आसपास से गुजरते हुए
(26)
वक्त फिर निकला बेवफा
तीन-चार महीने पहले तक लगता था, जिंदगी का सफर तन्हा ही काटना है, किसी की उस तरह कमी महसूस नहीं हुई। अकेले जीना सीख लिया, अब...लगता है आस-पास हर वक्त किसी को होना चाहिए, ताकि मेरे होने का अहसास बना रहे।
इतवार की सुबह जल्दी आंख खुली। दो ब्रेड टोस्ट में खूब मक्खन लगाकर खाया। दसेक बजे तैयार होकर मैंने गाड़ी निकाली। पेट्रोल था, लेकिन इंजन से ‘घर्र’ की आवाज आ रही थी, साकेत में द टॉप गैराज में मैं हमेशा गाड़ी ठीक कराने ले जाती थी। ग्यारह बजे वहां पहुंची, मेरा हमेशा का मैकेनिक जॉन मिल गया। उसने बोनेट खोलकर गाड़ी का मुआयना किया और कहा, ‘घंटा-भर तो लगेगा। ऑइल-वॉइल डालना है, पानी चैक करना है...’
वहां बैठने से तो अच्छा था, घूम आओ। मैं चलती-फिरती दूर निकल आई। कोक पीने एक दुकान के सामने रुकी, तो बोर्ड नजर आया, डॉ. आशा धीरज कपूर, स्त्री रोग विशेषज्ञ। ना जाने क्यों, मेरे कदम खुद-ब-खुद वहां मुड़ गए। डॉक्टर खाली बैठी थी। मैंने भूमिका बनाते हुए कहा, ‘डॉक्टर, पिछले महीने एबॉर्शन करवाने गई, तो पता चला कि ब्लडप्रेशर लो है, इस वजह से एबॉर्शन नहीं हो सकेगा। आप प्लीज आज बता दें कि...’
डॉक्टर ने मेरी तरफ करुणा-भरी निगाह डाली, ‘आपके पहले कितने बच्चे हैं?’
‘दो, तीसरा बच्चा कैसे पालूंगी?’
‘हां, सही तो है। कौन कह रहा है तीसरे बच्चे की? सास? पहली दोनों लड़कियां हैं?’
मैंने बहुत बेचारी-सी शक्ल बनाकर ‘हां’ कहा।
‘आप अंदर आइए, मैं चैक करती हूं।’
मेरा बी.पी. ठीक था, वजह सही था। डॉक्टर ने पूछा, ‘कब कराना चाहती हैं एबॉर्शन?’
मेरी सांस रुक गई, ‘आज...।’
‘अच्छा, आपके पति कहां हैं?’
‘जी, वो तो टूर पर गए हैं...’
‘अकेली आई हैं?’
‘हां।’
‘ठीक है, आप घरवालों को बुला लीजिए। वैसे तो मामूली बात है, पर...’
‘अच्छा।’
मैं क्लीनिक से बाहर निली। दिमाग घूमने लगा। तो मैं एबॉर्शन करवा सकती हूं। मेरे पास चॉइस है। समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं? क्या मैं यही चाहती थी? शायद मैं यही तो चाहती थी! मैं दरवाजा थामकर रुकी, लगा कि चक्कर खाकर गिर ही पड़ूंगी। डॉक्टर ने पीछे से आवाज लगाई, ‘आप ठीक तो हैं ना? फोन करना है ना? आप यहीं से कर लीजिए।’
मैं हड़बड़ा गई, ‘मैं...मुझे उनसे पूछना होगा। बस एक एस.टी.डी. करके आती हूं।’
मैं क्लीनिक से निकलकर सड़क पर आ गई। पता नहीं क्यों, मैं अंदर तक सहम-सी गई थी। ऐसे में कोई मेरे लिए निर्णय ले पाता, तो कितना अच्छा होता। आई कहां हो? मैं क्या करूं? आदित्य, मेरी मदद करो। मुझे क्या करना चाहिए? क्या मैं एबॉर्शन करवाने के बाद पहले की तरह जी पाऊंगी? कहीं मैं अपने मन के किसी कोने में अपने ही कत्ल की योजना तो नहीं बना रही? इतनी कठिन क्यों होती है जिंदगी? सबके लिए होती है या सिर्फ मेरे लिए ही है?
मेरे सोचने की शक्ति कुंद पड़ने लगी। मैं एस.टी.डी. बूथ ढूंढने लगी।
भैया को कलकत्ता फोन किया। घंटी बजती रही, किसी ने फोन नहीं उठाया। मैंने आदित्य को फोन लगाया, फोन उनके नौकर ने उठाया, ‘साब कोल्हापुर गेला है। कदी येणार मला नाय माहित।’
आदित्य से मेरी कल रात को बात हुई है। तब तो उन्होंने नहीं कहा कि उन्हें कोल्हापुर जाना है। ये अचानक कोल्हापुर क्यों चले गए?
मैंने कुछ झल्लाकर पूछा, ‘क्या करने गए हैं कोल्हापुर?’
‘साब मंडला होता, एक बाइचा एक्सीडेंट झाला आहे।’
मेरा दिल बैठने लगा, ‘किसका एक्सीडेंट हो गया? नाम बताया तुम्हारे साहब ने?’
‘मी विसरून गेला। पुणे मदे रहणार होती बाई, साबचे नाटक मदे काम केला होता।’
मेरे हाथ से चोगा छूटते-छूटते बचा। नहीं, आई को कुछ नहीं हो सकता। आदित्य किसी और को देखने गए हैं कोल्हापुर। एक आई ही थोड़े हैं जो उनके नाटक में काम करती हैं!
मेरी सांस रुक-सी गई। अचानक मेरे अंदर इतने तूफान उठने लगे कि मैं खड़ी नहीं रह पाई। आई मुझसे रूठकर कोल्हापुर गई थीं। मेरी आंखों के आगे उनका चेहरा आ गया। जाते समय उनकी आंखों में नमी थी, उन्होंने मेरी तरफ देखा तक नहीं। मेरी आंखों में आंसू भर आए। मैं लड़खड़ाते कदमों से एस.टी.डी. बूथ से निकली। बार-बार दिल को यही समझा रही थी कि आई ठीक हैं, आई के साथ कुछ नहीं होगा। वे इस तरह मुझसे रूठी नहीं रह सकतीं। मैं उनके पास जाऊंगी, उन्हें मनाऊंगी।
किसी तरह मैं गैराज तक चलकर गई और गाड़ी चलाती हुई घर आई। घर के नीचे ही चक्रवर्ती मिल गया। उसे देखकर मैं चौंक गई। जरूर उसकी पत्नी ने उसे बताया होगा कि मेरा फोन आया था, वह मिलने चला आया।
मैं गाड़ी लगाकर आई, चक्रवर्ती के चेहरे पर अजीब-से भाव थे, ‘कैसी हो अनु?’
‘ठीक हूं। तुम बताओ? मैंने सोचा था कि तुमसे कहूंगी, यहां आने के लिए। मेरा फोन डेड पड़ा है...’
‘हां, मैंने ट्राई किया था।’ वह मेरे साथ-साथ सीढ़ियां चढ़ने लगा।
‘और क्या खबर? आफिस में सब ठीक हैं?’
‘अनु, यहां मैं तुमसे ऑफिस की बात करने नहीं आया।’ पता नहीं क्यों, वह जरूरत से ज्यादा गंभीर था, ‘आज सुबह तुम्हारे भैया का फोन आया था।’
‘तुम्हारे पास? उन्हें तुम्हारा नम्बर कैसे मिला? ऐसी क्या बात हो गई?’
‘उन्होंने ऑफिस में फोन किया था। फोन चपरासी ने उठाया। उसे मेरे घर का नम्बर पता था। दरअसल वे फोन तो तुम्हें ही करना चाहते थे...’
‘क्या बात है?’
‘तुम्हारी मां...’
‘आई का एक्सीडेंट हो गया है?’ मैंने पता नहीं कैसे पूछ लिया।
‘यह तो पता नहीं, पर तुम्हारे भैया ने बताया कि शी इज नो मोर...आज कोल्हापुर में अंत्येष्टि है। तुम कैसे जा पाओगी, आइ मीन...’
मेरी आंखों के आगे आंसुओं की लहर की धुंध-सी बनती चली गई। आई नहीं रहीं। आई गुजर गईं। मैं शायद सीढ़ियों पर ही बैठ जाती, चक्रवर्ती मुझे ऊपर कमरे तक ले आया।
मैंने फ्रिज से निकालकर एक बोतल ठंडा पानी गटागट पी लिया।
‘अनु, तुम ठीक तो हो?’ चक्रवर्ती मेरे पास आ गया।
मैंने सिर हिला दिया। क्या अब कभी मैं ठीक हो पाऊंगी?
‘अनु, आइ एम सॉरी। मैं यह खबर लेकर नहीं आता, पर...तुम्हारे भैया कल रात से तुम्हारा नम्बर लगा रहे थे। उन्हें समझ नहीं आया कि तुमसे कैसे सम्पर्क करें।’
मैं चुप थी। पता नहीं क्या सोचने लगी थी मैं। शायद कुछ नहीं!
‘तुम जाओगी कोल्हापुर? मैं तुम्हारे टिकट का इंतजाम करूं? अकेली जा सकोगी न?’
मैं सोच रही थी कि आज तो मैं किसी भी हाल में कोल्हापुर नहीं पहुंच पाऊंगी। मैं वहां जाकर करूंगी भी क्या? मुझे जल्द-से-जल्द पुणे पहुंचना होगा। आई के पौधे दो दिन से अकेले हैं। पता नहीं किसी ने पानी दिया होगा भी या नहीं? अचानक मुझे हिचकी-सी आई। आई के पौधे, घर, उनका लोहे का ट्रंक, शनील और मलमल के कपड़ों में बंधी पोटलियां। आई के हाथ से लिखा पुर्जा-अनु ला मिलेल! वे सब जो कल तक था, आज नहीं है।
‘क्या हुआ अनु, मैं भी चलूं तुम्हारे साथ?’
मैं अचानक चेती, ‘नहीं चक्रवर्ती, मैं संभाल लूंगी।’
‘तुम मेरे साथ घर चलो। यहां अकेली मत रहो।’
मैंने ध्यान से उसकी तरफ देखा। वह सच में परेशान था। मैंने धीरे-से कहा, ‘मैं शायद जल्द ही मुंबई चली जाऊं। आफिस के ट्रेवल एजेंट से कह देती हूं, कल सुबह की फ्लाइट मिल जाए, तो...’
‘फिर वापस कब आओगी?’
‘पता नहीं। पता नहीं मैं यहां क्यों आई? ना आती, तो शायद...’
मैं चुप हो गई। अब ये सब बातें कोई मायने नहीं रखतीं।
हम दोनों यूं ही बैठे रहे। मैं चक्रवर्ती से कहना चाहती थी कि अब वो जाए। मैं अकेली रहना चाहती हूं, पर कह नहीं पाई। मैंने उठते हुए कहा, ‘मैं चाय बनाने जा रही हूं।’
वह भी मेरे पीछे-पीछे रसोई में चला आया।
‘तुम जिस काम के लिए कोचीन गई थीं, पूरा हो गया?’ वह पूछ रहा था।
‘हां...’ मैं चौंक गई, ‘ना...’
‘तुम कह रही थी कि तुम महीने-भर बाद आओगी, फिर इतनी जल्दी कैसे आ गई? मैंने तो तुम्हारे मकान मालिक से कह दिया था।’
‘मैं कब क्या करती हूं, मुझे ही नहीं पता।’ पता नहीं मैं यह बात कैसे कह गई।
मैंने कम दूध की कड़क चाय बनाई, दो कप में छानी। चक्रवर्ती ने चुपचाप एक कप उठा लिया, ‘तुम अपना सामान लेकर मेरे घर आ जाओ, यहां अकेली क्या करोगी? वहीं से चली जाना मुंबई।’
‘घर में बहुत-सा काम है चक्रवर्ती। पता नहीं अब मैं यहां लौटकर आऊंगी भी या नहीं...’
‘ऐसा क्यों कह रही हो? फिर कहां जाओगी...’
मैं भी यही सोच रही थी। क्या आई के बिना मैं पुणे में रह पाऊंगी? उनके बिना उस घर में एक रात मैं नहीं बिता पाई, अब सारी उम्र कैसे बिताऊंगी?
‘तुम नौकरी छोड़ रही हो?’ चक्रवर्ती ने पूछा।
मैंने सिर हिलाया, उसे जो समझना हो, समझ ले।
‘पिछले दिनों से काफी लोगों ने छोड़ दी है कंपनी। मल्होत्रा अमेरिका चला गया। ध्रुपद हैदराबाद में इन्फोटेक में लग गया। दीप्ती ने शादी कर ली, पता नहीं अब क्या करेगी...और अपना शेखर भी शादी कर रहा है।’
‘शेखर? किससे?’
‘अरे उसी से, जिसके साथ उसका चक्कर था। माना से, नेक्स्ट वीक है शादी। जब कार्ड देने आया, तो तुम्हारे बारे में पूछने लगा। मुझे तो यही पता था कि तुमने महीने-भर की छुट्टी बढ़ा ली है। मैंने वही बता दिया उसको। तुम्हारा कार्ड मेरे पास छोड़ गया है। तुम्हें दे दूंगा।’
‘नहीं, उसकी जरूरत नहीं।’ मैंने जल्दी से कहा। तो शेखर शादी कर रहा है!
चक्रवर्ती ने चौंककर मेरी तरफ देखा, ‘क्यों?’
‘मैं कहां आ पाऊंगी शादी में?’
‘हूं...’
अब क्या शेखर यह जानने में उत्सुक होगा कि मैंने क्या निर्णय लिया है? क्या हो रहा है मेरे साथ? यह जानने की उसे जरूरी भी क्या है!
मैंने बात आगे नहीं बढ़ाई। चक्रवर्ती चला गया। मैं अकेली रह गई। बिल्कुल अकेली। हर मायने में। मैं रो नहीं रही थी, बिलख भी नहीं रही थी, ना यह सोच रही थी कि आई के साथ ऐसा क्यों हुआ और अब मैं उनसे मिल नहीं पाऊंगी। बस भीतर तक एक सूनेपन की थर्राहट थी, अंदर से कुछ टूटने, बिखरने की अनुभूति से मैं सुन्न थी। आई ने कहा था, ‘तुम्हें जब दूसरों की जरूरत होगी, जरूरी नहीं कि वे उस वक्त तुम्हारे पास आएंगे।’ तब क्या पता था कि इसका मतलब इतना क्रूर हो सकता है।
मैंने डूबते सूरज को देखते हुए देर तक आई को याद किया, फिर आंखें बंद कर आई की आत्मा की शांति के लिए दुआ मांगती रही। रात-भर मुझे नींद नहीं आई। सुबह-सुबह झपकी-सी आई। आई सपने में मुझसे कह रही थीं, ‘अनु, पोरी, तेरे अप्पा ने तेरे लिए लड़का देखा है। तू शादी करके घर बसा ले।’
मैंने प्रतिवाद किया, ‘आई, तुम तो हमेशा कहती थीं कि शादी करने का कोई मतलब नहीं है, फिर मुझसे क्यों कह रही हो?’
‘करके देख ले पोरी। नहीं जमे तो मेरे पास लौट आना। मैं हूं न...’
मेरी आंख खुल गई। तुझे जबर्दस्त रोना आ गया। अब कौन कहेगा मुझसे कि मैं हूं न, तू लौट आ...
कोई दरवाजा खटखटा रहा था। मैंने उठकर घड़ी में समय देखा, सुबह के दस बज रहे थे। मैं धीरे-से अपने को समेटती हुई उठी। दरवाजा खोला, सामने अप्पा खड़े थे।
दो दिन की बढ़ी दाढ़ी, क्लांत चेहरा, सूनी आंखें!
मैंने कांपते हुए कहा, ‘अप्पा, आई...’
अप्पा अंदर आ गए। उनके चेहरे पर उदासी थी, ‘अनु, मोले, तेरी आई और हमारा बस इतना ही साथ था! मैंने सोचा था, पुणे में हम सब एक साथ रहेंगे...। मैं आई को लेने कोल्हापुर गया था, बहुत खुश थी तेरी आई...।’
अप्पा बिलखने लगे, ‘तेरी आई के चेहरे पर सालों बाद मैंने चमक देखी थी। कह रही थी कि तुझे अब अपने पास रखेगी।’
यानी आई मुझसे नाराज नहीं थीं....
‘हम दोनों तुझे लेने दिल्ली आने वाले थे, आज ही, सुबह की फ्लाइट से टिकट खुद बुक किया था निशिगंधा ने। देख, मैं आया हूं, मोले, बिल्कुल अकेला।’ वे दोनों हाथों से अपने सिर पर मुक्के मारने लगे, ‘मैंने उसे बहुत दु:ख दिया है मोले। वो तो मेरे लिए मछली बनाने बाजार जा रही थी...’ मैं चुपचाप उनका प्रलाप सुनती रही, ‘सामने से ट्रक आ रहा था, वो देख नहीं थी, पता नहीं क्या सोच रही थी तेरी आई उस समय...’
अप्पा हिचकी ले कर रोते हुए बोले। अचानक उन्होंने मेरे दोनों हाथ थाम लिए, ‘मैं तुझे लेने आया हूं मोले, अप्पा को मना मत करना। मैं बहुत अकेला पड़ गया हूं...’
अप्पा बिलख-बिलखकर रोने लगे। जिंदगी में पहली बार वे रो रहे थे, आई के लिए, शायद अपने लिए भी। मैंने उन्हें रोने दिया। अप्पा के साथ मिलकर मैंने घर का सामान बांधा। वे टैक्सी ले आए। मैं दिल्ली छोड़कर जा रही थी-ये वाट दूर जाते सपना मदील गांवा...
क्या मैं सपनों की नगरी में जा रही हूं, कौन बुला रहा है मुझे वहां? आई के पेड़-पौधे और आदित्य...! वो सब कुछ, जो आई का था, उन सबको संवारना भी तो है!
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