आसपास से गुजरते हुए - 24 Jayanti Ranganathan द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आसपास से गुजरते हुए - 24

आसपास से गुजरते हुए

(24)

अंदर कुछ बस गया पराया सा

मैं भारी मन से घर लौटी। आदित्य आए हुए थे। मुझे देखते ही पूछा, ‘तुम कब से शुरू कर रही हो मेरे कंप्यूटर इंस्टीट्यूट में काम करना?’

मैं थकी-सी कुर्सी पर बैठ गई।

‘हूं, क्या हुआ अनु?’ आदित्य उठकर मेरे पास आ गए।

‘मैं दिल्ली जाना चाहती हूं, ऑफिस में काफी काम पड़ा है।’

आई पानी का गिलास लेकर कमरे में आ रही थीं, वे ठिठककर रुक गईं, ‘ये क्या? अता काय झाला?’

‘तुम दिल्ली जाना चाहती हो?’ आदित्य भी चौंके।

‘हूं! मेरी नौकरी है, घर है...’ मैंने धीरे-से कहा।

‘सो तो है...पर इस वक्त क्या तुम्हें नहीं लगता कि यहां रहना बेहतर होगा?’

‘नहीं!’ मैंने थोड़ी-सी आवाज बुलंद की, ‘मेरे अंदर एक सूनापन भरता जा रहा है। मैं नेगेटिव सोचने लगी हूं। मुझे अकेले रहना है।’

‘पर तुम अकेले रहकर भी अकेली कहां रहोगी?’ आदित्य ने सवाल किया।

मैं चुप हो गई। आई गुस्से से बोलीं, ‘अनु, तू वेड़ी झाला ग, तेरा दिमाग खराब हो गया है।’

मैंने लाचारी से दोनों की तरफ देखा। आदित्य ने आई से पूछा, ‘क्या हो गया है इसे?’

‘मला काय महित? अपनी मर्जी की मालिक है। कभी कुछ कहती है, कभी कुछ...’

‘अनु, तुम तो मेरे कंप्यूटर इंस्टीट्यूट में काम करनेवाली थीं? क्या हुआ? घर बैठी बोर हो रही हो, तो वहां चली आओ...’

‘नहीं आदित्य, मुझे वापस जाना होगा...’

‘लेकिन क्यों?’

‘शायद मैं समझा नहीं पाऊंगी...’

‘पर तुम, क्या तुम वहां अकेली रह पाओगी?’ आदित्य की आवाज में झल्लाहट थी।

‘हूं...मैं अकेली रहना चाहती हूं। वहां मेरी अपनी जिंदगी है, मैं अपनी तरह से रह सकती हूं।’

‘यहां तुझे कौन रोक रहा है?’ आई तैश में आकर बोलीं, ‘तेरे मन में क्या है, मेरी समझ नहीं आता। लोग गलतियां करते हैं, तो सीखते भी हैं। तू कब सीखेगी रे मुली!’

‘आई, मैंने गलती की है, तो सजा भी भुगत लूंगी। तुम ही तो कहती हो कि सबको अपनी जिंदगी जीना चाहिए। फिर मुझे क्यों नहीं जीने देतीं?’

आई गुस्से से फट पड़ी, ‘तुझे जो करना है, कर। पर एक बात ध्यान रख, आज तू अकेली रहना चाहती है, कल को तू किसी का साथ चाहेगी, तो कोई नहीं आएगा। ऐसा नहीं होगा कि तू गलतियां करती रहे और हम माफ करते रहें...’

मैं चुप रही। मुझे अपने आप पर गुस्सा भी आ रहा था। मैं आई को दु:खी नहीं करना चाहती थी। वही तो हैं, जो मुझे थोड़ा-बहुत समझती हैं। पर क्या मेरे यहां रहने से उन्हें दिक्कत नहीं हो रही?

आई गुस्से में बड़बड़ाती हुई अंदर चली गईं। मैं चुपचाप बैठी रही। आदित्य कुछ आश्चर्य से मेरी तरफ देखते रहे, ‘तुम सच में विचित्र, किन्तु सत्य हो अनु! तुम जैसी अजीब लड़की मैंने आज तक नहीं देखी!’

मैंने जवाब नहीं दिया। आदित्य उठकर मेरे पास आ गए, ‘क्या तुम शुरू से ऐसी हो?’

‘ऐसी मतलब?’

‘सेल्फ सेंटर्ड! स्वार्थी, आत्मकेन्द्रित!’

‘हां,’ मैंने स्पष्ट कहा।

‘तभी...। वैसे मुझे कहना नहीं चाहिए, पर मैं अपने आपको रोक नहीं पा हरा...तुम नहीं जानती कि तुम्हें क्या चाहिए। तुम बिना किसी दिशा के भटक रही हो।’

मैंने आंख उठाकर उनकी तरफ देखा, सच कह रहे थे आदित्य।

‘क्या तुम्हें उम्मीद है कि वह तुमसे शादी कर लेगा?’

मैं तमक गई, ‘आप बहुत ज्यादा पर्सनल हो रहे हैं...’

‘हां, वो तो हो रहा हूं! चाहो तो जवाब मत दो।’

‘मैं दूंगी भी नहीं...’

‘फिर क्यों जाना चाहती हो दिल्ली?’

‘मेरी नौकरी है, मेरा कैरियर...’

‘वह सब कुछ यहां भी हो सकता है...’

‘मैं अकेली रहना चाहती हूं।’

‘किससे भाग रही हो तुम? मुझसे?’

‘आपसे क्यों भागूंगी? मैं सोच-समझकर कह रही हूं कि इस वक्त मुझे दिल्ली लौट जाना चाहिए। वहीं जाकर सोचूंगी कि आगे क्या करना है।’

‘तुम आम लड़कियों जैसी क्यों नहीं हो अऩ?’ आदित्य ने सपाट स्वर में पूछा।

‘पता नहीं,’ मैं उदास हो गई, ‘मैं हमेशा चाहती हूं कि एक साधारण लड़की की जिंदगी जिऊं, पर ऐसा हो नहीं पाता...’

‘तुम गजब की जिद्दी हो!’

‘हां...’

‘गुस्सा भी तुम्हें जल्दी आता है...’

‘अब आने लगा है...’

‘क्यों?’

‘ना चाहते हुए भी मेरे साथ बहुत कुछ ऐसा हो गया, जो मैं नहीं चाहती थी...मैं नहीं चाहती थी कि मैं यह सब करूंगी, पर...’

‘गजब की कन्फ्यूज्ड हो तुम...’

मैंने कुछ नहीं कहा। दिमाग सुन्न-सा पड़ गया था। आई कमरे से बाहर नहीं आईं। खासी नाराज हो गई थीं मुझसे।

कुछ देर मेरा दिमाग टटोलने के बाद आदित्य चले गए। रात तक आई कमरे से बाहर नहीं आईं। मैंने रसोई में जाकर सुबह की चपाती में मलाई और चीनी मिलाकर खा लिया। मन हुआ, आई के कमरे में झांककर उनसे माफी मांग लूं, पर दरवाजा बंदर से बंद था।

सुबह जल्दी आंख खुली। आई के कमरे का दरवाजा खुला था। मैं उठकर गई, आई बड़े वाले सूटकेस में अपनी साड़िया रख रही थीं। मैं उनके पास जाकर बैठ गई, ‘कहीं जा रही हो आई?’

‘हूं।’

‘कहां?’

‘कोल्हापुर...।’

‘आज?’

‘हां, जब तू अपनी मर्जी से दिल्ली जा सकती है, तो मैं अपनी बहन से मिलने कोल्हापुर नहीं जा सकती?’

मैं चुप हो गई। आई ने तन्मयता से पेटी बांधी। रसोई में जाकर आलू-पूरी बनाई। डिब्बा तैयार किया। मैं उनके पीछे-पीछे कठपुतली की तरह घूमती रही, पर आई ने मुझसे बिल्कुल बात नहीं की।

दस बजे उन्होंने ऑटो बुलवाया और सामान लदवा लिया। जाते समय मुझसे इतना-भर कहा, ‘दिल्ली जाने से पहले ताला लगाकर चाबी आदित्य अभ्यंकर को दे जाना। मुझे नहीं पता, मैं कोल्हापुर से कब लौटूंगी। सुल्लू ताई के नवरे की तबीयत ठीक नहीं है।’

वे ऑटो में बैठ गईं। जाते समय उनकी आंखों में तरलता थी, पर उन्होंने कुछ नहीं कहा। वे कुछ कहते-कहते रुक गईं।

मैंने धीरे-से पूछा, ‘आई, तुम्हारे पौधे?’

आई ने खाली निगाहों से मेरी तरफ देखा, कुछ नहीं कहा। मैं उन्हें रोक नहीं पाई। मैंने हाथ थामना चाहा, उन्होंने धीरे-से ऑटो में बैठते हुए कहा, ‘मी निकते। ध्यान रखना।’ आई ने हल्के-से मेरे सिर पर हाथ फेरा। वह शायद यही कहना चाहती थीं कि अनु पागलपन छोड़ दे। संभल जा। उन्होंने नहीं कहा और मैं समझ नहीं पाई। आई चली गईं।

मैं देर तक यूं ही खड़ी रही। जब अहसास हुआ कि आई सच में चली गई हैं तो मुझे रोना आ गया। आई इस तरह मुझे छोड़कर क्यों चली गईं? मैंने ऐसा क्या कह दिया? मुझे शुरू से आई ने यह क्यों नहीं सिखाया कि हम कई बार दूसरों के लिए भी जीते हैं। मैं कहां गलत हो गई आई? मुझसे अगर तुम कुछ और उम्मीद करती थीं, तो मुझे कहा क्यों नहीं? मैं इतनी भी खुदगर्ज नहीं कि तुम्हारी बात समझ ना सकूं। ये तो गलत है ना कि सब बिना कुछ कहे मुझसे बहुत कुछ की अपेक्षा रखते हैं। कम-से-कम बता तो देते! क्या मैं इस तरह अपने आपको झेलते-झेलते नहीं थकती? मुझे इतना उलझा हुआ किसने बनाया? अप्पा तो कभी इस बात का जवाब नहीं देंगे, शायद आई भी यह कहकर बच जाएं कि पोरी, सब अपनी जिंदगी जीते हैं। ना कोई किसी से बनता है, ना किसी को बनाता है।

मैं क्या करूं, मेरी समझ में कुछ नहीं आया।

दोपहर बाद मुझसे घर में रहा नहीं गया। मैं घंटा-भर पैदल चलकर आदित्य के कंप्यूटर इंस्टीट्यूट पहुंची। मुझे देखकर वे बेतहाशा चौंक गए। मैंने रुआंसी होकर उन्हें बता दिया कि किस तरह आई चली गईं।

वे हंसने लगे, ‘तुम्हारी मां भी तुमसे कुछ कम नहीं। तुम सेर हो, तो वे सवा सेर। अच्छा किया, जो चली गईं...’

‘अच्छा? मैं यहां अकेली क्या करूंगी?’

‘तुम उन्हें अकेला छोड़तीं, इससे पहले वो चली गईं। हिसाब बराबर।’

‘आदित्य, तुम आई को नहीं जानते। बहुत जिद्दी हैं। एक बार जो ठान लेती हैं...’

‘हां, मुझे पता है। एक बार तुम्हारे घर में सर्वेंट को लोहे की छड़ी से पीट दिया था।’

‘तुमसे किसने कहा?’

‘तुम्हारी मां ने ही बताया था...’

मैं चुपचाप उनकी मेज के सामने हाथ बांधकर बैठ गई।

‘देखो अनु, तुम्हारी मां जब मेरे नाटक में काम करने आई थीं, उनमें आत्मविश्वास नाममात्र को नहीं था। वो धीरे-धीरे अपनी खोल से निकली हैं। उन्हें कम-से-कम अब तो खुली हवा में सांस लेने दो।’

‘मैंने क्या किया?’ मैं लगभग रोने को हो आई।

‘तुमने क्या नहीं किया? मैं इतना तो बता सकता हूं कि तुम्हारा इस तरह अजनबी शहर में अकेले रहकर नौकरी करना, फिर इस हालत में प्रेग्नेंट होना उनके लिए कोई खुशी की बात तो है नहीं...,’ कितना स्पष्ट बोल गए थे आदित्य, ‘तुम्हारी मां में बहुत धीरज है, वे बहुत मैच्योर्ड हैं। पता नहीं क्यों, तुम अपनी और बाकी सबकी परेशानी बढ़ा रही हो।’

‘मैं दिल्ली चली जाती हूं, सबके लिए वही ठीक रहेगा...’ मैं धीरे-से बोली।

‘सबके लिए, यानी किस-किसके लिए?’ आदित्य की आवाज में मजाक का पुट था, ‘मेरी समझ में नहीं आता, दिल्ली में कौन तुम्हारा इंतजार कर रहा है? है कोई?’

मेरी तरल आंखों में हल्की-सी मुस्कान आई, ‘यही तो ट्रेजडी है, कहीं कोई मेरा इंतजार नहीं करता!’

‘हां, जो इंतजार करते हैं, उन्हें तुम किसी मोल का नहीं समझतीं।’

‘ऐसा नहीं है! हमारा परिवार आम परिवारों की तरह नहीं है आदित्य! अप्पा अलग तरह के हैं, आई अलग तरह की। बचपन से मेरे अंदर अजीब किस्म की असुरक्षा रही। जिसके साथ जुड़ी, उसने भी धोखा दे दिया। अब विश्वास करूं तो किस पर? अपने आप पर भी नहीं होता...’

आदित्य ने मेरी तरफ पितृभाव से देखा, ‘तुम मेरी बेटी होतीं, तो मैं तुम्हें भटकने नहीं देता...’

‘अब भी देर नहीं हुई, गोद ले लीजिए...’

‘हूं, ताकि गोद लेते ही बाप ही नहीं, नाना भी बन जाऊं!’ उन्होंने मजाक में कहा, पर मैं अंदर तक आहत हो गई। मेरे चेहरे का रंग उतरने लगा।

अमरीश कहता था कि मैं बहुत पारदर्शी हूं। मेरा चेहरा सब कुछ बता देता है। आदित्य समझ गए। उन्होंने धीरे-से मेरे कंधे को छुआ, ‘देखो अनु, इतना सेन्सिटिव बनोगी तो काम नहीं चलेगा। तुम दिल्ली जाना चाहती हो, तो आज ही हम टिकट ले आते हैं। कैसे जाओगी? ट्रेन से या...’

‘प्लेन से...मेरे पास क्रेडिट कार्ड है। मैं आई के बिना घर में नहीं रह सकती। आप किसी ट्रेवल एजेंट को जानते हैं?’

‘श्योर, इंडियन एयरलाइंस की फ्लाइट है रात को आठ बजे की। आज रात जाओगी या कल...’

‘आज ही! घर जाकर सामान बांधने में घंटा-भर लगेगा।’ मैं पता नहीं कैसे कह गई!

***