आसपास से गुजरते हुए - 2 Jayanti Ranganathan द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आसपास से गुजरते हुए - 2

आसपास से गुजरते हुए

(2)

उलझते रिश्तों की छांव में

रात के बारह बजने को थे। मैंने फुर्ती से अलमारी से वोद्का की बोतल निकाली और दोनों के लिए एक-एक पैग बना लिया, ‘नए साल का पहला जाम, मेरी तरफ से!’

शेखर ने मुझे अजीब निगाहों से देखा, ‘अनु, मुझे वापस जाना है। चलो, एग पैग सही!’

मैंने घूंट भरा। सामने शेखर था। मुझे अच्छी तरह पता था वह शेखर ही है, अमरीश नहीं। मेरे होंठों के कोरों पर हल्की-सी मुस्कान आकर थम-सी गई। शेखर ने एक झटके में गिलास खत्म कर दिया और मेरा हाथ थामकर कहा, ‘विश यू ए वेरी हैप्पी न्यू इयर!’

मेरी आवाज बुदबुदाहट के रूप में आई, ‘विश यू द सेम!’

‘क्या सोचा है? कुछ रिसोल्यूशन लिए?’

मैं हंसने लगी, ‘हां, तय किया है कि खुश रहूंगी, चाहे जो हो।’

शेखर भी मुस्कुराने लगा, ‘गुड लक।’

वो उठने लगा, मैंने यूं ही पूछ लिया, ‘थोड़ी देर रुक नहीं सकते?’

पता नहीं क्या सोचकर रुक गया शेखर। हम दोनों इस तरह इतनी देर एक साथ कभी नहीं रहे। सालों बाद पुरुष शरीर की मादक गंध मुझे चौंका रही थी। शायद पहल मैंने ही की होगी। मैंने ऐसा क्यों किया, नहीं पता, लेकिन शेखर ने भी इनकार नहीं किया। लग रहा था, जैसे आज रात का यह क्षण हमारी जिन्दगी के शब्दकोश से अपने आप निकल जाएगा। मैं चाहती थी, ऐसा हो। किसी एडवेंचर की खातिर नहीं, अपने आपको दिलासा देने की खातिर। मुझे लग रहा था कि अपने आपको भी यह साबित करना जरूरी है कि मैं एक औरत हूं। पहले औरत, फिर कुछ और।

इससे पहले कभी किसी पुरुष से इस तरह संबंध बनाने की नौबत नहीं आई थी। जो भी थे, अमरीश के साथ थे। शेखर जब अपना चेहरा मेरे सामने ले आया, तो मैं कहते-कहते रुक गई, ‘अमरीश, तुम अजीब-से क्यों लगने लगे हो?’

पता नहीं था मुझे कि पांच साल बाद अब तक अमरीश ने मेरे तन-मन को इस तरह उद्वेलित कर रखा है। शेखर की सांसों में भी वही खुशबू थी। उसके गर्म हाथें में अमरीश जैसी तपिश। क्या इन दोनों में ही इतनी समानताएं हैं या हर पुरुष का यही रूप होता है? शेखर कुछ उलझा हुआ-सा था। उसने अजीब नजरों से मुझे देखा, मैं उसकी आंखों में लगातार झांक रही थी। मैंने कुछ कहा नहीं, पर वह समझ गया। एक बार शायद उसने धीरे से कहा था, ‘यह ठीक नहीं है।’ मैंने भी जवाब दिया, ‘हां!’ पर वह मेरे करीब से उठा नहीं। उसका बंधन कसता गया, मेरी सांसें तेज होती गईं। सालों बाद पुरुष के स्पर्श से शरीर का रोम-रोम झनझना उठा। मैं यंत्रचालित-सी थी, शायद यह सब मेरे साथ नहीं हो रहा। यह मैं नहीं कोई और है, अनु ऐसा नहीं कर सकती। शेखर की आवाज अत्यंत धीमी थी, ‘अनु, तुम...ठीक तो हो?’पता नहीं ठीक से उसका क्या मतलब थ? मेरी आंखें बंद थीं। शेखर की सांसों की आवाज मेरे अंदर तक पहुंच रही थी। मैंने अपने शरीर को हवा में उड़ने दिया। लग रहा था, मैं कहीं बहुत ऊंची उड़ रही हूं। कभी भी गिर सकती हूं। शेखर ने जब मेरी बंद आंखों पर अपने होंठ रखे, मेरा रोम-रोम जाग उठा। मेरी उंगलियों ने शेखर के चेहरे पर कुछ लिखा, मेरा स्पर्श एकदम हल्का था। उसका स्पर्श कठोर। मेरी चेतना बरकरार थी, बस मन काबू में नहीं रहा। मेरे शरीर ने भी किसी भी मोड़ पर इनकार नहीं किया। बल्कि उसको तो शायद इसी का इंतजार था।

घंटे-भर बाद शेखर ने उठकर शर्ट पहनी, स्वेटर और ब्लेजर पहनने के बाद हल्के से कहा, ‘मैं चलूंगा। माना मेरा इंतजार कर रही होगी।’

मैं उसी तरह अपने पलंग पर हीटर के सामने लेटी थी। अब तक मैं खुमारी से निकली नहीं थी। लग ही नहीं रहा था कि जो हुआ, मेरे साथ ही हुआ है। अचानक मुझे अहसास हुआ कि मैं जमीन पर गिरा दी गई हूं, मैंने चेहरा फेर लिया। शेखर ने मेरे कान के पास आकर कहा, ‘सॉरी! पता नहीं कैसे मैं नियंत्रण नहीं रख पाया। इससे हमारे रिश्ते पर कोई असर नहीं पड़ेगा। ऑफिस में तुम मेरी बॉस रहोगी, बाहर दोस्त। ठीक है न?’

वह चला गया। मैं अगले दिन ऑफिस नहीं जा पाई। सबको लगा होगा कि मैं नया साल मनाने सुरेश भैया के पास कलकत्ता गई हूं। मैं घर में बिल्कुल अकेली रही। किसी ने मेरी खोज-खबर नहीं ली। अपने आप पर जबर्दस्त गुस्सा आ रहा था। मैंने अपने साथ ऐसा कैसे होने दिया? क्या मैं इतनी फ्रस्टेटेड हो गई हूं? पता नहीं अब एक ऑफिस में शेखर के साथ कैसे काम पर पाऊंगी? शेखर पता नहीं इस पूरे वाकिए को किस तरह लेगा? जितना मैं सोचती, अतना ही झल्लाती। मैं पहली तारीख को तीन घंटे सिर्फ नहाती रही। गर्म पानी का शॉवर भी मेरी चिंताओं को धो ना सका। अंदर से मैं बुरी तरह हिल गई। यह मैंने क्या किया, और क्यों किया?

यह हमेशा हुआ है मेरे साथ, सेक्स मुझे कभी सुख नहीं देता। एक कसक, अवांछित होने का भाव भर देता है। लगता है, मैं किसी और के हिस्से का सुख जबरन छीन कर भोगने की कोशिश कर रही हूं।

इन दो दिनों में मैं निरुद्देश्य-सी दिन-भर टीवी के सामने बैठी चैनल बदलती रहती। मेरी पड़ोसिन की बहन इंडियन एयरलाइंस के अपहृत विमान एसी 356 में थी। 31 दिसम्बर की रात सुदूर अफगानिस्तान के कंधार एयरपोर्ट से बंधक दिल्ली वापस आए थे। एक और दो तारीख को उनके घर में प्रेसवालों का तांता लगा हुआ था, मेरा मन नहीं हुआ कि मैं भी उत्सुक भीड़ में शामिल होकर सवाल पूछूं। और कोई वक्त होता तो सबसे आगे होती।

सप्ताह-भर पहले नेपाल से दिल्ली आने वाले विमान अपहरण की खबर सुनते ही सबसे पहले मैंने सारे अखबारों में यात्रियों की सूची टटोल डाली थी। सुरेश भैया और शर्ली भी तो इन्हीं दिनों नेपाल जाने का प्रोग्राम बना रहे थे। उनका इरादा था कि वापसी में दिल्ली में मेरे पास नया साल मनाने तक रुकेंगे। लिस्ट में उनका नाम ना पाकर तसल्ली-सी हुई। पच्चीस दिसम्बर को मैंने कलकत्ता फोन किया था, तो सुरेश भैया ने कहा, ‘अब लगता है अच्छा हुआ, जो नेपाल नहीं गए। शर्ली ने ऐन वक्त पर चलने से मना कर दिया। इन दिनों उसे अजीब-सी बीमारी हो गई है। उस पर नौकरी करने का भूत-सा सवार हो गया है। एक डिपार्टमेंटल स्टोर में उसने कुछ दिन बतौर सेल्स गर्ल काम किया। मुझे बताया तक नहीं। मुझे पता चला तो जमकर गुस्सा आया। मैंने उसे काम पर जाने से मना कर दिया, इसलिए इन दिनों रूठी हुई है।’

‘जाने दो न भैया। वैसे भी घर पर बैठी वह करती क्या है गॉसिपिंग के अलावा। बाहर निकलकर नौकरी करेगी, तो उसका भी दिमाग ठीक रहेगा।’ मैंने शांत आवाज में कहा।

‘मेरी बीवी और सेल्स गर्ल? कभी नहीं!’ उनकी आवाज में रोष था।

‘क्यों, मैंने भी तो शुरू में ऐसा ही काम किया था।’

‘तेरी बात अलग थी। जाने दे अनु, बता तू नए साल में क्या कर रही है? यहां क्यों नहीं आ जाती?’

‘नहीं भैया, मैंने तो सिर्फ आपकी खोज-खबर लेने के लिए फोन किया। जब से एयर लाइन्स अपहरण के बारे में सुना है, टीवी के सामने से उठने को दिल ही नहीं चाहता। पता नहीं कब रिहा होंगे बेचारे?’

‘हूं, यहां तो खबर है कि सरकार आतंकवादियों को छोड़ने की सोच रही है। यह खतरनाक होगा। भाजपा सरकार को यह बिल्कुल नहीं करना चाहिए।’

‘तो उन एक सौ पचास लोगों को मरने के लिए छोड़ दें?’ मैं तैश में आ गई।

‘रोज ना जाने कितने मरते हैं यहां-कभी बाढ़ से कभी बम से।’

‘भैया, मैं एस.टी.डी. पर यह बहस नहीं करना चाहती। यह बताइए कि अगर मैं उस विमान में होती, क्या तब भी आप ऐसा ही सोचते? गुडबाय। मैं न्यू इयर पर कहीं नहीं जा रही। शर्ली से कहना, मुझसे बात करे।’

मैंने फोन रख दिया। पिछले कुछ सालों से सुरेश भैया कितने बदल गए हैं! सिर्फ सुरेश भैया ही क्यों, हर कोई बदल गया है। एक जनवरी की रात को आई ने पुणे से फोन किया। वे जल्दी-जल्दी बोलीं, ‘पहली बार जिंदगी को इतने नजदीक से देख रही हूं। बड़ा मजा आया कोल्हापुर में। पता है, हमने वहां किसको देखा-लता मंगेशकर को।’ आई की आवाज खुशी से छलक रही थी, ‘तू पुणे क्यों नहीं आती मुगली? सुरेश और विद्या तो आएंगे नहीं, तू ही आ जा कुछ दिनों के लिए।’

आई ने फोन रखा तो सुरेश भैया का फोन आ गया, ‘क्या किया न्यू इयर ईव पर?’

बता दूं भैया को, उसकी छोटी बहन ने क्या गुल खिलाया है?

सुरेश भैया कहे जा रहे थे, ‘मैं तो पूरे वक्त घर रहा। शर्ली वैसी ही है। मैंने कहा तो था कि तुझसे बात कर ले। तेरा ठीक चल रहा है न? दिल्ली में तो गजब की ठंड पड़ रही होगी?’

बस कोचीन से अप्पा और दुबई से विद्या दीदी का फोन आना रह गया था। विद्या का तो पता नहीं, अप्पा जरूर करेंगे। उन्हें बहुत शौक है हर तरह के त्योहार मनाने का। बचपन में अप्पा और आई का झगड़ा इसी बात पर होता था। अप्पा आई को ताने देते कि वे किसी भी बात में उत्साह नहीं लेतीं। आई थीं भी थोड़ी दब्बू। बाद के सालों में कहने लगी थीं कि तेरे अप्पा की वजह से मैं दब्बू बन गई हूं। इन्होंने इतना दबाकर रखा कि मैं मैं ही नहीं रही। आई और अप्पा...मेरे माता-पिता!

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