दीप शिखा - 1 S Bhagyam Sharma द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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दीप शिखा - 1

दीप शिखा

तमिल उपन्यास

लेखिका आर॰चुड़ामनी

हिन्दी मेँ अनुवाद

एस॰भाग्यम शर्मा

(1)

जो अपने ख्यालों को ही जीवन समझ लेता है उसका जीवन भी एकविचार ही बन कर रह जाता है उसमें कोई स्वाद या पूर्णता कहाँ से आएगी? संसार में आकर भी इस संसार को अपने से अलग समझें तो पूर्णता कैसेआयेगी ? इस लड़की के मन में आने वाले कुछ विचारों के भावी संकेत इसपत्र में है। एक अजीब ख्याली जिंदगी के लिए ही फड़फड़ा रही है क्या ?

संसार को पीठ दिखाना क्या एक नव यौवना के विषय में एक बिना अर्थवाला ख्याल नहीं? भला ये भी कोई सारगर्भित बात हो सकती है ?

गीता की चिट्ठी उसके हाथों में फड़फड़ा रही थी। कागज में लिखे शब्दभारी पत्थर जैसे लग रहें थे। उसके शब्दों ने उनके मन में भी वजनी पत्थर रख दिया हो ऐसा लग रहा था। उसकी बातें उसके शब्द और उनका अर्थ कोई जादूई मंत्र जैसे न हो जाए

क्या ? ऐसे विचार से पेरूंदेवी ने फिर से पत्र को पढ़ा ।

कई-कई पेजों में उत्साह भरा वर्णन किया था ऋषिकेश जाने का और वहां का वर्णन तो गीता ने पहले ही पत्र में लिख दिया था | वहां से अलकनंदा के किनारे किनारे बद्रीनाथ को जाने वाले रास्ते के बारे में लिखा था। वहां के प्राकृतिक दृश्यों, रास्तो में हिम वर्षा, बादल जंगल में तरह-तरह के पेड़ ठंड़ी-ठंड़ी हवाएं आदि के बारे में लिखा था। पहले बद्रीनाथ पहुंच गए थे।

वापस आते समय यह.......! प्राकृतिक सुंदरता को चाहने की भी तो एक सीमा होती है ?

वहाँ तक तो ठीक भी है। आगे के वाक्यों में “अब लौटने वाले यात्रियों के साथ मैं नहीं आ रही हूं, कुछ दिन और सब कुछ भूल कर बद्रीनारायण जी के मंदिर में स्वंय को भूल कर उनके आनंद में लीन होना चाहती हूं। ”

आनंद में लीन की वही बात तो उसे डराती है, क्योंकि एक मनुष्य अपनी सीमा को यहाँ लांघ जाता है। मनुष्य के अपने हिसाब से अपने सामर्थ्य के अन्दर जो कुछ आता है उसे समेटना चाहिए। यदि दुनियां वालों के विपरीत दूसरे ढंग से काम करे तो यह संसार से विमुख होने की निशानी नहीं होगी क्या ? यह........ यह..... भी ! पेरूंदेवी का शरीर ठंडा बर्फ जैसे हो गया। इस विचित्र वेश की आवश्यकता नहीं है। इस नए जीवन में उसे नहीं जाना चाहिए। मुझे जो समझ में आता है उसी के अन्दर गीता को रहना चाहिए। आकाश की तरफ न देख इस भूमि में ही पैर रख कर चलने वाली ही मुझे हमेशा दिखाई दे……..

उनके समझ में आए ऐसा इस पत्र में कुछ नहीं है क्या ? यहां यहां.....

“तुम्हें मेरे बिना रहना कष्टदायक तो होगा अम्मा, मुझे भी वैसा ही लगेगा, तुम मेरे पास नहीं हो मुझे वह कमी बहुत अखर रही है तुम्हें भी साथ लेकर आ सकती थी क्या ? उनसे मैंने क्यों नहीं पूछा इस बात का मुझे बहुत दुख हो रहा है। बस कुछ दिनों की बात है। थोड़ा सहन करो। दौड़ कर तुमसे गले मिलूंगी |”

इन शब्दों मे बच्चे की आवाज आ रही थी ! ये एक परिचय है। यहीं उसकी असली दिखाई देने वाली शक्ल है। पेरूंदेवी को उसकी आवाज सुने बिना ही एक मुस्कान उसके चेहरे पे आ गई। दूसरे ही क्षण फिर से पहले वाला डर । भगवान और मंदिर दोनों में कौनसा आकर्षण है जो गीता को अपनी ओर खींच रहा है ?

उसका मन तड़प उठा और घबराहट में एक प्रार्थना मन से उठी! “हे प्रभु तुमसे मैं स्पर्धा कर सकती हूं क्या ? आप मेरी बच्ची को मेरे पास ही रहने दो । ”

‘पुरानी कहानी फिर से शुरू नहीं होनी चाहिए। गीता में जीवन जीने का चाव खत्म नहीं होना चाहिए...... इस बद्रीनाथ यात्रा के लिए उसे गीता को रोक देना चाहिए था..... परन्तु बच्ची की इच्छा हो रही थी!

मुंह को गोल कर, आंखों में उत्साह और फूल से खिले चहरे से मेरे कंधे को पकड़कर बोली थी “मैं भी उन लोगों के साथ बद्रीनाथ जाकर आऊं! मुझे इन सब जगहों को देखनें की बहुत इच्छा है!” इस तरह प्रेम से पूछने पर मैं कैसे मना कर सकती थी | मैं हृदय से जिसे चाहती हूं वही मेरी लाड़ली है

गीता का होठ हिलते ही मेरा दिल कठपुतली जैसे नाचने लगता है। ’

घर के बाहर पीछे की दीवार के अंदर की तरफ कांटे का पेड़ उगा था जो दरवाजे से उसे दिखाई दे रहा था उसे लगा ये कांटा उसके हृदय को छलनी कर रहा है। उसकी घबराहट कम ही नहीं हो रही थी। पत्र को लेकर पीछे की तरफ के कमरे में ढलते हुए शरीर के साथ बैठे धीरे-धीरे झूला झूल रहे अपने पति के कमरे के में बड़े संकोच के साथ आ खड़ी हुई ।

“इसे देखा क्या ? गीता ने पत्र भेजा है। ” सारनाथन उसे घूर कर देखने लगे। कहीं और जो ध्यान लगा रखा था | उसे बड़े प्रयत्न से खींच उसके ऊपर ध्यान को केन्द्रित करने की कोशिश कर रहे थे।

बड़े मनोवेग के साथ बोले आए हुए का स्वागत है ? पेरूंदेवी अन्दर ही अन्दर बहुत संकुचाई। उसे एक तरफ क्रोध आ रहा था साथ में कुछ संकोच, डर और हिचकिचाहट भी थी । पिछले दिनों इसी तरह की निगाहों से डरा कर भगाने वाले आज पुरानी बातें की वजह से ही ऐसे बदल गए हैं ना ? वही अकेली है। इस अकेलेपन में एक सहेली बन गीता ने उसके मन को बांध कर रखा है। अब उस बच्चे को भी छोड़ना पड़ेगा ? ऐसा भी होगा क्या ? तीर जैसे चुभे दर्द से वह तिलमिलाई । ऐसी दशा में एक

आश्वासन की जरूरत होने के कारण संकोच को छोड़कर वह बोली ‘‘आप ही पढ़कर देखो। ” पत्र को उन्होंने लिया ही नहीं | अपने नजरों को दूर कोने के मेज पर पड़े उस प्लास्टिक के कवर को घूरते हुए बोले “तुम ही बताओ क्या है । ”

“बच्ची के लिखे हुए पत्र को पढ़ने की आपकी इच्छा नहीं है क्या?”

‘‘मेरी बच्ची एक ही थी वह अब इस संसार में नहीं है। ”

पेरूंदेवी को रोना ही आ गया। इस ख्याल से ही वह संकोच से दूर हो जाती है। वही क्या इनकी एक अपनी है ? जो अभी सामने है वह इन्हें अपनी ओर नहीं खींचती ? ये तो उसी में अपने को खत्म कर रहें है। उनकी सोच उनकी याद उनका अपना शरीर सब कुछ अंधेरे में ही तो है। ये जो यादें है वही तो अन्धकार है।

‘‘कल कुछ लोग वहां से रवाना हो रहें है परन्तु उनके साथ गीता नहीं आ रही है। ”

‘‘ठीक है। ”

‘‘उसकी सहेली मीना के बुलाने पर ही तो ये गई ? उसके साथ उसे वापस आना चाहिए ना|”

‘‘हाँ ठीक है। ”

‘‘क्या हां, अगले हफ्ते दूसरे और लोग रवाना होंगे उन्ही के साथ वह लड़की आ रही है। ”

‘‘ठीक है। ”

‘‘ये भी ठीक है, सब ठीक है। उसको बद्रीनाथ मन्दिर में और कुछ दिनों अधिक रहने की इच्छा है। ”

‘‘ठीक है। ”

‘‘क्या ठीक है ? इसे क्यों ऐसी इच्छाएं अभी से है ? अपनी गीता अभी बीस की पूरी नहीं हुई है याद है ना ?”

‘‘उससे क्या है ?”

‘‘इस उम्र में संसारिक बातों में इच्छा होना सही होता है। भगवान मन्दिर.?........दूसरी बार भी ?”

उन्होंने घूर कर देखा ‘‘क्या बोल रही हो”?

“एक तो असाधारण... क्या-क्या बोल कर, कैसे-कैसे व्यवहार कर, स्वयं भी दुःखी होकर, दूसरों को भी रूला कर चली गई। ये लड़की भी ऐसे ही मन्दिर तीर्थ......”

‘‘जाने वाली ऐसे भगवान के लिए पागल होने वाली तो नहीं थी?”

‘‘अरे, वैसे ही ये दूसरी तरह की असाधारण अनोखी है ये कह रही हूं। न कोई दुनियादारी न कोई मोह-बन्धन........ इस मामले में तो दोनों ही एक है ना ?”

सारनाथन की निगाह अचानक स्थिर हो गई। कमरे में अगरबत्ती जला दी ऐसा लगा। कोई मीठी-मीठी सुगन्ध फैली।

‘‘ऐसा होगा तुम बोल रही हो गीता के लिए ?.....

अरे......रे..... ये क्या भाग्य है! इस बार मैं गलती नहीं

करूंगा......

‘‘अय्यों, मैं बेकार में फिकर कर रही हूं | ये ऐसा नही होना चाहिए, ये..... सिर्फ उस लड़की का प्राकृतिक सुन्दरता का मोह और युवा अवस्था की एक उत्साह भरी यात्रा समझ कर प्रसन्न होने वाली बात ही होनी चाहिए |

पेरूंदेवी ने अपने विश्वास को पक्का कर प्रार्थना की। उनके मन में जो अशांति थी उसे शान्त करने लिए ही ऐसा सोचा होगा, शायद ऐसा ही होगा। सभी लोग मेरी बच्ची जैसे हो सकते है क्या ? बोलकर वे फिर अपने पुराने यादों में खो गई।

यादें, क्या चली गई उसकी यादें। ताजा घाव की तरह उनके मन में बस गई है वह । उनके मन में अन्दर तक बसी यादें इनसे चिपक गई हैं। रिश्ते की काली छाया बन हमेशा उन्हें घेरे रहती हैं यादें। ये अन्धेरा है। उसकी यादें अंधेरा ही तो है।

नहीं नहीं ऐसा सोचना गलत है। वह अंधेरा नहीं है रात है। रात का मतलब सिर्फ अन्धकार ही नहीं है रात में सुगन्ध है जीवन है आश्चर्य भी है !

नीले आकाश में तारे अपनी रोशनी बिखेरते हैं। उसकी कृपा से शरीर का एक पवित्र सम्बन्ध है। उस अन्धकार में न मिटने वाला एक मर्म भी तो है।

वह........ सिर्फ अंधेरा नहीं। वह एक रात्री की ज्योती, एक दीप शिखा है।

***