होने दीजिए।’
अप्पा ना जाने क्या सोचने लगे।
मैं रुकी नहीं। अप्पा ने भी कुछ नहीं कहा।
मैं बरसती बरसात में टैक्सी लेकर स्टेशन आई। स्टेशन पर पता किया। पुणे के लिए ट्रेन साढ़े सात घंटे बाद थी। मैंने पूछा, ‘अगली ट्रेन कब आएगी?’
जवाब मिला, ‘दस मिनट में। कन्याकुमारी एक्सप्रेस।’
मैंने टिकट ले लिया।
मैं जिंदगी में पहली बार कन्याकुमारी आई थी। बड़ा अजीब लग रहा था-होटल में अकेले रुकना, अकेले घूमना-फिरना। मैं यहां क्यों आ गई, मुझे नहीं पता। तीसरे दिन भी हर शाम की तरह सूर्यास्त के समय मैं विवेकानंद रॉक में शून्य की स्थिति में बैठी थी। तीन दिनों से लगातार मैं सोचे जा रही थी कि मुझे क्या करना चाहिए। उस दिन मूड बहुत खराब था। लग रहा था, इस दुनिया में किसी को मेरी जरूरत नहीं, मेरा कोई नहीं। मैं बीच में बहुत दूर तक घूमने निकल गई। तीन घंटे में बिना रुके चलती रही। अब मैं बिल्कुल अकेली थी। ना कोई सैलानी, ना राहगीर।
वापस चलने लगी, तो अचानक मुझे लगा कि मेरे पीछे कोई आ रहा है। मैं चौंककर पीछे पलटी। कोई नहीं था। मैं तेज कदमों से लगभग भागती हुई विवेकानंद रॉक तक आई। ठीक मेरे सामने एक पूरा परिवार सागर में पैर भिगोता हंसी-ठिठोली कर रहा था। मैं अपलक खड़ी उनको देखती रही। कितना अच्छा लग रहा था एक भरे-पूरे परिवार को देखना। सुरेश भैया शर्ली से चाहे जितना भी झगड़ लें, अंत में रहते तो साथ ही हैं। दीदी को बच्चों का इतना शौक है, तो मुकुंदन बच्चा गोद लेने को राजी हो गए। मैं हर पति-पत्नी में आई और अप्पा को क्यों देखती हूं?
मैं विवेकानंद रॉक पर जाकर बैठ गई। इतनी खामोशी थी वहां कि अपनी सांस से भी बात की जा सकती थी। मैंने आंखें बंद कर लीं। मेरे लिए क्या सही है?
सागर की लहरें दूधिया फेन बिखेरती मेरे आस-पास की खामोशी भंग करने लगीं। सूरज डूब रहा था। मेरे मन में आकांक्षाएं उग रही थीं। मैं अचानक खड़ी हो गई। सब कुछ साफ-साफ नजर आने लगा। अमरीश, प्रभु, शेखर...आदित्य। बस, अनु, रुक जाओ, इससे आगे जाने की जरूरत नहीं। आई ने कहा था, ‘पोरी, जो आदमी तेरी इज्जत करे, उसके साथ जिंदगी बिता। आदमी तो तुझे कई मिलेंगे, पर कोई एक होगा जो तुम जैसी हो, वैसी स्वीकार करेगा। तब यह मत देखना कि उसके पास पैसा, रूप और नौकरी है या नहीं। वह सब तो तुम्हारे पास भी है। जो तुम्हारे पास नहीं है, उसकी कद्र करना सीख ग मुलगी। समझ ला काय?’
मैंने धीरे-से सिर हिलाया। पता नहीं सही कर रही हूं या गलत। पर आज, इस घड़ी मैंने तय किया कि मैं पुणे जाऊंगी। आदित्य से कहूंगी...मुझे इस तरह भी तो जीकर देखना चाहिए। जीने का यह तरीका ही सही!
अचानक मुझे जल्द-से-जल्द पुणे पहुंचने की तलब होने लगी।
The end
जयंती रंगनाथन
jayantihindustan@gmail.com