दीप शिखा - 7 S Bhagyam Sharma द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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दीप शिखा - 7

दीप शिखा

तमिल उपन्यास

लेखिका आर॰चुड़ामनी

हिन्दी मेँ अनुवाद

एस॰भाग्यम शर्मा

(7)

उसकी स्थिती जब ज्यादा बिगड़ती गई तो फिर आखिर में उसे मनोरोग अस्पताल में भर्ती कर चिकित्सा करवानी पड़ी |

पेरुंदेवी पूरे समय बुदबुदाती रही | सुबह शाम विधि के विधान को सोच रोती रही | बच्ची गीता यदि उसके पास नहीं होती तो उसका कमजोर शरीर ये दुख सहन नहीं कर पाता |

बच्ची पर पेरूंदेवी का विशेष प्रेम उमड़ता रहा | बिना कोई हिचकिचाहट के बच्ची की माँ जैसे ही उसने प्यार दिया | उसकी देखरेख करने के हर छोटे-बड़े काम को उसने बड़े ही उत्साह के साथ किया | भले ही उसे परेशानी हो पर बच्चे को नहीं हो इसका ध्यान रखती थी | हर बात में वह सोचती उसकी माँ होती तो ऐसा करती मुझे भी ऐसा ही करना चाहिए ऐसा वह तन, मन, धन से करती | उसके लालन-पालन में कोई कमी नहीं छोडी | उसकी माँ होती तो क्या करती ऐसा सोच वह भी वही करती और जितना उसका ख्याल रखती उतना ही उसका प्यार बच्चे से बढ़ता जाता |

‘उसे बच्चे को ऐसे उठाना चाहिए था |’

‘उसे इस तरह से प्यार करना चाहिए था |’

‘बच्चे को अपनी छाती से लगा उसे ऐसे पुलकित होना चाहिए था’ | अब वह नाजुक जीव उसके हाथों में एक आशा की किरन थी | परन्तु पेरुंदेवी की आँखें उस किरन से चौंधियाई नहीं | अंधेरे को घूर-घूर कर देखने के बाद भी उसकी बेटी को कुछ न मिला और वह एक पहेली बनी उस अंधेरे से टकराती रही पर उसका ये प्रकाश पेरूंदेवी को सांत्वना दे रहा था |

बच्ची भी उसके साथ चिपकी रहती थी | बच्ची ने सबसे पहले पेरुंदेवी को ही देखा | उसकी पहली खूबसूरत मुसकान पेरुंदेवी के लिए ही थी| उसने ‘अम्मा’ कह कर पेरुंदेवी को ही बुलाया |

अपने ही पेट में पैदा होने वाला एक जीव रास्ता भूल कर गलती से यामिनी के पास आकर, फिर घर आ गया है इस ख्याल से जब बच्चे को उठा कर वह दुलारती तो रोना भी अंदर से फूट-फूट पड़ता |

सारनाथन अक्सर अपनी बेटी को जाकर देख आते थे | उनका बोलना बहुत ही कम हो गया | चिंता करते हुए बिना पलकें झपकाएरात का एकांत ही उनका साथी बन गया | वे अंदर से कितने टूट चुके हैं ये उनकी हर एक बात से पता चलता था | कभी कभी किसी समय वे मौन को तोड़कर रोने लगते तो पेरुंदेवी दुखी हो उन्हें आश्वासन देने की कोशिश करती | तो वे “कुछ नहीं है तुम जाओ |” धीरे से बोल उसे अपने से दूर कर देते | इनका भी दिमाग खराब हो गया क्या ? या इनकी ही कोई कमी विरासत में बेटी को मिली ? ऐसे सोच पेरुंदेवी दुख के कारण क्रोधित भी होती | कुछ भी हो यामिनी के बहुत नजदीक जा रहे थे | वह अपने आप को उसी राह में ले जा रहे हैं उसे ऐसा लगा | इसी कारण शायद वे दोस्तों से ज्यादा संबंध नहीं रखते थे | कुछ सोचते रहते आँखों से बच्ची को देखते पर कुछ बोलते कहते नहीं| उसकी हँसी पर वे हँस देते | उसकी तोतली बोली पर वे सिर हिला देते, पर किसी बात को उत्सुकता से नहीं लेते | दूध के कटोरे में इलायची के टुकड़े तैर रहे हों जैसे उसके छोटे से गोल गोल गोरे गाल पर और ठोडी पर पेरुंदेवी जो नजर उतारने के लिए काली बिंदी लगाती उसे देख “सुंदर है” एसा पूछने पर ही कहते उस समय भी बच्चे के चेहरे को वात्सल्य से छूकर नहीं दुलारते थे |

यामिनी ठीक हो अस्पताल से घर आ गई |

कुछ दिनों तो वह ठीक ही रही | मतलब, जैसी वह थी | झूले में बैठना, अकेले रहना, रात में चेहरा देखो तो स्थिर दृष्टि से घूर रही होती | अंदर ही अंदर उबल रही है ऐसा लगता | पेरुंदेवी उसके पास जाने में ही हिचकिचाती थी | सारनाथन तो उससे पहले जैसे ही व्यवहार करते रहे | परंतु ऐसा हमेशा नहीं रहा | एक दिन रामेशन उसे ले जाने आया | प्रेम से बात करना शुरू किया |

“मैं दुकान की तरफ गया था | बहुत सुंदर कढ़ाई किए हुए, छोटे छोटे रुमालों को देखा | क्या हुआ पता है ? एक दर्जन तुम्हारे लिए लेकर आया हूँ | ये देखो |”

उसने उसके दिये हुए उपहार को नहीं लिया पर उसके चेहरे को ही घूर कर देखने लगी |

“सुंदर नहीं है क्या ? लो ले लो |” उसने रुमाल से भरे डिब्बे को उसके आगे बढ़ाया | वह डरी हुई आँखों से अपने आप में संकुचित हो पीछे हट कर खड़ी हो गई |

एक नफरत, एक आक्रोश उसकी आँखों में फैल गया |

“क्यों, तुम ऐसे मुझसे क्यों डरती हो यामिनी ? इस बात से मैं बहुत दुखी होता हूँ पता है ? मैं तुम्हें कितना चाहता हूँ तुम उसे नहीं समझीं क्या ? हम पति पत्नी नहीं है क्या यामिनी ? अब से तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए पता है ? बच्ची की वजह से तो हमें अब साथ में खुशी से जीना चाहिए |”

वह कुछ नहीं बोली |

“यामिनी मेरी तरफ देखो, तुम्हें मैं क्यों पसंद नहीं हूँ ? मैं अपने आप को कैसे बदलूंजो तुम्हें पसंद आऊँ ? तुम्हारे मन में क्या है बोलोगी नहीं तो कैसे पता चलेगा ?” उसने हाथ बढ़ा कर उसके हाथ को पकड़ा | उसने अपने हाथ को खींच कर अलग कर लिया| फिर उसने आँखों को सिकोडा, उसकी आवाज बदली और आक्रोश से चिल्लाई |

“मैं कन्या हूँ ! कन्या !”

दुबारा चिकित्सा के लिए ले जाना पड़ा | पेरुंदेवी को बहुत निराशा हुई क्या ये स्थिति बदलेगी नहीं क्या ? वह असमंजस में पड़ी |

समय तो अपनी गति से चल रहा था | बच्ची डेढ़ साल की हो गई |

एक दिन निराश व थकी पेरुंदेवी के पास घुटने से चल कर मुस्कुराती हुई आई बच्ची “अम्मा.......! माँ !”

पेरुंदेवी ने एकदम से आगे बढ़ उसे उठा गले लगा लिया | इस बच्चे को भी तो याद नहीं करती है यामिनी ! इसे यदि वह एक बार देख लेती तो उसे वात्सल्य रूपी अमृत नहीं आएगा क्या ? “यामिनी !”

माँ की आवाज सुन यामिनी सिर ऊंचा किया | घनिष्टता को न चाहने वाली उसकी दृष्टि माँ के गोद में जो बच्चा था उसके छोटे से रूप पर गयी|

डर व उत्सुकता के साथ पेरुंदेवी बिना हिम्मत के एक बार मुस्कुराई |

“इस दूध पीते बच्चे को देख यामिनी | इसे तुमने पैदा किया है ना ? कितनी प्यारी है ! इसे देखने से तुम्हारे मन में किसी तरह की कोई इच्छा नहीं होती ? ये प्यारा दूधमुहाँ बच्चा इसने तुम्हारे मन को पिघलाया नहीं क्या यामिनी ?”

सांवले चेहरे पर भावनाएं घुमड़ आई | यामिनी का पूरा शरीर कांपने लगा पर मुंह नहीं खुला |`

वह दृश्य विश्वास के योग्य नहीं लगा लेकिन कोशिश को छोड़ने का मन नहीं था पेरुंदेवी का, चेहरे पर मुसकान लिए वह फिर बोलने लगी

“इसका तुम्हारी बेटी का क्या नाम रखा है मालूम है ? ‘गीता’रखा है सुंदर है ना ? तुम्हें ये नाम पसंद न हो तो दूसरा नाम जो तुम्हें पसंद हो बताओ, उसे रख लेंगे, प्यारी बच्ची गीतू, प्यारी गीता .....वह कौन है तुम्हें पता है ? तुम्हारी अम्मा है अम्मा, ”

बच्ची “माँ.....” बोलते ही हँसते हुए बच्ची पेरुंदेवी को ही दिखाने लगी |

“मैं नहीं हूँ रे मेरी सोना ! वह ही है तुम्हारी अम्मा | तुम धीरे चल कर अम्मा के पास जाओ देखो !”

पेरुंदेवी काँपते हुए हाथों से धीरे से बच्ची को जमीन पर छोड़ा | जैसे नीचे बर्तन को रखें तो एक बार हिल कर रह जाता है वैसे ही बच्ची ने पैरों को आगे नहीं बढ़ाया सिर्फ हिल कर रह गई |

“हाँ जा री, प्यारी अम्मा के पास जा !” उसकी आदत नहीं होने से फिर उसकी तरफ ही आने लगी बच्ची, तो उसने उसे पकड़ धीरे से यामिनी की तरफ आगे किया तो दो कदम आगे बढ़ी बच्ची|

यामिनी की आँखें चौड़ी हुई बच्ची को देख वह आँखें नम न होकर ये क्या! कठोर हो रही हैं ? एक दीर्घ श्वास छोड़ना, दांतों को पीसना, भौंहों की सिकुड़न, ये क्या आक्रोश भरा बदला चेहरा क्या ये संभव है ? एक माँ की अपनी बच्ची को देखने की निगाहें हैं क्या ये ? गुस्से में उबलते हुए यामिनी जल्दी से पीछे को जाकर दोनों हाथों सेठुड़ी पर ज़ोर से दबाते हुए तेज आवाज में जोर से चिल्लाई | डरी सहमी बच्ची को पेरुंदेवी ने जल्दी से गोदी में लिया | वह तो पता नहीं कैसे धनुष से बाण के छूटने जैसे पिछवाड़े कुएं की मुडेर को पार कर उसके अंदर कूदने वाली थी, उसी समय उस जगह पेड़ पौधों को देख रहे सारनाथन और माली ने भाग कर आ उसे पकड़ लिया |

यामिनी आवेश में भर छटपटाई अपने को छुडाने के लिए जैसे पूरी शक्ति लगा कर कुंऐ की ओर अपने को खींचने लगी | अंदर रसोई में काम कर रहे रसोइयाऔर पडोस के घरों से दूसरे लोग इसके चिल्लाने की आवाज सुनकर बाहर आए सभी लोगों ने मिलकर उसे मुश्किल से रोका, वह आवेश सेभर पैरों और हाथों को छुड़ाने के लिए छटपटाने लगी | सबने मिलकर उसे घसीटा और पीछे वाले कमरे में ले जाकर छोड़ा | फिर भी उसका गुस्सा, आक्रोश, दीवानापन और चीखना-पुकारना कम ही नहीं हुआ तो उसे कमरे के अंदर डाल ताला लगा दिया | उसके बाद कई बार उसका इलाज चला ! हर एक बार यामिनी ठीक होकर अस्पताल से घर वापस आती | रामेशन जहां काम करता था वहां से उसकी बदली चेन्नई से बाहर हो गई | पति के साथ जाकर वह अपना परिवार संभालेगी ये विश्वास तो सपना ही था ये अब बिलकुल साफ हो गया | रामेशन अकेले ही चेन्नई छोड़ कर चला गया | उसके उस शहर में न रहने के कारण उसके अब अधिक न आने से यामिनी के आवेश में कमी आई | बच्चे को भी उसके सामने नहीं लाते थे | पेरुंदेवी इस बात का बहुत ध्यान रखती थी | इसलिए यामिनी बिना आवेश के शांति से रह रही थी | उसकी बातें व उसका व्यवहार ठीक ही रहा | परंतु.......

“यामिनी को खाना दे दिया क्या ?” सारनाथन ने पूछा |

“दे दिया खाना खा रही है | दही लेजाने के लिए आई हूँ |” पेरुंदेवी ने जवाब दिया |

“कुछ अजीब तरीके से आजकल शांत है बच्ची” कहते हुए सारनाथन बेटी के रहने की जगह आए धक रह गए ! लड़की कहाँ है ?

बगीचे में वह क्या आवाज आ रही है ? एकदम भागकर पिछवाड़े गए | कुएं के पास जा रही उस काली आकृति को समय पर पहुँच कर झपट कर बांध लिया |

दूसरे दिन शाम को बाप और बेटी चाँदनी में बैठे हुए थे | अधिक बात तो नहीं हुई फिर भी उनमें एक मिठास व दोस्ती थी | माँ को देखकर ही आवेश में आने वाली यामिनी, सिर्फ अपने अप्पा से स्नेह रखती थी | उनका मौन ही एक अकेला आधार है ऐसा उसे लगा |

धीरे धीरे अंधेरा फैल रहा था | तारे जैसे आँखें खोल रहें हों लग रहा था | उन्हें पिछले रात की याद आई |

“उस दिन तुमने जो कविता बोली आज भी कुछ बोलो बेटा |”

वह नहीं बोली | उन्हें देख एक बार मुसकराई | उसने एक दीर्घ दीर्घ श्वास छोड़ा | फिर से अपनी आँखें आकाश की तरफ कर दी |

उनका शरीर रोमांचित हुआ | उसे कविता बोलने की क्या जरूरत है ? वह खुद एक कविता ही है | वह एक रात ही है | काम करने वाली बाई वहाँ आकर बोली कि आपको देखने कोई नीचे आया है| सारनाथन उठ कर चले गए |

घर के बैठक में घुसते ही उन्हें मन में ऐसा लगा कोई थपथपा रहा है | वे तुरंत पिछवाड़े में दौड़ कर गए | ऊपर से नीचे उतर पिछवाड़े में कोई जा रहा था कुंए की तरफ, वह कुएं में कूदे उसके पहले जाकर उसे पकड़ कर रोक दिया |

उसके बाद समस्या को जानने में ज्यादा समय नहीं लगा | यामिनी कि बीमारी ने एक नई शक्ल अख्तियार कर ली थी | बाहर से देखने में स्वाभाविक दिखने पर भी, सच्चाई कुछ दूसरी थी | थोड़ी देर भी उसे अकेले छोड़ा तो वह सीधे कुएं कि तरफ भागती थी | अब उसकी बीमारी चिकित्सा से दूर करना मुश्किल था |

उसके मन मुताबिक उसे अकेले जीवन जीने देते, तो उसके अंदर छिपी हुई कोई इच्छा समय के साथ उसके जीवन में वह एक सीधा रास्ता अपनाती या उसे अपनाने के लिए तैयारी वे करवाते| उसे ऐसे न करने दिया व बीच में ही रुकावट डाल उसके सपनों की जड़ को काट देने से जैसे वह मुरझा गई, उसका दिल टूट गया| अपने आप को मिटाने का ही मकसद उसके लिए रह गया क्या ? स्वयं जैसे रहना चाहती थी वैसे न रहने के कारण ही उस जीव का अपने आप को खत्म करना ही, उसका एक मात्र उद्देश्य हो गया क्या ?

उसका जीवन एक कैदखाने में कैद होकर रह गया । ताला जड़े किवाड के पीछे कोने वाला कमरा | उसके पसंद का झूला निकाल कर उस कमरे में रखने की सभी तैयारियां सारनाथन ने कर लीं| वह सिर्फ एक वही उसके पसंद की वस्तु वहाँ रहने दो ! कमरे के बाहर ताला उस बंद कमरे में वह | कमरे के अंदर वह और उसका अंधेरा, अब और उसे अकेले कैसे बाहर छोड़ सकते हैं ? अकेले छोड़ते ही सीधे वह कुएं में कूदने ही तो दौड़ती है ? कुएं को किवाड़ लगा ताला लगा दें ऐसा पहले सोचा | कुएं के अंदर उतरने वाला कुआं होने से वह ठीक जमा नहीं | उसके अलावा कुएं में ताला लगाने के वाबजूद भी उसे बाहर किसी के भी साथ घूमने देने की उनमें हिम्मत नहीं थी | कोई दूसरे मार्ग वह नहीं अपनाएगी ये भी कोई निश्चय नहीं था ?

दरवाजे को खोल कर पेरुंदेवी उसे खाना देती थी | उसको हवा में थोड़ी देर रखने के लिए माँ या पिता उसे बाहर अपनी निगरानी में साथ ले जाते फिर लाकर कमरे में बंद कर ताले में रख देते|

जैसे-जैसे साल बीतते गये यामिनी की मानो-दशा और भी खराब होती गई | कमरे में से कभी झूले की सांकल की आवाज आती | कभी गाने की आवाज आती | कभी-कभी रोने की आवाज, कभी-कभी चिल्लाने की आवाज आती | ज़्यादातर तो वह अंधेरे में घूर कर देखती हुई पत्थर जैसे बैठी रहती | सामान्य तौर पर देखना या बात करना उसका बहुत कम हो गया |

ताले लगे कमरे के बाहर माँ बाप का मन तड़पता था | पेरुंदेवी के दुख को बच्ची गीता ने कुछ हद तक कम किया | सारनाथन को तो कोई बात सांत्वना न दे सकी ऐसे वेदना में वे समा गए | ये क्या हो गया ! अय्यो ये क्या कर दिया ! कोने का कमरा, झूला और ताला लगा दरवाजा | आखिर में एक दिन उसका भी अंत आया | गीता की उस समय आयु दस साल थी | पेरुंदेवी अब भी उस दिन के बारे में सोचती है तो उसका दिल टूट जाता है | बच्ची को मेहँदी लगा कर आई पेरुंदेवी को अपनी पुत्री को भी ऐसे ही मेहँदी लगा देखने की उसकी इच्छा अचानक जागृत हुई | पीसी हुई मेहँदी को प्लेट में लेकर कोने के कमरे को खोल अंदर आई |

“यामिनी मैं तुम्हें थोड़ा मेहँदी लगा देती हूँ ! दया कर मान जाओ ना ?”

छूकर उसे मेहँदी लगाने आए हाथ को झटके से उसने दूर किया|

दरवाजे के पास उस समय आए सारनाथन की बोलने की आवाज साफ सुनाई दी

“यामिनी दूसरा कोई तुम्हें छूकर मेहँदी न लगाए तो तुम अपने आप ही लगा लो |” उनकी आवाज में याचना थी | “तुम कैसे-कैसे सज कर रहती थी वैसे ही तुम्हें देखने की मुझे इच्छा हो रही है बेटी |”

उसकी आँखें उन्हें देख ऊपर हुईं | वह क्या बोलेगी माँ बाप सोचने लगे | हँसेगी ? चिल्लाएगी ? अप्पा के कहने को समझ गई होगी क्या ?

वह समझ गई क्या ? अचानक वह उस प्लेट को पास खींच पिसी मेहँदी को लेकर अपने पैरों पर और हाथों के उँगलियों पर लगाने लगी | माँ बाप के मन में एक विश्वास का अंकुर फूटा |

उसके बाद थोड़ी देर में फिर ऐसा लगा फिर बढ़ गई उसकी बीमारी फिर दो दिन....... फिर दो दिन बाद........ पूर्णमासी की रात, इसीलिए उसकी हरकतें ज्यादा तेज हो गई क्या ? पेरुंदेवी कितनी बार कितनी सालों से ये प्रश्न अपने से पूछती रहती है ! माँ की ममता! आँखों से आँसू रहने तक यह प्रश्न उठता ही रहेगा |

हमेशा की तरह पेरुंदेवी ने उसको खाना दिया, खाने के बाद फिर सारनाथन बेटी को उस कमरे के बाहर लेकर आए | ऊपर की छत पर दोनों गए | छत पर पूरा संसार अपने हाथ में है सोचने वाली उसकी खुशी के लिए सारनाथन अकसर उसे यहाँ लाते |

उसे वहाँ काफी देर हुई | पेरुंदेवी बैठक की दीवार का सहारा ले खड़ी होकर सामने की दीवार पर रवि वर्मा के बनाए सुंदर चित्र को देख रही थी | यामिनी उस ताला लगे दरवाजे के अंदर ज्यादा सुरक्षित थी ऐसा उसे विश्वास था और उसे बेटी के बारे में कोई दूसरी चिंता मन में नही थी | फिर वह सोने चली गई | सो रही छोटी बच्ची गीता को बिना पलकें झपकाए कुछ देर देखती रही फिर स्वयं भी सोने लगी |

बीच रात अचानक कोई अजीब सी कुछ आवाज महसूस हुई तो घबराकर आँखें खोल पेरुंदेवी, बिस्तर से उठ कोने की कमरे की तरफ गई |

कमरा अभी भी खुला था |

घबरा कर जब वह पलटी तो सारनाथन छत की सीढ़ियों से कमरे की तरफ ही आ रहे थे |

“यामिनी कहाँ है ?” घबरा कर माँ ने पूछा |

“छत पर मेरे साथ लेकर गया था | तुम्हें तो पता है ना ? वहाँ आज अच्छी हवा थी | अत: उसने कुछ देर और बैठने की कहा थोड़ी आँखें बंद कर ली | अब वह पीछे आ रही है |” बोले | बहुत ही थके हुए लग रहे थे |

“पीछे कहाँ ? नहीं है ?”

अंधेरे में दिखाई नहीं दे रहा है लगता है |” पेरुंदेवी लाइट जलाई| वहाँ कोई नहीं था |

“अय्यो, ये क्या ?”

“क्या आश्चर्य है ! साथ ही तो लेकर आया” सारनाथन घबराए हुए आवाज में बोले पेरुंदेवी का मुंह सूख गया | “क्या आपके आँखों में धूल झोंक कर चली गई ? अरे यामिनी | अम्मा, मेरी प्यारी यामिनी माँ हडबडाकर दौड़ी | सारनाथन भी दौड़े घर में जो आदमी थे वे भी जग कर हडबड़ाए, अड़ोसी-पड़ोसी भी जाग गए | किस जगह की तरफ भागना चाहिए सभी को पता था |

सबलोगों ने मिलकर शव को बाहर निकाला“यामिनी !” कह कर ज़ोर से चिल्लाकर बेहोश हो गिर गई पेरुंदेवी |

उस रात किसी निर्जीव चीज जैसे जमीन में पड़ी थी यामिनी। शरीर पर चिपकी हुई पानी की बूंदें तारे जैसे चमक रही थीं |

रात मौन साक्षी के रूप में सब देख रही थी |

***