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दीप शिखा - 8

दीप शिखा

तमिल उपन्यास

लेखिका आर॰चुड़ामनी

हिन्दी मेँ अनुवाद

एस॰भाग्यम शर्मा

(8)

बुढिया ने सिर ऊपर उठाया, अगल-बगल सब निराश, कुम्हलाए चेहरे ऐसे लगा सांत्वना देने की कोशिश कर रहे हों जैसे|

प्रेम व सहानुभूति से गीता ने उसके कंधे को पकड़ रखा था |

“अम्मा ! आपको कुछ हो गया है क्या ? आप इतना थकी और निराश क्यों लग रही हो ?”

पेरुंदेवी कुछ न बोली | जीवन में जो कठिनाईयां आई उसमें से बच निकलने की ही तड़प और दर्द है ये ।

“अम्मा ! अम्मा | बोलो माँ !”

“बोलने को कुछ भी नहीं गीता ? पता नहीं एक हफ्ते से मुझे बहुत थकावट लग रही है |”

एक हफ्ते पहले ही गीता ने उसे पूजा के कमरे में बुला अपने मन की बात बताने की इच्छा जाहिर की तो, वह किसी तरह बच कर निकल आई | उसके बाद जो बीते सात दिन, एक-एक क्षण “गीता कब फिर से उस बात को शुरू कर देगी ? ऐसी घबराहट उनके मन में थी | पुराने ख्यालों का चिंतन उनके दिमाग में चल रहा था | फिर से एक बार क्या वही सब होगा ? जिस पैर पर चोट लगती है बार-बार उसी पर चोट लगती है जैसे मेरे दुखी घायल मन को बार-बार ये सदमा ये धक्का ? यामिनी पर उसने जो मोह-ममता रखी थी वह तो इस बच्ची में आकर ही पल्लवित हुई | उसी तरह उसने यमिनी के लिए जो सपने देखे, वह इसी से तो पूर्ण होकर मुझे फल नहीं देंगे क्या ? इस समय पके फल में कीड़े लग गए तो? उन इच्छाओं की पूर्ति तो इसी को पल्लवित पुष्पित होकर देखने से ही तो इस बूढ़ी के मन के घाव को मरहम लगेगा ?

‘हे भगवान, मैं साधारण स्त्री हूँ | फिर-फिर, अलग-अलग दृश्य देखने से तो मेरी आँखें चौंधिया जाएगी | मेरे जैसी साधारण स्त्री की साधारण इच्छा भी पूरी नहीं होगी क्या ?’

“तुम्हारी तबीयत ही ठीक नहीं है अम्मा | डॉक्टर को बुलाएँ ?”

“ऐसा बड़ा कुछ नहीं है मेरी प्यारी बेटी |”बोलते हुए पुरानी यादों में से ही अचानक एक याद मन में कौंधी, क्या ऐसा सब मुझे मत बुलाओ अम्मा, ये मुझे पसंद नहीं लगा गीता एसा कहेगी, पर ये बात तो इसने नहीं बोली ! इस बदलाव के कारण वह बुजुर्ग थोड़ी देर अपने आप में उत्साहित रही | इसे छेड़ सकते हैं, इसे पुचकार सकते हैं और इसे प्यार से गले लगा सकते हैं | प्यार से चूम भी सकते हैं | वह अलग थी यह अलग है........ पेरुंदेवी उठ कर बैठ उसके बालों को सहलाने लगी|

“तुम्हें किसी सहेली के घर जाना है बोली थी ना गीता ?”

“फिर जाऊँगी | आज घर में ही कुछ काम करने की सोच रही हूँ|”

सभी सामानों पर से धूल झाड़ना, घर को साफ रखना ये काम गीता हीकरती थी | चीनी मिट्टी के बर्तनों को नौकरों के भरोसे न छोड़ स्वयं ही धोकर रखती | लिनोलियम फर्श के बिछाने को नौकर उसको तह न बना दें सोच कर उसे गोल गोल लपेट कर स्वयं ही छाया वाली जगह जहां धूप न आती हो कोने में रखती थी |

“अम्मा, अपनी परिपूर्णम है ना ; उसे लगता है सभी वस्तुओं में जीवन है और इस विश्वास के कारण देखो ! जमीन को भी कितने धीरे से पोंछती है | ज़ोर से पोछों तो उसे दुखेगा सोच कर पोंछती ही नहीं उसकी सहृदयता देखो तो | धूल सब ऐसे के ऐसे ही है |” ऐसा नौकरनी से मज़ाक करती | उसके हँसते हुए बोलने के तरीके से परिपूर्णय को भी गुस्सा नहीं आता |

“पर्दे सब बहुत ही गंदे है ! क्यों अम्मा तुमने बदले नहीं ?” खिड़की को देखते हुए बोली |

“ये सब मुझे क्या पता है री ? तुम एक महीने से यहाँ थी नहीं ! इसलिए गंदा है | अब बदल दो ना ? तुम सही तरीके से सब करती हो | मुझे ये सब मालूम नहीं |”

खिड़की के पर्दे, पूरे घर के मेजपोश बदल डाले, दरवाजे के पर्दे, सोफा, कुशन के कवर सब को रंग देखकर उसने बदला | उसने कपड़े की गुड़िया बनाना भी सीखा था | उसने जो गुड़ियाएं बनाई उनमें से दो बैठक की एक काँच की अलमारी में रखींथीं| उसमें से एक किसान की बीबी दूसरी मुरली बजाते श्री कृष्ण जी उसने दोनों को उसमें से निकाल कर धूल झाड कर साफ कर फिर से अंदर रख दिया |

दोपहर को जब सब लोग काफी पी चुके, “दूध बहुत सारा बचा है अम्मा ! थोड़ी सी आइसक्रीम बना दूँ ?” पूछा |

“जो इच्छा है करो |”

“तुम्हें भी खाना पड़ेगा |”

“छि छि, मैं नहीं खाऊँगी |”

“घर का ही तो बना है ना ? अंडा थोडी डाल रही हूँ ?”

“अब वही एक बाकी है ! वह नहीं है तो क्या हुआ ? उसमें एसेंस आदि कुछ-कुछ मिलाती हो, वह दुकान से ही तो खरीदते हो ना ?”

“ठीक है पडोस में इस तरह के फलों के एसेंस बनाना सिखाते हैं| मैं जाकर सीख कर उससे बना कर तुम्हें आइसक्रीम खिलाउंगी |”

पेरुंदेवी बहुत खुश हुई | इस बच्ची को मुझसे प्यार है इसलिए ही तो कह रही है | इसको कितना व्यवहारिक ज्ञान है कितनी फुर्ती इसमें है और ये जमीन से जुड़ी है ये देख कर वह ज्यादा प्रसन्न थी |

जो चली गई उसने कभी घर के लिए चिंता नहीं की, न कभी प्यार किया ना ही घर के कामों में रुचि ली |

“तुम्हें मेहँदी लगाए बहुत दिन हो गए गीतू ?

आज रात पीस कर लगा देती हूँ |”

“ठीक है अम्मा |”

छूकर लगाने वाले हाथों को वह नहीं हटाएगी |

“आइसक्रीम बनाना है बोली ना ! रसोइये को दूध गरम करने को कह दिया क्या ?

“नहीं माँ | मुझे कोई इसी समय करना है ऐसा नहीं है | वैसे भी तुम खाने वाली नहीं हो......”

“उससे क्या हुआ ? तुम खाओ, तुम्हारे अप्पा के घर फलास्क में डाल कर भेज दो, रामेशन को तो बहुत पसंद है ! फिर तुम्हारे ताता (नाना) को दो......” गीता हंसी ! और मज़ाक करते हुए बोली “देखो कितना उनका ध्यान है | मैं भूली तो भी तुम ताता (नाना) को भूलोगी क्या ?”

“उसमें क्या आश्चर्य है री ?” पेरुंदेवी उसे घूर कर देखी | “वही तो जिंदगी है गीतू ! मोह, ममता और जुड़ाव एक दूसरे का साथ, ये सब बहुत जरूरी है |”

उसके अर्थ को छोटी के हृदय में बैठाने के लिएजो तड़प बुढिया में थी अत: ज़ोर से बोली | गीता की आँखों की तरफ उसने एक विचित्र दृष्टि से देखा कि ये क्या सोच रही है ? उस बात को समझ रही है क्या ? मान जाएगी क्या ? वही तो (हे प्रभु !) उसे मना कर रही है क्या ?

गीता ने सिर को दूसरी ओर कर लिया | “तुमसे एक बात कहनी है मैंने बोला था ना अम्मा.....”

“हाँ ठीक है, सब बाद में बात करेंगे | मैं कहाँ भाग कर जा रही हूँ ! अब जाकर थोड़ी देर आराम से सो जा |” पेरुंदेवी ने फिर से शीघ्रता से ही उस विषय से दूरी बना ली | फिर वही सोच वही आँखें..... कन्या या तपस्वनी, जो भी हो तो क्या है ? बर्तन के ऊपर से दूध उबल कर बहे या फिर बर्तन के छेद से गिरे तो क्या ? दूध तो गया |

शाम को वह गीता को बैठाकर उसकी चोटी बनाने लगी | जूड़ा बनाना गीता को पसंद था, फिर भी बड़ी बूढ़ी की खुशी के कारण वह जब उसे बुलाती थी तो वह उससे बालों को संवार कर चोटी बनवा लेती थी |

पुराने जमाने जैसे टाइट चोटी कर देती फिर उसमें पेरुंदेवी बगीचे में जो मोगरे के फूल थे उसको सुई से पिरो कर हार सा बना उसे उसके चोटी में लगा देती | चश्मा पहन कर वह छियासठ साल की पेरुंदेवी युवा लड़कियों के बराबर सब काम करती थी | अब भी घर में तैयार किया हुआ तेल रोज अपने आधे सफेद आधे काले बालों में लगा कर, बालों को कंघी से खूब संवार कर बांध कर फिर थोड़े से मोगरे के फूलों को उसमें अंदर ठूस लेती थी | वह दुबली थी और ज्यादा ऊंची भी नहीं थी, पर उसका शरीर सुंदर आकृति का था | पेरुंदेवी को लड़की की वजह से जो संकट व समस्याएँ थीं, उसकी मौत का कभी खत्म न होने वाला दुख था वह भी पेरुंदेवी के चंदन जैसे बदन को खराब नहीं कर सके | उनके दांतों को ही सिर्फ पायरिया के कारण निकालना पडा | उन्होंने नकली दांत लगा रखे थे| उसकी वजह से होठ अंदर की तरफ चले गए व ‘पर्स के जैसे उनका मुंह’ हो गया| फिर भी नकली दांत के सेट लगवाने से वे अच्छी लग रही थीं |

मुंह धोकर, तिलक लगाकर फिर गीता दूसरे कपड़े बदल कर सफेद कलर की साड़ी पहन कर आई |

सफेदझक, जीवन के स्वागत का रंग सफेद ? पेरुंदेवी का मुंह बिगड़ा |

“क्यों री सफेद साड़ी ? तुम्हारी उम्र में तो तरह-तरह के आँखों को चौंधियाने वाले रंगों का पहनना चाहिए ?

“मुझसे ज्यादा तुम स्टाइल से रहती हो अम्मा !” कह कर हंसने लगी गीता |

“ठीक है री बड़बोली | जा जाकर कोई अच्छे से रंग की………” भूमि से मिलता रंग क्या है ? मिट्टी का रंग भूरा है | “कोई एक ब्राउन रंग की साड़ी निकाल कर पहन ले |”

गीता भूरे रंग में पीले फूल के प्रिंट वाली साड़ी पहन कर आई |

“कितनी सुंदर मेरी बच्ची, रवि वर्मा के चित्र जैसे लग रही है !” बुढ़िया उसकी नजर उतारने लगी |

“जा, जाकर ताता (नाना) को दिखा कर आ |”

“हाँ अम्मा | पर पहले भगवान का दीपक जला आऊं फिर जाकर उन्हें दिखाती हूँ | शाम हो गई है |”

बुढिया का मन गदगद हुआ | उस यामिनी ने उस दिन दीप को जलाने से मना किया तो मन कितना परेशान हुआ अब इसके जलाऊँगी बोलते ही उसका मन खुश हो जाता है |

भगवान का दीपक जला कर कोने के कमरे के बाहर आकर खड़ी होने में गीता को संकोच हो रहा था | अंदर लाइट नहीं थी | बीच हॉल में जो लाइट थी उसकी रोशनी थोड़ी आ रही थी | टूटे हुए फर्श के गड्ढे जैसे टुकड़े-टुकड़े अंधेरा छाया हुआ था| ताता की छाया जैसे झूले में बैठी थी | धीरे से उनकी पीठ पीछे की शर्ट हिली| धोती के बीच की सिलवट कुछ-कुछ दिख रही थी | झूले का सांकल हिल रहा था |

“इतनी जल्दी सो गए क्या ताता (नाना) ? सात ही तो बजे है !” सारनाथन कुछ न बोले |

“क्या बात है ताता ? तबीयत ठीक नहीं है क्या ?”

“ठीक ही है, तुम जाओ |”

“अम्मा ने कहा कि मैंने जो साड़ी पहनी है उसे आपको दिखा कर आऊं |”

“तुम्हें क्या है बेटा, तुम कुछ भी पहनो अच्छा लगता है |” उसके मौन से उनके अंदर दया भाव उत्पन्न हुआ | “अच्छा अंदर आकर दिखाओ |” लाइट जला कर वह उनके सामने आकर खड़ी हुई | झूले के तख्त पर से उठ कर बैठे, ऊपर उनके जो शर्ट था उसे खींचते हुए उसको देखने लगे |

युवा लड़की, सुंदर, परंतु उनको उसमें पूर्णता नहीं दिखी ? उसके पीछे दूसरा अक्स, दूसरी कन्या...... उस दूसरी को उसके इच्छानुसार जीवन जीने देते, तो वह खुश होकर जीती | आज वह जीवित होती.....

ये..... ये लड़की..... मेरी लड़की जैसे नहीं | उनके हृदय में जम गया था कि वह दूसरी के साथ उन्होंने अनीति की अत: ऐसा हुआ......

छि....... छि........ ये क्या सोच है ! जो घटा उसमें इसका क्या कसूर ये बच्ची क्या करेगी ? अभी ये पेरुंदेवी को दिलासा दिलाने के लिए भगवान ने दया कर इसे भेजा है | लड़की से उनकी नजदीकियां होने से पेरुंदेवी से जो दूरी उन्होंने महसूस की थी, उससे उनके हृदय में दुख तो हुआ था | पर पेरुंदेवी के दुख को थोड़ा सा दूर इस गीतू ने किया था| उनको तो वही प्यारी थी, पेरुंदेवी को ये है |

“ये साड़ी मुझ पर कैसी लग रही है ताता (नाना) ?”

“बहुत सुंदर है |” मैं उसकी परवाह करता हूँ ऐसा उसको लगे ये सोच वे आगे बोले “नई साड़ी ही है ना ? कब लिया था ?”

“जाओ ताता | आप किस दुनिया में रहते हो ? पिछले महीने लिया था ? आप को तो उसी समय दिखा दिया था ?”

“ओ ऐसा.......”

“आज ही तो पहली बार पहनी है ना |”

“ हाँ, देखो तो ? वह सोच कर बोली |” उसके जाने के बाद वे बिना हिले फर्श को फटी फटी आँखों से देखते हुए बैठे रहे | यामिनी के जाने के बाद उन्होंने अपना सामान यहाँ लाकर इसे ही अपना कमरा बना लिया था | यहाँ कमरे के फर्श पर यामिनी, दीवारों पर भी यामिनी | इस कमरे की हर एक चीज पर वही थी |

यहाँ की हवा में उसकी चीखों की प्रतिध्वनि सुनाई देती थी| बाहर अब भी किवाड़ पर ताला लगा है क्या ? यहीं पर वे बस गए ? और वह भी यहीं हमेशा के लिए बस गई | यही जगह, यही कुआं......ये दुख कभी नहीं जाएगा क्या ?

हाल में पेरुंदेवी से गीता बोली “अम्मा मैं जाकर आऊं ? थोड़ा फूल, केला, नारियल लेकर जा रही हूँ |” बोली |

“सहेली के घर जाने के लिए ये सब क्यों ?”

“सहेली के घर और किसी दिन चली जाऊँगी | अभी मंदिर जाने की सोच रही हूँ |”

पेरुंदेवी के पैर ढीले पड़े | उस दिन पूरी रात उसे नींद नहीं आई| सोच-सोच कर दिल घबरा रहा था |

दूसरे दिन सुबह आठ बजे उपमा खाकर काफी पी पेरुंदेवी नहाने चली गई | वहाँ जाकर दरवाजे को बंद कर अपने नकली दाँतो को निकालकर साफ कर तुरंत वापस लगाया | पोपले मुंह को कोई देख न ले इस बात की उसे चिंता रहती थी | दुबारा दांतों को लगाने के बाद जब वह बाहर आई तो सारनाथन पीछे बगीचे की तरफ जा रहेथे | उनके मुंह में भी कुछ ही दांत रह गए थे| परंतु वह असली दांत थे | जो दांत गिर गए तो वहाँ दूसरे नकली दांत लगवाना उन्हें पसंद नहीं था | पोपले मुंह और पिचके हुए गालों की उन्होंने कभी चिंता नहीं करी |

गीता के कमरे में “रिकॉर्ड प्लेयर” चल रहा था | अलग अलग भजन भक्तों की मधुरआवाज में सुनाई दे रहे थे |

पेरुंदेवी अशांत हुई |

“इसे देखो ? थोड़ा रुको ना |” सारनाथन रुके | “क्या है ?”

“मुझे बहुत फिकर हो रही है |”

“किस के बारे में ?”

“गीता के बारे में ही | वह ‘कडगंगारी’ (गाली) तो नाटक कर के चली गई | अब ये.....”

“ये......?”

“यात्रा में जाकर आने के बाद ये ठीक ही नहीं है | अकेले में बैठ कुछ सोचती रहती है | मन में कुछ रख कर घूम रही है........ उसके पास से वह पत्र आया तब ही मुझे शक हुआ मैंने बोला था ना ? भगवान से बोलती है | मंदिर जाती है | मुझे डर लग रहा है |”

“इसमें डर क्या है ? तुम सोच रही हो ऐसी कोई बात गीता के मन में हो तो हमें दूसरी बार भी कोई गलती नहीं करनी चाहिए | इसकी शादी नहीं करनी है बाबू से कह देंगे |”

“अय्यो, ऐसा सब मत बोलो ! फिर से मैं सहन नहीं कर सकती | इसे तो शादी कर खुशी से अपने परिवार में जीवन यापन करना चाहिए.......”

“हैलो अत्थैय !”

रामेशन की आवाज गूंजी | रबर की चप्पलों को बाहर उतार फेंक वह अंदर आया |

पेरुंदेवी ने अपने को संभालते हुए उसका स्वागत किया | घर के पोशाक तहमद व जिब्बा पहन कर आया था तो उसे लगा कि वह आराम से यहां बैठेगा, वह बोली “थोड़ा सा उपमा खाओगे बाबू ?”

“नहीं चाहिए, थैंक्स | गीतू कहाँ है ? जरूरी काम से आया हूँ मैं, मुझे फिर ऑफिस जाना है - -गीतू ?”

“अप्पा है क्या ? ये आई |” रेकॉर्ड प्लेयर को बंद कर पिछली रात सोते समय बनाई दो चोटियों को हिलाते हुए, गीता दौड़ कर आई |

“आइये अप्पा ! गाना सुना ? बहुत बढ़िया था ना ? इसी गायकी की अभी नई एल. पी. आई. है | दस भजनों को उसी ने उनको सेलेक्ट किया है.......”

“ये सब रहने दो गीतू, अब मैं जो बोल रहा हूँ उसे ध्यान से सुनो | आज शाम को तुम्हें देखने एक लड़के के घर वालो को आने का निमंत्रण दिया है........”

“अप्पा !” गीता सदमें खड़ी रही |

“तुम्हें पसंद न हो तो मैं पक्का नहीं करूंगा गीतू | परंतु तुम अपने लिए कैसा लड़का चाहिए ऐसा कुछ विशेष बात तुम्हारे मन में हो तो वह बेहिचक बोल देना | नहीं तो जो कोई भी तुमको पसंद है सोच कर बताओ वरना मैं जो पहले जगह पक्का जो होता है वहीं पक्का कर दूंगा |

“अप्पा !” वह चिल्लाई | अंदर उसके जो भावनाओ का मानसिक द्वन्द चल रहा था उसके कारण उसका शरीर कांपने लगा | पसीने से वह भीग गई उसने अपनी साड़ी से पसीना पोंछा|

“अप्पा !”

“बोलो गीता | तुम्हारे मन में कुछ हो तो बोल दो |”

वह अपनी स्वभाविक स्थिति में आई | अब आखिरी निर्णय का समय आ ही गया है वह समझ गई | उसकी घबराहट दूर हो गई | अब और देर की तो काम खराब होगा ऐसी स्थिति में सच को साहस के साथ कहने के लिए सिर ऊपर किया |

“हाँ अप्पा, मेरे मन में जो है उसे बिना छिपाए मैं बोल रही हूँ |” वह आत्मविश्वास के साथ बोली |

“बोलो |”

“अरी गीतू ! क्या री पावी (गाली) बोल रही है ?” सफ़ेद पड़े चेहरे से पेरुंदेवी बोलकर फर्श पर बैठ गई |

सारनाथन अपने दोहिती के चेहरे को उत्सुकता से देखने लगे | उनकी श्वास तेज चलने लगा | एक बार की गलती से ही परेशान हूँ क्या ऐसा ही एक अवसर फिर आएगा ? बेटी के अंदर से आई ये भी ऐसे ही विचार लेकर उसी की तरह है क्या ? गलती से एक मूर्ति बना शिल्पी ने उसे मिटाया दूसरी मूर्ति बनाई और पिछले में जो कमी थी उसे इसमें भी रख दिया | हे भगवान हमें क्यों तरसा रहा है |

‘मुझे मुक्त कर दो ऐसा गीता बोलेगी क्या ?’

***

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