मन्नू की वह एक रात
प्रदीप श्रीवास्तव
भाग - 21
‘अच्छा जब तुमने बच्चे को गोद ले लिया तो उसके बाद चीनू से किस तरह पेश आई। जबकि तुम्हारे कहे मुताबिक यदि वह जी-जान से न लगता तो तुम्हें बच्चा गोद मिल ही नहीं सकता था।’
‘हां बिब्बो यह बात एकदम सच है। जिस तरह से तरह-तरह की अड़चनें आईं उससे यह क्या मैं भी खुद त्रस्त हो गई थी। हार मान बैठी थी। इन्होंने तो एक तरह से मुंह ही मोड़ लिया था। मगर वह न सिर्फ़ बराबर लगा रहा बल्कि हमें उत्साहित भी करता रहा। यह उसके प्रयास से ही संभव बन पड़ा।’
‘तब तो इसके बाद उसकी मनमानी और बढ़ गई होगी। और तुम उसके एहसान के बोझ तले दबी उससे कुछ कह भी नहीं पाती रही होगी। वह जब चाहता रहा होगा अपनी मनमर्जी से तुम से अपनी हवस मिटाने आ जाता रहा होगा।’
‘बिब्बो तुम्हारी बात कुछ हद तक सही है। पूरी तरह नहीं। वास्तव में बच्चे के आने के बाद एक बड़ा परिवर्तन देखा। यह परिवर्तन एकदम छ़ः-सात महीनों के भीतर ही सतह पर आ गया था। एक तरफ यह थे जिनके व्यवहार को पहले देख कर ऐसा लगता था मानों बच्चों के प्रति इनकी रुचि ही नहीं, वही यह ऐसे बदले कि बिल्कुल बच्चे के ही हो कर रह गए। हालत यह हो गई कि जो व्यक्ति पहले जहां अपने दोस्तों, काम, इधर-उधर समय बिताने में ही मशगूल रहता था जिसे देख कर यह कहना मुश्किल था कि इसकी बीवी होगी, घर होगा वही अब एकदम बदल गया। अब उसकी हर कोशिश इस बात के लिए होती थी कि कैसे सारी दुनिया छोड़ बच्चे को ले लूं। आते ही उसी के साथ लग जाते। उसके लिए इतना सामान लाते, इतना खर्च करते थे कि कई बार मुझे कहना पड़ता '‘पैसे बरबाद क्यों कर रहे हैं।'’ जवाब मिलता '‘कमाता किसके लिए हूं।'’
मैं हैरान थी इस बदलाव से। सोचती जो खुद की जनी संतान होती तो यह क्या करते। और खुद अपने पर तरस आता कि मैं अपने को बड़ा काबिल समझने वाली अपने पति के हृदय को ही न समझ पाई। बच्चा-बच्चा करती न जाने क्या-क्या करती रही पर गहराई से यह जानने की कोशिश न की कि आखिर पति का मन क्या है। बच्चा पाने की ललक में पति के लिए मेरी क्या ज़िम्मेदारी है यह भी भूल गई। और अब मेरा निष्कर्ष कई बार यह भी होता है कि शायद यह भूल ही थी जिसके चलते यह मुझ से विमुख हुए थे। इनके विमुख होने का ही परिणाम था कि मैं भटक गई। नहीं! यह बात तुम्हारे शब्दों में कहूं कि, ‘चीनू जैसे छोकरे के सामने फैल गई ।’
‘तुमको मेरी बात बुरी ज़रूर लगी। मगर मुझे नहीं लगता कि मेरी जैसी किसी बहन की अपनी बहन के इस तरह के काम पर इसके अलावा कोई और बात निकलेगी।’
‘तुम इस बात से क्यों परेशान हो कि मुझे बुरा लगा। यह बात ऐसी है कि बुरा लग जाने पर भी मैं नहीं बोल सकती कि बुरा लगा। इसलिए जो तुम्हारे मन में आए वह कह डालना हिचकना नहीं।’
‘मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है क्या बोलूं क्या न बोलूं । अब जैसे मन में यही बात आ रही है कि जीजा में तो यह परिवर्तन आ गया। लेकिन तुम में क्या परिवर्तन आया। अब तो सब तुम्हारे मन का हो गया था। तुम्हारी तो बांछें खिल जानी चाहिए थीं।’
‘हां ..... पर इस मन का क्या करें। दो-चार दिन तो बांछें खिली रहीं। पर फिर मन में तरह-तरह के प्रश्न उठने लगे। कि इसमें मातृत्व सुख कहां है ? यह मेरा खून कहां है ? दुनिया तो गोद ली हुई संतान ही कहेगी। बड़ा होने पर क्या यह अपने जने हुए बच्चे की तरह हमें अपनाएगा और देवरानी, नंद आदि रिश्तेदारों ने मुंह मोड़ लिया क्या करूं इन सबका। पहले सोचा था कि बच्चे के आने की खुशी में एक फंक्शन करूंगी। उसमें इन सबको खूब उपहार वगैरह देकर, खातिरदारी कर मना लूँगी । पर इन्होंने साफ कहा तमाशा नहीं करना है। और फिर ऐसे प्रश्नों की फेहरिश्त बढ़ती ही गई।
जैसे कि एक दिन अचानक ही दिमाग में आया कि यह पता नहीं किस कुल खानदान का है। इसकी जाति क्या है। क्योंकि अनाथालय ने सिर्फ़ इतना बताया था कि कोई गेट पर छोड़ गया था। इसके अलावा कोई और जानकारी नहीं दी थी। इन फितूरों ने यह बात दिमाग में घर कर दी कि बच्चा लाख मां-मां चिल्लाए लेकिन मैं मां नहीं सिर्फ़ एक बोझ हूं, एक ठूंठ हूं। और कोई भी औरत बिना अपनी कोख से बच्चा जने मां नहीं हो सकती। ऐसा करने वाली औरतें न सिर्फ़ अपने आपको धोखा देती हैं। बल्कि जिस बच्चे को गोद लेती हैं उसे भी धोखा देती हैं।
देखा जाए तो प्रकृति भी यही कहती दिखती है कि जब औरत बच्चे को जन्म देती है तभी उसके स्तनों में दूध उतरता है। गोद लिए हुए बच्चे को कितना ही छाती से चिपकाओ। निपुल उसके मुंह में देकर कितने ही दिनों तक चाहे कितना ही चुसवाओ दूध उतर नहीं सकता है। मैं यह अनुभव की हुई बात कह रही हूं कोई सुनी-सुनाई नहीं। मैंने बच्चे को एक-दो दिन नहीं महीनों अपने स्तन चुसवाए पर वह ठूंठ-ठूंठ ही रहा।
रस या दूध के नाम पर एक बूंद पानी भी न टपका कि मैं संतोष कर लेती। यह सारी बातें मुझे अंदर ही अंदर इतना आहत करने लगीं कि मैं टूट सी गई। अब हर चीज से खीझ होने लगी। बच्चा भी अब पहले की तरह मुझे खींच नहीं पाता था। कई बार तो मन में यह भी आया कि गोद लेकर मैंने गलती की। यह बात और गाढ़ी हो जाती यदि यह भी ऐसा ही सोचते। लेकिन इन सब के उलट यह तो उसी में खो गए थे। सो मैं भी इन्हीं के साथ नत्थी रहती थी। मेरी पीड़ा यह भी थी कि मैं यह बात किसी से कह नहीं सकती थी।
अर्थात् परिणाम यह हुआ कि मैं वह औरत हूं जिसे उसके मन का जीवन में कुछ नहीं मिला। उम्र के साथ यह सारी बातें मैं और भी गहराई से सोचने लगी। सिर्फ़ सोचती ही नहीं तरह-तरह के विश्लेषण करती। तरह-तरह की किताबों को पढ़ने का परिणाम यह था कि विश्लेषण भी तरह-तरह से होता। इस विश्लेषण में कहीं फ्रायड, हैवलॉक एलिस घुस आते तो कहीं वात्स्यायन, कहीं कृष्ण का गीता दर्शन तो कहीं सृष्टिकर्ता भगवान और उनकी सत्ता को नकाराने वाले कपिल मुनि का सांख्य दर्शन। कई बार यह भी सोचती कि हैवलॉक एलिस होते तो कहती तुम यौन विज्ञान के बारे में और शोध करो। तुम्हारा यह सिद्धांत गलत है, बेबुनियाद है कि मां स्तनपान कराते समय यौन सुख का भी अहसास करती है, आनंद लेती है।
सच तो यह है कि स्तनपान के समय मां वात्सल्य सुख, मातृत्व के सुख के सागर में ऐसे डूब जाती है कि बाकी कुछ का उसे पता ही नहीं रहता। वह समाधिस्थ हो जाती है। तुम्हारा शोध कुछ हज़ार पश्चिमी मांओं पर किया निष्कर्ष हो सकता है। वह सब मांओं पर कैसे लागू हो जाएगा, भारतीय मांओं को तुम क्या जानों। इतना ही नहीं सूर, तुलसी, कबीर से लेकर सीमोन यहां तक कि हॉलीवुड की अभिनेत्री एलिजाबेथ टेलर भी आ सामने खड़ी हो जातीं। हां यहां दो नाम और न लूं तो गलत होगा। एक रुबाना दूसरा काकी का। इनके साथ नंदिनी का नाम जुड़ा ही रहता है।
तमाम बातों विश्लेषणों पर रुबाना की बात हथौड़े की तरह पड़ती। '‘ज़िंदगी जीना है तो मस्त होकर जीयो। काटनी है तो बेहतर है कहीं डूब मरो।'’ वह नैतिकता, नीति नियम आदि को बंधन, बेड़ी कहती थी। और कम से कम जब तक रही उसके साथ उसे अपने सिद्धांत से कभी डिगते नहीं देखा। जो चाहा उसने वही किया। मैं सोच-सोच कर खीझ की हद तक कुछ ही महीनों में पहुंच गई। दूसरी तरफ इनका बदला व्यवहार आग में घी का काम कर रहा था।
वैसे भी बरसों हमने एक होकर भी अलग-अलग बिताए थे। इधर कुछ महीनों से रिश्ते कुछ सामान्य हुए तो ये बच्चे की ओर मुड़ गए। पहले मन-मुटाव के चलते नहीं मिलते थे महीनों अब इनके बदले मिजाज ने हमारे बीच दूरी बनाई। हां अब यह ज़रूर था कि यह काफी हद तक मुझे शुरुआती दिनों की तरह फिर चाहने लगे थे। और सबसे बड़ी खुशी यह थी कि बच्चे की चाहत कहो या फिर और कोई वजह इन्होंने अब अलग-अलग महिलाओं में मुंह मारना करीब-करीब बंद कर दिया था।’
‘और तुमने क्या किया था यह तो तुम बता ही नहीं रही हो। जीजा के बारे में बताए जा रही हो।’
‘जो तुम सुनना चाहती हो वही बताने जा रही हूं। यह सच है कि बच्चे को दिलाने के बाद चीनू मुझ पर कुछ ज़्यादा ही अधिकार के साथ धौंस जमाने लगा था। ऐसे बिहैव करता मानो मैं उसकी प्रेमिका या रखैल हूं। वह हर हफ़्ते हमला करने की कोशिश करता, मैं कई बार बचा लेती खुद को लेकिन कई बार बचने की पूरी ईमानदार कोशिश ही न कर पाती और तब मैं टूट कर बिखर जाती। बिखर कर खतम हो जाने के बाद हर बार यही खिन्नता, ये बात मन में आती अरे! मैं क्या कर रही हूं। बहुत गंदा है, घृणित है यह सब, लेकिन फिर अवसर आते ही बिखर जाती।
‘बाप रे बाप ....... । तुम्हारा ये बिखरना और तुम्हारी ये बातें। अरे! इतना घुमाने- फिराने की ज़रूरत क्या है, सीधे-सीधे कहो न कि एक जवान लड़के के साथ अय्याशी कर रही थी। अपने को तबाही के, बरबादी के रास्ते पर ले गई थी। बड़ी किताबें पढ़ने की बात बार-बार कर रही हो मगर उन किताबों में क्या तुमने जो कुछ किया उसका तुम्हें एक भी ऐसा उदाहरण मिला । तुम्हारी तरह हमने किताबें बहुत नहीं बांची पर बुजुर्गों की बातें ज़रूर बहुत सुनी।
कथा-भागवत होता हो तो वहां ज़रूर जाती। अरे! भगवान से खुद को चाहे जैसे ही जोड़े रहे तो आदमी भटकता नहीं। घर पर जब पुरोहित बाबा आकर बाबा से घंटों पूजा-पाठ पर बहस लड़ाते थे तो भी मैं ध्यान से सुनती थी। तुम्हारी बातें सुन कर तो मुझे उनकी बातें याद आती जा रही हैं। औरतों आदमियों को वो एक ही कमरे में सोने से मना करते थे। उनका कहना था साथ लेटने से वासना की आग भड़कती है।
माना यह बात बड़ी कट्टर सोच वाली है। मगर मैं उनकी यह बात शादी के बाद भी जीवन भर गांठ की तरह बांधे हूं कि चरित्र पर कभी दाग न लगे इसके लिए काम-वासना पर नियंत्रण ज़रूरी है। आदमी के क़दम इस पर नियंत्रण न करने पर ही भटकते हैं। चरित्र का पतन होता है।
फिर किसी वेद की बात बताते हुए कहते कि उसमें तो प्रौढ़ावस्था के बाद बल्कि संतानोत्पति के बाद पति को भी पत्नी में मां का रूप देखने का वर्णन है। ऐसा होने से दोनों कामवासना में न डूब कर भगवान के ज़्यादा करीब जाएंगे। चरित्र बढ़िया होगा जीवन में भटकेंगे नहीं। ....... अरे! हां तुम तो बहुत पढ़ी हो। इस बात को ठीक-ठीक बताओ न अगर मालूम हो। इतना तो हमें मालूम है कि ये बात अगर तुम्हें ठीक-ठीक मालूम होगी तो तुम जरूर अपने आप ही तय कर लोगी कि तुम गलत हो और कितनी गलत हो।’
बिब्बो की बात सुन कर मन्नू को लगा कि उसने ज़रूर बहुत नहीं पढ़ा है लेकिन बिब्बो ने अनुभव से जो ज़िंदगी को जाना समझा है अपने विचारों में वह जितनी स्पष्ट है वह उससे कहीं बहुत पीछे है। वेद वाली बात ने उसे अच्छा-खासा झकझोर दिया था। यह इत्तेफाक ही है कि कुछ महीने पहले ही गुरु जी ने एक दिन मां की अहमियत का वर्णन करते हुए घंटों यही बताया था कि हिंदू संस्कृति में मां से बड़ा कोई नहीं। वेद सहित तमाम पौराणिक ग्रंथों में बहुत से उदाहरण देते हुए मां की ज़िम्मेदारी कैसे निभाई जाए इसके साथ-साथ यह भी बताया था कि गृहस्थ आश्रम सबसे महत्वपूर्ण आश्रम है। और ऋग्वेद की एक ऋचा का उल्लेख किया कि उसमें ऋषि सावित्री सूर्या ....... । हां यही नाम तो बताया था उन्होंने कि यह एक महिला ऋषि थीं। और एक बार एक कन्या के विवाह के समय उसे आशीर्वाद देते हुए इंद्र से यह प्रार्थना की कि, ‘‘दशास्यां पुत्रनाधेहि पतिमेकादशम कृधि’’ ‘हे! इंद्र यह स्त्री दस पुत्रों को जन्म दे और पति इसका ग्यारहवां पुत्र हो।’ गुरु जी से यह बात सुन कर सभी सकपका गए थे कि यह कैसी उलटबासी है। पति भी पुत्र हो जाए। सभा में खुसुर-फुसुर की आवाजें आने लगी थीं। खुद उस के मन में आया था कि शायद गुरु जी कुछ भूल गए हैं। खुसुर-फुसुर की आवाज़ों से गुरु जी जान गए थे कि लोग उनकी बातों से भ्रमित हो रहे हैं। फिर हंसते हुए कहा था।
‘'आप लोगों ने इसके मर्म को समझने की कोशिश नहीं की इसी लिए सब उल्टा-पुल्टा अर्थ लगा कर भ्रमित हो रहे हो। फिर उन्होंने विस्तार से अर्थ बताते हुए कहा था कि सीधा मतलब यह है कि वासना के विलोपन के लिए हमारे पूर्वजों ने यह धारणा प्रस्तुत की थी कि जब पति,पत्नी में मां का रूप एवं पत्नी, पति में पुत्र का रूप या भाव से उसे देखेगी तो दोनों में वासना का भाव उत्पन्न नहीं होगा और वह ईश्वर पर ध्यान दे सकेंगे। क्योंकि वासना के विलोपित होते ही व्यक्ति का चरित्र, उसका मन, ईश्वर के प्रति उसकी भक्ति निर्बाध रूप से आगे बढ़ेगी।'' इसके बाद उस दिन गुरु जी ने इस ऋचा का बार-बार सस्वर पाठ कराकर याद करा दिया था। जिससे लोग इस प्रसंग को भूले नहीं। ’
मन्नू ने यह सारी बातें बिब्बो के सामने रख कर नया प्रश्न खड़ा कर दिया कि यहां संतान होने तक तो वासना के तिरोहित होने की बात नहीं है। मेरे तो संतान हुई ही नहीं। तो बिब्बो तपाक से बोली,
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